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पुनर्जन्मवाद / १४१
सबको देव माना गया। चार भूत माने गए – पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु । यदि आकाश को मानें तो पंचभूत हो जाते हैं। हो सकता है— महावीर ने इस पंचभूतवाद का जीव के रूप में व्याख्यान कर दिया अथवा प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व को देव मानने की बात के आधार पर उन्हें जीव मान लिया गया ।
जीवनिकायवाद किसी का अनुकरण नहीं है
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आधुनिक विचारकों के इस चिन्तन में सच्चाई नहीं लगती, उनका चिन्तन बहुत गहरा नहीं लगता । भगवान महावीर ने इन छह निकायों की जो व्यवस्था की, उसका आधार उनका अतीन्द्रिय ज्ञान था। उन्होंने षडजीवनिकाय का साक्षात्कार कर उसका निरूपण किया। उनके निरूपण को आरोपण नहीं कहा जा सकता। उन्होंने प्रत्येक जीवनिकाय को देखा, प्रत्येक जीवों के लक्षणों को देखा और उसके पश्चात यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया। यह साक्षात्कारपूर्वक किया गया वर्गीकरण है । इसका प्रामाण्य है — षडजीवनिकायवाद की विशद व्याख्या । एक पृथ्वीकाय का जीव सचित्त है, सजीव है । मिटटी के एक ढेले में असंख्य जीव होते हैं । वे श्वास लेते हैं, आहार करते हैं, उनका आयुष्य कितना होता है, वे कहां से आते हैं ? मरकर कहां ज्यों हैं ? उनका किन-किन गतियों से आगमन होता है ? किन-किन गतियों से गमन होता है ? उनमें कितना ज्ञान होता है ? कितना कषाय होता है ? आदि-आदि अनेक पहलुओं से प्रत्येक जीवनिकाय के संदर्भ में विस्तृत विश्लेषण किया गया है। इसलिए यह देववाद या प्रकृतिवाद का आरोपण, नकल या अनुकरण नहीं है । यदि केवल देव शब्द के स्थान पर जीव शब्द का प्रयोग होता तो शायद यह प्रश्न हो सकता था किन्तु महावीर ने प्रत्येक जीवनिकाय का विशद एवं वैज्ञानिक विवेचन किया है। इस विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता - षडजीवनिकायवाद, प्रकृतिवाद या आदिमकालीन चिन्तन का ही विकसित रूप है ।
जैनदर्शन में विकासवाद
षडजीवनिकायवाद अनन्त जीवों के परिवर्तन का माध्यम बनता है। इस आधार पर विकासवाद को समझना भी आवश्यक है । डार्विन ने विकासवाद की व्याख्या जैविक विकास के आधार पर की। सांख्यदर्शन में विकासवाद की व्याख्या एक शाश्वत सिद्धान्त के आधार पर हुई है। जैनदर्शन में प्रतिपादित विकासवाद का क्रम बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसमें इन्द्रियों के आधार पर विकास का सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया गया । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय- ये पांच विभाग जीवों
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