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१४२ / जैन दर्शन और अनेकान्त
के क्रमिक विकास के आधार पर प्रस्तुत हुए हैं। इन्द्रिय के आधार पर जीवों का यह वर्गीकरण कहीं भी प्राप्त नहीं है, किसी भी दर्शन में प्राप्त नहीं है। पहली श्रेणी के जीव वे होते हैं, जिनमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय का ही विकास होता है। दूसरी श्रेणी के जीव वे होते हैं, जिनमें दो इन्द्रियों का विकास होता है— स्पर्शन और रसन — त्वचा, और जीभ । तीसरी श्रेणी के जीवों में तीन इन्द्रियों का विकास होता है - स्पर्शन, रसन, घ्राण । चौथी श्रोणी के जीवों में चार इन्द्रियों का विकास हो जाता है— स्पर्शन, तसन, घ्राण और चक्षु | पांचवी श्रेणी के जीवों में पांचों इन्द्रियां विकसित होती है— स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इस आधार पर विकासवाद को बहुत व्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है ।
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विकास की न्यूनतम आवश्यकता
जीव में पहले एक इन्द्रिय का विकास होता है, स्पर्शन इन्द्रिय का विकास होता है । यह विकास की न्यूनतम आवश्यकता है। दूसरी अवस्था में जीभ का विकास होता है यानी वाणी का विकास हो जाता है, बोलने की क्षमता उद्भूत हो जाती है । एकेन्द्रिय जीव बिल्कुल मूक होते हैं, द्वीन्द्रिय जीव में चखने और बोलने की क्षमता आ जाती है । अंगली अवस्थाओं में क्रमश: एक-एक इन्द्रिय का विकास होता है— गंध शक्ति का विकास, दर्शन शक्ति का विकास और श्रवण शक्ति का विकास । सुनने की क्षमता होने पर सामाजिक जीवन का पूर्णरूप बनता है। सामाजिक जीवन की दो विशेषताएं हैं - बोलना और सुनना । अगर बोलने और सुनने की बात नहीं होती तो समाज का विकास नहीं होता। समाज का विकास हुआ है वाणी के आधार पर । जिनमें बोलने की क्षमता नहीं है, सुनने की क्षमता नहीं है, उनका समाज नहीं
बनता ।
विकास का वैज्ञानिक क्रम
पंचेन्द्रिय जीवों को दो भागों में विभक्त किया गया— समनस्क और अमनस्क । कुछ पंचेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जिनमें मन का विकास नहीं होता । उनमें इंद्रियां पांचों होती हैं, किन्तु मन विकसित नहीं होता । कुछ पंचेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनमें मन का विकास होता है । विकास का व्यवस्थित क्रम है— एक इन्द्रिय से चलें और मानसिक विकास की भूमिका तक पहुंच जाएं। इन्द्रिय का विकास, वाणी का विकास और मानसिक विकास — यह विकास का एक वैज्ञानिक क्रम है। मानसिक विकास और पांच इन्द्रियों के आधार पर किया गया जीवों का वर्गीकरण एक विकास-क्रम
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