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स्याद्वाद और सद्वाद / ८१ नहीं जानते, केवल पर्यायात्मक जगत् को जानते हैं। पर्याय द्रव्य का बदलता हुआ स्वरूप है। हमारा दृश्य जगत् पर्याय का जगत् है । पदार्थ की विविधता काल्पनिक नहीं है। वह यथार्थ के सूर्य की रश्मियां हैं, जिनका संकोच और विस्तार होता रहता है। प्रकाश, ताप, विद्युत्-ये स्कन्ध के लक्षण हैं। इनके सभी नियम जीव-जगत् पर लागू नहीं होते। उनके अपने नियम हैं। इसलिए विज्ञान के नियमों से जीव जगत् की व्याख्या नहीं की जा सकती । दर्शनशास्त्र में सामान्य और विशेष-दो प्रकार के गुण माने जाते हैं. सामान्य गुण सब द्रव्यों से मिलते हैं । विशेष गुण द्रव्य की अपनी विशेषता होती है । चैतन्य जीव द्रव्य की अपनी विशेषता है। वह अजीव में नहीं मिलता अत: चैतन्य नियमो के आधार पर जीव की ही व्याख्या की जा सकती है। उनसे अजीव की व्याख्या नहीं की जा सकती। द्रव्य के जितने नियम हैं उतने ही बोध के मार्ग, दृष्टि के कोण और अभिव्यक्ति के प्रकार है। सूक्ष्म और स्थूल जगत्
जीव और पुद्गल का जगत् सूक्ष्म और स्थूल-इन दो भागों में विभक्त है। सूक्ष्म जीव समूचे विश्व में व्याप्त है और स्थूल जगत् विश्व के एकछोटे से हिस्से में विद्यमान है। स्थूल जीवों को हम देख सकते हैं। हमारा चक्षु त्रिआयामी विश्व को जान सकता है। लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई-स्थूल जगत् का अस्तित्व इन तीनों आयामों में है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने चतुर्थ आयाम की खोज की। उसमें विद्यमान जगत् हमारे लिए दृश्य नहीं बनता। इन्द्रिय चेतना का ज्ञान सापेक्ष है। उसके द्वारा वस्तु के कुछेक स्थूल पर्याय जाने जा सकते हैं, शेष स्थूल पर्याय और सभी सूक्ष्म पर्याय उसके लिए अगम्य रहते हैं।
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