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२२ / जैन दर्शन और अनेकान्त जाती है। कारण कार्य के अनुरूप ही होता है। कारण अव्यक्त रहता है, कार्य व्यक्त होता है । यदि पूछा जाए–'घास में घी है या नहीं?' तो उत्तर होगा—'ओघ' शक्ति की दृष्टि से है किन्तु ‘समुचित' शक्ति की दृष्टि से नहीं है। पुद्गल द्रव्य में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये चारों मिलते हैं। गुलाब के फूल में जितनी सुगंध है, उतनी ही दुर्गन्ध है। किन्तु उसमें सुगन्ध व्यक्त है और दुर्गन्ध अव्यक्त । चीनी जितनी मीठी है, उतनी ही कड़वी है किन्तु उसमें मिठास व्यक्त है और कड़वाहट अव्यक्त । सड़ान में जितनी दुर्गन्ध है, उतनी ही सुगन्ध छिपी हुई है। परिवर्तन का चक्र
राजा जितशत्रु नगर के बाहर जा रहा था। मंत्री सुबुद्धि उसके साथ जा रहा था। एक खाई आई। उसमें जल भरा था। वह कड़े-करकट से गंदा हो रहा था। उसमें मृत पशुओं के कलेवर सड़ रहे थे। दूर तक दुर्गन्ध फूट रही थी। राजा ने कपड़ा निकाला और नाक को दबा लिया। 'कितनी दुर्गन्ध आ रही है। राजा ने मंत्री की ओर मुड़कर कहा । मंत्री तत्त्ववेत्ता था। उसने कहा-'महाराज ! यह पुद्गलों का स्वभाव है।' उसने राजा के भाव की तीव्रता को अपनी भावभंगिमा से मंद कर दिया। बात वहीं समाप्त हो गई। कुछ दिन के बाद मंत्री ने राजा को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन के मध्य राजा ने पानी पिया। अत्यन्त निर्मल, अत्यन्त मधुर और अत्यन्त सुगन्धित । राजा बोला—'मंत्री ! यह पानी तुम कहाँ से लाते हो ! इच्छा होती है कि एक गिलास और पीऊं । मैं तुम्हें अभिन्न मानता हूं किन्तु तुम मुझे वैसा नहीं मानते । तुम इतना अच्छा पानी पीते हो, मुझे कभी नहीं पिलाते।' मंत्री मुस्कराया और बोला-'महाराज, यह पानी उस खाई से लाता हूं, जहां आपने नाक-भौं सिकोड़ी थी और कपड़े से नाक ढकी थी।' राजा ने कहा—'यह नहीं हो सकता। यह पानी उस खाई का कैसे हो सकता है !' मंत्री अपनी बात पर अटल रहा। राजा ने उसका प्रमाण चाहा। मंत्री ने उस खाई का पानी मंगवाया। राजा की देख-रेख में सारी प्रक्रिया चली और वह पानी वैसा ही निर्मल, मधुर और सुगंधित हो गया जैसा राजा ने मंत्री के घर पीया था। . केवल पानी ही नहीं, हर वस्तु बदलती है। परिणमन का चक्र चलता है, वस्तुएं बदलती रहती हैं। 'ओघ' शक्ति की दृष्टि से हम किसी पौगलिक पदार्थ को काला या पीला, खट्टा या मीठा, सुगंधमय या दुर्गन्धमय, चिकना या रूखा, ठंडा या गर्म, हल्का या भारी, मृदु या कर्कश नहीं कह सकते। एक नीम के पत्ते में वे सारे धर्म विद्यमान हैं जो दुनिया में होते हैं। किन्तु 'समुचित' शक्ति की दृष्टि से ऐसा नहीं है।
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