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________________ ६४ / जैन दर्शन और अनेकान्त बहुवचन का वाच्य-अर्थ एकवचन का वाच्यार्थ नहीं बनता है । 'मनुष्य है' और 'मनुष्य है'-ये दोनों एक ही अर्थ के वाचक नहीं बनते । एकत्व की अवस्था बहुत्व की अवस्था से भिन्न है। इस प्रकार काल, कारक, रूप का भेद अर्थभेद का प्रयोजक बनता है। ____ यह दृष्टि शब्द-प्रयोग के पीछे छिपे हुए इतिहास को जानने में बड़ी सहायक है। संकेत-काल में शब्द, लिंग आदि की रचना प्रयोजन के अनुरूप बनती है। वह रूढ़ जैसी बाद में होती है । सामान्यत: हम ‘स्तुति' और 'स्तोत्र' का प्रयोग एकार्थक करते हैं किन्तु वस्तुत: ये एकार्थक नहीं हैं। एकश्लोकात्मक भक्तिकाव्य ‘स्तुति' और बहुश्लोकात्मक-भक्तिकाव्य ‘स्तोत्र' कहलाता है। 'पुत्र' और 'पुत्री' के पीछे जो लिंग-भेद की, 'तुम' और 'आपके' पीछे जो वचन-भेद की भावना है, वह शब्द के लिंग और वचन-भेद द्वारा व्यक्त होती है। शब्दनय शब्द के लिंग, वचन आदि के द्वारा व्यक्त होने वाली अवस्था को ही तात्त्विक मानता है। एक ही व्यक्ति को स्थायी मानकर कभी 'तुम' और कभी 'आप' शब्द से संबोधित किया जा सकता है। किन्तु नय उन दोनों को एक ही व्यक्ति स्वीकार नहीं करता। 'तुम' का वाच्य व्यक्ति लघु या प्रेमी है, जबकि 'आप' का वाच्य 'गुरु' या सामान्य है। समभिरूढ़ ___एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नहीं होता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है। स्थूल दृष्टि से हम अनेक वस्तुओं के मिग या सहस्थिति को एक वस्तु मान लेते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वरूप में होती है। जैन धर्म की भाषा में अनेक वर्गणाएं और विज्ञान की भाषा में अनेक गैसें आकाश-मण्डल में व्याप्त हैं। किन्तु एक साथ व्याप्त रहने पर भी वे अपने-अपने स्वरूप में हैं । समभिरूढ़ का अभिप्राय यह है कि जो वस्तु जहां आरूढ़ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए। यह दृष्टि वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए बहुत उपयोगी है। स्थूलदृष्टि में घट, कुट, कुम्भ का अर्थ एक है। समभिरूढ़ इसे स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार 'घट' शब्द का ही अर्थ घट वस्तु है । कुट शब्द का अर्थ घट वस्तु - १. स्तुतिश्चैकश्लोकप्रमाणा स्तोत्रं तु बहुश्लोकमानम्। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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