________________
१४६ / जैन दर्शन और अनेकान्त सरल होता है। जब बीज बरगद बन जाता है तब उसे उखाड़ना बहुत कठिन हो जाता है। सारे दुःखों का बीज है-राग और द्वेष । जो इस तथ्य को समझ लेता है, वह इन बीजों को नष्ट करने के लिए प्रयलशील बनता है, इन बीजों को नष्ट करने की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है। ___यह तत्वज्ञान, जीव के विस्तार का ज्ञान, दुःखवाद का ज्ञान, भवभ्रमण या चतुर्गति पर्यटन का ज्ञान आवश्यक है, जिससे हम मूल बीज को पकड़ सकें जौर धर्म की मूल धारणा को पकड़ सकें। जैनदर्शन ने धर्म की जो आध्यात्मिक धारणा दी है, वह संप्रदायातीत है। धर्म की जो धारणा आध्यात्मिक नहीं होती, समाज प्रतिष्ठित होती है, वह संप्रदायातीत नहीं हो सकती। उसके साथ सम्प्रदाय या जाति का बंधन बना रहेगा। वह जाति और सम्प्रदाय से मुक्त होकर कभी आगे नहीं बढ़ सकती। जो धर्म आध्यात्मिक धारणा पर अवस्थित होता है, उसके साथ जाति या सम्प्रदाय का बंधन नहीं होता। इसीलिए जैनदर्शन ने जातिवाद को अतात्त्विक बताया, सम्प्रदाय के बंधन को स्वीकार नहीं किया। अध्यात्म की भूमिका पर जैनधर्म
भगवान महावीर ने कहा—एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोड़ देता है किन्तु धर्म को नहीं छोड़ता। वह धर्म को निरन्तर बनाए रखता है, किन्तु सम्प्रदाय को छोड़ देता है। एक व्यक्ति ऐसा होता है, जो धर्म को छोड़ देता है किन्तु सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता। ये विकल्प तभी सम्भव हैं, जब धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं हो । यदि धर्म और सम्प्रदाय एक होते तो ये विकल्प नहीं बनते । धर्म और सम्प्रदाय को एक मानने का अर्थ है—जहां सम्प्रदाय है वहां धर्म है और जहां धर्म है वहां सम्प्रदाय है। जैनधर्म सम्प्रदायातीत है, जातिवाद से अतीत है इसलिए वह शुद्ध अध्यात्म की भूमिका पर अवस्थित धर्म है।
जीवनिकायवाद के सिद्धान्त से धर्म की मूल धारणा–अध्यात्मवाद तक पहुंचा जा सकता है। किस प्रकार संसार का विकास होता है? किस प्रकार से उसको सीमित और संकुचित किया जा सकता है? उसको समझने की प्रक्रिया बहुत आध्यात्मिक है। यदि वह प्रक्रिया प्राप्त हो जाती है तो हम अपनी आत्मा को उच्च विकास की भूमिका तक ले जा सकते हैं।
____Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org