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________________ ४२ / जैन दर्शन और अनेकान्त अपेक्षा से नहीं है, इस स्वीकृति में अनेकान्त की नयी स्थापना क्या है ? इसे एकान्तवादी भी स्वीकार कर लेंगे। पर का अर्थ दूसरा द्रव्य नहीं, किन्तु दूसरा पर्याय है। इस आधार पर अस्तित्व और नास्तित्व—दोनों एक द्रव्य में विद्यमान हैं। जल में पर्याय बदलते रहते हैं। वर्तमान का पर्याय सद्भाव होता है, भूत और भविष्य का पर्याय असद्भाव। जल का अपने सद्भाव पर्याय की अपेक्षा अस्तित्व है और अपने असद्भावपर्याय की अपेक्षा उसका नास्तित्व है । इस प्रकार अस्तित्व और नास्तित्वदोनों जलगत हैं । अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों वक्तव्य नहीं हैं इसलिए वे अवक्तव्य भी हैं । अवक्तव्य के विषय में अनेक परिकल्पनाएं की जाती हैं। किन्तु इसका मूल अर्थ भगवती में स्पष्ट है। प्रश्न पूछा गया-'भंते ! द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है? अनात्मा है? अथवा अवक्तव्य है ? उत्तर दिया गया—'वह स्व की अपेक्षा आत्मा है । पर की अपेक्षा आत्मा है । सद्भाव पर्याय और असद्भाव पर्याय—दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य है।' द्रव्य केवल भेद... केवल अभेद... भेद-अभेद... है केवल भेद और केवल अभेद का निरूपण सापेक्ष दृष्टि से ही हो सकता है। स्यात् भेद एव-किसी दृष्टि से भेद ही है। स्यात् अभेद एव—किसी दृष्टि से अभेद ही है। स्वर्ण-भेद (विशेष) जल-भेद (विशेष) .पुद्गला अभेद (सामान्य) ......... पुद्गल वस्तु-सत्य पुद्गल है। स्वर्ण और जल सापेक्ष द्रव्य हैं। स्थायित्व और परिवर्तन-नियम कोई पूर्व परिचित व्यक्ति हमारे सामने आता है, तब हम कहते हैं—'यह वही है।' बरसात होते ही भूमि अंकुरित हो उठती है, तब हम कहते हैं—'हरियाली उत्पन्न Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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