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११६ / जैन दर्शन और अनेकान्त अपना विकास करते-करते पंचेन्द्रिय तक पहुंच जाता है, मनुष्य तक पहुंच जाता है, मुनि बन जाता है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के पथ पर चलते-चलते वह वीतराग बन जाता है, केवली बन जाता है, मुक्त आत्मा भी बन जाता है । यह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का अधिकार प्रत्येक आत्मा को उपलब्ध है। प्रत्येक आत्मा इस उत्क्रान्ति के आधार पर आत्मा से परमात्मा बन सकती है। अधिकार है परिवर्तन एवं प्रगति का
प्रश्न होता है—आज मनुष्य जैसा है, क्या वह वैसा ही रहे? या अपने आपको बदल सके? जैनदर्शन ने व्यक्ति को परिवर्तन का अधिकार दिया है। उसने कहा-हर आदमी बदल सकता है, परिवर्तन कर सकता है। अगर परिवर्तन न हो तो व्यक्ति की सारी साधना, तपस्या व्यर्थ बन जाए। इस बात में विश्वास नहीं किया जा सकता कि जो जैसा है, वह वैसा रहेगा। जिसका स्वभाव जैसा है, वैसा ही रहेगा। ऐसा वही मान सकता है, जिसने परिवर्तन को अस्वीकार किया है।
जैनदर्शन परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है इसलिए उसमें तपस्या और साधना का मूल्य है । यदि उन्हें अस्वीकार किया जाए तो तपस्या और साधना का मूल्य समाप्त हो जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ, अभिमान, माया, भय, काम-वासना आदि-आदि जितने मोहकर्म के विकार हैं उन सबको बदला जा सकता है, उनमें परिवर्तन किया जा सकता है। यह व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है । इसी आधार पर साधना की पद्धति का विकास हआ। तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय—इनका विकास परिवर्तन के सिद्धान्त के आधार पर हुआ है। यह परिवर्तन का सिद्धान्त नहीं होता तो साधना और तपस्या का कोई अर्थ नहीं होता। ___एक व्यक्ति उपवास करता है। यदि वह उपवास के द्वारा कुछ नहीं बदलता है तो उपवास करने की सार्थकता क्या होगी? यदि स्वाध्याय करता है और स्वाध्याय करने से कोई चैतसिक परिवर्तन नहीं होता है तो स्वाध्याय की सार्थकता नहीं हो सकती। ध्यान, स्वाध्याय और तपस्या-इन सबका विकास परिवर्तन के सिद्धान्त के आधार पर हुआ है। परिवर्तन का आधार
परिवर्तन का आधार है-संकल्प की स्वतंत्रता। इस स्वतंत्रता ने ऐसा मार्ग दिया, जिसमें न रूढ़िवाद के पनपने की जरूरत है, न निराशावाद के पनपने की जरूरत है और न पलायन की जरूरत है। कोई भी जैन यदि रूढ़िवादी होता है तो
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