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२० / जैन दर्शन और अनेकान्त होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की इन्द्रिय-ज्ञान के स्तर पर व्याख्या नहीं की जा सकती। जीव और पुद्गल के पारस्परिक निमित्तों से जो स्थूल परिवर्तन घटित होता है, हम उस परिवर्तन को देखते हैं और उसके कार्य-कारण की व्याख्या करते हैं। कोई आदमी बीमारी से मरता है, कोई चोट से, कोई आघात से और कोई दूसरे के द्वारा मारने पर मरता है। बीमारी नहीं, चोट नहीं, आघात नहीं और मारने वाला भी नहीं, फिर भी वह मर जाता है । जो जन्मा है, उसका मरना निश्चित है । मृत्यु एक परिवर्तन है। जीवन में उसकी आन्तरिक व्यवस्था निहित है। मनुष्य जन्म के पहले क्षण में ही मरने लग जाता है। जो पहले क्षण में नहीं मरता, वह फिर कभी नहीं मर सकता। जो एक क्षण अमर रह जाए, फिर उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। बाहरी निमित्त से होने वाली मौत की व्याख्या उससे कठिन है किन्तु पूर्ण स्वस्थ दशा में होने वाली मौत की व्याख्या वैज्ञानिक या अतीन्द्रिय ज्ञान के स्तर पर ही की जा सकती है। सृष्टि का परिवर्तन उसके अस्तित्व में निहित है
कुछ दार्शनिक सृष्टि की व्याख्या ईश्वरीय रचना के आधार पर करते हैं किन्तु जैन दर्शन उसकी व्याख्या जीव और पुद्गल के स्वाभाविक परिणमन के आधार पर करता है। सृजन, विकास या प्रलय-जो कुछ भी घटित होता है, वह जीव और पद्गल की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं से घटित होता है। काल दोनों का ही साथ देता है। व्यक्त घटनाओं में बाहरी निमित्त भी अपना योग देते ही हैं। सृष्टि का अव्यक्त और व्यक्त–समग्र परिवर्तन उसके अपने अस्तित्व में स्वयं सन्निहित है।
परिणमन सामुदायिक और वैयक्तिक दोनों स्तर पर होता है । पानी में चीनी घोली और वह मीठा हो गया। यह सामुदायिक परिवर्तन है। आकाश में बादल मंडराए और एक विशेष अवस्था का निर्माण हो गया। भिन्न-भिन्न परमाणु स्कन्ध मिले
और बादल बन गया। कुछ परिणमन द्रव्य के अपने अस्तित्व में ही होते हैं । अस्तित्वगत जितने परिणमन होते हैं, वे सब वैयक्तिक होते हैं। पांच अस्तिकाय (अस्तित्व) हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में स्वाभाविक परिवर्तन ही होता है। जीव और पुद्गल में स्वाभाविक और प्रायोगिक—दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इनका स्वाभाविक परिवर्तन वैयक्तिक ही होता है। किन्तु प्रायोगिक परिवर्तन सामुदायिक भी होता है । जितना स्थूल जगत् है वह सब इन दो द्रव्यों के सामुदायिक परिवर्तन द्वारा ही निर्मित हैं। जो कुछ दृश्य है, उसे जीवों ने अपने शरीर के रूप में रूपायित किया है। इसे इन शब्दों में भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि हम जो कुछ देख रहे हैं वह या तो जीवच्छशरीर है या जीवों द्वारा त्यक्त शरीर है।
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