Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्मकमल-जैनग्रन्थमाला नवम पुष्पम् (९) देवद्रव्यादिसिद्धि। अपरनाम बेचरहितशिक्षा । प्रसिद्धकर्तामाणसानिवासी शा. सरूपचंद दोलतराम सेक्रेटरी अंबालाल जेठालाल शाह, Jai Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपाद पद्मभ्यो नमो नमः ।। ।। देवद्रव्यादिसिद्धि। अपरनाम बेचरहितशिक्षा ॥ नत्वा श्रीमन्महावीरं, कृत्वा सद्गुरुवन्दनम् । सिद्धयै श्रीदेवव्यादे-गुम्फयते पुस्तकं मया ॥ १ ॥ प्रारभारात् प्राच्यपापानां, वणिजा द्विचरेण हा । दारुणाऽसत्यवादेन, जैनवर्गो विमोहितः ।। २ ।। तव्यामोहविनाशार्थ, भाविनां रक्षणाय च । श्रीमद्भिः कमलाचायः, प्रेरितेन प्रयत्यते ॥ ३ ॥ मि य सज्जनो ! इस अपार संसारमागरमें अनादिकालसे परिभ्रमण करते हुए जीवोंने कितना कष्ट प्राप्त किया है उसकी गणना भी नहीं हो सकती। यदि उन दुःखोंको मालूम करने लायक कोई अतीन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न होतो निश्चय हो १-वेचरेण. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) सकता है कि हा ! हा! ! एक अज्ञानताके कारण जगद्वासी जीव कितने कठोर दुःखके भागी बन चुके हैं । कितने ही कालतक नरककी असह्य पीड़ा परमाधामीके हाथसे या पारस्परिकविग्रहसे रो रो कर सहन करनी पड़ी। वहांकी भूमिकी उष्णता सहन करनी कुछ सहेल बात नहीं है । यहां जोरसे जलते हुए अग्निके कुंडमें पांव रखना और वहांकी जमीन पर पांव रखना समान है यानी क्षेत्रके स्वभावसेही वहांकी- नरककी जमीन इस प्रकार उष्ण रहती है । ऐसी ज़मीनमें असंख्य वर्षा तक पड़े रहना क्या कम दुःख है ? वहांकी क्षुधाने तो सीमा ही छोड़दी! ढाईद्वीपके अन्नको एक जीव खालेव तो भी क्षुधा शमन नहीं होवे !! इसीतरह शीत व्यथाका भी पार नहीं । वहांके नारकको खूब बरफ़ जमे हुए स्थानपर लेजाएं और वहांपर उसको सुलाकर उसको बरफ़से चारों ओर ढकदेवें तब वह मानता है कि मैं कुछ उष्णतामें आया हूँ । अब आप विचार कीजिए कि वहां किस दर्जहकी शीत व्यथा सिद्ध हुई । मतलब कि नरकमें भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, दुर्गंध, अंधकार, कटाकटी और लडालड़ी ऐसी चलती है कि वहांपर एक क्षणभर भी जीवको सुख नहीं मिलता । तिर्यचकी योनिमें निगोदअवस्थामें अव्यक्तदुःखका पार नहीं है। एक श्वासमें सतरहसे अधिक जन्म मरण करने पड़ते हैं। बादर तथा सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, साधारण प्रत्येक वनस्पतिकी योनियोंमें भी बड़ी भारी वेदना सहन करनी पड़ती है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) न्द्रिय जीवोंको अन्तरंतर्महूर्तमें क्षुधावेदनी सताती है । और गर्मी सर्दी आदि अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । पञ्चेन्द्रियतियेच योनिमें कभी गधा बनकर उतना भार ढोना-उठाना पड़ता है कि ऊपरका चमड़ा भी उतर जाता है और चौमासेकी मोसम में वर्षादके कारण उसमें कीड़े आदि पड़नेसे भारी वेदना सहनी पड़ती है । इसीतरह सड़े हुए कुत्ते कितना दुःख पाते हैं, जो किसीसे भी अज्ञात नहीं | उन्हें अपने घर के आंगन में भी बैठने नहीं देते । मतलब कि अति दुःखदायक नरक और तिर्यंच गतिके अन्दर अनन्तदुःख जीवने सहन किये हैं और मानव तथा देवयोनि में भी अनेक कायिक तथा मानसिक व्यथाएं होती हैं । गर्भावासका भी दुःख बड़ा भयङ्कर है और मरनेकी वेदना भी कम नहीं है । आघि व्याधि तथा दारिद्र्यादि से पीड़ित प्राणी जहां तहां देखने में आते हैं । गरज़ कि सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है, इस दुःखमय संसारका मुख्य कारण कर्म है और कर्मका बन्ध चार हेतुओं से होता है जिनमें मिध्यात्व मुख्य हेतु हैं | जबतक मिथ्यात्त्वका ज़ोर हो तबतक जप, तप, क्रियाकाण्ड, भस्म पर लिंपन या आकाशमें चित्रामकी तरह सर्व निष्फल हैं । इसलिए प्रथम मिध्यात्वको त्यागकर सम्यक्त्वको प्राप्त करना चाहिए । देवाधिदेव जिनेश्वरदेवको देवरूप और पञ्चमहात्रतधारी मुनिको गुरुरूप और वीतरागप्ररूपित दयामय धर्मको ही धर्मरूप मानने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। कितनेक महापुण्योदयसे सम्यक्त्वको पाकर भी पापोदयसे नास्तिकजनों के 1 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) तहवासमें फंसकर उसे खोदेते हैं और अनन्तकाल तक दुःखमय संसारमें ठोकरें खाया करते हैं । सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जानेके कारण नास्तिकलोक पढने लिखने बोलने आदिक जितनी क्रियाएं करते हैं वे सब तमस्तरण जैसी हैं, क्योंकि मिथ्यात्त्वकी करणी अंधकारमय होनेसे तमस्तरणके रूपकसे जूदी नहीं होसकती। तो भी खूबी यह है कि आप अंधेरा तैरते हुए भी " जलमें तैरते हैं" ऐसा मान बैठते हैं। और जो समक्त्वकी क्रिया वाले दरअसल संसार जलधि तैर रहे हैं, वे तमस्तरण करते मालूम पड़ते हैं । यही उन मिथ्यामतिमोहितोंकी जल्दी दुर्गतिमें जानेकी निशानी है। जैसे कोई कालकी सीमाको पहुंचाहुआ मनुष्य श्वेतवस्त्रको भी लाल देखता है, अथवा कमला-पीलिया रोगग्रसित श्वेतको भी पीत ही कहता है । इसीतरह आज कल कितनेक मिथ्यात्वमोहित मनुष्य जो सूत्रविहित शुद्धमार्ग है उसको तमस्तरण ( अंधेरा तेरना) बताते हैं और स्वकपोलकल्पित सूत्र विरुद्ध असत्यमार्ग है उसको जलतरण मानते हुए अपने मुंहसे मियां मिठू बनते हैं। उदाहरणार्थ देखिये कि संवत १९७५ वैशाख वदि ११ रविवारके जैन' पत्रमें बेचरदासनामक किसी वजकर्मी व्यक्तिने अनन्तसंसारबर्द्धक "तमस्तरण " शीर्षक एक कलेख लिखकर महावीरप्रभुके निर्वाण बाद दोसो बर्षके पीछेसे लेकर आजतक दशपूर्वधर श्रीवज्रस्वामी, तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता श्रीउमास्वाति महाराज, पन्नत्रणासूत्रकार श्रीश्यामाचार्य महाराज, विक्रमनृपप्रबोधक , श्रीसिद्धसेन दिवा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) कर, पूर्वधर श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण, आचार्य मल्लवादि, श्रीहरिभद्रसूरीश्वरादि जितने प्रभावक आचार्य हुए हैं और महाराजा सम्पतिराजा, कुमारपाल महाराज. विमलशाह, वस्तुपाल, तेजःपाल, पेथड़, शत्रुञ्जयआदितीर्थोद्धारक जितने प्रभावक श्रावक हुए हैं उन सबको अंधेरा तैरनेवाले जाहिर करके अपनी अकलकी कीमत बतलाई है, मुझे अफ़सोसके साथ बिचारे 'बेचरदासकी' कुबुद्धि पर दया आती है और उसकी कुबुद्धिको धिक्कार देते हुए मुझे कहना पड़ता है कि हाय ! इस दुष्ट बुद्धिने बेचारे बचरदास की आत्माको अंध नरकावनीमें पहुंचाने का प्रयत्न किया है, और जैनपत्रके एडिटरने भी पूर्वोक्त शासनप्रभावकपवित्र आचार्योंका एवम् श्रावकोंका तमस्तरणसूचक " तमस्तरण " नामक लेखको प्रकट करके उसने पवित्र जैननामको ही कलङ्कित नहीं किया बल्कि मनुष्य अपने उदरपूरणके लिये नीचसभी नीच कर्म करने पर उद्यत होजाता है यह साबित कर दिखाया है, उसने “ जैन ” पत्रको जैनाभास और जैनसमाजके लिए सहायक नहीं किन्तु निरर्थक कर दिखाया है और साथ ही अपने आपको अधोगतिमें पहुंचनेका लोंकोको भान कराया है, उसने और भी शासन विरुद्ध कार्य किये हैं परन्तु यहां अप्रासंगिक होनेसे नहीं लिखे जाते, अफसोस है कि बेचरदासने शासनप्रभावक आचार्योंकी निन्दक अपनी कुबुद्धि को रोकनेका-अपने हृदय से जूदा करनेका.. जरा भी प्रयत्न नहीं Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया और उस नरकगामिनी बुद्धिक वशीभूत होकर सूत्रमार्ग पर चलनेवाले पूर्वधर आचार्यादिकोंकी निन्दामें ' तमस्तरण ' नामक नीचरूपक लगा दीया है कि कोई भी तटस्थ बुद्धिमान् उस लेखको देखकर बेचरदासकी वैरिणी नीच बुद्धिको धिक्कार दिये बिना कभी न रहेगा, हां, बेशक अभव्य या दुर्भव्य जीव उस लेखको देखकर खुश हुए होंगे, बेचरदासने कुबुद्धिसे प्रेरित होकर पूर्वाचार्योकी निन्दा करते समय तो अवश्य आनन्द माना होगा पर उसका फल भवभ्रमण करते हुए मिलेगा तब वह दुःख होगा कि जिसकी सीमा ही नहीं है। हमको वेचरदासके आगन्तुक दुःख पर बड़ा त्रास आता है पर बेचरदासको स्वयम् आगन्तुकदुःखका भय क्यों नहीं हुआ ? मालूम होता है कि मिथ्यात्व मदिराके नशेमें चकचूर होनेवाले बेचरदासको स्वयम् भान नहीं होसकता । जैसे शराबके नशे में चकचूर बने हुए शराबीको अनेक पुरुषोंका लत्ताप्रहार और मुंहमें गिरते हुए कुत्तों के पेशाका भी भान नहीं रहता। भव्यप्राणिगण : वेचरदासने "तमस्तर" नामक लेखमें लिखा है कि 'महावीरना निर्वाणने प्रायः बेत्रण के चार पांच सईका जेटलो वखत वीते जैनसमाजना विशेष भागे तमस्तरण आरंभ्यु हतुं अने ते ठेठ अत्यार सुधी चाल्युं आव्युं छे" इस लेख से श्रुतधर आर्यसुहस्ति महाराज पञ्चमारक में भी जिनकल्पकी तुलनाकारक श्रीमान् आर्यमहागिरी, युगप्रधान कालिकाचार्य महाराज, श्रीमान् शासनप्रभावक खपुटाचार्य, कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) महाराज, श्रीमतअकब्बरनृपप्रबोधकश्रीहीरविजयसूरीश्वरजी, न्यायविशारदशतग्रंथप्रणेता श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्याय आदि महापुरुषभी तमस्तरण करनेवाले-अंधेरा तैरनेवाले जाहिर होते हैं । हाय ! हाय ! ! वह हाथ क्यों न टूट पड़े जो पूर्वधरोंकी निंदामय वाक्य लिखनेमें सहायक हुए, वह शरीर निन्दक लेख लिखे जानेके पहले ही क्यों न मनुष्ययोनि छोड़ गया कि जिससे पूर्वधर आचार्यो-महात्माओंकी निन्दामय प्रवृतिका कारण बना। इससे तो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय होता तो अच्छा था परन्तु ऐसे मनका मिलना अच्छा नहीं जिससे पूर्वधर महापयोंकी निन्दा करके अधोगति को प्राप्त हो। . इससे तो मनुष्य जन्मसे ही संधा, गूंगा और बहिरा बन जाय तो भी अच्छा हो, पर आँखें जीभ और कानका यह फल अच्छा नहीं, जिनसे आचायाँकी निन्दा करनेसे अनन्त भवों तक ये इन्द्रियां मिलें ही नहीं. और मिलें तो फिर फिर शस्त्रोंसे छेदन भेदन हो । अस्तु, मिथ्यात्वके उदयसें क्या क्या अधम कर्म नहीं होते हैं। हमारे पाठकवर्गको यह कटाक्ष मालूम होता होगा पर यह कटाक्ष नहीं है अधर्मसे बचानेके लिए दयापूर्ण हितवाक्य हैं और हमारी हमेशा यही भावना रहती है कि अगर किसी भी समय पापकर्मके उदयसे जैनशासन प्रभावक पूर्वश्रुतधर पूर्वाचार्यों की निन्दा करनकी दुष्टबुद्धि उत्पन्न होने वाली हो तो. इससे हस्तशून्य, कर्णशून्य, जिव्हाशून्य होना भव भवके लिये हम पसन्द Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) करते हैं । परन्तु अनन्तभवमं छेदन भेदन जिसका फल है ऐसी बेचरदासके सम नीच बुद्धिको कदापि नहीं चाहते । क्योंकि जिन लोकोंकी आगमशास्त्रसे विरुद्ध क्रियाए हैं उन क्रियाओंका करना एकप्रकारसे अंधेरा ढोनेके सदृश है। जैसे एक अज्ञानपुर नामक नगरमें बुद्धिहीन नामक शेठ निवास करता था, उसके मूर्खदत्त नामक लड़का था। जब उस- मूर्खदत्तकी उम्र विवाह करने योग्य हुई तो सेठको चिन्ता हुई कि किसी योग्य घरकी लड़कीके साथ इसका लग्न करना चाहिए । इस कामके लिए वह अनेक स्थलों पर घूमता रहा । घूमते घूमते ज्ञानपुर नामक नगरमें प्रवेश करके बुद्धिशाली नामक सेठसे मुलाकात की और उसकी सुमतिनामक पुत्रीकी साथ अपने मूर्खदत्त लड़के का रिस्ता किया। कुछ समयके बाद बड़े मारोह के साथ शुभमुहूर्तमें उनका विवाह हो गया । जब सुमति अपने ससुरालमें आई तो पहली रात्रीको ही उसने वहां अजब ढंग देखा । घरके दस पन्द्रह जवांमर्द रात्रीके प्रारंभमें कमर बांधकर तय्यार हो गये और सब अपने अपने हाथमें एक एक टोकरा लेले कर एक दुसरेसे कहने लगे कि 'लो ढोओ-( फेंको ) लो ढोओ' तब इन लोकोंकी खाली टोकरियां चलानेरूप अज्ञानक्रियाको देखकर खुमति हेरान हो गई । वह विचारने लगी कि ये मूर्ख क्या कर रहे हैं ? अंधेरेमें खड़े खड़े खाली टोकरियां उठा उठा कर लो ढोओ, लो ढोओ' ऐसा कह रहे हैं न तो कुछ लेते हैं न कुछ गेरते हैं. यूंही व्यर्थ क्रिया Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब तक करते रहेंगे । देखा तो रातभर उन लोगोंने जीतोड़ परिश्रम केया, जब प्रातःकाल हुआ और घर में प्रकाश आया तो बारह घंटेके अटूट श्रमसे थक कर सोगये । दिनका आधा भाग सोनेमें व्यतीत करदिया, बादमें उठकर अपने अपने काममें लग गये । पीछे सुमतिने अपनी साससे कहा क्योंजी रातको यह सब आदमी क्या कररहें थे ? । सासने उत्तर दिया कि तूं बड़ी मूर्खा है इतना भी नहीं जानती कि सारे घरमें अंधेरा फैल रहाथा उसको टोकरियोंमें भर भरकर बाहर निकाल रहे थे। लो ढोओ, लो ढोओ, करते करते दम खुश्क हो गया तब बारह घंटेके बाद अंधेरा निकाल देनेसे उजाला हुआ और सोगये। यह एक प्रसिद्ध बात है सो भी तूं नहीं समझ सकी ? सुमति फ़िर पूछने लगी कि क्योंजी यह रिवाज अपने ही यहां है या दूसरे घरोंमें भी है ? सासने उत्तर दिया कि दूसरे घरोंमें क्या सारे शहरमें है । सुमति विचार करने लगी कि इन मूल्को समझानेके लिए प्रथम इनके अनुकूल होना पड़ेगा ऐसा निश्चय करके बोली कि सासुजी ! मैं तो योंही हसती हूं क्या हमारे यहां अंधेरा नहीं होता और क्या वह नहीं निकाला जाता ? अवश्य होता है और निकाला भी जाता है । मैं खुद मेरे इतने बड़े घरसे अकेली ही सब अंधेरेको बाहर निकालतीथी इस लिए जब सब आदमी घरपर आवें तब उनको कह देना कि आज सब सोजाओ अपनी वहु अकेली ही सारे धरका अंधेरा दूर करदेगी । सास बड़े आश्चर्यमें मग्न होकर विचार करने लगीकि जिस Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अन्धेरेको दस दस पन्द्रह पन्द्रह आदमी बड़ी मुश्किलसे ढो सकते हैं उस अंधेरेको यह अकेली किस तरह ढोसकेगी अस्तु, हाथकङ्कणको आरसी क्या, सायंकालके समय वृद्धान घरके सब मनुष्यों के सामने वहुका ईरादा जाहिर किया । किमीने भी न माना कि यह बात सच्च होगी, तो भी सुमतिने उन लोकों से कहाकि आजकी रात तो देख लीजिए, जो मेरेसे आज बराबर कार्य न हो सके तो फ़िर कल आप ही कमर बांधियेगा । आखिरकार सबको समझा कर सुला दिये । ये लोग बहुत समयसे अंधेरा निकालनेकी अंध क्रियासे ऐसे थके हुए थे कि सोते ही बेभान होकर निद्रावश होगये बहुत दिन चढजानेके बाद जब उनकी आंखें खुली तो देखा कि घरमें उजेला ही उजेला हो रहा है। सब घरके मनुष्य सुमतिको रत्न मानने लगे। सासकी खुशीका तो पार ही न रहा । जब यह वात एकसे दूसरेके और दूसरेसे तीसरेके घर पहुंची तो क्रमसे सारे शहरमें फैल गई यह वात सुन सुनकर सब हैरान होगये और कहने लगे कि यह बात कभी नहीं बन सकती । जैसे आजकलके नास्तिकशिरोमणियोंको शास्त्रसम्मतकर्मफलमें भी आश्चर्य होता है, अथवा सूत्रानुकूलआचार्यप्रणीततत्त्व भारे कर्मियों की समझमें आ जाय तो भी अपनी प्रथम कीहुई प्रतिज्ञा भंग न होजाय इस डरके मारे अनन्तसंसारको बढ़ाने वाली मिथ्याकल्पना करके ( जैसा तमस्तरणके लेखमें बेचरदासने की है, ) कह देते हैं कि “ अमुक भागमें मूलपुरुषके मूल विचार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हैं । अमुक भाग नैमित्तिक है, अमुकभाग आग्रहजन्य है, अमुक भाग आलङ्कारिक है, अमुक भाग रूढिजन्य है " इत्यादि । हम उन नास्तिकशिरोमणियोंके हितार्थ लिखते हैं कि विनाकारण ऐसी भ्रमणामें पड़ कर " स्वयं नष्टः अन्यान् नाशयति " ऐसा क्यों करते हो । नरक निगोदोंके दुःखोंसे जरा डरो और शास्त्रका अवलम्बन करो । इनही अपलक्षणोंसे अनन्तवार दुर्गतिकी अनन्त वेदनाएं सहन करके पुनः पुनः उसी में पैदा हुए हो। कोई महान् पुण्योदयसे मनुष्यजन्म पाये हो उसे मिथ्यात्वमोहित होकर श्रीपूर्वधराचार्यों ने जो बातें सत्यरूप कथन कीहैं उनको “ आलङ्कारिक, अनुकरणजन्य, रूढिजन्य' आदि वाक्जालसे खोटी कहकर नाहक क्यों हार जाते हो । तथा नरक निगोदके अनन्त दुःखोको प्राप्त करनेकी तय्यारी क्यों करते हो । यह तो ऐसा हुआ कि जैसे किसी असत्य वादीने कहा कि फलाने ग्रंथमें अमुक विषय विल्कुल नहीं है, तब उस ग्रंथके अभ्यासीने कहा कि शर्त लगाओ तो हम दोखा देवें सब उस दुराग्रहींने दोसौ रुपयोंकी शर्त लगाई, जब वह पाठ उसी ग्रंथमेंसे उस अभ्यासीने दिखाया तब वह हठी कहने लगा कि यह पाठ तो मूल पुरुषके मूल विचार रूप नहीं है, तब वही पाठ दूसरी जगहसे बताया तो भी उस हरामीने शर्तके रुपैये बचानेके लिए झट कह दिया कि यह पाठ तो नैमित्तिक है, फिर भी उस ग्रंथके अभ्यासीने जिस विषयका उस हरामजादेने निषेध किया था उसी विषयका साधक पाठ उसी ग्रंथमें. अन्यस्थलपर बतायां Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) तो एक तो वह हठी था और दूसरे रुपयोंके देनेका भी भय होनेसे विनाशर्मका झट बोल उठा कि यह पाठ तो आग्रहजन्य है, फिर उसी ग्रंथके अंदर अन्य जगह पर उसी विषय का पाठ चौथी बार बताया तो वह कहने लगा कि यह तो आलङ्कारिक है । इसके बाद उस सत्यप्ररूपक ग्रंथके अभ्यासी पुरुषने फिर भी अन्यान्य पाठ उसी विषयके उसी शास्त्रभे बताए तब वह दुराग्रही कहीं अनुकरणजन्य, कहीं रूढिजन्य है ऐसे कहकर दोसौ रुपये न देने पड़े ऐसे विचारसे अपनी हठको नहीं छोड़ी। इस दुराग्रहीके दुराग्रहको अच्छी तरह समझकर वहां पर जो सत्ताधिकारी न्यायी पुरुष उपस्थित थे उन्होंने उस मृषावादी अन्यायीका मुंह काला करके गधे पर चढ़ाकर नगरके बाहर निकाल दिया । यदि अबभी कोई ऐसा न्यायी सत्ताधिकारी धर्मात्मा मौजूद हो तो यह बात हम निः सन्देह कह सकते हैं कि आगमशास्त्रमें भी “ आग्रह जन्य आलकारिक वाक्य हैं ” इत्यादि वाक्जालको रचनेवाले आधुनिक कदाग्रहियोंकी भी अवश्य उस असत्यवादी जैसी दशा करे । हम पाठकवर्गको सावधान करते हैं कि याद रखिएगा कि कोई नास्तिकशिरोमणि आगमके विषयमें यदि कहे कि, “ अमुकभाग रूढिजन्य है या अमुकभाग आग्रहजन्य है या अमुकभाग नैमित्तिक है इत्यादि ' तो उस पुरुषको असत्यवादी और बकवादी समझना चाहिए क्यों कि अपने आगमशास्त्र आजतक तत्त्व के विषयमें ज्यों के त्यों अविच्छिन्नपणे चले आते हैं । हां, कितनाक भाग Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ ) विच्छेद तो जरूर हो गया है परन्तु जो विद्यमान है सो बराबर मान्य करने योग्य हैं । उन्हें आग्रहजन्य और नैमित्तिकादि हैं ऐसा कहना मूढताकी निशानी है। अगर कोई भी आस्तिक भाई इसबात पर सन्देह करेगा तो भी महती हानी उठायगा । इस लिए. हम उनको इतनी ही चिताबनी करते हैं कि श्रीहरिभद्रसूरि महाराज, श्रीहेमचन्द्राचार्यजी महाराज, नवाङ्गी टीकाकार श्रीमद् अभयदेवमूरि, श्रीमलयगिरि महाराज के वचनोंसे विरुद्ध आजकलके नास्तिकोंने जो बचन सुनाएं या जो लिखें हैं उनकों हलाहल जहर जानना चाहिए, और याद रखना चाहिए कि उनकी हवा भी बहुत बुरी है । इन नास्तिकोंके सरदारका परिचय तुमको अच्छी तरहसे है, जिसने पूर्वाचायों की निन्दा करके अपने अधमाधम विचारमय हृदयका पूर्णपरिचय दिया है। आजकल नास्तिक. छापेवाले अपने इस नवीन सरदारको देखकर फिदा फिदा हो रहे हैं परन्तु इस श्रुतधरआचार्यादिके निन्दककी स्तुतिसे हमारी क्या गति होगी इसबातको वे अज्ञानवश भूलही गये हैं। और जैनशैलीके अनभिज्ञ एक मूढ मनुष्यकी बातें ठीक मालूम पड़ती. हैं एवम् पूर्वधर प्रभावक पुरुषोंकी कथन कीहुई देवद्रव्यादि विषयक बातें ठीक मालूम नहीं पड़तीं । आह ! कैसी मूढ़ता, जिससे जराभी सन्मार्ग नहीं सूझता ! | ओह ! मैं बहुत दूर निकल गया, मेरे प्रिय पाठक घबराए होंगे और उस अंधेरे के उदाहरण को जाननेके लिए उत्सुक हो रहे होंगे अत एव इस विषयको यहीं छोड़ना. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) पड़ता है, अन्यथा आजकलके नास्तिकोंकी लीलाके विषयमें 'एक ग्रंथ लिखा जासकता है । प्रिय पाठकगण ! जब इस प्रकार शहरमें बात फैलीकि “ बुद्धि हीन सेटके लड़के मूर्खदत्तकी स्त्री सुमति अपने विशाल महलके भीतरसे अकेली ही अंधेरेको बाहर निकालती है " तब जो पुण्यशाली लोक थे, उन्होंने सेठके घर जाकर प्रार्थना की कि अपनी चतुर वधू हमारे घर का भी अंधेरा दूर करे ऐसा प्रबंध करदीजिएगा । लोकोंकी इस प्रार्थनाको मानकर सेठने मुमतिको आज्ञा दी कि प्रियबेटी ! इन सबके घरोंका भी अंधेरा दूर करनेका तुमको यत्न करना चाहिए। सुमति अपने ससुरकी आज्ञानुसार उनलोकोंको तसल्ली देकर कहने लगी कि आप आनन्दसे सोजाईएगा, मैं अपनी अद्भुत शक्तिसे अपने घरमें ही रहकर तुम्हारे घरका सब अंधेरा दूर करदूंगी । जो जो लोक सुमतिकी बात मानकर सोगये, उनका सदैवके लिए अपने अज्ञानपरिश्रमका दुःख दूर हुआ और जिनलोकोंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया और सोचा कि यह वात कदापि नहीं हो सकती, उन लोकोंने न तो उससे प्रार्थनाहीकी और न अंधेरा ढोनेरूप अंधक्रियाके घोरकष्टसे मुक्त हुए । जब सुमति की प्रशंसा बादशाहके कानों तक पहुँची तो उसने सेठको बुला कर कहा कि क्या यह बात सत्य है ! हमको मालूम हुआ है कि शहरके अनेक घरोंका अंधेरा तुम्हारे लड़केकी स्त्री अकेली ही निकालती है । सेठने अर्ज की कि जी हुजूर यह बात सच्च है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) बादशाह ने कहा कि तब हमारे राजमहलका अंधेरा दूर करने के लिए जो दोसौ नोफरोंकों तन्खा देनी पड़ती है उस खर्चको मिटा दो तो अच्छा हो । सेठने सुमतिको वहीं बुलाकर बादशाह की प्रार्थना सुना दी। सुमति बादशाह के सन्मुख हाथ जोड़कर अर्ज करने लगी कि, हुजूर ! आपकी आज्ञानुसार मैं अकेली ही सब काम कर दुंगी फिक्र मत कीजिएगा । बारह घंटे के बाद आप देख लीजिएगा कि अगर अंधेरा रह जावे तो आप आज्ञा देंगे वह दंड उठानेको तय्यार हूं, बादशाहने सब नौकरोंको सीख दे दी। दूसरे दिन जब उठ कर देखा तो. अंधेरा नदारद ! ( नहीं पाया ) बादशाह विम्मित हो गया । असल में तो विस्मय • होने की तो कोई बात ही नहीं थी क्यों कि कुदरती नियमानुसार ही बारह घंटे के बाद अंधेरा दूर हो जाना ही चाहिए था, पर अज्ञानीयोंको तो आश्चर्यका ही कारण था, जैसे कि आजकल के नरकगामिनास्तिकों को सूत्रकी युक्तिमिद्ध बातों पर भी आश्चर्य होता है । बादशाहने सुमतिको हज़ारों रुपये भेट किये और शहर में ढंढेरा पिटवाया कि तमाम मनुष्य अंधेरा ढोनेरूप असह्यकष्ट से बचने के लिए सुमतिसे प्रार्थना करो और उसकी अद्भुत शक्तिका लाभ लेकर सुखी बनो। कितनेक मूढ मनुष्योंने इस ढंढेरेको स्वीकार नहीं किया, स्वीकार न करनेका कारण मात्र इतना ही था कि वे लोक इस बातका संभव नहीं मानते थे । शहरके बहुत से बुद्धिमान मनुष्य उन्हें समझाते रहे और कहते रहे कि ' हमने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) हमारे घरके अंधेरेको प्रत्यक्ष दूर होते देखा है, तो भी उन लोकोंके. कथनको असत्य मानते रहे। अन्तमें बादशाहने फरजियात ( Compulsory ) कायदा जारी किया तो भी उन मूखोंकी समझ में नहीं आया कि एक तो उम्रभर अंधेरा ढो दोकर मरजाएंगे और दूसरे राजआज्ञा भंग होनेसे दंडित होंगे, इस विचारके अभावके कारणसे राजाज्ञाको भी नहीं माना। आखिर में बादशाहने कुपित होकर उन हठवादियोंको शिर मुंडाकर, नाक कान कटवाकर काला मुँह करवानेके बाद गधे पर चढ़ाकर काले पानी भेजवा दिया। अब पाठकवर्ग इसके उपनयकी तरफ़ ध्यान दीजिए कि आजकल नवीन पंथको चलानेकी इच्छासे देवद्रव्यके भक्षणमें कुछ हर्ज नहीं है, उस देवद्रव्यसे शिक्षा देनी चाहिए, प्रथम प्रभुके मन्दिर गांव बाहिर थे, सुविहितगच्छके धोरी श्रीहरिभद्राचार्य जैसे प्रभावक पुरुषोंको भी 'चैत्यवासी थें' महावीर स्वामीके पीछे दोसो तीनसो या चारसो पांचसो वर्षोके बाद जैनसमाजका तमस्तरण शुरू हुआ, इत्यादि अनन्तकालतक संसारमें रुलानेवाली अनेकवातोंके कहनेवाले और इनके अनुमोदनकरनेवाले नीच अधमात्माएं जिन आकाशप्रदेशोंको अवगाहन करके रहते हैं उन आकाशप्रदेशात्मकस्थानको अज्ञानपुर नामक नगर समझे, और सूत्रमर्यादाके लोपी पेटके लिए अज्ञानांध मनुष्योंको खुश करने के लिए ज्यों दिलमें आवे त्यों बकबाद करने वाले, पूर्वधराचार्योके निन्दक पुरुषोंके सहवास Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) से जिनलोकोंकि बुद्धि बिगड़गईहै परन्तु भद्रप्रकृति के कारण भाविशुभोदय है उन्हें जात्यपेक्षया बुद्धिहीन सेठ समझना चाहिए, और उनके शास्त्रशैलीविरुद्ध जो विचार हैं सो ही मूर्खदत्त नामका लड़का है। ये सब मिथ्यात्वोदयसे उन्नतिकी इच्छासे क्रिया करतेहैं परन्तु सम्यक्त्वभ्रष्ट करणी होनेसे अंधेरा ढोरहे हैं। अब जो सूत्रमार्गके अनुसारी पूर्वाचार्योंके प्रशंसक देवद्रव्यके रक्षक तमस्तरण नामक लेखके विरोधी महात्माओं का जो स्थिति स्थान ( आकाशप्रदेशात्मक ) है सो ज्ञानपुर है । और सूत्रानुसार प्ररूपणा करने वाले पूर्वोक्तविशेषण विशिष्ट जो महात्मा पुरुष हैं वेही जात्यपेक्षया बुद्धिशाली सेठ हैं, और उनकी प्राचीन महात्माओंके अनुकरणमें लगी रहनेवाली और सूत्रसिद्धमार्गका उपदेश देने वाली जो मति है वही सुमति है । इन प्राचीन रूढियोंके पालक जो कि प्राण चले जाय तो भी शुद्धमार्गके लोपक नहीं ऐसे अपने आत्मपितासे सुमतिमें भी अपूर्वगुण आये हुए थे । इस सुमतिकी शरण जिन जिन लोकोंने ली उन्होंका भवभवका अन्धेरा ढोना तो गया सो गया परन्तु हमेशा निवास करनेके लिए कैवल्यप्रकाशने अदृष्टपूर्व मोक्षधाम भी दिखा दिया । कदाग्राहियों के स्थानापन्न जो हठी नास्तिक लोक हैं उनमेंसे जिन मूढोंने बादशाहके स्थानापन्नपुण्यमहाराजोक हुक्मसे विरुद्ध होकर सुमतिके स्थानापन्न श्रीसिद्धसेन दिवाकर, देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण, हरिभद्धसरि, हेमचन्द्राचार्य और यशोविजय उपाध्याय जैसे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) महात्माओं की मतिका शरण नहीं लिया उन भाग्यहीनोंको अज्ञानरूप गधेपर चढ़कर गुरुभक्तिरूपकर्णशून्य और विवेकरूपनाकरहित, मिथ्यात्वरूप मसीसे किये हुए काले मुखसे नरक और निगोदरूप कालेपानी अनन्तकालके लिए जाना पड़ताहै । अत एव बुद्धिमान् पुरुषोंको उचितहै कि नरकगति और तिर्यचगतिके भयङ्कर दुःखोंसे बचानेवाले सम्यक्त्वको प्राप्तकरके मिथ्यात्वको जलाञ्जली देदेवें, जिससे कर्मबंधका मुरूपहेतु मिथ्यात्वरूप स्कंभ टूट जानेसे संसारका प्राबल्य मन्द होजायगा । और उसी सम्यक्त्वके प्रभावसेही मिथ्यात्त्वहेतुके हटजानेसे अविरति कषाय और योगरूप हेतुओंका भी शनैः शनैः नाश हो जाता है, और किसी पुण्यात्माको सम्यक्त्व प्राप्त होनेसे एकदम ही नाश होजाता है। अतः संसारके अभावका असाधारण कारण ज्ञानिमहात्माओने मिथ्यात्वनाशक सम्यक्त्वको ही कहा है। इस लिए भवभीरु प्राणियों को सम्यक्त्वसे कदापि पतित नहीं होना चाहिए, और अपनेमें शास्त्रीयज्ञान हो सो सम्यक्त्वसे पतित होते हुए दूसरे मनुष्योंको बचाना चाहिए । इसविषयमें जैनधर्मप्रसारक सभाके तंत्री महाशयको अंतःकरणपूर्वक सहस्रशः धन्यवाद दिया जाता है कि उन्होंने वेचरदासको अपनी सभा में बुलाकर कितनेक भाषण सम्बंधी उपयोगी प्रश्न पूछकर उसके उत्तरसे ही जगत्को जाहिर करदिया कि बेचरदास झूठा है । ढूंढिये मूल बत्तीस सूत्र मानते हैं तो बेचरदास पूरे ग्यारह सूत्र भी नहीं मानता। जहां ___ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) जबाबमें रुक जाता है वहां पर ' मेरेको याद नहीं है ' ' मैं अपने. अभिप्रायसे कहता हूँ' इत्यादि बातोंसे साबित होता है कि बेचरदासका भाषण आधार रहित ही नहीं बल्कि कपोलकल्पित है । इस विषयको विशेषरूपसे मालूम करने के लिए " जैनधर्मप्रकाश मासिक " अङ्क ३ पृष्ठ ८९ पुस्तक ३५ को देखना चाहिए। संसारमें सर्वोत्तमपदार्थ सम्यक्त्व ही है । यथोक्तं सूत्रे" दंसण भट्ठो भट्ठो, दंसणभस्स नत्थि निव्वाणं । सिज्जति चरणरहिया, दसणरहिया न सिज्जति ॥१॥" भावार्थ-जो लोक सम्यक्त्वसे पतित हो गयेहैं वेही पूरे पतित माने जाते हैं। क्योंकि सम्यक्त्वसे पतित हुएको निर्वाणकी प्राप्ति नहीं होती। चारित्रसे पतित हुए मनुष्य सिद्धहोसकतेहैं परंतु दर्शनसे रहित मनुप्य कदापि सिद्ध नहीं होसकता । इस लिए आजकलके नास्तिक लोकोंके सहवाससे बचना चाहिए क्योंकि वे लोक सिद्धान्तसे विरुद्ध होनेसे " देवद्रव्य का मालिक संघ है उस द्रव्यको किसीभी प्रकारसे व्यय करसकतेहैं " इत्यादि सूत्रविरुद्ध बातें कहतेहैं और कितनेक नास्तिक तो यहां तक बोल उठतेहैं कि "आजकलके साधु, साधु पदवीके योग्य नहींहैं " हम पूछते हैं कि अगर त्यागी गीतार्थ साधु महाराज यदि साधुपदवीके योग्य नहीं हैं तो क्या तुम्हारे जैसे कपोलकल्पित निराधार गप्पबाज़ मृषावादी योग्यहैं ? जिनको जैनशास्त्र के रहस्यका विल्कुल भान ही नहींहैं । सुनाजाता है कि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) कितनेक नास्तिकोंने तो होटलोंमें जा जा कर अभक्ष्यभोजन और अपेयपानकरके उन्मत्तता प्राप्त की और उस उन्मत्तावस्था अभिमानसहित बोल उठतेहैं कि, " साधु लोक हमारे जूते उठाने लायक भी नहींहैं " मगर उन मिथ्याभिमानियोंको मालूम नहीं कि अनेकजातके अभक्ष्य भक्षणकरनेसे और उत्सूत्रकी प्ररूपणासे उनका ( मिथ्याभिमानियोंका ) मुंह ऐसा सावद्य बनगया है कि साधुलोक उनके जूते उठानेके लिए तो क्या उनके मुहमें पेशाब या बडी नीतिकरनेके लीये भी नहीं जासकते । मतलब कि वे लोक अपनी शक्ति और त्यागवृत्तिका विचार किये बिनाही ज्यों दिलमें आताहै त्योंही बोलउठतेहैं । ऐसे नास्तिकमनुष्योंसे सावधान रहना चाहिए, नहीं तो स्वयम् डूबते मनुष्य औरको ले डूबतेहैं इसी तरह स्वयम् नरकगामीनास्तिक अन्यको भी नरकगामी बनादेताहै । यद्यपि प्रभुमहावीरकी असीमकृपासे उन लाखों नास्तिकोंकी संख्या एकत्र हो जाय तो भी हमारे एक आत्मप्रदेशकी श्रद्धाके असंख्यातवें भागको भी नहीं हिलासकती, अतः उन नास्तिकोंके मण्डलसें हमको हानि नहींहै पर हमारे बहुतसे भोले भ्राता कहीं नास्तिकोंके वचनरूप अंधेकूएंमें न गिर जाय इसलिए हमको चितौनी करनी पड़ी है । अगर हम जानते हुएभी चूप बैठ रहे तो हम गुनहगार ठहरतेहै । फारसीमभी कहा है कि " अगर बिनमके नाविना ओचास्त वगर खामोश विनसीनम गुनाहस्त" इसका भावार्थ यह है कि अगर कोई अंधेकूएंकी तरफ़ जाता है Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) जो वह उस रास्तेमें चलता रहा तो अवश्य कूएंमें पड़ेगा ऐसा देखकर हम खामोश बैठे रहे तो बड़ाभारी गुनाह है । जैन महात्माओंका भी कथन है कि “ धर्मध्वंसे कृपालोपे, स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेनाऽपि शक्तेन, वक्तव्यं तनिषेधकम् ।। भावार्थ-धर्मके नाशमें और कृपा (दया) के नाशमें, अपने सिद्धान्नके अर्थकी विरु द्धतामें बिना पूछे भी समर्थपुरुषने उनका प्रतिरोध करनेके लिए तय्यार हो जाना चाहिए। इस नियमानुसार अपना कर्त्तव्य समझकर हमभी वेचरदासके उस भाषणका (जो उसने 'ता. २१ जनवरी १९१२ को मांगरोल जैनसभा . बम्बईमें दिया है, और जो ता. २० वीं अप्रेल १९१९ के जैनपत्रमें प्रकाशित हुआ है, जिसको बेचरदासने अपने अभिप्रायसे अबाधित स्वीकार किया है ) अनुक्रमसे प्रतिवाद (खण्डन) करते हैं। पाठक महाशय तटस्थविचारसे ध्यानपूर्वक पढ़कर अपनी श्रद्धाको स्थिर करेंगे ऐसी उम्मीद कीनाती है । वेचरदास- देवद्रव्य शब्दन काई असंवद्ध ने विचित्र छे. जैनो जेने देव तरीके स्वीकारे छे ते राग, द्वेष, धन, स्त्री वगेरेथी मुक्त दरेक कषायथी रहित होय छे, हवे राग द्वेषविनाना प्रभुनु द्रव्यं शी रीते संभवी शके ?" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) समालोचक – बड़े खेदकी बात है कि पंडितमन्य बेरदास एक देवद्रव्य जैसे शास्त्रसिद्ध तथा युक्तियुक्त शब्दकोभी नहीं समझता हुआ कहता है कि " देवद्रव्य शब्दज कई असंबद्ध अने विचित्र छे. " पाठकों को मालूम होकि देवद्रव्य शब्द असंबद्ध या विचित्र नहीं है, किन्तु बेचरदासका भाषणही असंबद्ध और विचित्र हैं। असंबद्ध यों है कि किसीभी सूत्रानुसारी जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण, हरिभद्रमूरिमहाराज, हेमचन्द्राचार्यमहाराज आदि परमप्रभावक आचायों के वचनोंसे वेचरदासका भाषण सम्बंध नहीं रखता है बल्कि उन प्रभावक पुरुषोंके वचनों से विरुद्ध है, और विचित्र इसरीतिसे है कि आजतक किसीनेमी ऐसे अक्षर किसीके मुँहसे नहीं सुने कि ' देवद्रव्य जैनागम में नहीं है ' । प्राचीनघोर पापकर्मके उदयसे प्रथम वेचरदासने ही अपने भाषण में इन अक्षरोंको सुनाया है इसलिए तमाम जैनसमाजको उसका भाषण विचित्र मालूम हुआ है । अब वेचर - दासको विचार करना चाहिए कि असंबद्धता और विचित्रता तुम्हारे भाषण में है या देवद्रव्य में ? अगर तुम किञ्चित् भी विचार करते तो ऐसा कभी नहीं कहते कि " जैनों जेने देवतरीके स्वीकारे छे तें राग, द्वेष, धन स्त्री वगेरेथी मुक्त - दरेक कषायथी हवे राग द्वेष विनाना प्रभुनुं द्रव्य शी रीते संभवी सोस है तुम्हारी अक्लपर, तुमने इतनाभी विचार नहीं किया कि. धूवं दाऊण, जिणवराणं' श्रीरायपसेणीसूत्र के इसअभिप्रायसे रहित होय छे, शके ? " अफ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) देवरूप जो भगवान्की मूर्ति है, उसको आभूषणादि चढ़ाये जाते हैं वे सब देवद्रव्यके नामसे कहे जाते हैं, इससे भगवान्की वीतरागता या कषायमुक्ततामें क्या विरोध आया ? हां, यदि यह मानते हों कि देव यानी तीर्थकरप्रभुका सञ्चितकियाहुआ या स्वसत्तामें रक्खा हुआ जो द्रव्य हो उसको देवव्य कहतेहैं तब तो उनकी वीतरागतामें फ़रक आता, और " रागद्वेषविनाना प्रभुनुं द्रव्य शी रीते संभवी शके " ऐसा तुम्हारा कहना सत्य होता, पर ऐसा तो किसीभी जैनग्रंथमें पाठ नहीं है, फिर यह विकल्प क्यों उठाया ? अस्तु, हमको तुम्हारे कथनपर जितना खेद है उसंस भी अधिक तुम्हारे कथनका अनुमोदन करनेवाले मूर्खतांत्रियों पर है। क्योंकि तुमने तो वगैर अधिकारक सूत्र पढ़े, जिससे शास्त्रीयनियमानुसार तुम्हारी बुद्धिं तो बिगड़नीही चाहिए थी परन्तु तुम्हारे कथन के अनुमोदन करनेवाले तंत्रिआदियोंकी बुद्धि भी बिगड गई ! उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि जो वीतरागदेवका द्रव्य शब्दसे संबंध नहीं माने तो फिर वीतरागदेवका मन्दिरशब्दसेभी सम्बंध क्यों माना जाय ? इससे तो जिनमन्दिरका ही अभाव हो जायगा । मतलब कि तन्त्रियोंकी तरह मूर्ख वनकर ऐसे नास्तिकपत्र पाठक, कितनेक आस्तिकजन कभी इस बातको मान लें कि 'वीतरागप्रभुका द्रव्यके साथ सम्बंध न होनेसे देवद्रव्य नहीं होसकता', तब फिर बेचरदासजैसे नास्तिक कह देंगे कि " जिनमन्दिरशब्दभी वास्तवमें नहीं होसकता, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४.) शब्दका क्योंकि ' जिन ' नाम वीतराग देवका है । ऐसे वीतराग - देवका मन्दिर ( घर ) किसतरह होसकता है ! यदि इस बातकोभी मानले तो फिर नास्तिकता के कारणसे कह दिया जायगा कि अपन " जैन " भी नहीं कहा सकते ! क्योंकि " जैन " अर्थ-'" जिनस्येमे जैनाः " जिन प्रभुके ये हैं ऐने अर्थ में " जैन " शब्द बनता है, मतलबकि जिन प्रभुके भक्त - उपासक जैन कहलाते हैं । तो वीतराग प्रभुके " ये हैं- इनके उपासक जैन हैं " ऐसा संभव नहीं इसलिए अपनेको जैन नाम छोड़ देना चाहिए। क्या इसतरह मालूम होनेपर तत्रिलोक और अन्य जन जिनमन्दिरको या अपने जैननामको छोड़ देगें ? यदि इसका जवाब नकार दिया जायगा तो फिर जैसे वीतराग देवसे मन्दिरशव्दका योग होता है और जैनशब्द बनता है वैसे ही देवद्रव्यशब्द क्यों नहीं बन सकता ! प्रिय वाचकगण ! विचार कीजिएगा कि बेचरदास कितना अकलमंद शक्स है कि जो देवमन्दिरको मानता हुआ भी देवद्रव्यको स्वीकार नहीं करता । जिसको वीतराग देवके साथ मन्दिर - शब्दका स्वीकार है उसको वीतराग देवके साथ द्रव्यशब्द क्यों मंजूर नहीं होता ! क्या बेचरदास एक चक्षुवाले ऊंटकी तरह एक तरफकी बेलड़ी चरनेवाला है ! जो वीतराग देवका मन्दिरसे सम्बंध मानता हुआभी द्रव्यका सम्बंध नहीं मानता । तटस्थ - देखिये, जिनमन्दिरका स्वीकार करते हुएभी देवद्रव्यका स्वीकार न करनेका कारण बालाया जाता है । यदि ऐसा मान लेवे कि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "देवद्रव्य" नहीं हैं और इस कारणसे यानि उनके ऐसा मान लेनेसे नास्तिक लोक बढ़ जाय तो उस द्रव्यको मरजी चाहे वैसे कार्यमें लगाकर लोकोंको अधम शिक्षा दी जायकि जिससे नास्तिकसमाज बढ़जाय, और दुनियाको धर्मभ्रष्ट करने का जो इरादा कर रहेहैं वह पूरा होजाय, इस स्वार्थसे दारुण मृषावादी बनकर " जैनागममें देवद्रव्यका नामभी नहीं है" ऐसी गप्प मारदी है । देवमन्दिरको उडानेसे उसका कोई स्वार्थ नहीं हैं इसलिये नहीं उडाया अगर उसमेंभी स्वार्थ होता तो वहभी उड़ादिया जाता । पर स्थान स्थान पर 'जिणहरे गच्छइ गच्छित्ता, वर्सेतो जिणदव्वं, रखंतो जिणदव्वं, इत्यादि पाठ आते हैं वहां पर इन मूढ लोकोंकी बातोंको कौन माने ! चाहेजितना वकवाद क्यों न करे आस्तिकोपर उसका कुछभी असर नहीं होता, और नास्तिकों के लिये उनके दुर्भाग्यवश कहनेकी आवश्यकता नहीं। अगर कभी दैवयोगसे. भद्रिकआस्तिकों पर नास्तिकोंके भाषण का कुछ बुरा असर पडाभी होगा तो आपकी हितबुद्धिसे लिखी हुई इस पुस्तक के पढ़नेसे दूर. होजायगा, ऐसी आशा करता हूँ। अब आप यह बतलाइए कि बेचरदासेन जैसा प्रश्न उठाया है यानी " रागद्वेषरहित प्रभुन द्रव्य थइ शकतुं नथी, " क्या ऐसा प्रश्न पहले किसीका किया हुआ प्राचीन शास्त्रोमें नजर आता है और उसीपर कुछ समाधाभभी लिखा गया है ? समालोचक-शक, देखिये सम्बोधप्रकरणमें, चौदहसौ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) चव्यालिसग्रंथके . कर्त्ता परमप्रभावक-याकिनीमहत्तरासूनु-श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज फ़रमाते हैं-तद्यथा " न हु देवाण वि दव्वं, संगविमुक्काण जुज्जए किमवि । नियसेवगबुद्धिए, कप्पियं देवदव्वं, तं ९०।" भावार्थ-वादी प्रश्न करता है कि सर्वसङ्ग विमुक्त वीतराग देवका द्रव्य नहीं होसकता ! आचार्य उत्तर देते हैं कि यद्यपि वीतराग देवको द्रव्यसे कुछ सम्बंध नहींहै तथापि उनके सेवक भक्ति के प्रेममें मग्न होकर जो आभूषणादि चढ़ाते हैं वे सेवककी कल्पनासे देवद्रव्यकी गणनामें कहेजातेहैं। इस विषयकी पुष्टिमें फिर हरिभद्रसूरि महाराज फ़रमाते हैं कि " किज्जइ पूआ णिचं, बुच्चिज्जइ मे कया जिणींदाणं ।। पूआ तहेव देवाण, दवमिइ लोअजण भासा. ९२।" भावार्थ-प्रभुकी पूजा नित्य कीजातीहै और करनेवाला कहताहै कि मैंने जिनप्रभुकी पूजाकी । पर इससे जिनेश्वर भगवान्को सरागताका प्रसङ्ग नहीं आता । इसी तरह जिनदेव भगवान्की भक्तिके निमित्तसे कल्पित किया हुवा द्रव्य लोकभाषा में देवद्रव्य कहाजाताहै । परन्तु उससे वीतराग देवको सरागता का प्रसंग नहीं आता । तटस्थ आहाहा ! ये तो बहुत अच्छी गाथायें सुनाई जब हरिभद्रसूरि महाराजजैसे परमप्रभावक आचार्यके रचे हुए संबोधप्रकरणमें यह बात आ चुकीकि सेवकके कल्पित द्रव्यसे देवमें सरागता नहीं सिद्ध होती तो फिर बेचरदासके बकवादको कौन सच्चा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) मानेगा ? | अतः बेचरदासका यह कथन केवल कपोलकल्पित सिद्ध आ कि - 'जैनागम में देवद्रव्य नहीं है' ऐसे ऐसे पाठ होनेपरभी न मालूप क्या कारण है कि बेचरदास स्वयं मूढ बनकर औरोंको मूढ़ बनाता है । अस्तु, देवद्रव्यके विषय में और कोई शास्त्रका प्रमाण सुनाइए । समालोचक – देखिये ! नागपुरीयतपागच्छाधीश श्रीमद् रत्न-शेखरसूरि महाराज अपने बनाये हुए श्रीपाल चरित्रमें फरमाते है— कि - अरिहंतपए धवले, चंदण कप्पूरलेवासियवण्णे | eshhaणचतीसहीरयं गोलयं गवियं ॥ ८५ ॥ सिद्धपए पुण रत्ते, इगती सपवालमट्ठमाणिकं । नवरंग घुसिणविहियप्पलवगुरुगोलयं ठवियं ॥ ८६ ॥ कणया सूरिपए, गोलं गोमेयपंचरयणजुअं । छत्तीसकणयकुसुमं चंदणघुसिणंकियं ठवियं ॥ ८७ ॥ उज्झायपए नीले, अहिलयदलनीलगोलगं ठवियं । चरिंदनीलकलियं, मरगयपणवीसपयगजुअं ॥ ८८ ॥ साहुप : पुण सामे, समियमयं पंचरायपट्टकं । सगवीसरिट्ठमणि, भत्तीए गोलयं उत्रियं ॥ ८९ ॥ सेसेसुं सियपसुं, चंदणसियगोलए ठवइ राया । सगसगवण्णा सयरिपण्णमुत्ताहलसमे ॥ ९० ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) अर्थः-सफेद रंग वाले अरिहंत भगवंतके पदमें चन्दन और कर्पूरके लेपसे जिसका सफेद रंग है और जिसमें आठ कर्केतन (सफेद जातिके रत्नविशेष) और चौंतीस हीरे हैं ऐसा गोला स्थापन किया । यहां भाव यह है कि आठ प्रातिहार्योकी अपेक्षासे आठ कर्केतन रक्खे और चौंतीस अतिशयकी अपेक्षासे चौतीस हीरे रक्खे ।। ८५ ॥ ____ लाल रंगवाले सिद्धपदमें-इकतीस प्रवाल ( मुंगिए ) और आठ माणिक्य जिसमें रक्खें हैं ऐसा फिर नवीनरङ्गयुक्त केशर करके जिसमें लेप किया है ऐसा बड़ा गोला स्थापन किया. आठ कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुए आठ गुणकी अपेक्षासे आठ माणिक्य रक्खे. और इकत्तीस गुगों की अपेक्षासे इकत्तीस प्रवाल रक्खे ॥८६॥ पीले रङ्गवाले सू रिपदमें गोमेदनामकपंचरत्नसंयुक्त और जिसमें छत्तीस सोनेके पुष्प है ऐसा चंदन केशरसे लिप्त गोला रक्खा, ज्ञानादिपंचाचारकरके युक्त होनेसे पांच गोमेदरत्न खखे, और छत्तीसगुणयुक्त होनेसे छतीस सोनेके कुसुम रक्खे ।। ८७ ।। नीलवर्णवाले उपाध्यायपदमें चार इन्द्रनीलमणियुक्त और पच्चीस मरकत मणियुक्त नागवल्लीके दल जैसा नीलवर्णका गोला स्थापन किया। द्रव्यानुयोगादि चार अनुयोग युक्त होनेसे ४ इन्द्रनील, और पच्चीस गुणयुक्त होनेसे इतने मरकतमणि समझना ॥८८॥ श्याम रगंसे प्रसिद्ध साधुपदमें पंचरानपट्ट मणि (वैराटरत्न ) युक्त और सत्तावीस रिष्टमणि युक्त कस्तूरीसे लिप्तगोला भक्तिसे स्थापन किया १-श्यामरत्न विशेष. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ ) पंच महाव्रतकी अपेक्षासे पांच राजपट्टक (वैराटरत्न ) और सत्तावीस गुण की अपेक्षासे २७ रिष्टमणि रक्खे ॥ ८९ ॥ बाकी रहे हुए दर्शनादि चार श्वेतपद में ६७ । ५१ । ७० । ५० । मोतियों से युक्त चंदनके लेपसे सफेद गोला श्रीपाल राजाने स्थापन किया । यहांपर भी मोतियोंकी संख्या दर्शनादि गतभेदोंकी अपेक्षासे समझनी चाहिये ॥ ९० ॥ ___अब पाठकों को बिचार करना चाहियेकि श्रीपाल महाराजने ओलितपके उद्यापन में पूर्वोक्तविधिसे सिद्धचक्रके स्थापनकरनेमें हीरे मोती माणिक्य पन्ने प्रवाल नीलम आदि जो जो द्रव्य चढ़ाया उसको देवद्रव्य नहीं तो क्या कहें ? इससे सिद्ध होता है कि-देवद्रव्य मुनिसुव्रतस्वामीके समयमें भी था. इसलिये यह आधुनिक रिवाज नहीं कहा जा सकता ? फिरभी देखो ! यही आचार्य महाराज अपने बनाए हुए संबोधसप्ततिनामकप्रकरणमें लिखते हैं-कि जिणपवयण वुद्धिकरं, पभावगं नाणदसणगुणाणं । व तो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं ल ह ई जीवो ॥ ६६ ॥ अर्थ-ज्ञानदर्शन गुणोंके प्रभावक और जिनप्रवचनकी वृद्धि करनेवाले देवद्रव्यका रक्षण करता हुवा तीर्थकरपदको प्राप्त करता है. ॥ ६६ ॥ __ तटस्थ-जिनप्रवचन तथा ज्ञानदर्शन गुणोंकी वृद्धि देवद्रव्य से कैसे हो सकती है ? . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) समालोचक-जिनद्रव्यसे अनेक जैन मंदिर बन सकते हैंइस लिये जहां जहां पर जिन मन्दिर हो वहांके लोग प्रभुदर्शन और पूजनसे अपने दर्शन ( सम्यक्त्र ) को शुद्ध कर सकते हैं और उनकी निरंतर भक्ति और ; महोत्सवादि कार्यको देखकर बहुतसे भद्रिकप्रकृतिवाले जीव सुधर जाते हैं-बस यही जिनप्रवचनवृद्धिका कारण सिद्ध हुवा तथा प्रभुभक्तिसे ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमसे ज्ञानकी वृद्धि होति है। तटस्थ-अच्छा, देवद्रव्यका रक्षक तो तीर्थकर गोत्र नाम कर्म उपार्जन करता है परन्तु देवद्रव्यके निषेधक या भक्षकों की क्या गति होगी? समालोचक-उसी ग्रन्थके अंदर पूर्वोक्तआचार्यमहाराज लिखते हैं कि जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं भकरकंतो जिणदव्वं, अणंतसंसारिओ होइ ।। ६७ ।। भक्खेई जो उवेक्खेइ, जिणदव्वं तु सावओ। पन्नाहीणो भवे सोउ, लिप्पेइ पावकम्मुणा ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिनप्रवचनकी वृद्धि करनेवाला तथा ज्ञान दर्शन गुणोंका प्रभाक्क ऐसे देवद्रव्यको भक्षण करनेवाला अनन्तसंसारी होताहै, उपलक्षणसे. उसके निषेधकरनेवालेकोभी उत्सूत्रभाषी होनेके कारण अनन्तसंसारी समझना चाहियेः ॥ ६७ ॥ ___ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) जो श्रावक देवद्रव्यका भक्षण करता है तथा मक्षण करते हुए अन्यकी उपेक्षा करता है वह भवांतरमें (बुद्धि) हीन होताहै और पाप कर्मसे लिप्त होता है ॥ ६८ ॥ ___और देखिये श्राद्धदिनकृत्य- माष्यत्रय-कर्मग्रन्थादि अनेक ग्रन्थके कर्ता परम जिनमत प्रभावक श्रीदेवेन्द्रसूरि महाराज अपने बनाये हुए प्रथमकम्र्मग्रन्थम लिखते है कि उम्मग्गदेसणा मग्गनासणा देवदव्वहरहिं । दसणमोहं जिणमुणि-चेश्यसंघाइपडिणीओ॥५६॥ अर्थ--उन्मार्गकी देशना ( उत्सूत्र भाषण ), मार्गका नाश (धर्मके साधनको विच्छिन्न करना ) और देवद्रव्यका हरण करके जिन मुनि चैत्य मन्दिर ) और साधु साध्वी श्रावकश्राविकादि चतुर्विध संघका, प्रत्यमाक प्राणी दर्शनमोहनीयकर्मको बांधता है ॥५६ ॥ अगर देवय होताही नहीं तो ऐसे उत्तम महात्मा कर्मग्रंथमें कैरो लिखते है कि · देवद्रव्य भक्षण करने. बालोंको दर्शनमोहनीयका बंध होताहै । इससे साबित है कि देवदम्प था, है और होगा. धर्मधुरंधर प्राचीन महात्माओं के कथनपर जैन समाजकोजो निश्चय: है वह बेचरदासजैसे एक सामान्य मनुष्यके कथनपर कदापि नहीं होसकता। इस लिये बेचरदासने व्यर्थ भाषण देते समय इतनाभी विचार नहीं किया कि भाप्य-कर्मग्रन्थ-श्रावकदिनकृत्य धर्मरत्नप्रकरणटीका आदि ___ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) अनेक ग्रन्थके कर्त्ता और आदितपागच्छविरुदधारक श्री जगञ्चन्द्रसूरिके शिष्य देवेन्द्रसूरिमहाराजके ज्ञानके आगे मेरा ज्ञान क्या है ? उन महापुरुषोंके सामने मैं ऐसा हूं जैसा सूर्यके सामने खद्योत, इसलिये ऐसे महात्माके वचनोंसे विरुद्ध क्यों भाषण देता हूं ? क्या मेरे भाषणको जैनसमाज मानलेगा ? (मानना तो क्या बल्कि सहस्रशः धिक्कारवाद देंगें ) अगर बेचरदास भाषण से पहिले यह विचार करता तो ऐसा अनुचितकार्य कदापि नहीं करता, जो एक घातकके पातक सभी शास्त्रदृष्टिसें अधिक नीच माना गया है । तटस्थ - अगर बचेरदासको कर्मग्रंथ के इस पाठका भान न रहा हो तो अब इसपाठको देखके सुधर जाय तो क्या आश्चर्य है । इस लिये और भी पाठ लिखें जिससे वेचरदासकी आत्माको भी लाभ पहुंचे । समालोचक- तुम्हारा यह मानना है कि बेचरदास सुधर जाए परन्तु यह मानना मेरे खयाल से वन्ध्यासे पुत्र प्राप्ति जैसा हैं, क्योंकि बेचरदासने यह भूल अज्ञानावस्थामें नहीं की है किन्तु पूर्वजन्मके धोरपापकर्मो के उदयसे अपने किसी गुप्तइरादे को सफल करनेके लिये जानकर झूठामार्ग पकड़ा है इसलिये ढूंढियोंसेभी अधम बनकर कहदिया कि - ' मैं ग्यारह अंगको मानता हूं और उसमे भी मिश्रण है " - इस का मतलब यह है कि ग्यारह अंगमसभी जिसमें देवद्रव्यकी सिद्धि होगी उसमें 'मिश्रण है' ऐसा कहकर मुक्त हो जाउंगा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) बतलाइए ऐसा हठी आदमी कैसे सुधर सकता है । इस लिये इसके सुधरने के ख़यालको हृदयसे दूर कीजिये ! और अन्य ग्रन्थों के पाठों को सुन लीजिये । देखिये वेही देवेन्द्रसूरि महाराज श्राद्धदिनकृत्य में लिखते हैं कि--- 1 "चेइयदव्वं साहारणं च जो दुइ मोहियमईओ । धम्मं च सो न जाणइ, अहवा बद्धाउओ नरए || १२५ || अर्थ -- जो मोहमोहित मनुष्य चैत्यद्रव्य ( देवद्रव्य ) और साधारण द्रव्यका नाश करता है वह धर्मको जानताही नहीं या बद्धनरकायु है || १२५ || श्रीरत्नशेखरसूरिकृतश्राद्धविधिर्मभी प्राचीनपुरूषोंकी ऐसी गाथाएं बहुत आती है जिनसे देवद्रव्यकी सिद्धि अच्छी तरहसे होती है, जैसे कि "" चेइयदव्वविणासे, तद्दव्वविणासणे दुविहए | साहु उविक्खमाणो अनंतसंसारिओ होइ (भणिओ) १६६ " > भावार्थ - चैत्यद्रव्य - सुवर्ण चांदी आदि जो मंदिरका द्रव्य है उसके, विनाशको देखकर और ' तद्दव्वविणासणे दुविहभेए यानि चैत्यद्रव्यसे प्राप्त किया हुवा द्रव्य ( वस्तु ) अर्थात् देवद्रव्य से खरीदे हुए दो प्रकारके पाषाणादि द्रव्यके नाशको देखकर जो साधु उपेक्षा करता है तो वह अनन्तसंसारी होता है । १२६ । बस यही तो कारणहै ज्ञान ध्यान छोडकर हम अपना वक्त पुस्तक बनाने में V Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) लगातेहैं । अगर हम शक्ति होनेपर भी बेचरदासके भाषणकी उपेक्षा करें तो इस कथनानुसार हमारी भी यही दशा होवे, वरना बेचरदाससे हमारा लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। देखिये कुमारपालनृपप्रबोधककलिकालसर्वज्ञश्रीमद्हेमचंद्राचार्यविरचितत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके दशमपर्वमें लिखाहै कि " राज्ञः कुमारपालस्य, तस्य पुण्येन भूयसा । खन्यमानस्थले मंक्षु, प्रतिमाऽऽविर्भविष्यति ।। ८३ । तदा तस्यै प्रतिमायै, यदुदायनभूभुजा । ग्रामाणां शासनं दत्तं, तदप्याविर्भविष्यति । ८४ । इत्यादि. अर्थ- उस कुमारपालराजाके बड़े भारी पुण्यसे खुदातेहुवे स्थानमें जल्दी प्रतिमा प्रगट होगी ॥ ८३ ॥ तब उस प्रतिमाके वास्ते उदावनराजाने जिन जिन गामोंका शासन ( फरमान) दिया था सोभी प्रकट होगा ।। ८४ ॥ इस विषयक संवादमें तपोगच्छीयरत्नशेखरसूरिकृतश्राद्धविधिके छठे अधिकार में भी ऐसा अधिकार आता है तद्यथा-पांशुष्टौ भूगता कपिलर्षिप्रतिष्ठिता प्रतिमा श्रीगुरुमुखाज्ज्ञाता कुमारपालनृपेण । पांशुस्थलखानने उदायननृपदत्तशासनपत्राऽन्विता सद्यः स्फुटीभूता। यथावत् प्रपूज्य प्राज्योत्सवैरणहिल्लपत्तने नीता ॥ नव्यकारितगरीयस्तर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५) स्फाटिकप्रासादे न्यस्ता । पत्रलिखितमुदायननृपदत्तं ग्रामाकरादिशासनं सर्व प्रमाणीकृत्य चिरमर्चिता ।। इत्यादि । ____ अर्थ-कपिलऋषिकरके प्रतिष्ठित श्रीमहावीरस्वामीकी प्रतिमा जो धूलकी वर्षादसे जमीनमें दब गईथी उसे श्री कुमारपालनृपतिके ( गुरुमहाराजसे जाननेसे ) पांशुस्थलको खुदानेसे उदायनराजाके दिये हुए शासनपत्र (फरमान ) के साथ जल्दी प्रकट हुई । उस प्रतिमाको बड़े महोत्सवसे अणहिलपुरपाटणमें लाए नवीन बनाए हुए स्फटिकके बड़े दिव्यमंदिरमें स्थापनकी और उदायनराजाके दिये हुए ग्राम आदि जो शासनपत्रमें लिखेथे वे सब कायम रखकर प्रतिमा की बहुत काल तक पूजाकी । पाठकजनो ! अब विचार करोकि भगवान महावीरप्रभुके मंदिरमें उदायनराजाने जो गाम वगैरा दिये थे उन्हें देवद्रव्य नहीं तो और क्या कहाजावे ? इसी तरह कुमारपालमहाराजने उदायनराजाके फरमान पत्रको कायम रखकर अपने राज्यमेंसे उतनेही प्रामादि दिये वे देवद्रव्य नहीं तो और क्या ? इसी तरह सिद्धराजजयसिंहने सिद्धाचल और गिरनारजीके लिये जो बारह बारह ग्राम दियेथे सो देवद्रव्य नहीं तो और क्या? तटस्थ-आपने बहुतअच्छे अच्छे प्रमाण सुनाये और उन प्रमाणोमें प्राचीनसे प्राचीनप्रमाण मुनिसुव्रतस्वामीक वक्तमें हुए १ देखो कुमारपालप्रवन्ध पृष्ट ६. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए श्रीपालमहाराजके उद्यापनका सुनाया । और साबित किया कि उस वक्त भी देवद्रव्य था । क्या इससेभी प्राचीन कोई प्रमाण आपके पास है कि मुनिसुव्रतस्वामीसे जिससे पहिले भी देव. द्रव्य सिद्ध हो। समालोचक-हां, पंद्रहवें तीर्थङ्करश्रीधर्मनाथस्वामीके वक्त में भी देवद्रव्य था। जैसे श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराज. अपने बनाए त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रमें चौथे पर्वके पांचवें सर्गमें लिखते हैं. " पतिप्रसादादुद्भूता, ये प्राज्या रत्नराशयः । अनन्तं काञ्चनं यच्च, ये वा रजतसञ्चयाः ॥ ११४ ॥ मुक्तामया वज्रमया, जात्यरत्नमयाश्च ये। संमिश्रा ये च नेपथ्यसमुदायाः सहस्रशः ॥११५॥ यच्चान्यत्कोशसर्वस्वं, सप्तक्षेत्र्यां तदर्ग्यताम् । महापथपस्थितानां, पायेयं हीदमादिमम् ॥ ११६ ॥" भावार्थ-पुरुषसिंहवासुदेवके पिता जब असाध्य रोगसे पीडितहुए तब उसकी माताने ' मैं विधवा न कहलाउं' इस खया: लसे चितामें जलनेकी तय्यारीकी, तब लड़का माके पास मिलनेको गया। उस वक्त माता कहतीहैकि हे पुत्र ! पतिकी कृपासे उपार्जित की हुई जो बड़ी रत्नोंकी राशी है और बहुत काञ्चन है और चांदीका समूह है तथा मोती हीरे रत्नमय जो Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) आभूषण है और इनसे मिश्रित जो हजारों आभूषण हैं और मेरे पास जितना कोश (खजाना ) है इन सबको सात क्षेत्रमें लगादेना। क्योंकि परलोकमें जाते हुए जीवको यह पाथेय ( भत्ता ) है। देखिये इनसात क्षेत्रमें देवमंदिर भी हैं और पुरुषसिंहने अपनी माताके कथनानुसार जो देवमंदिरमें लाखोंका द्रव्य समर्पणकिया वह देवद्रव्य नहीं तो और क्या ? इससे सिद्ध हुआ कि-धर्मनाथ स्वामीकी वक्तमें भी यह रीवाज था. अगर तमाम तीर्थङ्करोंकी वक्तका वर्णन लिखें तो एक बड़ी भारी पुस्तक बनजाय और पाठकवर्गको और भी अनेकशास्त्रोंके पाठ सुनाने हैं इसलिये इस विषयमें ज्यादा लिखना नहीं चाहते । देखिये सोमधर्मगणिमहाराज उपदेश सप्ततिके पांचवे अधिकारमें फरमाते हैं कि'झान द्रव्यं यतोऽकल्प्यं, देवद्रव्यवदुच्यते । साधारणमपि द्रव्यं, कल्पते सङ्घसम्मतम् ।। २० ॥ एकत्रव स्थानके देववित्तं, क्षेत्रय्यामेव तु ज्ञानरिक्थम् । सप्तक्षेव्यां स्थापनीयं तृतीयं, श्रीसिद्धान्ते जैन एवं ब्रवीति ॥१॥" भावार्थ--दव द्रव्यकी तरह ज्ञानद्रव्य भी अकल्पनीय कहा जाता है, सड़की सम्मतिसे साधारणद्रव्यको सातक्षेत्र से किसी क्षेत्रमें लगा सकते हैं || २० || प्रथम देवद्रव्य है सो एक क्षेत्रमें ( देवमंदिर प्रभुपूजादि काममें ) ही लगाया जा सकता है, और दुसरा ज्ञानद्रव्य दो क्षेत्रमें (ज्ञानकार्यमें और देवकार्यमें ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) उपयुक्त हो सकता है, और तीसरा साधारणद्रव्य सातों क्षेत्रोंमे लग सकता है ऐसा सिद्धान्तमें कहा है । औरभी प्रमाण लीजिये श्रीरत्नखेखरसूरिमहाराज श्राद्धविधिके अन्दर प्राचीन आगमशास्त्रकी गाथाएं लिखते हैं: “ चोएइ चेइयाणं, खित्तहिरण्णे अ गामगोवाइ । लग्गतस्स उ जइणो, तिगरणसोही कहं तु भवे ॥ १ ॥ भन्नइ इत्थ विभासा, जो एयाई सयं विमग्गिज्जा ॥ तस्स न होई सोही, अह कोई हरिज्ज एयाई ॥ २ ॥ तत्थ करतो उवेहं, जा सा भणिया उ तिगरणविसोही । साय न होइ अभत्ती, तस्स य तमा निवारिज्जा ॥ ३ ॥ सव्वत्थामेण तर्हि संघेण य होइ लग्गियन्नं । सचरित्ताचरित्ताण य, सव्वेसि होइ कज्जन्तु ||४|| भावार्थ --- अगर साधु चैत्य संबन्धि क्षेत्र हिरण्य ( सोना ) गांव, गोप वग़ैराकी चिन्ता करे तो तीन प्रकार के संयम के धारण करनेवाले साधुकी त्रिकरणशुद्धि किस तरह होसके ? अब दो गाथाएंसे ऊपरकी शङ्काका समाधान करते हैं - इस विषय में विकल्प हैं- यानि साधुको इस विषयकी चिन्तामें त्रिकरणशुद्धि होती भी है और नहीं भी होती । अगर साधु देवद्रव्यकी वृद्धि करनेके लिये स्थान स्थान पर स्वयं याचनाकरे तो विशुद्धि नहीं होती. और जो देवद्रव्यादि पूर्वोक्त वस्तुके विनाशको देखकर उसके रक्षण में "" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) उद्यम करे तो त्रिकरण शुद्धि होतीहै ॥ २ ॥ इसलिये संपूर्ण बलसे चारित्रवाले और चारित्र वगैरके सकलसङ्घको उस काममें लग जाना चाहिये क्योंकि वह सबका काम है ।। ३ ॥ तटस्थ-आपने पूर्वाचार्योंके ग्रन्थोंके बहुतही अच्छे प्रमाण दिये हैं उन प्रमाणोंको सुनकर मैं रोमाञ्चित हुवा हूं । परन्तु आजसे लगभग पंद्रहसौ वर्ष पेश्तर चोदहसौ चुम्मालीस ग्रन्थोंके कर्ता परमप्रभावक याकिनीमहत्तरासूनु श्रीमद् हरिभद्रसरि महाराज नाम के आचार्य हुए हैं जिनको श्वेताम्बरशाखानुयायी सबगच्छवाले ( तपोगच्छ, खरतरगच्छ, बड़गच्छ, पार्श्वचंद्रगच्छ, कवलागच्छ आदि सब गच्छवाले ) अत्यन्त आदरपूर्वक मानते हैं इस · देवद्रव्यकी सिद्धिक विषयमै आप इनके जितने प्रमाण सुनाएंगे उतनाही जैनसमाजको विशेष निश्चय होगा, तथा नवाङ्गीटीकाकार श्रीअभयदेवसूरि महाराजके वचनमी प्रायः सभी गच्छवालोंको मान्यहैं अतः उक्त महात्माओंके वचन सुनानेकी कृपा करें ! जिससे सबकी श्रद्धा सुद्ध हो । समालोचक-पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट-श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज अपने बनाए हुए पूजाप्रकरण नामके चौथे पश्चाशकमें फरमाते हैं कि___ " सिद्धत्ययदहिअक्खय, गोरोयणमायरेहिं जहलाई। कंचणमोत्तियरयणाइदामएहिं च विविहेहिं ॥ १५॥" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) 1 व्याख्या —— सिद्धार्थकाः सर्षपाः । दधि च प्रतीतं । अक्षताश्व तण्डुलाः । दध्यक्षतम् । गोरोचना गोपित्तजा । एतेषां द्वन्द्वोऽतस्तदा दिभिरेतत्प्रभृतिभिः । आदिशब्दाच्छेशमङ्गल्य वस्तुपरिग्रहः । यथालाभं यथासंपत्ति । काञ्चनमौक्तिकरत्नादिदामकैश्च कनकमुक्ताफलमाणिक्यमालाभिश्च विविधै बहुप्रकारैः । - भावार्थ- - सिद्धार्थ - दहि- गोरोचन आदि करके तथा सोना, मोती, रत्न आदि मालाओं करके विविधप्रकार से पूजा करनी ॥ १५ ॥ अत्र पाठक जगको विचार करना चाहिये कि हरिभद्रसूरि और अभयदेवसूरि महाराज के किये हुए मूल तथा टीकाके वचनानुसार प्रभुको सोना - मोती - हीरे आदि जो चढ़ाये जावें वे देवद्रव्य नहीं तो और क्या ? बस साबित हुवा कि हरिभद्रसूरि महाराज और अभयदेवसूरि महाराज देवद्रव्य की बातको स्वीकार करते थे । फिर आगे चलकर प्रतिष्ठाप्रकरणनामके आठवें पञ्चाशक में हरिभद्रसूरि महाराज फरमाते हैं कि 66 उक्कोसिया य पूजा, पहाणदव्वेहिं एत्थ कायन्त्रा । ओसहिफलवत्यसुवण्णमुत्तरयणाइएहिं च ।। २९ ।। " श्री अभयसूरिकृता व्याख्या - उत्कर्षिका उत्कर्षवती । चशब्दः पुनरर्थः । पूजा पूजनमर्हद्भिम्बस्य प्रधानद्रयः प्रवरपूजाङ्गैश्चन्दनागरुकर्पूरपुप्पादिभिः । अत्राऽधिवासनाऽवसरे । कर्त्तव्या विधेया । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) औषधिफलवस्त्रसुवर्णमुक्तारत्नादिकैश्च प्रतीतैरेव । नवरमौषध्यो ब्रीह्यादयः । फलानि नालिकेरदाडिमादीनि इतिगाथार्थः ॥ २९ ॥ भावार्थ-औषधी-फल-वस्त्र सुवर्ण-मोती और रत्नादि प्रधानद्रव्यते भगवान्की उत्कृष्टपूजा करनी ॥ २९ ॥ इसी प्रकारसे श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरि महाराज-सं. ११४१ में अपने बनाए हुए महावीरचरियनामकग्रन्थमें इसी विषयको पुष्ट करनेवाली सिद्धान्तकी गाथा लिखते हैं" न्हाणविलेवणवरवासकुसुमधूवक्खएहि वत्थेहिं । रयणकणगाइएहिं, करेइ पूर्व जिणिंदाणं ४४५ " भावार्थ-स्नान-विलेपन-प्रधानवास-पुष्प-धूप-अक्षत-वस्त्रों करके और २त्न सोना आदि करके जिनेंद्रभगवान्की पूजा करें ॥ ४४५ ॥ इससे साबित हुआ कि ' देवद्रव्य ' यह एक प्राचीन शास्त्रोक्त कथन है. तटस्थ---आहा ! आपने बहुत अच्छे अच्छे प्रमाण देकर देवद्रव्यकी सिद्धि करने में किसी बात की भी कसर नहीं रक्खी है तथाऽपि “ अधिकस्याऽधिकं फलम् ' इस नियमको स्वीकार करके फिर प्रश्न करताहूं कि श्रीहरिभद्रसूरि महाराजने पञ्चाशकके सिवाय औरभी किसी पुस्तक में इस विषयका वर्णन किया है क्या ? जो हो तो फरमाइये. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) समालोचक—हां बेशक पञ्चाशकके सिवायभी अनेकग्रन्थोंमें उल्लेख आताहै. दखिये ! संबोधप्रकरणके अन्दर"पवरगुणहरिसजणयं, पहाणपुरिसेहिं जं तयाइण्णं । एगाणेगेहिं कयं, धीरा तं विंति जिणदव्वं ॥ ९५ ।। जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । जिणधणमुविक्खमाणो, दुल्लहबोहिं कुणइ जीवो ॥१९॥ जिणपवयणवुट्टिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । दोहंतो जिणदव्वं, दोहिचं दुग्गयं लहइ ॥ १०१॥" भावार्थ--उत्तम गुण और हर्षका जनक (पैदा करनेवाला) और प्रधानपुरुषोंका आचरण किया हुआ एक अथवा अनेक पुरुषों करके मंदिरमें एकत्रित किये हुए द्रव्यको धीरपुरुष देवद्रव्य कहतेहै ॥ ९५ ॥ जिनप्रवचनकी वृद्धि करने वाले और ज्ञान दर्शन गुणोंके प्रभावक ऐसे देवद्रव्यकी उपेक्षा करता हुवा जीव दुर्लभबोधिपनेको प्राप्त होताहै । ९९ । जिनप्रवचनकी वृद्धि करने वाले और ज्ञानदर्शनगुणोंके प्रकाशक ऐसे जिनद्रव्यसे व्याजवट्टेद्वारा लाभ स्वयं खानेवाला जीव दौर्भाग्य और दरिद्रावस्थाको प्राप्त करता है ॥ १०१॥ तटस्थ बस बस, अब बन्द कर दीजिए-श्रीहरिभद्रसूरि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) महागजके रचे हुए ग्रन्थों के प्रमाणसे तो हमको पूरा निश्चय होगयाहै कि-देवद्रव्य आगमसिद्धहै और ऐसे ऐसे अनेक ग्रन्थों में अन्य भी होंगे परन्तु अबतो श्रीमहावीरप्रभुक कथित और उनके. शिप्य आचार्योंके निर्मित पुस्तकका कोइभी प्रमाण दीजिए जिससे तमाम जैनसमाजको मालूमहो कि वेचरदास बड़ा झूठा आदमी है, और उसके भाषणको छपाकर घरघरमें बांटनेवाले देवद्रव्यसे अपने पापी पेटको भरनकी इच्छा रखते हैं । अथवा तो नरकगतिमें जाने के लिये कोई साथी बनाना चाहते हैं परन्तु जिसका कलेजा ठिकाने पर नहीं होगा वही उनकी बातको मान सकता है नहीं तो तुरत विचार करें कि-एक आदमीके धर्मविरुद्ध दिये हुए भाषण को यह अपने पैसेसे छपाकर प्रसिद्ध करताहै इसमें कुछ हेतु चाहिये, अन्यथा बड़े बड़े प्रभावक आचार्योंके बचनोंसे और आगमोंसे विरुद्ध भाषणको कैसे छपाकर प्रसिद्ध करता । अस्तु. अब आप मेरे मनोरथको पूर्ण करें। समालोचक- देखिये ! परमकृपाळु शासननायक भगवान् महावीरस्वामीसे श्रवण करके पवित्र आचार्य महाराज द्वारा निर्मित वसुदेवहिण्डके प्रथमखंडमें देवद्रव्य के विषयमें नीचे मुजब पाठ आता है 'जेण चेइयदव्वं विणासियं तेण जिणबिंबपूजादसणाणंदितहिययाणं भवसिद्धिआणं सम्मदंसणसुअओहिमणपज्जव Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) केवलनाणानिन्वाणलाभा पडिसिद्धा ॥ जा य तप्पभवा सुरमाणुसरिद्धि जा य महिमागमस्स साहुजणाओ धम्मोवएसो वि तस्सणुसज्जणाय सावि पडिसिद्धा। तओ दीहकालठितिरं दंसणमोहणिज्जं कम्मं निबन्धइ असायवेयणिज्जं च ॥ भावार्थ-जिसने चैत्य द्रव्य (देवद्रव्य ) का नाश किया उसने जिन प्रातमाकी पूजा और दर्शनसे आनन्दित होनेवाले भव्यजीवोंके सम्यक्दर्शन श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान तथा मोक्षके लाभोंका प्रतिषेध किया है इतनाही नहीं बल्कि उस देवद्रव्यसे होनेवाली देवमनुष्यकी ऋद्धि-आगमोंकी महिमा साधुओंसे होते हुए धर्मोपदेशका लाभ और उसका प्रवर्तन इन सब गुणोंका भी निषेध किया समझना चाहिये । इस लिये चैत्यद्रव्य ( देवद्रव्य ) का नाश करनेवाले-दीघकालकी स्थितिवाले दर्शनमोहनीय और अशातावेदनीयकर्मको बांधते हैं। पाठकजनो ! मेरेको बड़ा अफसोस होता है कि-मिथ्यात्व. मदिराके पानसे पूर्वोक्त ऐसे ऐसे शास्त्रकर्ताओंके अभिप्रायको वगैरही समझे बेचरदासने जैसे कोई पागलमनुष्य ज्यों मनमें आए त्यों बकवाद कर बैठता है वैसाही किया है पागलके बकवादसे पागलको विशेषहानि नहीं है परन्तु अनेक शास्त्रोंके अवलोकन करे वगैर वेचरदासने जो बकवाद किया है उससे उसको Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) इतनी हानि होगी कि अनन्त भवों तक नरक निगोदमें रुलनापड़ेगा । इस लिये अब भी मैं बेचरदासको हितबोध करता हूं कि . किसी गीतार्थगुरुसे इस बातका प्रायश्चित्त लेकर अपनीः आत्माका कल्याण करो । और मवभ्रमणके भयसे डरो । तथा अपनी मनः कल्पना को दूर करो । . तटस्थ-आ हा हा ! आपने तो मामला आखिर तक पहुंचादिया । यानि लगभग श्रीमहावीरप्रभुके समयमें बने हुए ग्रन्थोंका भी हवाला देकर हमारी तसल्ली करदीकि-' महावीरप्रभुके समयमें भी देवद्रव्यसूचक ग्रन्थ मौजूद थे ' मैं आपका बड़ा भारी उपकृत्यहूं। अब आप कृपाकरके देवद्रव्यको पञ्चाङ्गीसे साबित करदेंकि जिससे फिर किसी तरहकी शंका न रहे । क्योंकि-जब पैंतालीस आगमों से किसी भी आगमका प्रमाण देकर देवद्रव्यको साबित करदेंगे तो बेचरदासका तो क्या परन्तु उसके पेगंबरकामी वचन जैनसमाजको मान्य नहीं होसकेगा। समालोचक-लो ! अब आगमोंके पाठसे देवद्रव्य सिद्धकर दिखाते हैं। देखिये ! पैंतालीस आगममें भत्तपइन्ना नामका सूत्र है उसके. मूलमें वर्णन है कि"नियदव्यमउव्वजिणिंदभवणजिणविवरपइठासु । विअरइ पसत्यपुत्थयसुतित्यतित्थयरपूआसु ॥३१॥" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अर्थ — प्रधान जिनमंदिर के बनानेमें ( १ ) जिनेश्वरप्रभुके बिम्बकी प्रतिष्ठा में (२) श्रेष्ठ पुस्तकों को लिखानमें ( ३ ) और सुतीर्थ यानी ( ४ ) साधु . ( ५ ) साध्वी ( ६ ) श्रावक ( ७ ) श्रात्रिका इन सान क्षेत्र और प्रभुकी पूजामें धर्मिष्ठगृहस्थ अपने द्रव्यको वितरण करता है ( लगाता है ) ॥ ३१ ॥ भत्तपन्ना के इस मूल पाठसे भी देवद्रव्य सिद्ध हुआ । क्योंकि कोई मनुष्य भगवान् की भक्ति के निमित्त घर-गाम - शहर देश आदिको समर्पण करे ( इस इरादे से कि ' मेरेको इस भक्तिका लाभ हो,' तो वह देवद्रव्यही कहा जाएगा । क्योंकि उसने देवकी भक्तिके निमित्त वह द्रव्य चढ़ाया है । देखिये ! इसी तरह श्रीरायपसेणी सूत्र में भी सूर्याभदेवता के अधिकारमें पाठ आता है - ' तरणं से सूरिया देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अन्नेहिय बहूहिं सूरियाभविमाणवासिहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडे सव्वाढिए जाव वाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सिद्धाययणस्स पुरथिमिल्लेणं दारणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवछंदए जेणेव जिणमडिमाओ तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता जिणपडिमाणं आलोय पणामं करोति करिता लोमहत्थगं गिण्हइ, जिणपडि - माणं लोमहत्यणं पमज्जइ, पमज्जित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) गंधोदएणं न्हाणेति न्हाणेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणणं गायाणं अलिंपइ जिणपडिमाणं अहयाई देवदूसजुयलाई नियंसेइ पुप्फारुहणं मल्लारुहणं, गन्धारुहणं वण्णारहणं चुण्णारहणं वत्थारुहणं आभरणारुहणं करेइ करित्ता आसत्ता सत्ताविउलवट्टबग्धारियमल्लदामकलावं . करेइ करग्गहगहितकरयलप्पबुढविप्पमुक्केणं दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ करित्ता जिणपडिमाणं पुरतो अच्छेहिं सेएहिं रययामएहिं अच्छरसतंडुलेहिं अट्ठ मंगले आलिहइ तंजहा सोत्थिय जाव दप्पणा ८ तयाणंतरं च णं चंदप्पहरयणविमलदंड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघतगंधूत्तमाण चिठंति धूववुष्टि विणिमुयंतं वेरोलिय मयं कडुच्छयं परिग्ग हिय पयत्तेणं धूवं दाउणंजिण वराण' इत्यादि पाट है। भावार्थ-उसवक्त वह सूर्याभदेवता चारहजार सामानिकदेवता तथा दूसरे अनेक सूर्याभविमानवासि देव देविओंकरके परिवत हुआहुआ सब ऋद्धिके साथ यावत् वादित्रके शब्द करके जहां पर सिद्धायतन है वहां पर आया, और पूर्वके दरवाजेसे प्रवेश किया । और जहां देवछंदा तथा प्रभुप्रतिमाथी वहां पर आया, भगवान्के दर्शन होनेके साथही दोनो हाथ जोड़कर प्रणामकिया, और मयूरपिच्छीसे प्रभुप्रतिमाका प्रमार्जन किया, इसके बाद सुगंधी जलसे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (86) प्रभुको स्नान कराया, बादमें गोशीर्षचन्दनसे गात्र विलेपन किया, प्रभुप्रतिमापर दिव्यवस्त्र स्थापन किए, पुष्प चढ़ाये. मालाएं चढ़ाई, सुगंधारोहण चूर्णारोहण और वस्त्रारोहण किया (वस्त्र चढ़ाए ) आभरणारोहण किया ( गहने चढ़ाये ) इत्यादि बहुत विस्तार से सूर्याभदेवताने पूजा की। और पूजाके बाद चांदी के अक्षत से अष्टमंगल आलेखे हैं । अब पाठकवर्ग विचार करेंकि प्रभुको चढ़ाये हुए गहने और चांदी के अक्षतसे किये हुए अष्टमंगल, यह देवद्रव्य हुआ कि नहीं ? अवश्य मानना पड़ेगा कि हां, बेशक यह देवद्रव्य कहा जायगा । इसी तरह श्रीव्यवहारभाष्य में लिखा है कि 66 44 1 चेइयदव्वं विभयाकरेज्ज केई नरा सयठाए । समणं वा सोवहियं, वज्जा संजयट्ठाए ? " व्याख्या - चैत्यद्रव्यं चौराः समुदायेनाऽपहृत्य तन्मध्ये कश्चिन्नर आत्मीयेन भागेन स्वयमात्मनोऽर्थाय मोदकादि कुर्यात् । कृत्वा च संयतानां दद्यात् । यो वा संयतार्थाय श्रमणं सोपधिकं विक्रीणीयात्, विक्रीत्य च तत् प्रासुकं संयतादिभ्यो दद्यात् । 1 एयारिसम्म दव्वे, समणाणं किं नु कप्पई घेत्तुं । चेइयदव्वेण कथं, मुल्लेण वि जेसु विहियाणं ॥ तेण पढिच्छा लोए, विगरहियावित्तरे किमंग पुण । चेइयजइपडिणीए, जो गिन्हइ सो वि हु तहेव ।। " Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९) व्याख्या-एतादृशेन द्रव्येण गाथायां सप्तमी तृतीयाथै यत् आत्मार्थ तत् श्रमणानां किन्नु गृहीतुं कल्पते ? मुरिराह-यश्चैत्यद्रव्येण यच्च वा सुविहितानां मूल्येनाऽऽत्माऽर्थ कृतं तदीयमानं न कल्पते । किं कारणमिति चेदुच्यते-स्तेनानीतस्य प्रतीच्छा प्रतिग्रहणं लोकेऽपि गर्हिता किमङ्ग पुनरुत्तरे तत्र सुतरां गर्हिता यतश्चैत्ययतिप्रत्यनीके चैत्ययतिप्रत्यनीकम्य हस्तायो गृहणीयात् सोऽपि हु निश्चितं तथैव चैत्यप्रत्यनीका एव ।। इत्यादि । भावार्थ-शिष्य प्रश्न करता है कि-चौरोंका समुदाय चैत्यद्रव्यको हरणकरके लेगया उनमें से कोई मनुष्य अपना भागलेकर उससे लड्ड वगैरा बनाकर साधुओंको देवे और किसी चौरने उपधिसहित साधुको बेचकरके उत्पन्न किए धनमेंसे रसोई बनाईहै उसमें से प्रासुक आहार साधुको दे तो क्या वह आहार साधुको कल्पे ? आचार्य महाराज जवाब देते हैं कि वह आहार साधुको न कसे क्योंकि-यतियोंके शत्रु और चैत्यके शत्रुके पाससे आहार लेनेवाला भी यति और चैत्यका प्रत्यनीक (वैरी ) ही कहा जाताहै और ऐसे आहारके ग्रहणकरनेसे लोकोंमें भी निंद्य (निन्दाका पात्र) बनताहै देखिये ! ऐसे ऐसे अनेक सूत्रके पाठ होने परभी धिठाई करके बेचरदासने कह दिया कि-'देवदव्य जैन आगममें नहीं है' यह कितनी बड़ी भारी भूल की है आगमशास्त्रके ज्ञान वगैर बेचरदासने सभामें खड़े होकर यह कथन करते वक्त शायद ऐसा ___ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) मानलिया होगा कि-दुनिया सारी मूर्खहै मैं ही अक्लमंद हूं। परन्तु उसका यह मानना उसकीही मूर्खताको सिद्ध करता है। बेचरदासके देवद्रव्यसे विरुद्ध दिये हुए भाषणने व्यवहारभाष्यके इस पाठको सार्थक किया है । यानि चैत्यप्रत्यनीक, यतिप्रत्यनीक और लोकनिन्द्य यह तीनो टाइटल आगमसिद्ध देवद्रव्यके निषेध करनेसे वेचरदासने प्राप्त किये हैं, देखिये मात्र देवद्रव्यके निषेध करनेसे वेचरदासको आस्तिक लोकोंकी तरफसे तीन टाइटल मिले अगर कोई जैनमुनि या कोई जैनश्रावक उस देवद्रव्यको खाजाय तो उसकी क्या दशा हो वह इसी दृष्टांतसे पाठकजन स्वयं विचार करलें । तटस्थ-आप के दिये हुए भत्तपइन्ना प्रकरणके मूल पाठके प्रमाणसे तथा व्यवहारवृत्ति और पूर्वधर जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण कृत व्यवहारभाष्यके प्रमाणसे तथा रायपसेणीमूत्रके मूलपाट के प्रमाणसे मुझे यह पूर्ण निश्चय होगयाहै कि देवद्रव्य सिद्धान्तसम्मत द्रव्य है । और गप्पी वेचरदासका यह कहनाकि ' मूल आगाम देवद्रव्य नहीं है '. केवल कपोलकल्पित है । इस लिये आपके दिये हुवे इतने पाठोंसे मेरी तो तसल्ली ( दृढता) हो गई है। परन्तु कितनेक ऐसे हठी होते हैं कि एक तरफसे समाधान मिलने पर दूसरी तरफ दौड़ जाते हैं । जब पैंतालीस आगमोंमेंसे उपाङ्गपयन्नाआदिका प्रमाण दिया जाता है तब कहदेते हैं कि ' हम ग्यारह अङ्गको मानते हैं ' जब अङ्गका प्रमाण देते हैं तब उपाङ्गमें Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ घुस जाते हैं. मतलब उसके निषेध की हुई बातकी विधि जिस आगम शास्त्र में आतीहो उसी शास्त्रसे किनाराकसी करते हैं और *यत्र वैयाकरणास्तत्र नैयायिकाः यत्र नैयायिकास्तत्र वैयाकरणा, यत्र नोभये तत्र चोभये यत्र चोभये तत्र नोभये " इस कहावतको चरितार्थ करते हैं । जैसे थोड़े ही दिन पेश्तर भावनगर जैनधर्मप्रसारके सभामें बेचरदासने अपने किये हुए गुनाहंको नहीं स्वीकार करनेके लिये कहा था कि 'मैं ग्यारह अङ्गको मानता हूं । इस लिये आप कृपा करके ग्यारह अङ्गके अंदरसे किसी एकाद अङ्गसे भी देवद्रव्यको साबित कर देवें कि जिससे नास्तिकोंका मुंह बंद होजाए । समालोचक – देखिये ग्यारह अङ्गमेंसे श्रीज्ञातासूत्रनामके छठ्ठे अङ्गके सोलहवें अध्ययन में श्रीमती सती द्रौपदीजीके अधिकारमें लिखा है कि—— - “ तरणं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मज्जणघरमणुष्पविसर अणुष्पवि * इसका यह मतलब है कि धूतजन जहां वैयाकरण यानि व्याकरणके जाननेवाले हो वहाँ पर हम नैयायिक हैं ऐसा कह देते हैं । और जहां नयायिक होवे वहाँ पर हम व्याकरणक वेत्ता हैं ऐसा जाहेर करते हैं । और जहाँ दोनो विषयके अनभिज्ञ होवे वहां पर हम दोनों विषयक विज्ञ हैं ऐसा बतलाते हैं, और जहां पर दोनों विएसके वेता विद्यमान हो वहां पर उन्हें हारकर कहना पडता दे कि वारा हम कुछभी नहीं जानते । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) सित्ता न्हाया कयबालिकम्मा कयकोउयमंगलपायाच्छित्ता सुद्धपावेसाइं वत्थाई परिहियाई मज्जणघराउ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता जिणघरमणुपविसइ अणुपविसित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ करित्ता लोमहत्थगं पमज्जइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डाइ' ॥ इत्यादि । सारांश-उसवक्त वह राजवरकन्या द्रौपदी जहां मजनघर ( स्नानवर ) है वहां आई और स्नानघरमें प्रवेशकिया. स्नान किया. स्नानकरके धरमंदिरकी पूजाकी (द्रौपदीके इस अधिकारसे ' ग्रामके बाहर ही मन्दिर थे' वेचरदासका यह कहना सर्वथा मिथ्या सिद्ध होता है) बादमें अपमंगल और दुःस्वप्नकी घातक कितनीक क्रियायें करके जिनघरमें आई । और वहां आकर मयूरपिच्छीसे मूर्तिकी पडिलेहणाकरके सूर्याभदेवताकी तरह पूजा की. यहां 'सूर्याभदेवताकी तरह ' इसका यह मतलब है कि सूर्याभदेवने जैसे प्रभुको वस्त्र आभूषण वगैरे चढाये इसी तरह द्रौपदीनेभी चढ़ाये अर्थात् सब क्रियाका अनुकरण किया। इस पाठकी टीकामें नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि महाराज लिखते हैं कि'गंधानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स्म' अर्थात् द्रौपदीने गंधचूर्ण वस्त्र और आभूषणोंका आरोपण किया. ___ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) देखिये ! छठे अङ्गके इस मूलपाठसें भी देवद्रव्य सिद्ध हुआ। क्योंकि जो गहने आदि चढ़ाये गये उसे देवद्रव्यही कह सकते हैं. तटस्थ-आपने छट्टे अङ्गके मूलपाठसे देवद्रव्यको सिद्ध कर मेरे पर बड़ी भारी कृपा की है. मैं नहीं जानता कि-बेचरदासको क्या होगया है जोकि ऐसे ऐसे स्पष्ट पाठोंके होने पर भी जिसने देवद्रव्यके विषयमें अगड़ बगड़ उत्पटान भाषण देदिया . हां मालूम हुआ कि-इसके नसिबमें अनन्तकालतक संसारमें भटकर कर मरनेका ही होगा अन्यथा सूत्रविरुद्ध प्ररूपणा कदापि नहीं करता अस्तु, कृपाकरके पैंतालिस आगमोंमेंसे और भी प्रमाण सुनावे जिससे नास्तिकोंके संसर्गसे बिगड़ी हुई लोकोंकी श्रद्धा शुद्ध हो और आगे कभी ऐसे नास्तिकोंके जालमें न फसें। समालोचक-अच्छा देखिए ! बावीस हजारे आवश्यक सामायिकाध्ययनमें पत्र ३६८ वें में ) इसी विषयकी सिद्धि करनेवाला पाठ मिलता है तथाहि- सो य सेणियस्स सोवणियाण जवाणमट्टसतं करेइ, चेइयच्चणियाए परिवाडिए सेणिओ कारेइ तिसझं' भावार्थ-वह सोनार श्रेणिक महाराजके लिये सोनेके १०८ जव करता है, जिनेश्वर प्रभुकी पूजाके लिये श्रेणिक महाराज प्रातःकाल दुपहर और सन्ध्याको क्रमसे कराते हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) मतलब यह है कि चैत्य ( प्रभुमूर्ति ) की अग्रपूजा के लिये १०८ स्वर्णजवके साथिये सुवर्णका लाभ जिस श्रेणिक महाराज हमेशां तीनों संध्यामें करते थे. अब विचार करो कि हमेशा इतने मंदिरमें होताथा क्या उस मंदिर में देवद्रव्य जमा नहीं हो कोई बुद्धिमान मान सकता है ? देखिये ! इसी विषयका पाठ पूर्वधर कृतआवश्यकचूर्णिके प्रथम सामायिकाध्ययनमें भी आता है । तथा च तत्पाठः- “ सो य सेणियस्स अट्ठसतं सोवणियाण जवाण करेई अचणिता निमित्तं तं परिवाड़िए सेणिओ कारेइ तिसंझं " इस पाठका अर्थ ऊपर मुजब है | इसी तरह श्री जीवाभिगमसूत्र में विजयपोलिया के अधिकार में ( छापा पृ० ६०९ में ) लिखा है कि ' से विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अनेहिय बहुहिं वाणमंतरेहिं देवेहि देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सब्बडीए सब्वजुइए निग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता सिद्धाययणमणुष्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ अणुपप्पविसित्ता जेणेव देवच्छन्दए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता आलोए जिणपड़िमाणं पणामं करेइ, पणामं करिता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिव्हित्ता जिणपड़िमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति, लोमस्थपणं पमज्जित्ता सुरभिणारा गंधोदरण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) न्हाणित्ता दिव्वाए सुरभिए गंधकासाइए गात्ताई लुहेति गाताई अलिंपइ अणुर्लिपित्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिव्वाई देवसजुअलाई नियंसेइ, नियंसित्ता अग्गेहिं वरेहिं मल्लेहि य अच्चेइ, अच्चित्ता पुप्फारुहणं गंधारुहणं आभरणारुहणं करेइ " सारांश - वह विजय देवता चार हजार सामानिक देवता तथा अनेक वाणमन्तर देवदेवियोंकी साथ परिवृत हुआ हुआ सब ऋध्यादिकी साथ जहां सिद्धायतन था वहां आया और उस सिद्धायतनको प्रदक्षिणा देकर पूर्व दिशा के दरवाजेसे प्रवेश करके जहां देवछंदा थी वहां आया फिर जिनप्रतिमाके दर्शन होते के साथ प्रणाम किया. और मयूरपिच्छी लेकर प्रतिमाका प्रमार्जन किया, इसके बाद सुगन्धित जल से स्नान कराया. फिर दिव्य सुगन्धित वस्त्रसे अङ्गलंछन किया. बाद गोशीर्षचन्दनादि करके प्रभुको विलेपन किया तदनन्तर देवदूष्ययुगल चढ़ाया और श्रेष्ठ मालाओं से अर्चन किया. बाद में पुष्पारोहण गंधारोहण और आभूषणारोहण किया यानि पुष्पवासक्षेप - गहना वगैरे चढ़ाये । देखिये ! ऐसे ऐसे पाठोंके होने पर कौन कह सकता है कि'देवद्रव्य आगमविहित नहीं है ' तथा निशीथचूर्णिमें भी सोलहवें उद्देसे में प्राचीन देवद्रव्यको सिद्ध करने वाला पाठ नीचे मुजब है. तद्यथा · - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) " चेइयाणं वा तद्दव्वविणासे वा संजईकारणे वा अनंमि वा कमिय कजे रायाहीणे सो य राया तं कजं न करेइ सयं वुग्गाहिओ वा तस्साउंटणनिमित्तं दगतीरे आयाविज्जा तं च दगतीरं तस्स रण्णो ओलोयणे ठियं" । भावार्थ- चैत्यका या चैत्यद्रव्य-देवद्रव्यका विनास होता तथा साध्वीपर बलात्कार होता हो अथवा और कोई राज्याधीन कार्य हो उस कार्यको राजा व्युद्ग्राहित (किसीका भरमाया हुआ) या स्वयं न करता होवे तो उसको वश करनेके लिये जलाश्रयकी पास जाकर साधु आतापना करे और वह जलाश्रय राजाकी नजरमें हो । इत्यादि पाठ अन्य आगमोंमें भी हैं. अगर उन सब पाठोंका यहां पर उल्लेख करें तो एक बड़ी भारी पुस्तक बनजाय. परन्तु अवकाशके अभावसें और अकलमंदको इशारा ही काफी है इस ख्यालसे नहीं लिखे जाते । तटस्थ-महाराज ! अब देवद्रव्यको सिद्ध करनेके लिये पाठोंकी जरूरत नहीं है क्यों कि आपने पाठोंके सुनानेमें कुछ कसर नहीं रक्खी है. अब आगेका खण्डन कीजिये । वेचरदास-' आ कारणथी मने जिज्ञासा उत्पन्न थई अने मूल जैन आगमोंमां आ देवद्रव्य शब्द छे के केम ते तपासवानो मैं निश्चय कर्यो जैनशास्त्रो ( मूल ) नी बारीक तपास पछी मने जणायु के आ देवद्रव्यशब्दनो प्रयोग मूठमां कोईज ठेकाणे नथी' Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) समालोचक-बेचरदासके उपरके कथनका खण्डन प्रथमके कथनके खण्डनमें अनेक आगमोंके पञ्चाङ्गी प्रमाणसे किया गया है यानी मूलपाठसे भी देवद्रव्यको सिद्ध किया है उससे तथा वीतरागप्रमुके साथ द्रव्यके संबन्धका जो समाधान किया है उससे अच्छी तरहसे हो चुका है. तटस्थ हां जी ! हां साधारण खण्डन नहीं किया किन्तु खण्डशः खण्डन हो चुका है । और आपने अच्छी तरह साबित कर दिया है कि बेचरदासने शास्त्रोंका अध्ययन ही नहीं किया । अगर किया होता तो आपने इतने प्रमाण दिये उनमें से एक भी इसके देखने में नहीं आया क्या ऐसा बन सकता है ? इससे हम अच्छी तरह से जान गये हैं कि वेचरदासने आगम बागम कुछ भी नहीं देख मात्र आगमके नामसे लोगोंको भ्रमणामें डालता है. मैं द्वेष भावसे ऐसा नहीं कहता किन्तु " वीतराग प्रभुका द्रव्य नहीं हो सकता इस लिये मेरेको आगम पढ़नेकी निज्ञासा हुई इत्यादि " कथन से ही उसका मृषावादीपणा और देवद्रव्यकी साथ द्वेषपरायणताका मुझे भान हुवा है इससे कहता हूं, क्यों कि अगर वह भला मनुष्य होता तो शास्त्रवचनसे विरुद्ध होकर सूत्रका अध्ययनही नहीं करता अगर भूलसे कभी कर लिया होता तो सूत्रों के पठनका हेतु यह बताता कि-सूत्र में कैसी कैसी वैराग्यकी बातें आती है, भगवान्का कैसा अगाध ज्ञान है । 'सवी जीव करूं शासन रसी, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) इसी भाव दया मन उल्लसी' ऐसे भावदयाके सिन्धु परमकृपाळु. भगवान महावीर प्रभुकं सूत्रोंमें कैसे उद्गार हैं ? इन बातोंको जाननेके लिये सूत्र पढनेकी जिज्ञासा हुई परन्तु वेचरदासके कथनसे तो यह साफही सिद्ध होता है कि उसका वांचनेका हेतु मात्र ‘देवद्रव्य आगममें है या नहीं ' इतना ही था । क्या वेचरदासके दिये हुए हेतुसे और उसकी की हुई कुतर्कोसे ही उसकी देवद्रव्यके साथ द्वेषपरायणता सिद्ध नहीं होती ? अवश्यमेव होती है। इस लिये ' आ करणथी' ऐसे अक्षरोंसे लेकर ' कोइज ठेकाणे नथी' इन अक्षरों तकके कथनके खण्डनको छोड़ आगेके. विषयका खण्डन कर दिखाइए । वेचरदास-' परन्तु आ शब्द तात्रिकयुगमां आपणा केटलाक साधुओए दाखिल कीधो छ । समालोचक-बेचरदास ! तुम्हारी अक्लको क्या हो गया है क्या किसी पोस्तीकी दोस्ती तो नहीं की ? जरा विचार तो करनाथा कि तान्त्रिकयुगके असरसे अगर साधुलोग शास्त्रोंमें शब्द दाखिल करते तो मदिरा पान करना मांस खाना मैथुन सेवन करना इत्यादि पांच मकार ' के माननेसे मोक्ष होता है ऐसे अक्षर दाखिल करते और जो त्याग है वह सर्व उड़ादेते क्यों कि तान्त्रिक लोकोंका ऐसा ही मानना है । देखिये तान्त्रिकोंने एक श्लोकमें क्या लिखा है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) " फेचिदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणां, केचिद्वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु । मो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षा जम्बीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे ॥ १॥ अर्थ-कितनेक कहते है कि देवलोकमें अमृत है, तो कित.. क कहते हैं कि स्त्रीके ओष्टपल्लवोंमें अमृत है परन्तु सर्वशास्त्रोंके वेचारमें निपुण हम ( तान्त्रिक लोग ) कहते हैं कि-निम्बुके रससे परिपूरित ( भरपूर ) मछलीके खण्डमें ( मछलीके आचारमें ). अमृत रहा है ॥ १ ॥ अब विचार करो ऐसे अधम तान्त्रिकजनोंका असर अपने ( जैनके ) साधुओं पर होना कैंसे माना जावे ।। हां, यदि अपने ग्रन्थों में भी ऐसा विषय आता तो वेचरदासका कहना ठीक था, परन्तु अपने ग्रन्थों में तो ऐसे कुकर्म करनेवालोंको अधोगतिकी प्राप्ति लिखी हैं । इस लिये तान्त्रिकयुगका असर जैन साधुओं पर हुआ ऐसा कहना महामृषावाद है। बस सिद्धः हुवा . कि- देवद्रव्य शब्दका तान्त्रिकयुगसे कुछ भी संबन्ध नहीं है । क्या कोइभी ऐसे तान्त्रिक ग्रन्थको बेचरदास बता सकता है ! कि जिसमें देवद्रव्यके भक्षणसे घोर नरकगतिकी प्राप्ति लिखी हो, और उसके रक्षणसे स्वर्गादि संपत् प्राप्तिका जिकर होवे, “ आ. शब्द तान्त्रिक युगमां आपणा केटलाक साधुओए दाखिल कीघो छे" बस इस कथनसेही वेचरदासको कितना ज्ञान है इस बातकी कसोटी हो जाती है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) बेचरदास - ' आ शब्दो दाखल करवामां साधुओनो शुं - मतलब हशे ते बाबत तपासवानी मने जिज्ञासा थई अने तपास करतां जणायुं के ज्यारे विषमकाल शरू थयो अने आगमोमां सा ओ माटे जे अति उच्च कोटीनो आचार अने त्याग वर्णव्यो हतो ते ज्यारे साधुओ माटे कालस्वभावथी पालवो अशक्य थई पडयो ज्यारे साधुओए उद्यान अने जङ्गलोमांज रही आत्मामां मस्त रहेवानुं मांडी वाल्युं अने तेओ वस्तिमां आववा लाग्या अने आहारादिनी उपाधिने योगे तेओए श्रावकोनें, देवोने आ चढावबुं, आ पहेराववु. आ लटकाववुं. वगैरे मार्गे फक्त पोताना स्वार्थना संतोष माटे उपदेश्या. अने आ उपदेशना समर्थनमां केटलाएक साधुओए आ युगमां एवा संस्कृतग्रन्थो लखी नाख्या छे के जेमां देवद्रव्यने नुकसान करवामां महापाप जणाववामां आव्युं छे " . समालोचक- पाठकजनों ! अब जरा विचार कर देखिये ! कि बेचरदासने कितनी असत्य बातें कथन की हैं ? काल स्वभावसे साधुओं से कठिन आचार नहीं पलसका तब शहर में रहने लगे और आहारादिकी उपाधिके योगसे देवोंको यह चढ़ाना. यह पहिराना. इत्यादि मार्ग अपने स्वार्थ के खातिर प्ररूपे हैं - बेचरदास ! तुहारी बुद्धि क्या पत्थर हो गई है, जो जराभी विचारको अवकाश नहीं मिलता. अगर साधु लोगोंको अपना स्वार्थही पोषण करना होता तो 'देवद्रव्य खाने में महा पाप है ' यह वाक्य कैसे लिखते ? क्योंकि स्वयं खानेवाला खानेका निषेध कदापि नहीं करता, परन्तु Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) अपने जैनमन्थों में तो देवद्रव्य खानेवालेको अनन्त संसारी लिखा है, अगर शिथिल साधुओंने आहारादि उपाधिके लिये ग्रन्थ बनाये होते और उनमें देवद्रव्य शब्द दाखिल किया होता तो साथमें यह भी लिखा होता कि ' साधु देवको चढ़ाया हुवा माल खासकते हैं, पर श्रावक नहीं खासकते ' और देवद्रव्यके मालिक साधुही होते हैं । परन्तु जैनग्रन्थों में ऐसे लेखकी तो गंधभी नहीं है और खानेवालेको अत्यन्त दोषी माना है । इस बातको तुम खुदभी अपने भाषण में स्वीकार करते हो कि देवद्रव्यका नुकसान करने से महापाप होना लिखा है | बेचरदास ! तुमने आपही अपने पांव पर कुल्हाड़े मारने जैसा किया, क्योंकि आहारादिकी उपाधिके लिये देवद्रव्यकी प्रवृत्ति में शिथिल साधुओं को हेतु मानते हो और साथही देवद्रव्य के नुकसान से महापाप होता है ऐसा शिथिलाचारियोंका कथन जाहिर करतेहो जिससे तुम्हारे कथनसे ही तुम्हारा खण्डन हो जाता है । अगर आहारादिक खानेपीने के लोभसे जो देवद्रव्यका रिवाज कायम किया होता तो उसके भक्षणका अनन्तसंसारपरिभ्रमणरूप तथा नरक -- निगोदके अनन्तदुःखरूप जो फल वर्णन किया हैं सो कदापि नहीं करते । और फल वर्णन किया है तो फिर खाने के लिये देवद्रव्यशब्दको शास्त्रमें दाखिल किया ऐसा कैसे सिद्ध हो सकता है । इससे मालुम होता है कि बेचरदासका कथन पूर्ण मृषावादसे भराहुवा और परस्पर विरुद्धताको धारण करता है । पाठकजनों ! जरा विचार करो कि क्या ऐसा कभी बन सकता है जो तमाम साधु Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) शथिलाचारी बन जाये ? अगर नहीं तो फिर जिन शिथिलाचारियों। ऐसा रिवाज निकाला उसके विरुद्ध शुद्धाचारियों की तरफसे उस वेषयका खण्डन किसीभी पुस्तकमें लिखा होना चाहिये जैसे कि जिनवल्लभमूरिकृतसंघपट्टकके सातवें कान्यकी टीकामें चैत्यवासिओं. का खण्डन करनेके लिये जिनपतिसूरि लिखते हैं कि-' तथा शङ्काशादिश्रावकाणां चैत्यद्रव्योपभोगिनामत्यन्तदारुणविपाकस्याऽऽगमेऽपि बहुधा श्रवणात् भावार्थ-शंकाशादि श्रावकोंको देवद्रव्यके भक्षणसे भयङ्कर दुःख सहन करने पड़े । ऐसा आगमों में अनेक वार श्रवण करनेसे देवद्रव्यका भक्षण अनन्त दुःखप्रद है इस लिये हे चैत्यवासिओं ? चैत्यद्रव्यसे बने हुवे मंदिरों में रहना और देवद्रव्यकी वस्तुको उपभोगमें लेनी छोड़दो । यह तुम्हारा रिवान ठीक नहीं है, इत्यादि चैत्यवासिओंका खूब खण्डन किया है । अगर जो देवद्रव्य शास्त्रसिद्ध न होता तो सङ्घपट्टकमें इस विषयका भी खण्डन करते कि 'हे शिथिलचारी चैत्यवासिओं, यह देवद्रव्य शब्द तुमने अपनी मतिकल्पनासे निकाला है-किसी भी शास्त्रमें नहीं हैं इस नूतनशास्त्रविरुद्ध कल्पनासे तुम अनन्तसंसारी होजाओगे इत्यादि लिखा होता; परन्तु किसी भी जैनग्रन्थमें ऐसा बर्णन नहीं है । इस लिये बेचरदासका यह कहना कि ' देवद्रव्य शिथिलाचारियोंका चलाया हुआ मार्ग है' महा मृषावाद है. बादमें उसने अपने भाषणमें कहा है कि उन शिथिलाचारियोंने इस विषयके संस्कृत ग्रन् ___ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) बनाये हैं यह भी एक इसका दारुण मृषावाद है. क्योंकि अगर शिथिलाचारि अपने स्वार्थपोषण करनेके लिये ग्रन्थ बनाते तो उसमें विषयोंका ही महात्म्य गाया जाता। जैसे तात्रिकशास्त्रों में गाया गया है, और लिखते कि- साधुओंको घोड़े गाड़ीमें बैठना चाहिये. स्त्रियों के साथ प्रेमसे हिलमिलकर रहना चाहिये, फल फूल मेवे मिठाई आदि जो कुछ मिले भक्ष्याभक्ष्यका विचार किये वगैर खालेने, चाहिये '-परन्तु ऐसे विषयपोषकवाक्योंकी जैनग्रन्थोंमें गन्धभी नहीं है । अब विचार करना चाहिये कि शिथिलाचारियोंको और कोई विषयपोषकपदार्थका निरूपण करना नहीं सूझा, जो एक देवद्रव्य शब्दको पकड़ लिया । और फिर उसके नुकसानमें पाप बतलाया जिससे स्वार्थ पोषक मनोरथ भी सिद्ध नहीं हो कसता, बतलाइए अब ऐसे कथन करनेवालेको अक्लका दुश्मन कहना या मूखौंका सरदार कहना चाहिये या पशु कहना चाहिये, या धर्मादेका अन्न खाकर धर्मकाही नाश करनेसे धर्मद्रोही कहना चाहिये? जिसने यह भी नहीं विचार किया कि अगर प्राचीन मुनियोंको शास्त्रविरुद्ध बातें अपने शिथिलाचारको चलाने के लिये निकालनीही थी तो फिर मूल आगमों में स्थान स्थान पर ऐसे ही विचारके पाठ डालनेमें उन्हें क्या आलस थी. जो ऐसा नहीं किया । इससे साबित होता है कि कर्मसंयोगसे कितनेक प्राचीनमुनि शिथिल हो गये थे और वे चैत्यवासी कहलाते थे तथापि श्रद्धासे भ्रष्ट नहीं होनेसे उन्होंने आगमविरुद्ध शास्त्र नहीं रचे और आगम पाठ नहीं बिगाड़े। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) इस लिये देवद्रव्यविषयके पोषक जितने शास्त्र हैं वे सब आगम अनुसार हैं तथा बेचरदासका यह कहना कि ' साधुओं प्रथम जङ्गलमें ही रहते थे' निरी गप्प है क्यों कि साधुओंके लिये शहरमें रहनेका निषेध किसीभी आगेमप्रमाणसे सिद्ध नहीं होता । शायद बेचरदासने गप्प मारनेकाही ठेका ले रक्खा होगा। हां वेशक जिनकल्पी या कितनेक स्थिविरकल्पी जंगलों में रहते थे. परन्तु सब साधु जंगलमें नहीं रहतेथे, इस लिये बेचरदासका ' साधुओ जंगलमांज रही' इत्यादि कहना कपोलकल्पित है । अगर नहीं तो किसी सूत्रका पाठहो तो बताएकि जिसमें साधुओंको शहरणे रहनेकी मनाई की है। तटस्थ-अजी ! आपके कहनेसे यह तो जान लिया कि सूत्र ग्रन्थमें शहरमें रहनेका निषेध नहीं होगा. परन्तु कहीं विधि है ( रहने का जिकर है ) क्या ? जब तक आप शहरमें रहनेकी. बिधिको आगम प्रमाणसें साबित नही करेंगे वहांतक भोले भद्रिक लोगोंकी समजमें बात नहीं आ सकेगी इस लिये कृपाकर साधुओंको शहरमें रहनेकी विधि बतलाइए जिससे बेचरदासका वह भाषण कि ' साधु लोग गाममें रहने लगे तब देवद्रव्यकी रूढि शुरू हुई; ' झूठा साबित हो जाय । समालोचक-देखिए-पैंतालिस आगममें श्रीनिशीथसूत्र भी है उसकी चूर्णिके दूसरे उद्देसेमें लिखा है कि-" गामाणुगामं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) दुइज्माणा वेयाले गामं पत्ता, जइ य वसही न लभति ताहे बाहिं वसंतु, मा अदत्तं गिद्धंतु " इत्यादि । । भावार्थ- ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु लोक सन्ध्यासमय गामको प्राप्त हुवे होवे और उस गाममें वसति ( मकान ) न मिले तो बहार रहें परन्तु बगैर दिये हुवे मकानमें न रहें ' देखिये इस निशीवचूर्णिके पाठसे कैसा साफ सिद्ध होगया है कि-साधुओं को वसति न मिले तो बहार रहें. अब ' साधुओए जंगलोंमांज रही ' इत्यादि बेचरदासका कथन कितनी असत्यता से भरा हुआ हैं, वो पाठकजन स्वयं विचार कर लेंवें । देखिये इसी ग्रन्थके इसी उद्देसे में लिखा हुवा है कि- ' थले देउलिया गाहा, एगो गामो तस्स य मज्झे थलं तम्मि य थले गामेण मिलि देउलं कतं तत्थ साहु ठिता ' इत्यादि । अर्थ - एक गामके मध्य में स्थल है उस स्थलमें गामके लोगोंने मिलके एक देवल बन्धाया, उसमें साधु रहे । इस पाठसे भी गाम में रहना स्पष्ट सिद्ध होता है फिरभी इसी उद्देसेमें-- सव्वो पावरणगाहा, एगम्मि नगरे सेट्ठिघरे एगनिवेसणे पंचसयगच्छो वासासु ठितो' इत्यादि । अर्थ - एक नगर में एक सेठ के घर में पांचसौ साधु चौमासा रहे । देखिये इससे भी साधुओं का नगरनें रहना सिद्ध होता है, ऐसे निशीथसूत्र में अनेक स्थलों पर पाठ . आते हैं और देखिये व्यवहारभाष्यके पत्र ४८६ में लिखा है कि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) 'डहरगाममयम्मि, न करेंति जा न निणियं होति । पुर गामे व महंते, वाडव साहिं परिहरन्ति ' ॥ व्याख्या--डहरके-क्षुल्लकग्रामे कोऽपि मृतस्तस्मिन्मृते तावत् स्वाध्यायो न क्रियते यावत्तत् कलेवरं न निष्कासितं भवति । पुरे पत्तने महति वा ग्रामे वाटके साही वा यदि मृतः तदा तं पाटकं साहिं वा परिहन्ति, किमुक्तं भवति वाटकात् साहितोऽन्यत्र मृते नाऽस्वाध्यायः ' इत्यादि । भावार्थ-छोटे गाममें कोई मरण हो तो जब तक उस शब ( मुर्दे) को न निकाले तबतक साधुलोग स्वाध्याय न करें । और बड़े शहरमें या बड़े गाममें रहते हों तो जिस मोहलेमें या गली में वसते हों उसमें अगर मृतकका कलेवर हो तो स्वाध्याय न करें। और उससे दूर हों तो करें । बतलाइए अगर साधु जंगल में ही रहते हों तो इस विषयके जिकरकी क्या जरूरत थी. क्या जंगलोंमेंभी कूचा, मोहला होता है ? कदापि नहीं । इससे भी बेचरदासका यह कथन कि — जंगलोमांज रही' असत्य ठहरता है । और इस वाक्यके असत्य हो जानेसे सारे भाषणका सारांश उड़ जाता है । क्योंकि भाषाका मतलब देवद्रव्यको उड़ा देनेका है, और देवद्रव्यको उड़ानेके लिये ही यह दलील पेश की है कि 'साधु भों के गाममें रहने से यह प्रथा शुरू हुई '-अब साधु लोगोंका तो आगमप्रमाणसे हमेशा गाममें रहना सिद्ध हुवा । वस इससे देवद्रव्यभी हमेशासे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) होना सिद्ध हुआ । तब बेचरदासका भाषण देवद्रव्यके उड़ाने में ऐसा निष्फल हुआ कि जैसे नपुंसक पुत्रप्रसवकी इच्छामें हतोत्साह बनता है । व्यवहारभाष्यमें लिखा है कि , पुप्फाव किण्णमंडलियावलियाउवस्सया भवे तिविहा ' | इत्यादि ॥ व्याख्या - कचिद् ग्रामे नगरे वा साधवः पृथगुपाश्रये स्थिताः ते च उपाश्रयास्त्रिविधा भवेयुः - 6 पुष्पावकीर्णका मण्डलिकाबद्धा आवलिकास्थिताः। इत्यादि । भावार्थ - उपाश्रय तीन प्रकारके होते हैं, पुष्पावकीर्ण, माण्डलिक और आवलिकाबद्ध | किसी गाम या नगरमें साधु लोग किसी जुदेजुदे उपाश्रय में ठहरे हों x x x x x इस विषयका बड़ा पाठ है । इससे भी साधुओं का शहरमें रहना साबित होता है । तटस्थ — आ ! हा ! हा ! आपने बहुत प्राचीन सूत्र ग्रन्थोंके पाठ दिये जिनसे साफ सिद्ध होगया कि बेचरदासके वाक्य असत्यता से कूट कूट कर भरे हुए हैं । इसलिये सर्वथा अनुपादेय हैं । तथा अपने को तो पञ्चाङ्गी सर्वप्रकारसे मान्य है । क्योंकि आपने व्यवहारभाष्यकी गाथा लिखी सो पूर्वघर कृत है तथा निशीथचूर्णिका प्रमाण दिया सो पूर्वघर महत्तर जिनदासगणि कृत हैं । अतः सकलश्वेताम्बरों को मान्य है । परन्तु बेचरदास जैसे दुराग्रहियोंकी तरफसे प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होगा कि ' साधुको नगर में रहनेका पाठ मूलमें बतलाइए | Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) समालोचक-लीजिए मूलपाठका प्रमाण दिया जाता है. हत्कल्पके पहले उद्देसे में लिखा है कि "न कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा रत्थामुहांस वा संघाडगसि वा तियंसि वा चउकंसि वा चचरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ॥ १२ ॥ कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणसि वा वत्थए ॥ १३ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारियउवस्सए वत्थए ॥ २७ ॥ कप्पइ निग्गंथागं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए ॥ २८ ॥" भावार्थ-साध्वीओंको दुकानमें सरियान मकानमें शृंगाटकाकारमार्गवाले स्थानों और तीन-चार या अनेक रास्ते जहांपर मिलते होवें वहां और अंतरापणस्थानमें रहना नहीं कल्पे ॥ १२ ॥ साधुओंको पूर्वोक्त स्थानमें (साध्वीको निषेधकिये हुए स्थानमें) रहना कल्पता है ॥ १३ ॥ स्त्रीसहित उपाश्रयमें साधुओंको रहना नही कल्पता ॥ २७ ॥ और साधुओंको पुरुषसहित वस्तिमें रहना कल्पता है ॥ २८ ॥ देखिए ! इन पाठोंसे साधुओंका शहरमें रहना साफ सिद्ध हुवा । क्योंकि-जगलमें ही रहना होता तो मूल आगमोंमें ऐसा जिकर न आता कि 'दुकानमें या कूचेके अग्रभागमें बनेहुए स्थानमें या तीन रास्ते जहां मिलते हों इत्यादि स्थानों में साध्वीओंको रहना नहीं Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पतां और साधुओंको कल्पता है । इसी तरह दशाश्रुतस्कंधके अष्टमाध्ययन श्री कल्पसूत्रकी,समाचारीमें भी ऐसा पाठ आता है 'वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पई निग्गंथाणं वा निगंथीण वा जाव उवस्सयाओ सत्तघरंतरं संखडिं' इत्यादि । भावार्थ-चौमासा रहे हुए मुनियोंको उपाश्रयसे लेकर सात घरों तकका आहार लेना नहीं कल्पता है-देखो इन मूल पाठोंसे भी नगरमें रहना सिद्ध हुआ । क्योंकि जङ्गलोंमें ही रहना होता तो 'पासके सात घर छोड़ने ' ऐसा कैसे लिखते । बस इसी तरहके अनेक पाठ नगरमें रहनेके प्रमाणरूप हैं। परन्तु ग्रन्थगौरवके भयसे यहां पर नहीं लिखे जाते । इसके बाद 'मारे तमने फरी जणावी देवं जोइये' यहांसे लेकर 'प्रभु वीतराग होवाथी तेओने तेनी जरूर पण होती नथी' वहांतकका खण्डन प्रथम किये हुए खण्डनसे ही हो चुका है. क्योंकि उस लेखमें बेचरदासका अभिप्राय यह है कि देवद्रव्यशब्द आगमोंमें नहीं है और वीतरागप्रभुका द्रव्यसे कुछ संबन्ध भी नहीं है, और न भगवान् कमाने गये थे । इन सब बातोंका खण्डन विस्तार हो चुकाहै। अर्थात् मूल आगमादि पञ्चाङ्गीप्रमाणसे देवद्रव्यको सिद्धकर दिखाया है । और वीतरागके साथ द्रव्यके संबन्धके विषयमें भी विवेचन कर चुके हैं जिससे फिर खण्डन करना पिष्टपेषण जैसा हो जाता है । हां, उस लेखमेंसे इस बातका खण्डन अवश्य होना Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) चाहिये कि-'वीतराग प्रभु कमाने नहीं गये जो उनका द्रव्य कहा जावे.' बेचरदासके बेवकूफी वाले इस कथन पर खद होता है। क्या जो द्रव्य जिसका कमाया हुआ हो वही उसका कहा जाता है ? कदापि नहीं. जैसे राजा महाराजाओं के पास लाखों रुपयोंकी भेट चढती है तो क्या वह द्रव्य राजामहाराजाओं का नहीं कर जाता? अवश्यमेव कहा जाता है । कोईभी ऐसा नहीं कहता कि 'राज कमाने नहीं गया इस लिये वह द्रव्य राजाका नहीं हो सकता। बेचरदास- आ द्रव्य छेज जैनसङ्घनुं अने आ नाणा जैनसमाजना उपयोगी कार्यमां न वापरी शकाय एवो शास्त्र तरफनो कोई पण वांधो आगमोंमां छेज नहीं. आगमोना मारा अभ्यास परथी हुं तमने खात्री आपी शकुं. आवा द्रव्यनो स्वीकार पण त्यां नथी। ___ समालोचक-बेशक रक्षणकरनेके लिये समस्त जैन सङ्घ देवद्रव्यका मालिक है न कि भक्षण करने के लिये. अर्थात् देवद्रव्यकी वृद्धि करके उससे अनेकस्थलों पर देवमंदिर बने ऐसा प्रबन्ध करें और प्रभुके आभूषण वगैरह बनावें । परन्तु केवल देवके कार्यमें ही देवद्रव्य लग सकता है. अतः बेचरदासका यह कहना कि ' देवद्रव्य समाज उपयोगी किसी भी कार्य में लग सकता है ' यह अनन्तसंसारको बढानेवाला है । क्योंकि आगमशास्त्रों में इस विषय पर ऐसें २ बड़े दृष्टान्त दिये गये हैं कि अगर उनका यहां Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) पर उल्लेख किया जावे तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन जाय । औरः दृष्टान्त-महावीर प्रभुसे लेकर जो जो बड़े बड़े आचार्य हुए हैं उन्होंके रचे हुए हैं न कि सामान्य पुरुषके । तथा चौदह से चुम्मालीस ग्रन्थक कर्ता श्री हरिभद्रसूरि महाराजके वचनको जैनसमाज प्रभुवचनवत् मानता है। वे संबोधप्रकरणमें फरमाते "जिणदबलेसजणियं, ठाणं जिणदवभोयणं सव्वं । साहूहिं चइयव्वं, जइ तम्मि वसिज पच्छित्तं ॥ १०८ ॥" भावार्थ-जिनद्रव्य (देवद्रव्य) के लेश मात्रसे भी उत्पन्न हुए स्थानको और सर्वप्रकारके देवद्रव्यसे बने हुए भोजनको साधु लोगोंको छोड़ देना चाहिये.क्योंकि ऐसे स्थानमें रहनेसे और देवद्रव्यसे भोजन करनेसे प्रायश्चित लगता है. ॥१०८॥ अब पाठकजन स्वयं विचार करें कि लोकोत्तर ज्ञानदर्शन गुणोंकी वृद्धि करने वाले और समस्त जनोंको सुधारनेवाले साधुजन भी देंवद्रव्य लेशसे भी मिश्रित द्रव्यसे बने हुए मकानमें धर्मादिककी वृद्धि के लिये भी निवास न करें तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि- देवद्रव्य किसी भी सङ्घक उपयोगी काममें लग सकता है. भला साधु जैसे उपकारवृत्ति और त्यागवृत्तिवालोंकोभी देवद्रव्यके लेशसे बने मकानमें रहनेकी मनाई करते हैं तो फिर मिथ्याज्ञानकी केलवणी (शिक्षा) अदि कार्य में उस देवद्रव्यको कैसे लगा सकें ? मतलब-जिस केल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२ ) वणीका फल लाड़ी गाड़ी और वाड़ीकी मौज मजा ही हैं। और नास्तिकताको बढाना है ऐसी अवम केलवणीमें देवगव्यका लगानातो नरक प्रद है ही है. परन्तु धार्मिक-सामायिक प्रतिक्रमण-प्रकरणादिक ज्ञान देनेमेंभी देवद्रव्यका लगाना पापबन्धका कारण है। अन्यथा ज्ञान देनेवाले साधुओंके लिये देवद्रव्यके लेशवाले मकानमें रहनेकी मनाई कदापि नहीं करते। क्योंकि उस मकानमें उनके रहनेसे धर्मकी ही प्रवृत्ति होती है । अब बतलाइए देवस्वरूप श्रीहरिभद्रसूरि महाराजके वचनको माने या नारक रूप बेचरदास के बचन कों मानें ? यह जरा सोचनेकी बात है । जिसके कलेजेको कीड़े खा गए होंगे वोही वेचरदास जैसे अधर्मान्ध और असत्यवादीके वचनको मान सकता है। तटस्थ-बेचरदासको अवधि और असत्यवक्ता क्यों कहते हो? समालोचक-देखिए अधर्माध तो यों है कि तमस्तरण नामके लेखमें धर्मधुरन्धर पूर्वधरोंकी भी निन्दा कर डाली और असत्यवक्ता तो स्थान २ पर जाहिरही है तथापि यहां पर इसलिये लिखा जाता है कि उस मूर्खने हरिभद्रसूरिमहाराजको अपने भाषणमें चैत्यवासी जाहिर किया है। देखिए सूरिमहाराजका वचनकि" देवद्रव्यके लेशसेभी बनेहुए स्थानमें साधु रहे नहीं अगर रहे तो प्रायश्चित्त आवे." अब विचार करो कि-ऐसे वचनके कहनेवाले इरिभद्रसूरि महाराज चैत्यवासी कैसे बन सकते हैं ? क्या चैत्यवासीके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) ऐसे वचन हो सकते हैं ! कदापि नहीं । इससे भी समझ लो कि बेचरदासने प्रमाणताको जलाऽञ्जली देदी है, और अशुभकर्मोसे अप्रमाणिकताके पुञ्जको खरीद रक्खा है। इस लिये बेचरदास चाहे अपने कथनको छाती ठोककर कहे या माथाकूट कर कहे उसका वनन कदापि मान्य नहीं हो सकता । और हम इस विषयमें प्रथमही सिद्धान्तका अभिप्राय लिख आए हैं कि देवद्रव्य केवल देवके काममें ही लग सकता है. इस लिये नरकतिर्यंचगतिके दुःखोंसे डर हो तो किसीकोभी वेचरदासके वचनको सत्य नहीं मानना चाहिये. देखिए ! श्रीहरिभद्र सूरि. महाराज देवद्रव्यको खानेवाले की कैसी दुर्दशा लिखते है-यतः-- " चेइयदव्यं साहारणं च भक्खे विमूढमणसावि । परिभमइ तिरिय जोणीसु, अन्नाणित्तं सया लहई ॥ १०३॥" ___ अर्थ-चैत्यद्रव्य और साधारणद्रव्यको जो अज्ञानभावसे भी भक्षण करना है सो तिर्यञ्चयोनीमें भ्रमण करता है और हमेशा अज्ञानताको प्राप्त करता है ॥ १०३ ।। अब विचार कीजिए कि देवद्रव्यकी वस्तुका अज्ञानतासे भी उपभोग करनेसे , महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं तो फिर जानकर ऐसे पाप करनेवाले यानी देवद्रव्यके भक्षण करनेवाले ) कैसी अधोगतके पात्र बन सकते हैं । फिर देखिए सूरि महारान फरमाते हैं कि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) " चेइयदव्वविणासे, रिसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइचउत्थ ( वय ) भंगे, मूलगी बोहिलाभस्स" भावार्थ-चैत्यद्रव्यके विनाशसे ( यानी चैत्य सिवायके दूसरे. काममें लगाना यह भी इसका विनाश कहा जाता है) और प्रवचनके उड्डाहसे और साध्वीके चतुर्थ व्रतके भङ्ग करनेसे बोधिबीज ( सम्यक्त्व ) का नाश होता है. इसलिये ऐसे अधर्मी असत्यवक्ताके भाषणपर विश्वास रखकर भूल चूकसे भी देवद्रव्यको अन्यकार्य में लगानेका इरादा मत करना. क्योंकि आगमोंमें भी देवद्रव्यको स्वीकार किया है। तटस्थ-आप फिकर मत कीजिए, बेचरदास और उसके नास्तिक अनुयायियों का मनोरथ सफल नहीं हो सकता । क्यों कि देवद्रव्यका रक्षकवर्ग सब आस्तिक है इसलिये बेचरदासके कथन. से सिवाय उसकी दुर्दशाके और कुछ फल नहीं निकल सकता । मुझे इसके वर्तनपर दया आती है कि-बिचारेकी तंदुलियेमच्छ . जैसी दशा हुई है । क्योंकि न तो देवद्रव्य इसके हाथम आया और नाहकमें उत्सूत्रमयप्रवृत्तिसे पूर्ण अधोगतिका पाप बांध लिया, अस्तु, इसके कर्म ही ऐसे होंगे, हम क्या कर सकते हैं । कृपया भागेका वर्णन सुनाइए । समालोचक-'हुं तेथी' ऐसे शब्दोंसे लेकर- छाती ठोकीने ___ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) कहुंछु ' इन शब्दों तकका खण्डन उपरके खण्डनमें हो चुका है। इस लिये आगे के खण्डनको श्रवण कीजिए ! तटस्थ-भला, सुना दीजिए ! बेचरदास- हवे भूतकालमां आपणा देराओनी केवी स्थिति हती ते बाबत अजवालुं पाड़ीश. असलमा बधां देहराओ जंगलों अने डुंगरों पर हता. आ देहरांओं आज जेम पैसाथी उभराई गयेलां होय छे तेम ते वखते नहोतां एटले के आ देहरांओ त्यां सुधी नोखम वगरनां हतां. देहराओंने दरवाजाओ तो हतान नहीं।' समालोचक-वाहरे वाह ! मूर्खानन्द ! भाषणके समय के लोगोंको तो अनभिज्ञ समझ लिया परन्तु क्या सारी दुनियाको अनभिज्ञ समझ ली थी ? जो ऐसी गप्प मारदी कि ' असलमा बधां. देहराओ जंगलोंमां अने डुंगरों पर हतां' क्या यह मालूम नहीं हुवाकि मेरे भाषणका मुखतोड़ जवाब देनेवाले अनेक सूत्रपाठी महात्मा मौजूद हैं ? एक तरफसे वे वरदास कहता है कि ' मैंने जैन आगम देखें हैं ' और दूसरी तरफ कहता है कि-'बघां मंदिरों जंगलों अने डुंगरों परज हता' इससे साबित होता है कि बेचरदासने अङ्गशास्त्रोंका अध्ययनही नहीं किया, अन्यथा ऐसी गप्प कैसे लगाता । देखिये ! प्राचीनकालमें भी अनेक जैनमंदिर शहरों में थे। ऐसा अनेक ग्रन्थ और सूत्रों से मैं साबित कर देता हूं. श्रीविनयच. न्द्रमरिकृतमल्लीनाथचरित्र के आठवें सर्गमें लिखा है ___ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) " अथाचालीत् पुरोमध्यं, वीक्षितुं दिवसात्यये । X X X X निधानमिव धर्मस्य, दृष्टवान् जिनमंदिरम् | " 1 अर्थ — इसके बाद यह कुलध्वज सायंकालको नगर देखने के लिये गया वहां धर्म के निधानसमान जिनमंदिर को देखा । इस पाठसे भी शहर में जिन मंदिर थे ऐसा स्पष्ट सिद्ध होता है । और भी देखिए श्रीसुपासनाहचरितके ११२ पृष्ठ में अरिकेशरीनाम के - महापुण्यशाली राजाने अनेक जिनमंदिर बंधाये – तथा च तत्पाठः" पइनगरं पइगामं, सव्वत्थ जिणेसराण भवणाई । कारेइ निययदेसे, विसेसओ सुविहिअजणस्स " २६२ अर्थ — उस पुण्यशाली महानुभाग अरिकेशरी राजाने अपने देशमें प्रत्येकनगर और प्रत्येकमाममें जिनमन्दिर बनवाये ॥ २६२ ॥ इससेभी नगरमें मंदिर सिद्ध होते हैं । और श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज श्रीमहावीर चरित्र के पृष्ठ ७ क्षत्रियकुंडग्रामके वर्णनमें लिखते हैं कि वें पर " स्थानं विविधचैत्यानां धर्मस्यैकनिबन्धनम् । अन्यायैरपरिस्पृष्टं, पवित्रं तच्च साधुभिः । १६ । " इस लोकसे शक्रने क्षत्रियकुंड ग्रामका स्वरूप वर्णन किया है । जिसके मुख्य प्रथमपादका यह अर्थ है कि क्षत्रियकुंडग्राम विविध जिनमंदिरोंका स्थान है. इससेभी शहर में जिनमंदरों का होना Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७) सिद्ध होता है । इसी तरह वही हेमचन्द्राचार्य महाराज श्रीसुमतिजिनचरित्र में पूर्वभवका वर्णन करते हुए पुष्कलावतीके अंदर रही हुइ शङ्खपुरीके वर्णनमें लिखते हैं कि__“ विचित्रचैत्यहादि-ध्वजदन्तुरिताऽम्वरम् । तत्र शङ्खपुरं नाम, पुरमस्त्यतिसुंदरम् ।। ४ ॥" भावार्थ-अनेकजिनमंदिरोंकी ध्वजाओं करके दन्तुरित किया है आकाश जिसने ऐसा शङ्खपुर नाम नगर है, ॥ ४ ॥ इससे भी नगरमें जिनमंदिर सिद्ध होते हैं । तथा श्रीहमिनेमिनाथ चरितमें देवताओंकी बनाई हुई द्वारिकानगरीके वर्णनमें लिखा है कि " विचित्ररत्नमाणिक्य श्चत्वरेषु त्रिकेष्वपि । जिनचैत्यानि दिव्यानि, निर्मितानि सहस्रशः ॥ ४०३॥" सर्ग ५ पर्व ८ अर्थ-द्वारिकानगरीमें तीन रास्ते मिले हो वहां और चत्वरमें विचित्ररत्नमाणिक्यों करके दिव्य जिनमंदिर बनाये ॥ ४०३ ॥ श्रीनेमिनाथचरित्र में नल राजा अपने पुरमें प्रवेश करते समय कोशलाके वर्णनमें दमयंतीसे कहता है कि" कोशलायाः परिसरमासाद्य च नलोऽवदत् । इयं हि नः पुरी देवि, जिनायतनमण्डिता ३९१" इस पा उसे भी प्रथम शहरमें जिनमंदिर थे ऐसा सिद्ध होता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) और भी देखिए चौदह से चुम्मालीस ग्रन्थ के कर्त्ता श्रीमदूहरिभद्रसूरि महाराज अपने बनाए हुवे सातवे पंचाशक में लिखते हैं कि" दव्वे भावे य तहा सुद्धा भूमी पएसकीलाय । दव्वे पत्तिगरहिया, अन्नेसिं होइ भावेउ || १० ॥ ' इस गाथाकी टीकामें श्री अभयदेवसूरि महाराज फरमाते हैं कि ' द्रव्ये द्रव्यमाश्रित्य भावे भावमाश्रित्य चशब्दः समुच्चये । तथाऽनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण विशिष्टप्रदेशादिलक्षणेन किमित्याहशुद्धा भूमिर्निर्दोषा जिनभवनोचितभू द्विविधा भवति तत्राद्या तात्रदाह-प्रेदेशे विशिष्टजनोचितभूभागे । तथाऽकीला च शङ्करहिता । उपलक्षणत्वादस्थ्यादि शल्यरहिता च । द्रव्ये द्रव्यतः शुद्धा भूमि भवतीति प्रकृतं । अथ द्वितीयमाह अत्रीतिकरहिताऽप्रीतिवर्जिता ! इहाऽप्रीतिकशब्दस्य अन्येषामित्येतत् सापेक्षस्याऽपि समासः तदा दर्शनादिति । अन्येषां परेषां । भवति वर्तते । भावे तु भावतः पुनः शुद्धा भूमिरिति प्रस्तुतमेवेति गाथार्थः ॥ १० ॥ ७ --- तात्पर्यार्थ - द्रव्य तथा भावते शुद्ध जनीनमें जिनमंदिर बनवाना | द्रव्य शुद्धभूमि जहां पर श्रेष्ठ मनुष्य निवास करने हों वहां पर जिनभवन बनाना, यह द्रव्यसे शुद्ध भूमि है । इत्यादि । इससे साबित होता है कि आगमशास्त्रकी रीतिसे हमेशा से शहर में मंदिर बनते आए हैं । यह कोई नया रीवाज नहीं. बारहवीं गाथामें भी श्रीहरिभद्रसूरि महाराज फरमाते हैं कि - ' जहां वेश्याका पाड़ा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) हो जहां मद्यपादि अनेक नीचजनोंकी वस्तीहो ऐसे स्थलमें जिनमंदिर नहीं बन्धाना । क्या इससे अच्छे उत्तम जनोंकी वस्तीमें बन्धवाना सिद्ध नहीं हुवा १ देखिए, बेचरदास कैसा मूर्ख आदमी है कि ऐसे २ प्रभावक आचार्य महारानों के सिद्धान्तानुसार दिये हुए पाठोंको वगैर देखे बकदिया कि-पहले सब मंदिर जंगलोंमेंही थे । तटस्थ-आपने हरिभद्रसूरि महाराज जैसे बड़े प्रभावक आचार्यों के प्रमाणसे शहरमें निनमंदिर बनानेका विधिवाद साचित किया, परन्तु क्या किसी सूत्रमें भी ऐसा वर्णन है कि जिससे शहरमें जिनमंदिरका होना सिद्ध हो ! समालोचकहां ! देखिए ज्ञाताजीके सोलहवें अध्ययनमें द्रौपदीजीके अधिकारमें इस विषयका पाठ मैं प्रथम देचुका हूं. 'तएणं सा दोवइ ' इत्यादि) द्रौपदीने शहरकेही जिनमंदिरमें प्रभु प्रतिमाकी पूजाकी है । इससे साबित हैकि प्रभु नेमिनाथके वक्तमेंभी गाममें मंदिर थे । और देखिए श्रीउववाइयसूत्र में लिखा है कि " चंपानयरीए xxxx बहुला भरिहंतचेइयाई" मतलव-चंपानगरीमें भगवान्के बहुत मन्दिर हैं । इस पाठसे शहरमें जिनमंदिर होनेका रिवाज प्राचीन है आधुनिक नहीं। फिर आवश्यकसूत्र की टीका सामायिकाध्ययनमें " अंतेउरचेइयहरं कारियं पभावइए नहाता तिसंझं अच्चेइ । ___ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) अन्नया देवी नच्चइ | राया वीणं वाएइ भावार्थ - प्रभावती देवी ( राणी ) ने अंतःपुरमें जिनमंदिर बनवाया और स्नान करके तीनोकाल पूजन करती है । एक दिन देवी ( प्रभावती ) नाचती है और राजा वीणा बजाता है । देखिए ! आवश्यकसूत्रके इस पाठले भी शहर में जिनमंदिर का होना सिद्ध होता है । तथा निशीथचूर्णिके दशमें उद्देशमें भी ऐसा पाठ आता है कि ' प्राचीन कालमें भी शहरों में मंदिर बनते थे ' तद्यथा ―― " " ताहे पभावई पहाया कयकोउयमंगला सुकि लवासपरिहाणपरिहया बलिपुप्फधू कडु हत्था गया । ततो पभावतीए चच्चं बलिमाविकाउं भणियं देवाधिदेवो महावीरबद्धमाण सामी तस्स पडिमा कीरउत्ति पहाराहि वाहितो कुहाड़ो एगघाए चैव दुहाजातंपेछ्रति य पुव्वाणवत्तियं सव्वालंकारविभूसियं भगवओ पडिमं साणेउं रण्णा घरसमीवे देवा - लयं काउं तत्थ ठबिया. " भावार्थ - उस वक्त प्रभावतीने स्नान किया और किया है कौतुक मङ्गल जिसने और पहिने हैं शुक्ल वस जिसने तथा बलीपुष्प - धूपदाना है हाथ में जिसके ऐसी प्रभावती वहां पर आई और बली धूप वगैरहसे गोशीर्षचंदन की पेटीका पूजन करके कहा कि - ' श्रीदेवाधिदेव श्रीमहावीर वर्द्धमानकी प्रतिमा हो, ' ऐसा - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) कह कर कुल्हाडा चलाया तो एक ही घावसे दो भाग हो गये और देखा तो पूर्वकी बनाई हुई सर्वालङ्कारसे विभूषित प्रभु महावीरकी मूर्ति निकली। उस मूर्तिको लाकर राजमहलके समीर मदिर बनाकर उसमें स्थापन की ।। इस निशीथचूर्णिके पाठसे भी साबित होगया कि प्रथमसे ही गाममें भी मन्दिर बनते आते हैं, आज कोई नवीन बात नहीं है । मुझे बड़ा अफसोस होता है कि-भाषग देते वक्त वेचरदासने कुछ नशा तो नहीं किया था ? जो एक भी बात उसकी सच्ची नहीं जान पड़ती। जितनी बातें लिखी हैं सब झूठी ही झूठी निकलती हैं-उसका अदृष्ट ( भाग्य ) ही कोई टेडा हो गया है क्या ? । हां ऐसा ही होना चाहिये । अन्यथा इतने सूत्र जिन बातों को साबित करते हैं उन बातोंको यह कैसे उडाता ! इससे साबित होता है कि उसका चक्कर खाया हुवा तकदीर उसको अवश्य टडी गतिसे नरक तक पहुंचा देगा। फिर देखिए, आवश्यकके तृतीय अध्ययनमें लिखा है कि'चेइयपूआ किं वयरसामिणा, मुणियपुव्यसारेण । न कया पुरिआइ तओ, मोक्खंगं सावि साहूणं ॥' इसका भावार्थपूर्वके सारको जाननेवाले श्रीवज्रस्वामीने पुरीनामके नगर चैत्यकी पूजा ( पुष्प लानेमें सहायतारूप ) क्या नहीं की हैं अपि तु की हैं। इससे समयविशेषमें साधुओंक वास्तभी ऐसी पू Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) मोक्षान बनजाती है। देखो! आवश्यकजीके पाठसे भी नगरमें जिनमंदिर था ऐसा सिद्ध होता है । फिर बेचरदासका कहना कैसे सिद्ध हो सकता है कि-' बघां देहराओ जंगलों अने डंगरो पर हतां' देखिए, इसी तरह पञ्चमाऽङ्गश्रीभगवतीसूत्रके दूसरे शतकके पांचवें उद्देसेमें तुजियानगरीके श्रावकोंके अधिकारमें लिखा है कि "जेणेव सयाइंसयाइं गेहाइं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा" भावार्थ-वे श्रावक लोक अपने २ घर पर आये और स्नान करके प्रभु पूजाकी । इस भगवतीके पाठसे भी तुङ्गियानगरीमें अनेक जिनमंदिर थे ऐसा सिद्ध हुआ। फिर कौन कह सकता है कि 'शहरमें मंदिर नहीं थे ।' इसके बाद यह कहना कि 'आ देहराओ आज जेम पईसाथी उभराई गयेलां होय छे तेम ते वखते नहोता ' बिलकूल मिथ्या कल्पना है । अगर इस विषयको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण होता तो बेचरदास अवश्य कहता ! परन्तु कहे क्या ? जिसको झूठीही बात कहकर लोगोंको भाखा देना है उसके पास प्रमाण कहांसे हो। वेचरदासने तो ऐसा कियाकि जैसे कोई जन्मभिक्षुक मांगता २ किसी सेठके घर पर जा चढ़ा, वहां पर लड्डुओंके शिखापर्यंत भरे हुवे बहुत स्थाल देखे, और आहा ! हा! हा! हा ! हा! कह कर बोला कि-' हा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाप इतने लड्डुओंसे भरे हुवे स्थाल भूतकालमें किसीके भी ‘घरमे नहीं थे' क्या उस भिखारीकी यह बात सत्यहो सकती है ? कि भूतकालमें इतने लड्डुओंसे भरे हुये इतने स्थाल नहीं थे. कदापि नहीं । बस बेचरदासके कथनको भी ऐसाही समझना चाहिये । मात्र इतना फर्क है कि-सेठके लड्डुओं पर भिखारीकी नजर पड़ी जिससे खानेवालोको कष्ट उठाना पड़ा, और यहां पर देवद्रव्य होनेसे बेचरदासकी नजर नहीं लग सकती । इसके बाद यह कहना कि 'देहराओने दरवाजा हताज नहीं, यह कहना ऐसा है जैसे वेचरदास .हदे कि मेरा कोई पिता थाही नहीं में अपने आपही पैदा हो गया हूं ! जैसे बेचरदासकी यह बात ( मेरा पिता नहीं था ) प्रमाण शून्य और अनुभव विरुद्ध होनेसे नहीं मानी जा सकती कि 'बेचरदास बिना बापके पैदा हुआ हो' बस इसी तरह प्रथमकी बात ( देहराओने दरवाजा तो हतान नहीं) भी प्रमाणशून्य और अनुभवाविरुद्ध होनेसे कदापि सिद्ध नहीं हो सकती है. बेचरदास-चैत्यशब्दनो अर्थ देवलवृक्ष तथा बीजा अनेक थाय छे परन्तु चैत्यशब्दनो शद्वार्थ ए छे के, मरण पामेला संत महंतनी यादगिरी, तेज स्थले उभुं करवामां आवेढं स्मारक " इत्यादि--- .. . समालोचक-बेचरदासने वदतो व्याघात जैसा किया है। क्योंकि-प्रथम तो चैत्यशब्दके अनेक अर्थ कहता है परन्तु Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) पीछेसे ' चैत्यशब्दनो शब्दार्थ ए छे के ' ऐसा कह कर फिर जाता है। यही इसकी मूर्खतांकी निशानी है और जो उसने मृत-महन्तोकी यादगिरीके लिये उनके संस्कार या मरणस्थानमें बनाए हुए स्मारकको चैत्यशब्दसे जाहिर किया है यह भी सिवाय प्रमाणशून्य इसकी मनोकल्पनाके शास्त्रीयबात नहीं है। क्योंकि किसी भी ग्रंथसे बेचरदासकी मनः कल्पना सिद्ध हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। और प्रमाण वगैरेकी बातको मानना अक्लमंदोंका काम नहीं । इसलिये समस्तजैनसको बेचरदासकी यह असत्यकल्पना विषतुल्य त्याग करने योग्य है । क्योंकि जैनग्रन्थोमें स्थान स्थान पर जहां चैत्यका अधिकार आता है वहां कहीं भी ऐसा नहीं लिखा कि-यादगिरीके लिये जो स्मारक बनाए जाते हैं उन्हें चैत्य कहते हैं। इसलिये स्मारकको ही चैत्य कहना बड़ी भारी भूल हैं स्मारक तो स्मारक ही कहे जाएंगे और वह प्रायः जंगलोंमें ही होते हैं क्योंकि-मृतमहंत जनोंका संस्कार जङ्गलोंमेही होता है । परन्तु वह मूलरूप यादगिरिके लिये ऐसा बनता है बाकीतो उसके भक्तजन प्रतिग्राम प्रतिनगर उसकी यादगिरीमें स्थान बनाते हैं। जैसे थोड़े समय पर श्रीमद्विजयानन्दसरि महाराज (प्रसिद्ध नाम श्रीमद् आत्मारामजी महाराज) की यादगिरीमें जहां उन्होंका अमिसंस्कार हुवा था उसी स्थल पर गामकी बाहर हज़ारों रूपैये खर्च करके भक्तिके निमित्त पञ्जाब गुजरानवालानिवासियोंने एक बड़ा भारी आलिशान आनन्दभवन बनाया है। जिसके Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) उपरके चमकते हुए सुवर्णकलश महाराज साहिबके पञ्जाब, गुजरात, मारवाड, मेवाड़ादि देशोंमें किए हुए धर्मप्रकाशकी स्मृति दिलाते है। परन्तु इसके अलावा और भी अनेक गांवो तथा नगरोंमें उनकी यादगिरीके लिये स्थान बने हुए हैं इससे गामके बाहरही स्मारक बनते हैं। यह बात सर्वथा असत्य सिद्ध होती है। क्योंकि ऐसा तो होही नहीं सकता कि आजकलकी तरह प्रथमके लोगोंमें भक्ति नहो और जब भक्ति हो तो स्थान २ में उनकी यादगिरी बननेका संभव है । अस्तु, मन्दिरका विषयही इससे पृथक् है ।। क्योंकि अगर काल किए हुए स्थान पर महात्माओंकी यादगिरीके निमित्त बने हुए स्मारकही चैत्य कहलाएं तो महावीर प्रभुका मंदिर पावापुरी के, श्री नेमनाथ भगवानका गिरनारजीके, आदीश्वर प्रभुका मंदिर अष्टापदजीके. वासुपूज्यजीका चंपापुरीके और वीशतीर्थकर भगवान के मन्दिर सम्मेतशिखरके सिवाय और किसी स्थानपर नहीं होना चाहिये । और स्थान २ पर जिनमंदिरका अधिकार आता है. इस विषयका विवेचन पहिले लिख आए हैं । और प्रत्यक्षमें भी अनेक स्थलों पर ऐसे २ प्राचीनतीर्थ मौजूद हैंकि जहां पर किसीकी भी यादगिरीका सभवहीं नहीं । अत: वेचरदासकी इस असत्यकल्पनाको आस्तिकवर्ग कदापि नहीं स्वीकार कर सकता । देखिए, एक और भी प्राचीन प्रमाण सुनाते हैं इससे भी बेचरदासकी कल्पनाकी असत्यता जाहिर हो जायगी। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत श्रीऋषभप्रभुके चरित्रमें भगवान् ऋषभदेवजीके पूर्वभवके वर्णनमें Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) लखा हैकि श्रीऋषभदेवजीके जीव और बाकीके पांच मित्रोंने मिलकर एक मुनिके रोगको दूर करनेके लिये औषधादि सामग्री एक. त्रकी, और उससे मुनिको नीरोग किया, और बची हुई सामग्रीको बेचकर बड़ा भारी आलिशान जिनमंदिर बनाया। तथा च तत्पाठः-- " ततोऽवशिष्टगोशीर्षचंदन रत्नकम्बलम् । तत्र विक्रीय जगृहुस्ते स्वर्ण बुद्धिशालिनः ॥ ७७८ ॥ तेन स्वर्णेन ते चैत्यं, सुवर्णेन स्वकेन च । कारयामासुरुत्तुङ्गं, मेरुशृङ्गमिवाऽर्हतम् ॥ ७७९ ॥ अब बेचरदासको विचार करना चाहिये कि-अगर मृतमहन्तोकी यादगिरीमें ही मन्दिर बनानेका रिवाज होता तो बतला. इये इन छ मित्रोंने किस मृतमहंतकी यादगिरीमें मंदिर बनाया था? बस इससे साबित है कि आजसे नहीं किन्तु अनादिकालसे स्मारककी रीतिसे नहीं मगर स्वतन्त्ररीतिसे जिनमन्दिर बनते आये हैं, बनते हैं, और बनेंगे । बेचरदासके निरर्थक थूक उड़ानेसे कुछ भी नहीं बनता । नाहक बिचारा यहां परभी हांफहांफ मरेगा और नरकोंमें भी हांफेगा। . . बेचरदास' आ भभकानी चीजों देवलोमा हाल दृश्य थाय छे ते असल हतीज नहीं'. इत्यादि । समालोचक-ऐसी देदीप्यमान वस्तुएं मंदिरोंमें प्रथम नहींथी इसमें कुछ प्रमाण बताओं, अन्यथा तुमारी असत्यकल्पना कदापि मान्य नहीं हो सकती । क्या प्रथम समयमें द्रव्यकी कमी थी ? जिससे मन्दिर शुन्य पड़े रहते थे, या शास्त्रका आदेश नहीं था। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) प्रथमकी कल्पना शास्त्रप्रमाण तथा इतिहासप्रमाणसे विरुद्ध है। क्योंकि इन दोनों प्रमाणोंसे प्राचीनकालमें बड़े बड़े धनाढ्य सिद्ध होते हैं। अगर शास्त्रकी आज्ञा नहीं थी ऐसा कहो तो तुम शास्त्र के अनभिज्ञ ( अनजान ) सिद्ध होतही देखो श्रीहरिभद्रसूरि महाराजादि के किए हुए पञ्चाशकादि ग्रंथोंके प्रमाण जिनको में प्रथम लिख चुकाहूं इस लिये यहां पर पुनः नहीं लिखे जाते उन्हींकोदेखलेना चाहिए : बेचरदास ! मैं तुमको हितशिक्षा देता हूं कि ऐसा मत करो जो अपनेको शास्त्रका बोध नहीं और कह देनाकि प्रथमके समयमें यह नहीं था, वह नहीं था, अमुक नहीं था, क्योंकि ऐसे मृषावादसे तुम्हारी गति बिगड़ जानेका हमको भय है, इस लिये सत्यमार्ग पर आकर असत्य कल्पनाओंका त्याग करो। बादमें तुम्हारा यह कहना कि-' मूलमां पण एवो कोई ठेकाणे उपदेश नथी' इत्यादि । तो क्या तुम श्वेताम्बरजैनसमाजको केवल मूल मानने वालाही मानते हो? अगर नहीं तो फिर क्या तुम धोखा देने के लिये ' मूलमा मूलमां' ऐसा पुकार करते हो 'पञ्चाङ्गीके मानने वालोंके पास मूलको आगे करना इसीसे तुम्हारी बुद्धिका मूल पाया जाता है । अगर जैनसमाज तुम्हारी बातको मानकर मूलमें हो उतनी ही वाने माने तो-वीसविहारमानतीर्थङ्करदेवोंकों भी मानना छोड दें। क्योंकि मूलमें इनका जिकर ही नहीं है । ऐसी एक बात नहीं अनेक बातें हैं जैसे कि-सामायिक-प्रतिक्रमण-पोषध आदिकी विधि भी मूलमें कहीं नहीं है । तो क्या इन सब बातों को Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) छोड़ देंगे ? कदापि नहीं जिसको पिछले घोर पार कम दबाया होगा वही नास्तिकशिरोमणि अनन्तकालतक संसारमें रुलाने वाली तुम्हारी असत्यबातों को सत्य मानेगा । और नहीं | क्योंकि आस्तिकलोगोको तो पंचाङ्गी तथा उसके अनुकूल प्रभावक चायक बनाए हुए सभी ग्रन्थ सूत्रके मूलस्तु ही मान्य हैं । तटस्थ मान्यवर महाशय ! मैं आपकी बातों को अक्षरश: सत्य मानता हूं परुतु कृपया यह बतलावे कि पैतालीस आगमोंमें से किसी भी आगममें वस्त्र आभूषणादि चढ़ाना लिखा है या नही ? उसमें से भी प्रथम ग्यारह अंगमेसे हवाला देना चाहिये । समालोचक – क्यों नहीं | बराबर है । देखो अङ्गमेंसे श्रीज्ञाताजी सूत्र छठ्ठा अङ्ग है उसके सोलहवें अध्ययन से साफ जाहिर होता है कि- प्रतिमाजीको गहिना चढ़ानेका रिवाज सूत्रानुसार है । क्योंकि - ज्ञाताजी में लिखा है कि - ' जहा सूरियाभे' अर्थात् सूर्याभवन की तरह द्रौपदीने प्रभुकी पूजाकी । और सूर्याभदेवताका अधिकार श्रीरायपसेणीसूत्रमें ऐसे आता है कि उस सूर्याभदेवताने " जिणपाडमाणं अहयाई देवदूसजुअलाई नसेइ पुष्कारोहणं मल्लारोहणं गंधारोहणं चुण्णारोहणं वत्था रोहणं आभरणारोहणं करेइ " अर्थात् भगवान्की मूर्तियां पर वस्त्र सुगन्ध और आभूषण ( दागिने) चढ़ाये | अब देखिए जैसे सूर्याभदेवताने दागीने चढ़ाये वैसे ही द्रौपदीने भी चढ़ाये थे, यह बात श्रीज्ञातासूत्र के मूलपाठसे साफ जाहिर होती है । इस 2 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९) लिए नवाङ्गोटीकाकार श्रीअभयदेवसरि महाराजने भी इस पाठकी टीकामें लिखा है कि-' वस्त्राणां गन्धानां चूर्णानामाभरणानां चाऽऽरोपणं करोति स्म' अर्थात् उस द्रौपदीने भगवानकी मूर्ति पर वस गन्ध चूर्ण आभूषण आदि चढ़ाये । इन पाठोंसे साफ जाहीर है कि आभूपण चढ़ानेका शिवान कोइ मुनियोंका चलया हुआ नहीं किन्तु प्रमु, महावीर स्वामके मुखसे फरमाया हुआ है। परन्तु भाग्यहीन चरदासको मिथ्यात्वमादिराके नशेमें ज्ञान नहीं रहा, इसलिये उसकी समझमें नहीं आता तो इससे कुछ यह रिवाज मुनियोंका चलाया हुवा साबित नहीं होता। अगर उसने सूत्रग्रन्थोंको देखे होते तो ऐसा कभी नहीं कहता, अगर देखा भी होगा तो मिथ्यात्वके नशेमें चकचूर होनेसे यहां पर ( जहां भगवान्को आभूषण चढ़ानेका अधिकार है) आकर उसकी आंखे चुंधिया गई होंगी। अधिकार वगैर सूत्र पढ़नेसे तो उसकी आंखे चुंधिया ( मीच ) ही जानी थी परन्तु देखो जब जैनन्यायग्रन्थ प्रमाणनयतत्वालोकाऽलंकार पढ़ता था उस वक्त भी उसकी आखें चुंधिया जानी चाहिये । अन्यथा श्रीवादिदेवसरि महाराज कि जिन्होंने चौरासीवादिओंको जितने वाले दिगम्बर कुमुदचन्द्रका सिद्धराजजयसिंहकी सभामे पराजय किया है उनके बनाए हुए प्रमाणनयतत्वालोकाऽलङ्कारके ग्यारहवें पृष्ठके पच्चीसवें सूत्रसें भी परमात्माकी मूर्तिको आभूषण चढ़ानेका रिवाज प्राचीन सिद्ध होता है । . " यथा-पश्यं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमामिति । ' यह सूत्र उसके खयालसे बाहर नहीं होता । और भगवान्‌को गहिने चढ़ाने में साधुओंको जोखिमदार जाहिर करना यह भी बेचरदासकी एकजातकी बेवकूफी है । क्योंकि अगर कोई नास्तिक ऐसा कथन करे कि ' भगवान्‌को आभूषण चढ़ाने योग्य नहीं है ' उस वक्त साधुवर्ग अगर चूप होकर बैठ जायें तो जिम्मेदारी ( जोखमदारी) साधुओं के शिर पर है । परन्तु आगमानुसार प्रभुकी भक्तिनिमित्त आभूषण चढें, उस वक्त जो निषेध करें तो ar निषेध करनेवाला महा पापका भागी होता है इस लिये आजतक किसी भी आस्तिकसाधुने इस शास्त्रीयरिवाजमें विरोध प्रदर्शित नहीं किया है इससे बेचरदासको खुश होना चाहिये था परन्तु खुश होने के बदले ' आ शरुआत माटे जोखमदार अने ज्वाबदार साधुवर्ग छे के जेओ पोतानी अनुकूलतानी खातर शास्त्राना नियमो तरफ तद्दन आंख मीचामणी करता हता ' ऐसा कह कर रोता क्यों है ? . बेचरदास ! जरा विचार तो करना था कि - परमात्माको भाभूषण चढ़े उसमें साधुओं को अनुकूलता किस बात की ? तुम्हारे इस बेवकूफी भरे हुए कथनसे तो वह कहावत याद आती है किबारह वर्ष काशी में रहकर भी गधा आखिर गधा ही रहा ' 14 "" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१) बेचरदास-" असल देहराओमां मूर्तिओ बधी पद्मासनवालिज हती कंदोरावाली मूर्ति भो जेम हती नहीं तेम नममूर्तिओ पण हती नहीं पाछलथी ज्यारे श्वेताम्बरो अने दिगम्बरो एवा वे पक्ष पड्या त्यारे तेओए सघली मूर्तिओ वहेंची लेवा मांडी। पाछलथी ते मूर्तिओ एक बीजानी ओलखाय ते माटे हाल जे निशानीओ छे ते लगाड़वामां आवी छे । असल मूर्तिओमां आवी निशानीओन नहीं हती।" समालोचक-घेचरदासकी यह बात जब सत्य हो सकती है कि वह ऐसी कोई प्राचीन मूर्तिको दिखलाता, अथवा कहता कि अमुक स्थान पर दोनो प्रकारके चिन्हरहित मूर्तिएं मौजुद हैं। बेचरदासने जो जो बातें जाहिर की है बालबकवादके तुल्य हैं । अगर इस विषयका निश्चय करना हो तो जैनधर्मप्रकाशके पुस्तक ३५ अङ्क ३ देखना चाहिये । उसमें इस विषयके प्रश्नोत्तर दर्ज हैं । ये प्रश्न बेचरदाससे सभाके तन्त्रिने रुबरु किये हैं। इन प्रश्नोत्तरोंको पढ़नेसे हमारे पाठकोको स्पष्ट मालुम होजायगा किबेचरदासने मूर्तिके विषयमें निरी झूठी गप्प मारी है और बचरदासका यह कहना कि पीछेसे मूर्तिएं बांट लेने लगे तब निशानीएं लगादी, सर्वथा असत्य है । क्यों कि कब और किस शहर में श्वेताम्बर दिगम्बरोंने एकत्रित हो कर मूर्तिएं बांटली, इसका कोई प्रमाणही नहीं बतलाया । बतलाए कहांसे ? जहां गप्पबाजीका खेल होता है वहां कोई प्रमाण मिल सकता है ? कदापि नहीं। इस Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) की असत्यताको जाहिर करने वाली एक और दलील सुनिये - जब एक जाति की वस्तुओंको दो पक्षवालोंने बांटली और एक पक्षवालेने समानाकार वस्तु के बदल जानेके भयसे एक तरहका चिन्ह लगादिया, तब दूसरे पक्षवालेके पास रही हुई वस्तु उससे स्वयं पृथक् होसकती है, फिर उसको चिन्ह लगानेकी क्या जरूरत ? इससे भी श्वेताम्बर और दिगम्बरोने जुदे जुदे चिन्ह लगादिये ऐसा बेचरदासका कथन असत्य सिद्ध होता है । हां यह सत्य है कि लिङ्गाकार - शून्य कोटबंध श्वेताम्बरमूर्तियें प्राचीनकाल से चली आती थीं जब महावीरप्रभुके निर्वाणके बाद ६०९ वर्षे पीछे दिगम्बरमत निकला तब दिगम्बरियोंनें श्वेताम्बर मूर्तिओं से भेद समझाने के लिए अपनी लिङ्गाकार चक्षुः शून्य नवीन नम्रमूर्तिएं बनाली । बेचरदास " हवे एक अजायब भरी चीज़ म्हारे तमोने जणाववानी छे के मूल आगमो ए जैन धर्मना तत्वज्ञाननो दरिओ छे. जैनसाहित्य जे पाछलथी लखायुं छे तेमां अने मूल जैन आगमोंमां एटलो बधो फरक छे के हालना साहित्य ऊपरथी जैन धर्मनी तद्दन गेरसमजुती उभी थाय । "" समालोचक - खबर नहीं बेचरदासको क्या हो गया है जो जो बातें अत्युत्तम हैं वेही उसको ठीक नहीं मालूम पडती । क्या कुछ इसका भविष्य ही बिगड़ने वाला है ? जैसे मरणसमय निकट आनेपर मनुष्यको शारीरिकस्थितिको सुधारने वाली वैद्यकी F Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथ्यविषयक बाते भी अच्छी नहीं मालूम पड़ती। वैतीही बेचरदासकी भी गति हुई है। जब चारों तरफसे जैनसाहित्य दुनियाके तमाम साहित्यसे उच्च कोटीका साहित्य स्वीकार किया जाता है तब बेचरदासको वह साहित्य जैन धर्मकी “गैर समझती कराने वाला" मालूम पड़ता है, यही इसके दुर्भाग्यकी निशानी है। नहीं तो वैराग्यमार्गपोषक जैन साहित्यको. ऐसी तिरस्कारयुक्तीष्टसे कदापि नहीं देखता । अस्तु । इससे क्या। अगर प्रमेही घीको नहीं खाता तो इससे क्या घीकी कीमत घट सकती है ? अगर उंटको द्राक्षा अच्छी नहीं लगती तो क्या द्राक्षाकी हानि होती है ? अगर गधेको मिश्री मीठी नहीं लगती तो क्या मिश्रीकी मीठास उड़ जायगी ? अगर उल्लुको मूर्यका प्रकाश अंधकाररूप मालूम होतो क्या प्रत्यक्ष प्रकाश अंधेरा कहा जा सकता है ? कदापि नहीं। देखिए जैन साहित्यके विषयमें गायकवाड़ सरकारकी प्रथम नम्बरकी विद्याशाला के हेडमास्तर पं. वासुदेव नरहर उपाध्यायने महाराजा सयाजीरावके हुकमसे हरिविक्रम नामके जैनराजा के चरित्रका मराठी भाषामें अनुवाद किया है उसकी भूमिकामें लिखा है कि ---" जैनधर्म यांचा जसजसा सबन्ध त्यांचे नजरेस येत जाईल तसतसी ही नवीन सांपडलेली विलक्षण रत्नांची अगाध खाण पाहून त्यांचे मन आनन्द सागरांत निमग्न होईल.” भावार्थ-जब जैनसाहित्यका अच्छी तरहसे परिचय मिलेगा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) तब इन नवीन जैनसाहित्य रूप प्राप्त हुए अगाध विलक्षण रत्नोंकी खानको देखकर देखनेवालेका चित्त आनन्दसागरमें निमग्न होगा । जो लोग जैनसाहित्यको नहीं देखते हैं उनको जैनसाहित्यके अनभिज्ञ होनेके कारण पवित्र जैनधर्म पर द्वेष होता है । देखिए एक अन्यमतावलंबी महाशय जैनसाहित्यके स्वल्पअंशके देखनेसेही जैनसाहित्यकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं, ऐसेही जैनसाहित्यसम्मेलनकार्यविवरण भा. १-२-के पृष्ठ ३३ से लेकर पृष्ठ ४५ तक जैनसाहित्यके विषयमें एक अन्यधर्मावलम्बिविद्वान् महाशय भावनगरनिवासि शास्त्रि जेठालाल हरिभाईने एक प्रबन्ध लिखकर स्वानुभवसे युक्तिपूर्वक जैनसाहित्यको अतीव उच्चकोटीका साहित्य साबित कियाहै। तो इधर द्विचरनामक जैन उसी जैनसाहित्यसे मुंह मरोड़ कर कहता है कि-जैनसाहित्य ग्रन्थ जैनधर्मकी बाबत गैर समजुती करानेवाले हैं । अफसोस है इस मूर्खशिरोमणिकी लीला पर कि जिसने यह भी नहीं विचार किया कि---भारतवर्षीय तो क्या परन्तु युरोपियन विद्वानोंने भी निस जैनसाहित्यकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है उस उत्तम साहित्यको जैनधर्मकी गैरसमजुती (खोटी समझ ) का कारण मैं कहता हूं, परन्तु मेरी इस असत्य बातको कौन मानेगा; और जैन नाम रखकर ऐसे अधमकार्य करनेसे मेरेपर चारों ओरसे कैसी तिरस्कारकी वर्षा होगी । मतलब कि इस विषयका बेचरदासने कुछभी विचार नहीं किया और झट गप्प मारदी कि अपना साहित्य भागम ग्रन्थोसे भिन्नरूपमें है, अब हम Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) हमारे पाठकोंको सावधान करते हैं कि - याद रहे कि इस गप्पीदास के गप्पगोलेमें विश्वास नहीं रखना चाहिये। क्योंकि महान् धर्मधुरंधर पूर्वाचार्यों के रचे हुए साहित्यग्रन्थका कोई अंश आगमविरुद्ध नहीं है । मात्र ' विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ' इस कहावत के अनुसार बेचरदासकी बुद्धिमेही विपर्यय हो गया है । बेचरदास - " कमनशीबे हालमां साधुओ एम कहे छे के आ आगमो श्रावको वांची शके नहीं । याद राखो के आ आगमो हाल मां श्रावको सांभली शके छे अने ते सामे साधुओंनो बांधो नथी बल्कि साधुओ पोतेज संभलावे छे " इत्यादि. समालोचक--बेचरदास ! अधिकार वगैर श्रावक लोग अगर आगमशास्त्र पढ़े तो उनको लाभके बजाय बड़ी भारी हानि पहुंचती है । उदाहरण में तुमही हो, क्योंकि सूत्र स्वयं बांचनेसे तुह्मारी बुद्धिका नाश हुवा प्रत्यक्ष नजर आता है, अन्यथा वज्रस्वामी आर्यरक्षित जैसे महात्माओं को भी तुम अंधेरा तेरनेवाले कदापि नहीं कहते । अत्र बिचार करोकि जो सूत्रपठन मोक्ष देनेवाला है वही अधिकार वगैर तुमको नरकादि अधोगतिका देनेवाला हो गया । बस यही कारण है कि श्रावकको सूत्रपढ़नेकी मनाई साधुओंकी तरफसे नहीं किन्तु परमात्मा की तरफते है । · तटस्थ -- आपने यह क्या सुनाया ! क्या ऐसा बन सकता है कि जो जैनसूत्रका पठन मोक्षदेनेवाला है वही अधिकार वगैर पढ़नेवालेको नरकादि देनेवाला बन जाय ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६). समालोचक--क्यों नहीं बराबर बन सकता है । देखिये। जसकी जेबमें चाकू है ऐसे एक आदमीको उसके किसी शत्रुने स्सीसे बांध दिया और कहीं एक ख़ुल्ले स्थानमें रख दिया । किसी दन दुश्मनकी नज़रको बचाकर उस बद्ध आदमीने शनैः २ अपनी जेबमेंसे चाकू निकालकर रस्सीको काटडाली और बन्धनसे मुक्त हो गया । अब किसी दिन उसी चाकूको उस बेसमझ आदमीने अपने लड़केके आग्रहसे उसको खेलने के लिये देदिया । दैवयोगसे लड़का चाकू खुल्ला रखकरके खेलने लगा इतनेमें वह चाकू उसके हाथ से गिर गया और उसका दस्ता एक छोटे खड्डेमें फस गया और धारका भाग बाहरकी तरफ रहा, इतनेमें उस लड़केको ठोकर लगी और उस चाकू पर पेटके बल गिर गया ! वह तीक्ष्ण चाकू तुरतु उस लड़केके पेटमें घुस जानेसे लड़केका प्राण निकल गया। अधिकार वगैर चाकूसे स्वतन्त्र खेलनेके कारण लड़केने अपना नाश किया । जैसे. एकही चाकूने पिताको लाभ और पुत्रको हानी पहुंचाई, उसी तरह एकही सूत्र पढनेकी योग्यतावाले पितारूप साधुओंको लाभ और योग्यताहीन लड़केस्वरूप गृहस्थोंको नुकसान पहुंचाता है ।हां, अगर गृहस्थ गुरुमुखसे सुने तो लाभ हो सकता है। इससे यह बखूबी साबित हो नका कि--एकही वस्तु अधिकारवालेको लाभदायक अनधिकारी मनुष्यको हानिकारक हो जाती है। . तटस्थ-वाह साहब वाह ! युक्ति प्रयुक्तिसे तो आपने सिद्ध कर दिया कि--श्रावकको सूत्रपढ़ेनका अधिकार नहीं है। परन्तु Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७) भागमपाठप्ते सिद्ध कर दिखलाइए तब सच्चे का बोलबाला और झूठेका मुंह काला होजाय. समालोचक --देखिए ! सप्तनाङ्ग श्री उशालकदशाङ्ग कामदेवश्रावकके अधिकार में लिखा है कि 'तएणं समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गन्ये निग्गन्धिओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-" जइ ताव अज्जो ! समणोवासगा गिहिणो गिदमझे वसंता दिव्यमाणुस्सतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहति जाव अहियासंति । सका पुणाइ अज्जो समणहिं निग्गन्थेहिं दुवालसंगं गणिपिडगं अहिज्जमाहिं दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिए उसग्गे सम्मं सहित्तए जाव अहियासित्तए" भावार्थ-उस समय श्रीमहावीरमभु बहुत साधु साध्वीओं को बुलाकर फरनाते हुए कि-हे साधु लोगों ! गृहस्थ श्रावकलोग घरमें वसते हुएभी देव-मनुष्य और तिर्यंचसंबन्धि उपसर्गों को सहन करते हैं तो फिर द्वादशाङ्गकी वाणीको धारणकरनेवाले मुनियों को तो अवश्य इनसे विशेष परिषह सहन करने चाहिये। क्योंकि; मुनि श्रुतज्ञानके धारक होते हैं । देखिए अगर श्रावकोंको अङ्गाउपाङ्गके पढ़नेका अधिकार होता तो पूर्वोक्तपाठमें ऐसा नहीं कहा जाता कि श्रावक इतने उपसर्ग सहन करते हैं तो द्वादशाङ्गीके धारणकरनेवाले तुमको विशेषकरके सहनकरना चाहिये । बस Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) ससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावकको सूत्रपढ़नेका अधिकारही हीं है । फिरभी देखिए श्रीसूयगडांगसूत्रके नौवें अध्ययनमें लेखा है कि " गेहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा। ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं" भावार्थ-पुरुषोंमें आदेयनामकर्मवाले धीरपुरुष घरमें पूत्ररूप दीपकको नहीं देखते हुए चारित्रको धारण करते हैं परन्तु त्रज्ञानशून्य असंयत जीवितको नहीं चाहते हैं। तथा श्रीभगवतीसूत्रके दूसरे शतकके पांचवें उद्देशे में लिखा है कि " लठा गहियट्ठा पुच्छियहा अभिगयहा विणिच्छियहा” इस पाठसेभी श्रावकोंको सूत्रपढनेका अनधिकार साबित होता है । अन्यथा "गहियसुत्ता लध्धसुत्ता" अर्थात् ग्रहण किया है अर्थ जिसने इस पाठके स्थानमें प्रहण किया है सूत्र जिसने ऐसा पाठ श्रावकके विशेषण, आना चाहिये था । और पुच्छियठ्ठाके स्थान पर पुच्छियसुत्ता यानि पुछा है सूत्र जिसने ऐसा पाठ आना चाहिये था । परन्तु ऐसा पाठ नहीं है अतः सिद्ध हुआ कि श्रावक सूत्र न पढ़े । और देखिए, श्रीव्यवहारसूत्रके दशमें उद्देशे में लिखा है कि " तिवासपरियागस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारप्पकप्पे नामं अज्झयणे उद्दिस्सित्तए । पंचवासपरियागस्स समणस्स हप्पति दसाकप्पयवहारानामज्झयणे उद्दिसित्तए । अहवास Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) परियागस्स समणस्स कप्पति ठाणसमवाए नामं अंगे उद्दिसित्तए । दसवासपरियागस्स कप्पति विवाहे. ना अंगे उदिसित्तए । ___ भावार्थ-तीन वर्षके पर्यायवाले साधुको आचारप्रकल्प बाचना कल्पता है । चार वर्षकी दिक्षापर्यायवालेको सूयगडांगसूत्र पढ़ना कल्पे । और पांच वर्षकी दिक्षा पर्यायवालको दशाकल्पव्यवहार अध्ययन करना कल्पता है आठ वर्यकी दिक्षापर्यायवालेको ठाणांग और समवायांग सूत्र पढ़ना कल्पता है । दश वर्षकी दिक्षापर्यायबालेको भगवतीसूत्र पढ़ना कल्पता है । इत्यादि पाठ है। अंतमें वीस वर्षकी दिक्षा पर्यायवाले साधुको सर्वसूत्र पढ़ने कल्पते है । अब विचार करो कि साधुभी अमुक २ वर्षकी दिक्षापर्याय हुवे बाद अमुक २ सूत्र पढ़ने लायक होतो फिर गृहस्थ कि जिसको एक दिनकामी दिक्षा पर्याय नहीं है वह सूत्र कैसे पढ़ सकता है ? केवल श्रावक के लियेही सूत्रपढ़नेका निषेध नहीं है किन्तु साधुकोभी तीन वर्षकी पयाय पहिले पूर्वोक्त सूत्रोंमेंसे एकभी अंग सूत्र पढ़नेका हुकम नहीं है । तथा श्रीउववाईसूत्रमेंभी लिखा है कि " अत्थेगइया आयारधरा, अत्यगइया सूअगडंगरा" अर्थात् कितनेक साधु आचारांगके जाननेवाले और कितनेक सूयगडांग सूत्रके जाननेवाले ऐसे साधुओंके नामसे प्रथम विशेषग लिखे होते हैं । परन्तु किसीभी जैन आगम ग्रन्थमें आचारांगके धारक या Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) ऐसे विशेषण श्रावकशब्दसे पहिले सूयगडांगके धारक श्रावक नहीं लगाये हैं, इससे भी सिद्ध होता है कि अधिकार न होनेसे यह निषेध साधुओंकाही किया हुवा नहीं किन्तु प्रभु महावीरस्वामीका किया हुआ है अगर इस विषय में विमोहित होकर जो सूत्र ग्रन्थोंको पढ़ते हैं वे अवश्य बेचरदासकी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं । 1 तटस्थ — आ हा ! हा ! इतने पाठोंके होने परभी पंडित बेचरदासको एकभी पाठ नहीं सूझा यह बड़ा आश्चर्य है । और उसका यह कहना कि 'मैं ग्यारह अंग पढ़ा हूं उनमें कहीं भी श्रावकको सूत्रपढ़नेका निषेध नहीं किया है' सरासर झूठ I क्या ऐसे झट बोलकर दुनियाको ठगनेसे वह सुखी बनेगा ? कभी नहीं | हाय हाय, अज्ञानी जीवोंकी कैसी लीला है कि केवल इस लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये मिथ्या ( झूट ) बोलते जराभी नहीं डरते । शासनदेव ऐसी आत्माको बचावे | आप और कोई स्पष्ट पाठ बतलाइए जिससे लोगों पर उपकार हो । समालोचक — दसवें अङ्ग श्रीप्रश्नव्याकरणमें ऐसा साफ पाठ आता है कि जिससे श्रावक सूत्र नहीं पढ़ सकता ऐसा साबित होता है । तथा च तत्पाठः–“ तं सच्चं भगवंत तित्थगर सुभासिअं दसविहं चउदसपुव्विहिं पाहुडत्थवेश्यं महरिसीण य समयप्पदिनं देविंदनरिंदे भासियत्थं " । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) भावार्थ-तीर्थङ्कर भगवान्ने दश प्रकारका सत्य कहा है और साधुजनोंको सूत्र ज्ञान दिया. और देवेन्द्रनरेन्द्रोको सूत्रका अर्थरूप ज्ञान दिया है इस पाठसभी साफ जाहिर होता है कि-खास परमकृपालु भगवान् महावीर प्रभुनेभी अधिकार वगैर श्रावकोंको सूत्रज्ञान नहीं दिया किन्तु अर्थज्ञान दिया था। इस पाठसेभी साफ जाहिर है कि श्रावकों को सूत्र पढ़नकी मनाई प्रभु महावीर स्वामीके समयसेही है इतनाही नहीं बल्कि तमाम तीर्थकर प्रभुओंका यही कथन है कि श्रावकसूत्र न पढ़े । बस यही कारण है कि अगर साधु श्रावकको सूत्र पढ़ावें तो साधुको प्रायश्चित आता है । देखिये श्रीनिशीथ पूत्र का पाठसे “ भिरकु अगरयित्थं वा गारत्थियं बा वाएइ वायंतं वा साइजइ तस्सणं चाउम्मासियं ". अर्थ---जो साधु अन्यतीर्थिको या गृहस्थीको वाचना देवे या वाचना देनेवालेको सहायता देवेतो उसको चातुर्मासिक प्रायश्चित आवे ! इन सब पाठोंसे अच्छी तरहसे साबित हुवाकि श्रावक सूत्र नहीं पढ़ सकता। पाठक जनों ! श्रावक सूत्र नहीं पढ़े इस विषयका शास्त्राधारसे साधुलोग जब विधिवाद बताते हैं तब बेसमझ बेचरदास कहता है कि -" आ गप्प जे तद्दन ज शास्त्र विरुद्ध छे ते शा माटे मार• वामां आवी हशे ! " अब जरा विचार करोकि येचरदासको विना प्रमाणकी बातें मान्य करने लायक हैं? या प्रमाग पुरःसर शास्त्रकारों की बातों मान्य करने योग्य हैं ? । अगर तुन ( पाठक वर्ग ) दग्वबीज नहीं हो तबतो शास्त्र के प्रमाणकोही मान्य रखकर स्वयं गृहस्थ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) होनेके कारण सूत्र पढ़ना तो दूर रहा परन्तु श्रावक होकर जो पढ़ता हो उसेभी सहस्रशः धिक्कारवाद देना चाहिये । और जो बीजही दग्ध हो गया हो तो फिर उपाय नहीं जिसकी इच्छा में आवे वैसा करें और अनन्तकाल तक संसार में भटक २ मरें कौन रोकता है । इसके बाद " तांत्रिक युगना साधुओनुं चारित्र्य एटलं तो शिथिल थई गयुं के तेओने एवं लाग्युं के जो श्रावको खरा साधुओ केवा होय ते बाबत आगमोमां जोशे तो आपणा जेवा शिथिलचारित्रवालाने उभान नहीं राखे, अने आपणने कदाच साधु तरीके कबुलशे पण नहीं " बेचरदासका यह कथनभी युक्तिशून्य है । यथा प्रथम में लिख आया हूं कि - " जैन मुनियों पर तात्रिकयुगका लेशमात्र भी असर नहीं हुवा है । " अगर थोड़े कालके । लिये वेचरदासकी इस असत्य कल्पनाको मान लेवें तौभी इसका मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि अगर मुनियोंपर तान्त्रिकयुगका असर हुवा होता तो फिर शास्त्र पढ़नकी मनाई करने की अपेक्षा शास्त्रों में शिथिलाचार के पोषक वाक्य डालना यानी सूत्रोंकोही पलटा देना यही इनके सदैव शिथिलाचार चलनेका मजबूत उपाय था इसलिये इसी उपायका शरण लेतेतो उनकों कौन रोक सकता था । बस इससेभी साबित होता हैकि बुद्धिरूप नयन पर पक्षपात के चस्मे चढ़ा कर जिसवक्त बेचरदासने जैनधर्मविरुद्ध वकवाद शुरू किया है उसवक्त मगजमें अवश्य गरमी चढ़ जानी चाहिये । अन्यथा एक बालकभी समझ सके ऐसी असत्य कल्पना कदापि नहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३ ) करता और यह विचारताकि साधुओंको अगर अपना स्वार्थही पोषण करना था तो आगम उनके हाथमेंही थे तुरत बिगाड़ देते। परन्तु साधु लोग बेचरदास जैसे धर्मभ्रष्ट नहीं थे जो एक वचनकीभी अन्यथा प्ररूपणा करें। मतलब यह सिद्ध हुवाकि ' अपने शिथिलाचारको छुपानेके लिये साधु लोग श्रावकोंको सूत्र पढ़नेकी मनाई करते रहे ' बेचरदासकी यह कल्पना ऐसी है कि जैसे कोइ कहेकि गधेके सींगसे बने हुए तीर से मैने बांझके पुत्रको पिंधकर आकाशकुसुमको विधा । और विशेषावश्यक का नाम लेकर लोगोंको झूठा धोखा देता है, क्योंकि - संपूर्ण विशेषावश्यकमें एक पङिभी ऐसी नहीं है कि जिसमें लिखा होकि ' श्रावक स्वयं सूत्र पढें ।' अस्तु, ऐसी गप्प मारनेवालोंकी परमाधामीही खबर लेंगे । और ' साधुलोग खयंसूत्र सुनाना स्वीकारते हैं पर श्रावक स्वयं सूत्र पढेतो विरोध जाहिर करते हैं। वेचरदासके इस कथनसेभी शिथिलाचारको छिपाने के लिये साधु श्रावकको सूत्र पढ़नेका निषेध करते ऐसा सिद्ध नहीं हुवा । क्योंकि अगर इसी भयसे श्रावकको सूत्र पढनेका निषेध करते होंतो फिर स्वयं सूत्र ग्रन्थोंको सुनाते क्यों ? देखिए बेचरदासके इस विरुद्ध कथनसेही उसमें उन्मत्तता सिद्ध होती है । और एक यहभी बात है कि सूत्रोंके सिवाय र अनेक प्रकरणग्रन्थ हैकि जिनमें भली प्रकारसे साधुओंके आत्र का वर्णन किया गया है अगर साधु शिथिलहीथे और हमारी शिथिलताको श्रावक जान जायंगे तो हमें खड़ेभी नहीं रहने देंगे ऐसा उन्हें भय थातो फिर ___ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४ ) उन्होंने ऐसे उत्कट आचारके वर्णन करनेवाले अन्य क्यों बनाए ? इस दलीलसेभी वेचरदासकी कपोलकल्पनारूप ढोलकी पोल जाहिर हो जाती है। तटस्थ-भला यह क्या बात है, जब साधुलोग श्रावकको सूत्र सुना सकते हैं तो श्रावक स्वयं उन सूत्रों को क्यों न पढ़ सके ? समालोचक-भला यह क्या सवाल किया, यहतो एक छोटा बच्चाभी समझ सकता हैकि-जैसे पक्षीके छोटे बच्चको उसकी माता चुगा लाकरके खिलाती है उसवक्त वह बच्चा अपनी माताकी अपेक्षाको छोड़कर स्वयं चुगा करनेके लिये घोंसले (मारे )से नीचे गिरेतो पांखोंके अभावसे इसकी मौतही आई समझनी अब इस दृष्टान्तसे श्रावक वगैर योग्यताके ( जब साधुमेंभी अमुक अमुक वर्षों की बाद अमुक अमुक सूत्र पढ़नकी योग्यता आती है तो फिर गृहस्थोंमेंतो सत्र पढ़नेकी योग्यताकी बातही कहां रही) अगर गीतार्थगुरुमुखसे सूत्र सूने तो माँके मुंह से लिये हुए चुगेकी तरह सुन सकता है परन्तु स्वयं सूत्र पढ़नेका इरादातो ऐसा हैकि जैसे बच्चेका स्वयं चुगा खानेको जाना, बल्कि उससेभी अनन्त गुण ज्यादह दुःखप्रद है। क्योंकि स्वतन्त्रताम पसंद रहनेवाले पक्षीकी तो एकवारही मौत होती है परन्तु प्रभुआज्ञासे विरुद्ध होकर स्वतन्त्र सूत्र पढ़नेवाले गृहस्थकोतो अनन्तबार मरना पड़ता है । ___ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) तटस्थ-भो महात्मन् ! मेरे पर आपकी तरफसे बड़ा उपकार हुआ है । मैं अपनी उम्रमें गृहस्थ सूत्र पढ़ें इस दुष्टश्रद्धाको अपने नजदिकमें ही नहीं आने दूं। आप कृपाकरके आगेका खण्डन सुनावें। समालोचक-इसके बाद वेचरदासने जैनसाहित्यके विषयमें अगडं बगडं उत्पटांग बातें कह डाली हैं जिन बातोंका जवाब प्रथम में लिख चुका हुं इस लिये यहांपर दुबारा लिखनेकी आवश्यकता नहीं हैं । और यहभी बात है कि खुद बेचरदासने पूर्वोक्त जैनधर्मप्रकाश नामके मासिकपत्रमें कल्पितका अर्थ असत्य ऐसा नहीं स्वीकारा है किन्तु आलङ्कारिक कवुल किया है। जब कल्पितका अर्थ असत्य नहीं है तो बेचरदासके इस कथनसे ही कथाभाग की सत्यता सिद्ध हुई। और वह सत्यताभी कैसी (वेचरदासके करे हुवे अर्थसे ) आलङ्कारिक है इससे और भी अधिक खुशीकी बात हुई कि एक सोना और दूसरी सुगन्ध सिद्ध हुई है। जब बेचरदासके बचनसे साहित्यकी चढ़ती कला सिद्ध हुई तो फिर इस वियषमें ननुनचकी जरूरत ही क्या रही। अगर बेचरदासने तंत्रिके सम्मुख कल्पितकथाका अर्थ झूठी कथा ऐसा किया होता तो अवश्य इस विषयमें भी कुछ लिखता । इसके बाद एक ईंटकी चौरीसे चोथीनरकमें जानेके दृष्टांतको कहांसे लिया ! ऐसा तंत्रीने अपनी सभामें वेचरदाससे प्रश्न किया था इस विषयका खुलासाभी बेचरदास नहीं कर सका है । और Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) चौथी नरकके उद्देससे वाक्य जो उसने कहा था उस कथनमें भी वह झूठा सिद्ध हुआ है. क्यों कि किसी भी जैनग्रन्थके प्रमाणसे इंटका चौर चौथीनरकमें जाय इस जिकरको सावित नहीं कर सका है । कोईभी बात हो मगर जबतक उसका प्रणेता सिद्ध न हो वहां तक — पुरुषप्रमाणे वचनप्रमाणं' इस न्यायसे उस बातकी सिद्धि के लिये कॉलमभरने मुझे पसंद नहीं है, इस लिये कोईभी बात लिखनी हो तो प्रथम उस बातके कथन करने वाले पुरुषका पब्लिकको परिचय अवश्य कराना चाहिये । तबही खण्डनकर्ताको खण्डन करनेकी अभिरुचि उत्पन्न होती है बाकी जैनमन्तव्यसे विरुद्धबात सामान्यरीतिसे कथनकी हो तो भी उसका खण्डन करना आवश्यक है। इसके बाद बेचरदासका कर्मसिद्धांतको भी जानता हो ऐसा दौंग उसमें जीवरामभट्टपना सिद्ध करता है और इस कहावतको चरितार्थ करता है कि 'कुछ आवे न जावे चतुर कहावे ' अगर बेचरदासको कर्मसिद्धांतका जरा भी ज्ञान होता तो बाह्यसामग्रीको अल्पतामें नरकगति कैसे हो सके ऐसा विकल्प कदापि प्रतिपादन नहीं करता। क्योंकि उसने दृष्टांत दिया उसमें तो एक ईंटकी भी बाह्य सामग्री है, परन्तु, प्रसन्नचंद्रराजर्षिको कौनसी बाह्यसामग्रीका योगथा जिसको श्रेणिक महारानके किये हुए प्रश्नके उत्तर में प्रभु महावीर स्वामीने सातमी नरकम जानेके योग्य कहाथा। तन्दुलियेमच्छको बाह्यसामग्रीका लेशभी योग नहीं होने पर भी उसका सातवी नरकमें गमन होता है, इससे साबि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) त होता है कि बाह्यसामग्रीके बिलकुल अभावमें या अल्पतामें भी तीव्रमनोदुष्टता होनेसे जीव विशेषअधोगतिका भागी बन सकता है। कर्मसिद्धांतका ज्ञान तो इस पामरको क्या होना था परंतु लोकविषयका ज्ञानभी विचारको नहीं है । देखिये ! एक आदमीको कांटा लगता है और वह मर जाता है और एक आदमीको गोली लगती. है तोभी नहीं मरता, जिम आदमीको एक मामुलीसा ज्ञानभी नहीं ऐसा आदमी जनसाहित्यपर विचार करे यह भी एक आश्चर्यकी बात है कहावत भी है कि ' रत्नपरिक्षक जानिये, जोहरी नहीं गंवार ' यानी गंवार कदापि रत्नोंकी परीक्षा नहीं कर सकता किन्तु जोहरी ही कर सकता है मैं कहां तक लिखू , बेचरदासकी तमाम बाते जहालतसे भरी हुई हैं । जहालत भी वहांतक जाहिर की है कि परले दर्जेके महात्मा उपकार भी नहीं करते । इस बातको कहते वक्त वेचरदासने जहालतका खजाना ही खाली कर दिया है. क्यों कि दुनिया की कोई भी विदुषी व्यक्ति इस बातको स्वीकार नहीं कर सकती कि परले दर्जेके महात्मा उपकार शून्य हों। महात्माओंकी ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसके द्वारा जगतका उपकार न हो । ऐसी झूठ गप्प मारनेमें बेचरदासका यह अभिप्राय होना चाहिये कि तीर्थङ्कर प्रभु जगत्के उपकारी सिद्ध न हों तो जैनसाहित्य अन्यकृत सिद्ध हों। और ऐसा होनेसे वेचरदासकी. मनोवृत्तिको पुष्टि मिले । परन्तु वह दिन कहां जो मियांके. पांवमें जुत्ती' जैन समाज अपने शास्त्रकथनको छोड़ कर बेचर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) दासके इस मिथ्याकथनको कदापि सम्मान नहीं देसकता । शास्त्रोंमें तीर्थङ्कर महाराजाओंको अनुपम उपकारी माने हैं, तथापि बेचरदास उन्होंके किये हुए उपकारोंको किसी अधमवांछाको पूर्ण करने के लिये दबाना चाहता है । परन्तु अनेक सूत्रोंसे प्रसिद्ध प्रभुउपकार कदापि नही दब सकता, हां, वेचरदासने अपनी जिस अधम मनोवान्छासे यह कपोलकल्पना जाहिर की है उस वाच्छाको ही दबाना पड़ेगा। बेचरदास-' आजना अमूल्य प्रसंगे मने मारूं अंतःकरण खाली करवा दो, आपणामां पजुषण पर्वमां ऐवो रिवाज छेके चौदसुपना श्री महावीरना जन्म दिने उतारवां, हवे आ स्वप्न उतारवामां अटलं बधुं पुण्य मनाय छेx x x x x पण मारे खुल्ला दिलथी अने शास्त्रों अने आगमोंना पुरावा परथी जणावी देवू जोइये के आ रूढि पुण्यनी नहीं पण पापनी छे" इत्यादि समालोचक-सुपने उतारनेके विषयमें भी वेचरदासने युक्तिशून्य कथन किया है और साथमें अपनी धूर्तताका पठिजकमें परिचय दिया है क्यों कि लोगोंके सामने मिथ्याडम्बर तो इतना जाहिर किया है कि-शास्त्र और आगमों के अनुसार सुपने उतारने विरुद्ध हैं ऐसा बकवाद तो कर दिया परन्तु श्रीहरिभद्रसूरि महारज, श्री विजयहीरसूरि महारान जैसे एक भी प्रामाणिक ___ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) महात्माके बनाए हुए ग्रन्थका प्रमाण नहीं दिया है कि देखो! फलाने ग्रन्थम सुपने उतारनेका निषेध किया है, अथवा अमुक आगममें मनाई की है और इस विषयका यह पाठ है। इत्यादि यानी प्रमाणकी गन्ध भी वेचरदासके भाषगमें नहीं है और केवल निरा बकवाद ही किया है कि यह रूढि पापकी है। एक धर्मक्रियाको बगैर शास्त्रके अक्षरोंके देखे पापक्रिया कहनेसे प्रथम जिव्हाके. सहसस्रः टुकडे होजाएं तो अच्छे हैं, परन्तु उस जिव्हासे ऐसे शब्द निकलने अच्छे नहीं क्योंकि ऐसे अक्षर बोलनेसे भव भवके लिये जिव्हाका छेदन भेदन सहना पड़ेगा। इससे एक ही बार होना बेहेतर है। बेचरदासके पाप रूढि कहनेसे स्वप्न उतारनकी रूढ़ि पापरूढ़ि नहीं हो सकती । जैसे वेश्या सतीत्वधर्मको घोरपापमय बताए और अपने व्यभिचारको धर्मरूढ़ि कहे तो क्या उसका वाक्य सत्य हो जायगा ? कदापि नहीं। बस इसी तरहसे बेचरदासके वाक्यको भी समझ लेना चाहिये । क्योंकि जैसे परमकृपालु प्रभुकी मूर्ति प्रभुगुणोंके स्मरणमें कारण होनेसे नाना प्रकारके आभूषणादि चढ़ाकर रथमहोत्सवादि द्वारा पूजी जाती है, और यह रूढि पुण्योपार्जनका हेतु है सो बात शास्त्र सिद्ध है। इसी तरह प्रभुके गर्भ में उत्पन्न होनेके समय उनकी माता जिन स्वोंको दखती है उन स्वप्नोंसे भी अपनेको प्रमुगुणका स्मरण होता है जिस प्रकारसे प्रभुकी मूर्ति प्रमुगुणस्मरणमें कारण होनेसे नानाप्रकारके आभूषण, चंदन, अक्षत नैवेद्यादिसे पूजी जाती है, और Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) पाप रूढि मालूम पड़े तो क्या सृष्टि: ' हजारों रुपैये खरच करके बड़े बड़े स्नात्र महोत्सव करते हैं, उसी तरह चौदह सुपने भी प्रभुगुणके स्मरणमें कारण होनेसे जिसप्रका रसे गुणस्मरणमें आदरकी दृष्टिसे देखे जावें उसी प्रकार से पुण्यरूढिके सूचक हैं । भाग्यहीन बेचरदासको उपायहो । उपायहो । ' यादृशी दृष्टिस्तादृशी अन्यधर्मावलंबीभी जैनधर्मकी जैनधर्मकी कितनीक पवित्र क्रियाओंको अपवित्र मानकर पापरूढि कह देते हैं तो क्या उन मिथ्या दृष्टिओंका कथन सत्य हो सकता है ? कदापि नही । इसी तरह बेचरदासका कथन भी मिध्यात्वप्रेरित होनेसे असत्य समझना चाहिये । महावीर प्रभुके गर्भागमनसूचक स्वप्न उतारने समय प्रभुके गुणोंमें एसा चित्त आकर्षण होता है कि इस चित्त आकर्षण से पुण्यबन्ध हुए वगैरे नही रह सकता और कितनेक विशेष भाग्यशाली जीवों को तो यह प्रथा निर्जराकाभी कारण बन जाती है । परन्तु नास्तिक बेचरदासको अपनी उम्र में शायद दुर्भाग्यवश ऐसा भावही नहीं आया होगा । जिससे स्वप्न उतरने की पुण्यरूढि को भी पापरुटि बतलाता है। हां, बेचरदासके लिये उन स्वप्नों पर द्वेष आने से पापक्रिया बन सकती है, परन्तु सब के लिये नहीं | जैसे प्रभुकी मूर्ति इंढियोंको अप्रीतिका कारण हो जानेसे पापबन्धनका हेतु मालूम हुई और इस विषय में पञ्जाबके ढूंढिये तो उदाहरण रूप है हीं परन्तु गुजरात में भी लीबड़ी, बोटाद आदि के ढूंढियेभी उदाहरण रूप हैं, तो क्या इससे श्वेतांबर मूर्तिपूजक - V Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) वगकोभी मूर्तिपूजन पापका कारण बन सकता है ? कदापि नहीं। बस इसी तरहसे वेचरदासकोभी स्वप्न उतारनकी क्रिया परिणतिकी विषमतासे पापका कारण हो परन्तु आस्तिकजैनभाईयोंको तो पुण्यबंधन या निर्जराका ही कारण है। और इस विषयमें सूत्र पाठ नहीं देते हुए मात्र कल्पसूत्रकीही साक्षी देता हूं कि, देखो चौदहपूर्वधर श्रीभद्रबाहुस्वामीने द्वितीय तथा तृतीय बांचनीकी अदर अपनी बाणीद्वारा स्वमोंकी कैसी महिमा गाई है। जब चौदह पूर्वधर महात्माके मुखसे निर्गतअनर्गलविशेषणोंसे विशिष्ट स्वप्नोंकी महिमा जो जैन जन न करें तो फिर इनके जैसा परलेदर्जेका नास्तिक ही कौन बन सकता है ? अपने युगप्रधान शिरश्छत्र पितामह चौदह पूर्वधर भद्रबाहुस्वामी स्वप्नोंकी महिमामे लगभग दो बांचनी जितना वर्णन करें और श्रावक वर्ग घंटे दो घंटे नितने टाइम से और थोड़ेसे पैसे खरचनेसे ही घबरा जायं तब उसके जैसा हतभागी कौन ? अगर वेचरदासके कथनानुसार पुत्र वगैरके और जहाजके व्यापारी मनुष्य अमुक अमुक स्वप्न लेने हैं तो इससे भी वे पापके भागी कैसे हो सकते हैं ? तुम्हारे जैसे श्रद्धाबगैरके आदमीसे पुत्रादिसंसारीकामनाके निमित्त भी श्रद्धापूर्वक धर्मक्रिया के करनेवाले अच्छे हैं । हां, उनकी करणी मोक्षके निमित्त नहीं हो सकती परन्तु पापमयक्रिया नहीं है । मात्र ऐसा कहा जा सकता है कि जैनधर्मकी क्रिया करनी और उसमें संसारकी वाञ्छा रखना ठीक नहीं है परन्तु ऐसे धर्म करनेसे पापबंधन होता है ऐसा उल्लेख Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहां है ? यह बेचरदासको मूलआगमके किसी पाठसे दिखलाना चाहिये था। हां इतना कह सकते हैं कि-सांसारिक सुखकी लालसामें पड़ कर धर्मकरणीमें लगना सो चिन्तामणिको देकर पावभर सुवर्ण लेने जैसा है । परन्तु सुवर्ण जितना भी लाभ तो रहाने ? पापगमका सिद्धांत कहांसे आया ? और स्वप्न लेने में बेचरदासने जो सांसारिक लाभको हेतु बतालाया है वहभी कितनीक बेसमझ व्यक्तिओंके लिये समझना चाहिये, न कि तमाम जनसमाजके लिये ऐसा हो सकता है। इस तरह की भावना ( सांसारिक लाभकी इच्छाकी भावना ) तो कितनेक सामायिक प्रतिक्रमण प्रभु पूजन करने वालोंमें भी अज्ञानताके कारणसे हो जाती है, तो क्या उन सब धर्मक्रियाओंको भी त्याग देनी चाहिये ? कदापि नहीं। 'जूओं के डरसे कपड़े कभी नहीं फेंके जाते ' किन्तु जूएं दूर करनेका प्रयत्न किया जाता है । इसके बाद पालना वगेरेके रिवाजको भी बेचरदासने पसंद नहीं किया है यह भी उसके दुर्भाग्यका ही कारण समझना चाहिये क्यों कितीनज्ञानके धारी भगवानकी दृष्टि हमेशह बिना विनोदके निमित्तसे भी विनोदमें रहती है तथापि उनकी दृष्टिके सामने चंदोएं पर इन्द्र भक्तिके निमित्त श्री दामगंड लंबृसक लटकाता. हैं यह बात आवश्यकसूत्रतथा कल्पसूत्रसे प्रसिद्ध है। इसी तरह प्रभुकी भक्ति निमित्त पालना बनाकर अपना अहो भाग्यमानकर स्थापनाकी अपेक्षासे उस प्रभु पालनेकी दोरीको भक्तजन खींचते हैं। उसमें Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३ ) . . बेचरदासका दिल क्यों खींचाता है ? वह कहता है कि-'यह सब एक प्रकारका नाटक है इसे साधु क्यों नहीं हटाते । इसके जवाबमें मालूम हो कि यह फक्त नाटकही नहीं किन्तु मोक्षनगरका फाटकभी ( दरवाना ) है । साधु ऐसे धर्म नाटकको कदापि नहीं हटा सकते । क्योंकि धर्म नाटकसेही नृपति रावणने तीर्कङ्करगोत्र बांधा है। इस बातको अच्छी तरहसे जाननेवाला जैनसमाज इस धर्मक्रियाके नाटकसे कदापि नहीं हट सकता । हां जिसको नरकगोत्र बांधनाहो, वह इस अपूर्व प्रभुभक्तिमार्गसे हट जायतो कौन रोक सकता है ? बाकी 'वैष्णव जैसा' इत्यादिभी उसका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वैष्णव दो पैसे धर्ममें खरचें तो श्रावक क्या न खरचे ? अगर वैष्णव उनके देवकी पूजा करें तो श्रावक अपने देवकी पूजा न करें? अगर वैष्णव अपना वैष्णवी भावसूचक तिलक करें तो जैन जैनभावसूचक तिलक न करें ? अगर वैष्णव भक्ष्यभोजन करेंतो श्रावक न करें ! अगर वैष्णव दया पालेतो क्या श्रावक दया न पालें ? कदापि नहीं । हां जिस तरह वैष्णव सरागी देवको मानते है उसी तरह जैनोंको सरागी देवको मानना उचित नहीं है । पर क्या वीतराग देवकीभी भक्ति नहीं करनी चाहिये ? हा जैनसिद्धान्तबाधकरिवाज न होने चाहिये । क्या एक पालना झुलाया उसीमें वैष्णवपन आगया ? कदापि नहीं। स्वप्न उतारने पालना झुलाना आदि क्रियाएं प्रभुकी पुण्याईका फोटो है । उसे देखकर भक्तजनोंके दिलमें यह भाव आता हैकि-अहो, जिनदेव Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) केतने पुण्यवान् हैंकि जिनके गर्भ में आनेके समय माताको ऐसे मङ्गलमय सुमनोंको दर्शन हुवा । इतने पुण्यशाली होकरभी संसारके सुखोंको तणावत् त्याग किया। और हम एक साधारणस्थितिवालेभा मोहपाशसे बद्ध हो रहेहैं यह हमारी कितनी गफलत है इत्यादि अनेक तरह की भावनाका तथा भक्तिमार्गका पोपक यह रूढ़ि रिवान है इसलिये किसी तरह पापका पोषक नहीं हो सकता परन्तु नास्तिकजनोंके लिये ऐसाही हो, यह मैं प्रथम लिखही चुका हूं । जैसे एक बिल्लीको आदर्शभवनमें रखदो तो वह जिस तरफ देखे उस तरफ उसे बिल्लीएही विल्लीएं मालूम होतीहैं, उसी तरह दुर्भाग्यवशसे बेचरदासको पापबंधनका कारण हुआ होगा और उससे उसने जान लिया होगाकि-सबके लिये ऐसाही होता होगा । परन्तु ऐसा कदापि नहीं हो सकता। चरदास-" उपधान नामर्नु तप करती वखते माला पहेरवी पडे छ, हवे आ माला माटे दशके पंदरा रूपैया आपवा पडे छे, अफसोसनी बात ए छे के आ मालानी तेटली किम्मत होती नथी, तेम शास्त्रमा आवो आचार पण कोई रस्ते उपदेशायो नथी, छतां मारी मातुश्रीए ज्यारे उपधान भावनगरमा कर्यु हतुं त्यारे शास्त्रविरुद्धनी आ रूदिने देवू करीने पण पालवानी केटलाकोए फरज गाड़ी हती ". इत्यादि. समालोचक-उपधानकी क्रिया मालारोपणके समय जो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५) न्योछावर लीजाती है वह जूदे २ गांवके सङ्घके ठहराव मूआफिक होती है, किसी गांवमें १० रूपया लिया जाता है तो किसी गांवमें पांचका रिवाज जारी करदें तो कौन मनाई करता है । यह तो एक देवद्रव्यकी वृद्धिके लिये श्रीसंबकी तरफका कायम किया हुवा रिवाज है । इस रिवाजको पुण्यशाली पुरुप बहुत भावसे स्वीकार करते हैं और कहते हैंकि अहोभाग्य एकतो तपश्चर्याका लाभ उठाया, और दूसरे दानकाभी लाभ मिला, जिससे एक सोना और दूसरी सुगन्ध जैसा हुआ। और जो दुर्भाग्य शिरोमणि होते हैं वेही वर्मादेका उत्तमोत्तम पदार्थ खाकरभी दश पंद्रह रूपया देनेमें मरणे जैसा मानने हैं । और जो भावसे देते हैं उनपरभी उनको द्वेष आता है। और वेचरदासका यह कहनाकि-मालाकी उतनी किम्मतही नहीं होती यहभी बुद्धिशून्य है, क्योंकि अगर इस तरह कहोगे तो फिर देवमंदिरमें आरती उतारने का धी बोला जाता है वहांभी यह सवाल पेश होगाकि आरती की या उसमें भरे हुए धीकीपी कीमत उतनी नहीं होती जितना उसपर घी बोला जाता है । इसी तरह प्रभुको रथ में लेकर बैठनेमें या प्रभुको पधरानेमें हज़ारो रुपयोंकी बोलियां होती हैं तो वहांपरभी बेचरदास कह देगाकि मूर्तिकी इतनी कीमत नहीं होती जितने रूपैये बोलीमें दिये जाते हैं। अगर इस तरहका विचार करतो फिर सर्व विषयमें नास्तिकता हो जाती है । वेचरदास ! तुम धार्मिकभावनामें कीमत गिनते हो इससे तो तुह्मारी बुद्धिकीही कीमत हो जाती है। क्योंकि गुरुमहाराजसे एक वासक्षेप जैसी वस्तु Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) लेकर भक्तजन उस स्थानपर गोनीयोंकी वृष्टि कर देते हैं । बतलाइये अब वासक्षेपकी क्या कीमत है ? तुझारे हिसाब से तो कुछभी कीमत नहीं परन्तु भाविक भक्त के लिये वही अमूल्य है । उपधान के विषय में भी ऐसेही समझना चाहिये | बेचरदासके मन में तो माल्यका कुछ मूल्यही नहीं मालूम होता है । परन्तु भाविक भक्तके मनमेंतो यह शिवरमणी प्राप्त करने की योग्यतासूचक माला अमूल्यही प्रतीत होती है, और शास्त्रीयनियमसेभी एसाही होना चाहिये । हां ? बेचरदास जैसे गरीब आदमी पर फर्ज पाडना ठीक नहीं. जिससेकि विचारे बेचरदासको शिरपर ऋण करके भी देने पडें परन्तु बेचरदासकामी फर्ज था कि भावनगर के श्रीसङ्घ (सेठियों ) के सम्मुख हाथ जोडकर अपनी गरीब हालतका प्रकाश करता । मेरे खयालसे भावनगर के दयालु शेठियोंके दिलमें अवश्य दया आती और बेचरदासको छोड देते । अफसोस हैं बेचरदासकी अकलपर कि जिसने पञ्च छ वर्षके बाद व्यर्थ पुकारकाकि जिससे कुछभी फल नहीं निकला | अगर उसीवख्त भावनगर के आगेवानों को कह देतातो कुछ फलभी निकलता | अब सारी दुनियाको सुनानेसे क्या मतलब ? | अस्तु, बेचरदास ! अब शान्ति करो । और ' गतं न शोचामि इस 'वाक्यका मनन करो । , बेचरदास - ' घणी वखते आठ अने चौद उपवास करी सकनाराओ सारा खातामा आठ आना भरतां मरवा पड़े छे, ह हूं तमने पुहुं हुं के द्रव्य परनो जेनों मोह उतर्यो नथी तेवा माणसनो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) शरीर परनो मोह कदी उतरी शके ? पहेली चोपड़ीमां पास थनार माणस सातमीनी परीक्षा कदी आपी शके ? दानशील तप अने भावना ए प्रमाणे चार उत्तरोत्तर अधिक कोटिना धर्मना आचार छे, जे दान करी शके तेज शील पाली शके. अने तेज गृहस्थ तप पर आवी शके " इत्यादि. - बात है कि समालोचक — बिना अधिकार के सूत्र पढ़नेसे बेचरदासकी बुद्धि ऐसी बिगड़ गई है कि एक लोकप्रसिद्ध व्यवहारकोभी समझना मुश्किल हो गया है । क्या बेचरदासका यह कथन कदापि सत्य होसकता है कि जो दान देसके वही शील पालसके, और जो शील पाल सके वही तप कर सके, और जो तप कर सके, और जो तप कर सके वही भावना भासके ! कदापि नहीं । यह तो एक प्रसिद्ध बड़े बड़े धनाढ्यलोक हज़ारों काही नहीं किन्तु लाखों रुपयोंका दान कर सकते हैं परन्तु एक दिनके लिये भी मैथुनका त्याग या एक नवकारसीका पञ्चवखाण करनेमें भी समर्थ नहीं होसकते । इस विषय में बहुत से नरनारी उदाहरणरूप विद्यमान हैं तथापि समस्त जैनजातिमें प्रसिद्ध श्री श्रेणिक तथा कृष्ण महाराजका ही उदाहरण काफी है कि जिन्होंने लाखोंही नहीं बल्कि क्रोडों रूपैये धर्ममें खरच किये हैं परन्तु मैथुनत्याग तथा तपश्चर्या इनसे नहीं बन सकी, बेचरदास के अभिप्रायसे तो इन लोगों में भी शील तथा तपोगुण होना चाहिये था। क्योंकि जो दान देसके वही शील पालसके इत्यादि बातें सत्य होतीं तो पूर्वोक्त पुरुषों में शील तथा तपोगुण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) अनुक्रमसे प्रकट होता, परन्तु ऐसा शास्त्रमें कहीं उल्लेख नहीं है, बतलाई अब उन्मत्त बेचरदास के बकवादको सत्य माने या सत्यशास्त्रनिरूपिता वीधवादको ? कहना ही पड़ेगा सत्यशास्त्र निरूपित विधिवाद कोही बेचरदास ! तुमको इस विषयका तो तुम ऐसा कभी नहीं लिखते कि जो दान देसके वही शील पाल सके वही तप कर सके इत्यादि, क्योंकि तुमने यह उत्सूत्र प्ररूपणा की है अगर नहीं तो फिर बतलाईये, यह विरुद्धतर्क किस आगमशास्त्रमेंसे ढूंढ निकाली है ? सिवाय गप्पपुराणके और कहीं से भी यह निराली दलील नहीं निकल सकती, जिसको दानांतराय के उदयकी तीव्रता हो वह दान नहीं देसकता हैं किन्तु वर्षान्तरायके क्षयोपशम और क्षुत्रावेदनीय की मंदता से तपश्चर्या खुशीसे कर सकता है | और पुरुषवेदनीय नामकी मोहप्रकृतीके क्षयोपशमसे शील तो पाल सकता है, परन्तु दानान्तराय और वीर्यान्तरायके तीब्रोदयसे दान देना और तप करना नहीं बन सकता । कितनेक लोग प्रथमके तीन ( दानशील तपः ) के बगेरे ही भावना भा सकते हैं जैसे श्रीबलभद्रमुनिमहाराजकी बनमें सेवा करने वाला हिरण दान शील और तपोगुण के वगैर ही भावना भाकर पञ्चमदेवलोकको प्राप्त हुआ । क्योंकि अध्यवसायकी विशुद्धि पर भावनाका दारोमदार (आधार) है । मतलब यह है कि - बेचरदासको जैनकर्म्मसिद्धांत का ज्ञान न होनेसे भैंसका स्वरूप भैंसे ( पाड़े) में समझ कर दूध की आशापूर्त्तिके लिये Ø་” सत्य मानना चाहिये । लेशमात्र भी ज्ञान होता Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) भैंसे को दुहने जैसा काम किया है। मतलब कि भ्रान्ति सहित पुरुषकी सेमें दुग्धाशाकी प्रवृत्तिमें दूध मिलना तो दूर रहा परन्तु भैंसे की लातों से शिर फुटनेका भी संभव है । इसी तरह बेचरदासको भी इस असत्य कल्पनासे इष्टफलरूप दूध मिलना तो दूर रहा परन्तु दुःखरूप भैंसे की अनेकानेक अनिष्टलातें से एकही जन्मके लिये नहीं किन्तु जन्म जन्म के लिये उसके सिर फुटनेका संभव है, इस लिये बेरदासको उचित है कि, ऐसी शास्त्रविरुद्ध कलानाओंका त्यागकर के ईसी शुद्धश्रद्धाको ग्रहण करले कि दान देनेकी शक्तिके होनेपर या न होने पर भी शील पालनकरने की शक्ति हो सकती है और शीलपालनकी शक्तिके बगैर तपशक्ति हो सकती है । और शील तथा तप शक्ति से रहित भी दान दे सकते हैं । इस श्रद्धा के कायम करनेसे स्वयं नष्ट होने से बच जायें और दूसरोंको भी नष्ट करनेकी बेवकूफीसेभी बचनेका वे चरदासको मार्ग मिल सकता है । बेचरदास - " अमुक एक चीज़ करवीज अने अमुक चीज नाज थई शके एवं एकदेशीय फरमान आगमोमां कोई ठेकाणे थी. खुद महावीर प्रभुए पोते क्रियाउद्धार कर्यो हतो. इत्यादि " समालोचक - वाह ! वाह ! यहां आकर तो बेचरदासने रंग २ में घुसी गई जहालतको बाहर निकालदी ! बेवकुफी कभी कुछ हद है ? बेचरदासने झट कह दिया कि - " अमुक चीज करवीज Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२० ) अने अमुक चीज नाज थई शके एई एकदेशीय फरमान आगमोमां कोई ठेकाणे नथी ". परन्तु यह नहीं विचार कियाकिगुरुगम विना मेरेको आगमका भावही मालूम नहीं हुवा, क्योंकि ऐसा कदापि नहीं बन सकताकि सब बातोंमें एकदेशीय फरमान नहीं है ऐसा कहकर काम चलालें । सब विषयोंमें इस वाक्यको पेश करना मूर्खताकाही लक्षण है। अगर एकदेशीय फरमान नहीं है, तो क्या जो जैनवर्ग वीतराग प्रभुके चरणोंका सेवन कर रहा है, उसे सरागी ब्रह्मा विष्णु महेश आदि देवोंके चरणोंका सेवनभी करना योग्य है ? क्या महाव्रतधारी गुरुओंको माननेवाले जैनोंको भांग धतूरे खानेवाले परिग्रहधारी, व्यभिचारकर्ममें अहानेश मग्न रहनेवाले सम्यक्त्व रहिन कुगुरुओंकोभी मानना चाहिये ? क्या दयामयधर्मको छोड़कर पशुवधविधायक हिंसाधर्मकोभी मानना चाहिये ? रमणीविरनसाधुजनोंको क्या रमणीसङ्गमें प्रवृत्त होना चाहिये ? साधुओंको निर्दोष वृतिकी भिक्षाको त्यागकर चुल्हा जलाकर भोजन करना चाहिये ? क्या उष्णोदकके पान करनेवाले साधुओंको कच्चे जलका पानभी करना चाहिये ? क्या वनस्पतिके अनासेवी मुनियोंको फलफूलका उपभोगभी करना चाहिये ? क्या मांस मदिराके त्यागी और स्वदारासंतोषी गृहस्थको मांसभक्षण, मदिरापान, परस्त्रीगमन और वेश्यागमनभी करना चाहिये ? नहीं नहीं धीरपुरुष प्राण चले जाने परभी ऐसे नीच कोंको कदापि नहीं करते । और शास्त्रकाभी ऐसाही उपदेश हैकि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१ ) "प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं, गुरुशाक्षीधृतं व्रतम् । व्रतभंगो हि दुःखाय, प्राणिन् ! जन्मनि जन्मनि". बस इससे साबित होता हैकि वेचरदासका पूर्वोक्त कथन शास्त्रआधार रहितही नहीं किन्तु बकवादरूप है, क्योंकि अपने त्यागके मोर सम्यक्त्त्वके सिद्धांतकोभी बदलनेकी आज्ञा सिद्धान्त कदापि नहीं देसकते । अगर बेचरदासके कथनपर जैनसमान चले तब तो सारा नैनसिद्धान्तही पलट जाय, क्या अनेकांतशैलीभी एकान्त रूपमें बदल सकती है ? कहनाही होगाकि कदापि नहीं । अगर हमारे पाठक कहेंगेकि-ऐसाही है तो फिर बेचरदासने ऐसा क्यों कहा तो उसके जवाबमें मालूमहोकि बेचरदासने अधिकार बगैर शास्त्र पढ़ेहैं, इससे उसकी बुद्धि ऐसी तो भ्रष्टहो गई हैकि इसको मालूम नहीं पड़ताकि, ' अमुक बातको अमुक रीतिसे कथन करनेमें जैनशैली रहती हैं या लुप्त हो जाती है, यही कारण है कि इसके भाषणसे सारे जैनसमाजमें खलभलाट मच गया है । इसके बाद बेचरदासका यह कहनाकि, 'प्रभु महावीर स्वामीनभी क्रिया उद्धार किया था ' ऐसा है जैसे बेचरदास कहे कि, 'मेरे शिरपर सींग है या मेरे मुंहमें जीभ नहीं है या मेरी माता बांझणी है, जैसे इन शब्दों में परस्पर विरोध है ऐसेही तीर्थकर प्रभु और क्रिया उद्धार शब्दमें परस्पर विरोध है। जो साधुलोग अपने आचरणोंसे ढीले हो गये हों उनमेंसे कितनेक उत्तम व्यक्ति फिर उत्कृष्टाचरणों को धारण करने लगे उसका नाम क्रिया उद्धार है। अब विचार करोंकि ऐसे अर्थ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) वाले क्रियाउद्धारशब्दको प्रभुके साथ लगाना कितनी अधमताकी निशानी है । समस्तजैन समाजको याद रखना चाहिये कि बेचरदासपर मिथ्या शल्यका बड़ा भारी बुरा असर छाया हुआ है, इसलिये इसके वचनशल्यसे बचे रहना जो तुझारे हृदयमें अगर उसका वचनशल्य घुस गयातो मिध्यात्वशल्पके मारे अनन्तभवों तक रुलना पडेगा । तटस्थ - मिथ्यात्वशल्यको किसी उदाहरणसे घटाकर बतलाइये. और उस शल्यके होनेसे कैसी दुर्दशा होती है सो बतलाइए । • समालोचक - देखिए ! मिथ्यात्वशल्य किस तरह दुःखदाई होता है उसका एक दृष्टांतद्वारा फोटो खींचता हूं । किसी आदमीके पास प्रथम बहुत धनथा, परन्तु पीछेसे भाग्यने पल्टा खाया और आहिस्ता २ सब धन नष्ट होगया, मात्र पांचसौ रूपये उसके पास बाकी रहगये थे, तब उसने बिचार किया कि विदेशमें जाकर कुछ अपूर्वचीज खरीद लाऊं जिसको देशमें बेचनेसे अच्छा नफा रहे, वह दुर्भागी मनुष्य जिस देशमें रहता था. उस देश में कोल्हा फल नहीं होता था, और खरगोश ( ससा ) भी नहीं होता था, तदनन्तर वह विदेशमें गया और देखा तो किसी एक नगरके शाकबाज़ार में एक आदमी कोल्हे बेच रहाथा । उसको उसने प्रथम अपनी बात सुनादी कि ' मुझे पांचसौ रूपयेका ऐसा माल खरीदना है कि जिसको मैं अपने देशमें बेचूं तो दूना दाम पैदा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) हो, उसकी बातको सुनकर वह शाकबेचनेवाला समझ गया कि यह कोई बेवकूफ आदमीहै इसको अच्छी तरहसे ठगें, ऐसा विचार करके बहुत मीठे शब्दोंपे उस दुर्भाग्यके साथ बात चीत करनी शुरू की। वह दुर्भागी उसे अपना मित्र समझने लगा. थोडीसी बात चित चलनेके बाद उस अमागीने उससे प्रश्न किया कि इस टोकरीमें क्या है ? उसने कहा ये घोड़ेके अण्डे हैं। जब उस मूर्खने कीमत पूछी तब उस धूर्तने सातसौ रूपयेकी कीमत बतलाई । वह विदेशी चौंककर पूछता है कि हे इतनी कीमत क्यों ? शाक वालने उत्तर दिया कि इस अण्डेमेंसे घोडा निकलेगा तब वह एक हज़ार रूपयोंका होगा और दोचार महिने इसको माल मसाला खिलानेमें आवेगा तो चौदह सौकी कीमतका भी हो जाएगा। इस बातको सुनकर उस विदेशीका मन उसे खरीदनेका हुआ परन्तु उसके पास रुपये मात्र पांचसौ ही थे। इस लिये चित्त धबराता था । अन्तमें बड़ी अधीरतासे उसने कहाकि मेरा दिल इस चीजको ले जानेका है परन्तु क्या करूं? मेरे पास पांचसौ रूपये ही हैं उस साक वालेने कहा कि आप हमारे मित्र बनगए हो तो आपका भला करना हमारा फरज है. इस लिये और से सात सौ रूपये लेताहूं परन्तु अब आपसे पांच सौ ही लूंगा। इस बातके सुननेसे उस दुर्भागीकी खुशीका पार ही न रहा और झट पांच सौ रूपये देकर उस कोल्हेको घोड़ेका अण्डा समझ कर खरीद लिया। तब उस धूर्त शाकवालेने कहा कि देखना! इसको Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) जमीनकी या दूसरी चीजकी ठोकर न लगे ऐसे रखना, अगर कच्चा फुट जायगा तो सिवाय छोटे २ बीजके और कुछ नहीं निकलेगा, इस लिये अच्छी तरहसे इसकी रक्षा करना । कितनेक कालके बाद उसमेंसे स्वयं घोड़ा निकलेगा । अब बह दुर्भागी उस कोल्हको लेकर अपने देशकी तरफ लोटा । एक दिन किसी बनमें रसोई करने लगा तब वृक्षपर चढ़ कर जिस कपड़ेसे अपनी जानकी तरह कोल्हेको बचा रहा था, एकवृक्षकी मजबूतडालीसे उस कपड़े की गांठ लगा कर उस कोल्हेको लटकाया गया उसके नीचे ऐसी घनी झाड़ी थी, जिसमें अगर कोल्हा गिर जाय तो पता लगाना भी मुश्किल हो जाय । दैवयोगसे ढीली दी हुई गांठ खिसक गई और कोल्हा उस झाडीमें गिर गया। उसके पतनशब्दसे भड़क कर उस झाडीमें रहा हुवा एक खरगोश ( ससा ) निकल कर दूसरी तरफ भागता हुआ उस दुर्भागीने देखा और उसके पीछे दोड़ने लगा । परन्तु खरगोशकी दौड़के आगे उसकी दोड़ ही क्या थी जिससे वह पहुंच सके। अब वह मूढ विचार करने लगा कि हाय ! हाय ! यह कच्चे अंडेसे निकला हवा छोटासा घोड़ा भी इतनी तेज चालसे दौडता है अगर परि. पक्कदशाको प्राप्त हुए अण्डेसे इसका जन्म होता तो न मालूम किस हवाई चालसे चलता । और बेशक मेरे मित्रके कथनानुसार चौदहसौ तो क्या लेकिन दो हज़ार रूपयोंमें खरीदने वाले भी हजारों ग्राहक मिलते । परन्तु हाय ! मेरा उतना भाग्य कहां! जो वह फल Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) सिर्फ मुझको मिले ! | अस्तु अब मैं इसे जंगलमें से ढूंढ निकालूं कहीं न कहीं से वह छोटा घोड़ा हाथमें आजायगा तो उसे खिला पिला कर मैं बड़ा बनालूंगा, और मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायगा । इस विचारसे वह मूर्ख सारे जंगलमें भटकता फिरता है। कोई उसकी वार्ताको सुनकर सत्यस्वरूप पालेता है तो उसे समझाता है कि, अरे मूर्ख तूने किसी धूर्त्तसे ठगा कर पांचसौ रूपयों में आठ आनेकी कीमत वाला कोल्हा ही लिया होगा, और जिसे तुं घोड़ा समझता है वह खरगोश होना चाहिये, नाहक में जङ्गल में भटक २ कर क्यों मरता है इत्यादि अनेक प्रकारसे समझाने पर भी वह उस कोल्हको घोड़ेका अण्डा और खरगोशको घोड़ा ही समझता रहा । और कहनेवालेको असत्य वक्ता मानता रहा । और सारी उमर जंगलमें ही भटक २ कर मर गया । प्रिय पाठकों ! जैसे उस मूढके मनमें शल्य भर गया जिससे कोल्हाको अण्डा और ससेकों घोड़ा मान लिया, और सत्यवादी जनों को असत्यवादी और शाक बेचनेवाले उस असत्यवादी ठगको सत्यवादी समझता रहा । जिससे सारी उमरके लिये दुःखी बन गया. बस इसी तरह जिसके हृदय में मिथ्यात्वशल्य भर गयाहो उसकी भी ऐसीही दश। होती है | अब उसका उपनय बेचरदास के साथ घटानेवालों को उस दुर्भागी जीवके स्थानपर बेचरदासको समझना चाहिए । और प्रथमकी धनाढ्य अवस्थाके स्थानपर आर्यदेश उत्तमकुल पञ्चेन्द्रियकी संपूर्णता, शारीरिक बल, लम्बा आयुः, बुद्धि, वगैरा पदार्थों की Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) प्राप्तिको समझना, और पीछेसे श्रद्धाभ्रष्ट होकर उस सामग्रीको निष्फल करदी उसका नाम दरिद्रावस्था समझें सहजसाज रही हुई श्रद्धाको पांचसौ रुपये समझना, और उसके मगजमें उत्पन्न हुआ हुआ मिध्याविचार हैं उसे शाक बेचनेवाला उग समझना, उसकी सोहबत से रही हुई श्रद्धाकोभी खोकर ' तमस्तरण ' लेखकी शक्तिरूप कोल्हे को घोड़ेके अण्डे के स्थानपर समझना, इससे मनोरथरूप घोड़ा पैदा करना था सो न हुआ, इसे कोल्हेका गिरजाना समझना, ' देवद्रव्यका भक्षण करके दुनिया संसारसागर में डूब जावे, और साधुलोगों से लोगों की प्रीति घटे, और प्रभावक पूर्वाचार्यों से जनसमाजका मन फिर जाय, इत्यादि विषयके सिद्ध करने के लिये भाषण देकर ' मेरे भाषणका जनसमूहमें कुछ असर होगा ' ऐसी जो उसकी आशा है उसे खरगोशके पीछे भागना समझना, आस्तिकजनों की तरफ से उसके असत्य भाषणका समाधान करना उसे सत्यवादिओंका उपदेश समझना, अगर सत्यवादियोंके किये हुए समाधान से समझकर श्रीसङ्घसे माफी मांगले तो बेचरदास इस रूपकसे इस विषयमें भिन्न होजाय, और इस विषय में भिन्न होजाय तोभी जैसे उस आदमीको भटक २ कर मरना पड़ा ऐसा उसके लिये नहीं बन सके । अगर इतने शास्त्रीयप्रमाण देनेपर भी बेचरदास अपने दुराग्रहसे नहीं हटेगा तो उस आदमसिभी अनन्तगुण विशेष दुःखका भागी होजायगा । क्योंकि वह दुर्भागी तो एक जन्मके लिये भटक भटक कर मरा परन्तु बेचरदास के लियेतो अनन्तजन्मों में भटक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) भटक कर मरनेपरभी निस्तार होना कठिन होजायगा । प्रिय पाठको! यह याद रखनाकि अगर बेचरदासकी अंदर घूसा हुआ मिथ्यात्वरूप भयंकर रोग अगर न निकले तो इससे तुमको ऐसा दूर रहना चाहिये जैसे भयंकर प्लेगसे जीनेकी आशावाले दूर रहते हैं । एक जन्मके जीवनको बचानेके लिये प्लेगिओंसे दूर रहा जाता हैतो फिर भदोभवके जीवनकी रक्षाके लिये बेचरदास नामक भावप्लगीसेभी हमेशह दूर रहना तुह्मारा कर्तव्य है । अब मैं अंतमें इतनाही कहता हूंकि मेरा यह समस्त लेखमात्र लोगोंके तथा बेचरदासके भलेके लिये है. लोगोंका भला तो यूं हैकि कितनेक अज्ञानी लोग बेचरदासके वचनपर विश्वास लाकर उसकी झूठी मनःकल्पनाको सत्य मानकर उसके कथनानुसार प्रवृत्ति करेंतो अपारसंसारसमुद्रमें अनन्त कालतक डूब जावें उनके उस दुःखसे त्रासित होकर यह लेख लिखनेमें आयाहै, और बेचरदासके लिये यह भलाई हैकि अगर वह इस लेखसे कोई रीतिसेभी समझकर परमपूज्य श्रीसङ्घके सामने माफी मांगलेकि-हाय ! मैं बड़ा मूर्ख हूंकि मैंने विना विचार किए जैनधर्मसे विरुद्ध देवद्रव्यादिके विषयमें कथन किया है, और उस कथनको तमस्तरण नामक लेखसे ' एक करेला और दूसरे निम्ब चढ़ा ' जैसा किया है । और मेरे प्राचीनपूर्णपापोदयसे परम प्रभावक आचार्योंकी निन्दा करते समय मैने अपने दिलमें जराभी डर नहीं रक्खा है, इस अधमकर्त्तव्यका मुझको पूर्ण पश्चाताप है, अतः मेरे शिरश्छत्ररूप पवित्र श्रीसंघ इस विषयमें जो मेरी भूल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) हो गई है उसकी क्षमा करेंगे ! में अवश्य गीतार्थगुरुओंकी पास विषयका प्रायश्चित लेकर अपनी आत्माकी शुद्धि करना चाहता हूं | ऐसा उसके दिलमें नरक निगोदोंके भयंकर दुःखोंसे डरकर विचार उत्पन्न हो और अपना कल्याण करे, मात्र इस पवित्र अभिप्रायसे यह लेख लिखने में आया है । मेरा बेचरदास के साथ लेशमात्र भी द्वेषभाव नहीं है । मात्र कोई रीति से भी उसकी आत्माका भला हो और मिध्याजालमें न फंसे । यद्यपि जनरुचि मिष्टवाक्यश्रवणमें प्रवृत्ति होती है तथापि उसके बहुत अंशमें हित नहीं रहता, और जो हितवाक्य होते हैं उनमें यद्यपि कटुकता होती है तथापि भावी शुभोदयका कारण है । जैसे ज्वरवालेको मिश्रीका शरद जल मिष्ट लगता है तथापि रोगवृद्धिका कारण होनेसे अनिष्ट है, और क्वाथ ( कावा ) कटुक लगता है तथापि ज्वररोगको दूर करनेमें कारण होनेसे हितकर्त्ता माना जाता है । बस इसी तरह मेरे इस लेखको कटुकक्काथवत् समझकर पाठक जन तथा बेचरदास अपने हितके लिये पान करेंगे । और पान करके मेरे इस परिश्रमको सफल करेंगे ऐसी आशा रखता हूं । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) प्रशस्तिः । दुग्धाभोनिधिना च रौप्यकलशेनेशक्षितिधेण च । दिङ्नागैः सितपक्षिभिश्च शशिना साकं सदा स्पर्द्धते । कीत्तिर्यस्य मुनीश्वरस्य विमला विश्वे स्वशुभ्रत्वतो जज्ञे विश्वगुणाकरोऽत्र विजयानन्दाऽभिधः सूरिराट् ॥१॥ समुद्रं गामीत्तरणिमपि तजोभिरनधै हिमांशु वाक्छैत्याद्विमलधिषणातः सुरगुरुम् । यशोभि दिङनागान् व्यनयत मरालं च गतिना ततः पट्टेऽस्य श्रीविजयकमलाचार्य उदितः ॥ २ ॥ धीमांस्तत्पदपद्मयुग्ममधुलिड वादीभकण्ठीरवो नानाशास्त्रसमुद्रमन्थनहरि विज्ञानिचूडामणिः । विख्यातो भुवनेऽत्र लब्धिविजयो व्याख्यानवाचस्पति रास्ते ध्वस्ततमा गुणी मुनिपती रन्ता गुणाब्यौ सताम् ॥ ३ ॥ तेन बेचरशिक्षार्थ, लोकानामुपकारकम् । रहस्यं सर्वसिद्धान्त-ततेात्वा विनिर्ममे पुस्तकमेतच्छ्री देवद्रव्यादिसिद्धिसाधकम् । सुसार्थमिव लोकानां, मिथ्यात्वारण्यपातिनाम् जैनपत्राधिपाद्या ये, मिथ्यात्वमालिनाशयाः । तेषांमप्यत्र सच्छिक्षां, ददे तद्धितारिणीम् Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) भाषाया अस्ति काठिन्यं, केऽप्यत्र ब्रुवते नराः । ते नूनं जैनराद्धान्त-शुद्धशिक्षाबहिर्मुखाः यैः श्रीविवाहप्रज्ञप्ति-द्वादशकुलकादिकम् । दृष्टं तेषां कदापीत्थं, नैव स्यान्मानसे भ्रमः ॥८॥ षट्सप्ताङ्केन्दु वर्षे गतवति सरसे विक्रमादित्यराज्यात दर्भावत्यां नगर्या व्यरचयदिदकं गिष्पतिर्लब्धिनामा देवद्रव्यादिसिद्धयाख्यकमिदमनिशं पुस्तकं वाच्यमानं भव्यैर्जीयाजनानां सततमुपकृतेः कारकं साधुवृत्तैः । ॥९॥ कदापति इति श्रीमत्तपगणगगनाङ्गणदिनमणिन्यायामोनिधिजैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दमूरीश्वराऽपरनामश्रीमदात्मारामजीमहाराजपदृश्रीशृङ्गारहार श्रीमद्विजयकमलमरिपुरन्दरचरणारविन्दचञ्चरीकजैनरत्नपाख्यानवाचस्पति श्रीमल्लन्धिविजयमुनिपुङ्गवविरचितः श्रीदेवद्रव्यादिसिद्धि नामायं ग्रन्थः समाप्तः ॥ < समाप्त. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દેવ દ્રવ્ય. વકતા–પંડીત બેચરદાસ–મુંબાઈ. લગભગ ત્રણ માસ ઉપર પંડિત બેચરદાસ જીવરાજે મુંબઈની માંગરોળ જૈન સભાન હેલમાં દેવદ્રવ્ય વિષે એક જાહેર ભાષણ આપ્યું હતું. પ્રમુખસ્થાન મી. મીચંદ ગીરધર કાપડીયા સેલીસીટરે સ્વીકાર્યું હતું. આ ભાષણને કેટલેક ભાગ અમારા વાંચકેની જાણ માટે નીચે પ્રસિદ્ધ કરીએ છીએ. દેવદ્રવ્ય શબ્દજ કાંઈક અસંબદ્ધ અને વિચિત્ર છે. જેને જેને દેવ તરીકે સ્વીકારે છે તે રાગ-દ્વેષ-ધન-સ્ત્રી વિગેરેથી મુકત, દરેક કષાયથી રહિત હોય છે. હવે રાગ-દ્વેષ વિનાના પ્રભુનું દ્રવ્ય શી રીતે સંભવી શકે ? આ કારણથી મને જીજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થઈ, અને મૂલ જૈન આગમાં આ દેવદ્રવ્ય શબ્દ છે કે કેમ તે તપાસવાને મેં નિશ્ચય કર્યો. જૈનશા મૂળની બારીક તપાસ પછી મને જણાયું કે, આ “દેવદ્રવ્ય” નો પ્રયોગ મૂળમાં કેઈજ ઠેકાણે નથી. પરંતુ આ શબ્દ તાંત્રીક યુગમાં આપણે કેટલાક સાધુઓએ દાખલ કી છે. આ શબ્દ દાખલ કરવામાં સાધુઓને શું મતલબ હશે તે બાબત તપાસવાની મને જીજ્ઞાસા થઈ, અને તપાસ કરતાં જણાયું કે, જ્યારે વિષમકાળ શરૂ થયે, અને આગમાં સાધુએ માટે જે અતિ ઉચ્ચ કોટીને આચાર અને ત્યાગ વર્ણવ્યું હતું, તે જ્યારે સાધુઓ માટે કાળસ્વભાવથી પાળ અશકય થઈ પડયે, જ્યારે સાધુઓએ ઉદ્યાન અને જંગલમાં જ રહી આત્મામાં મસ્ત રહેવાનું Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨ ). માંડી વાળ્યું, અને તેઓ વસ્તીમાં આવવા લાગ્યા અને આહારદીની ઉપાધીઓના યોગે તેઓએ શ્રાવકને, દેવેને આ ચઢાવવું, આ પહેરાવવું, આ લટકાવવું વિગેરે મારગે ફક્ત પિતાના સ્વાર્થના સંતોષ માટે ઉપદેશ્યા અને આ ઉપદેશના સમર્થનમાં કેટલાએક સાધુઓએ આ યુગમાં એવા સંસ્કૃત ગ્રંથે લખી નાખ્યા છે કે, જેમાં દેવદ્રવ્ય વધારવામાં મહા પુણ્ય અને દેવદ્રવ્યને નુકશાન કરવામાં મહા પાપ જણાવવામાં આવ્યું છે.. પરંતુ મારે તમને ફરી જણાવી દેવું જોઈએ કે મૂળ શાસ્ત્રમાં આ શબ્દ કેઈ ઠેકાણે નથી ને આ દ્રવ્ય ઉક્ત પ્રમાણે અસ્તિત્વમાં આવ્યું છે. ખરી વાત એ છે કે, દેવદ્રવ્ય એ શાસ્ત્રના ટેકાવાળું દ્રવ્ય નથી, આ દ્રવ્ય જેને આપણે દેવદ્રવ્ય તરીકે ગણીએ છીએ. તે રાગ-દ્વેષથી રહિત એવા પ્રભુનું છેજ નહિ. દ્રવ્ય કાંઈ પ્રભુ કમાવા ગયા હતા, અને પ્રભુ વિતરાગ હોવાથી તેને તેની જરૂર પણ હોતી નથી. આ દ્રવ્ય છેજ જૈન સંઘનું અને આ નાણું જૈન સમાજના ઉપયોગી કાર્યમાં ન વાપરી શકાય, એવો શાસ્ત્ર તરફને કેઈપણ વાંધો આગમાં છેજ નહિ. આગના મારા અભ્યાસ પરથી હું તમને ખાત્રી આપીશ કે, આવા દ્રવ્યનો સ્વીકાર પણ ત્યાં નથી. હું તેથી આગેવાનોને પછી તે સાધુઓ હોય કે શ્રાવક હય, દરેકને આ બાબતપર, આ શબ્દ ઉપર ધ્યાન આપવાની અરજ કરું છું. કારણ કે, ઘણુ લાંબા સમયથી એવી જે માન્યતા છે કે, દેવદ્રવ્ય એ તો શાસ્ત્રના આધારથી છે તે માન્યતા તદન ખોટી છે. આ દેવદ્રવ્ય શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધ છે, એમ હું છાતી ઠોકીને કહું છું. હવે હું ભૂતકાળમાં આપણું દેરાઓની કેવી સ્થિતિ હતી. તે બાબત અજવાળું પાડીશ, અસલ બધા દેહરાઓ જંગલે અને Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ડુંગરપર હતાં. આ દેહરાએ હાલ જેમ પૈસાથી ઉભરાઈ ગએલાં હોય છે, તેમ તે વખતે નહોતાં, એટલે કે આ દેહરાએ ત્યાં સુધી જોખમ વીનાના હતાં, દેહરાઓને દરવાજાઓ તે હતાજ નહિ, ચિત્ય શબ્દને અર્થ વૃક્ષ તથા બીજા અનેક થાય છે. પરંતુ ચિત્ય શબ્દને શબ્દાર્થ એ છે કે “મરણ પામેલા સંત મંહતની યાદગીરીનું તેજ સ્થળે ઉભું કરવામાં આવેલું સ્મારક.” હવે અસલ સંત મહંતે ની વીહારભુમિ જગલે અને ઉદ્યાને હતી અને તેઓ ત્યાં જ કાલ ધર્મ પામતા અને તેથીજ જગલે અને ઉદ્યાનમાં આવા મારક તરીકે ત્યાં જ ચિત્યે બંધાતાં હતાં. જેઓને ધર્મની, આત્મ કલ્યાણની અતિ તીવ્ર ઈચ્છા હોય તેવા અધિકારીઓ, ટુર એવા આ ચૈત્યમાં જઈ, ત્યાં આત્મસિદ્ધિને માર્ગ સંશોધતા હતા. ઉદ્યાતેના આ દેહરાઓમાં મુર્તિઓ શિવાય કાંઈપણ નહોતું, અને ચોરાદિની ધાસ્તી નહતી, તેમજ મેહક એવાં વસ્ત્રો. દાગીનાઓ વિગેરે હતાજ નહિ. આ બધી ભપકાની મેહક ચીજો, જે દેવલમાં હાલ દશ્ય થાય છે તે અસલ હતી જ નહિ. શાસ્ત્રના મૂળમાં પણ એ કેઈ ઠેકાણે ઉપદેશ નથી કે પ્રભુની મુતિએને ભાવવી કે દાગીના ચઢાવવા. પરંતુ આ શરૂઆત, બીજી શરૂઆતની માફક તાંત્રિક યુગમાં શરૂ થઈ છે. આ શરૂઆત માટે જોખમદાર અને જવાબદાર સાધુ વર્ગ છે, કે જેઓ પોતાની અનુકુળતાની ખાતર શાસ્ત્રના નીયમો તરફ તદન આંખ મીંચામણા કરતા હતા. અસલ દેહરાઓમાં મુર્તિ બધી પદ્માસનવાળી જ હતી. કદરાવાળી મૂર્તિઓ જેમ હતી નહિ તેમ નગ્ન મૂર્તિઓ પણ હતી નહિ. પાછલથી જ્યારે તાંબરે અને દીગબરે એવા બે પક્ષ પડયા, ત્યારે તેઓએ સઘળી મૂતઓ વહેચી લેવા માંડી. પાછલથી Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૪ ) તે મૂતિઓ, એક બીજાની ઓળખાય તે માટે હાલ જે નીશાનીએ છે તે લગાડવામાં આવી છે. અસલ મૂર્તાિઓમાં આવી નશાનીએજ નહી હતી. હવે એક અજાયબભરી ચીજ જે મારે તમને જણાવવાની છે કે મૂળ આગમે એ જૈન ધર્મના તત્વજ્ઞાનને દરીએ છે. જૈન સાહિત્ય, જે પાછળથી લખાયું છે, તેમાં અને મૂળ જૈન આગમાં એટલે બધે ફરક છે કે, હાલના સાહીત્ય પરથી જૈનધર્મની તદનજ ગેરસમતી ઉભી થાય, જૈનધર્મનું સર્વોતમ અને પ્રથમ પંકિતનું સાહિત્ય જન આગમે છે, અસલ જૈનધર્મના અદ્વિતીય તત્વેનું સત્ય સ્વરૂપ ત્યાં જ પ્રતિપાદિત થયેલું છે કમનસીબે હાલમાં સાધુએ એમ કહે છે કે આ આગ શ્રાવક વાંચી શકે નહિ. યાદ રાખે કે શ્રાવકે આ આગમે હાલમાં સાંભળી શકે છે અને તે સામે સાધુઓને વધે નથી. બલકે સાધુઓ પિોતેજ સંભળાવે છે, પરંતુ આગામે શ્રાવકે વાંચે તો તેઓ વાંધે કહાડે છે અને તેનું કારણ તેઓ એવું જણાવે છે કે અધિકાર વિના ન વાંચી શકાય. હવે અધિકારો અને અનધીકારીની અમુક આકૃતી હોતી નથી કે તે પારખી શકાય. સાધુઓની આ વાત શાસ્ત્રસંમત છે કે નહિ તે જરી હું તમને કહું. આગમાં કઈ ઠેકાણે એ શબ્દ નથી કે જ્યાં એવું જણાવ્યું હોય, કે શ્રાવકે આગામે વાંચે તેમાં પાપ હોય ! ત્યારે આ ગપજે તદનજ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે, તે શા માટે મારવામાં આવી હશે એનું કારણ એ છે કે મેં તમને જણાવ્યું છે કે સાધુઓના માટે જે ખરે આચાર અને સર્વોત્તમ ત્યાગ આગમમાં પ્રતિપાદન થએલો છે તે અદશ્ય થઈ ગયે. તાંત્રીક યુગના સાધુઓનું ચારિત્ર, એટલું શિથિલ થઈ ગયું કે, તેઓને એવું લાગ્યું કે જે શ્રાવકે Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ખરા સાધુઓ કેવા હોય, તે બાબત આગમમાં જશે તે આપણું જેવા શથિલ ચારીત્ર વાળાને ઉભજ નહિ રાખે, અને આપણને કદાચ સાધુ તરીકે કબુલશે પણ નહિ. આ કારણથી યુકિત વાદમાં પ્રવીણ એવા સાધુઓએ, આ ફરમાન બહાર પાડયું કે શ્રાવકે આગમે વાંચી શકે નહિ. જો કે વિશેષ આવશ્યક સૂત્રમાં તે ખુલ્લું જણાવવામાં આવ્યું છે કે આગમ પ્રાકૃત ભાષામાંજ લખવાનું કારણ એ કે બધાએ–બલકે, મુરખે અને અને સ્ત્રીઓ પણ તે સહેલાઈથી સમજી શકે. - જૈન સાહિત્યમાં સર્વથી ઉતરતા પ્રકારનું સાહીત્ય આપણું કથા સાહિત્ય છે. કથાઓને તે એક ખજાને જ આપણું સાહીત્યમાં નજરે પડે છે. આ બધી કથાઓમાંની ઘણીક મેં વાંચી છે, અને મને જણાય છે કે, કથાઓમાંથી ૯૫ ટકા જેટલી કથાઓ તે તદનજ કલ્પિત છે, એટલું જ નહિ, પણ તેમાં જે પાપની ધમકી અને પુણ્યની લાલચ અવારનવાર બતાવવામાં આવે છે, તેનું પ્રમાણ સાદી અક્કલ અને કર્મશાસ્ત્ર કદીબી કબૂલ ન કરે તેવું છે. એકજ દાખલે વખતના અભાવે હું તમને કહીશ. એક એવી કથા છે કે, જેમાં દેહરાની એક ઈટ લેઈ જાય તે લઈ જનાર માણસ થી નરકે જાય. હવે કમ શાસ્ત્રની બારાખડી જાણુનાર પણ એમ કહે કે, આટલા સાધારણ ગુન્હાની આવી ભયંકર સજા હેયજ નહિ. જે ઇંટ ચેરનારને ચેથી નરકે મેકલાવીએ તે તેથી ઘણું ચીકણું પાપ માટે તમે કઈ નરકે મેકલાવશે? ટુંકમાં આ કથાઓથી તે ઉલટી જૈન ધર્મની જાહેરમાં મશ્કરી થાય છે, ભય દેખાડવા કે લાલચ બતાવવા માટે કેઈને શાસ્ત્ર વિરૂધની ગપ મારવાને અધિકાર આગમ માં અપાયેલ નથી. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છતાં આવી કથાઓ, શુભ આશયથી, પણ શાસ્ત્ર અને કર્મશાઅના નીયમથી વિરૂદ્ધ નજરે પડે છે. કથા સાહિત્ય, અક્કલ અને ચાત્રથી વિરૂદ્ધ વાતથી ભાવવું કે ભરવું એ આવકારદાયક નથી. આજના આ અમુલ્ય પ્રસંગે, મને મારૂ અંતઃકરણ ખાલી કરવા દે. આપણામાં પજુસણ પર્વમાં એ રિવાજ છે કે ચાદ સુપના શ્રી મહાવીરના જન્મ દીને ઉતારવાં. હવે આ સ્વપ્ન ઉતારવામાં એટલું બધું પુન્ય મનાય છે કે, લોકો કેટલાએક મણ ઘી તે માટે બોલે છે, દરીઆના વેપારીઓ, વાંઝીઆઓ ઘણા ભાગે, પ્રભુનું પારણું આદિ સુપને સ્વાર્થ માટે લે છે; હવે તમે જાણીને અજબ થશે પણ મારે ખુલ્લા દિલથી અને શાસ્ત્રો અને આગમના પુરાવા પરથી જણાવી દેવું જોઈએ કે આ રૂઢી પુણ્યની નહિ પણ પાપની છે. વૈષ્ણમાં જેમ કૃષ્ણ જન્મ વખતે રીતભાતે થાય છે, તેવી રીતે પ્રભુને વળી હીંચળવાનું નાટક આપણામાં થાય, અને સાધુઓ આવા પાપને પોતાની છાતી પર ચલાવી લે, અને શ્રાવકે આ મીથ્યાત્વ યિાને મહાપુણ્ય સમજે એ બીના કેટલી બધી ત્રાસજનક છે? હવે આ ચાદ સુપનાનું નાટક એ ફક્ત પાપ ક્રિયા છે. પરંતુ દેવદ્રવ્ય વધે તે માટે આ નાટક મીથ્યાત્વ છતાં આપણે ચાલુ રાખવું એવી જે દલીલ કેટલાએક કરે છે, ત્યારે તે દલીલ કરનારાઓ પર મને દયા આવે છે. ઉપધાન નામનું તપ કરતી વખતે, માળા પહેરવી પડે છે. હવે આ માળા માટે દશ કે પંદર રૂપીઆ આપવા પડે છે અફસની વાત એ છે કે આ માળાની તેટલી કીંમત હતી નથી. તેમ શાસ્ત્રમાં આવે આચાર પણ કઈ રસ્તે ઉપદેશા નથી. છતાં મારી માતુશ્રીએ જ્યારે ઉપધાન ભાવનગરમાં કર્યું Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૭ ) હતુ, ત્યારે શાસ્ત્ર વીરૂધની આ રૂઢીને દેવું કરીને પણ પાળવાની કેંટલાકેાએ ફરજ પાડી હતી. આ પ્રમાણે આપણા ધરમનુ અધઃ પતન થયું છે. ઘણી વખતે આઠ અને ચાઢ અપવાસે કરી શકનારાઓ, સારા ખાતામાં આઠ આના ભરતાં મરવા પડે છે. હવે હું તમને પુછુ છુ કે દ્રવ્ય પરને જેના મેહ ઉતર્યાં નથી, તેવા માણસનેા શરીર પરના મેહ કદી ઉતરી શકે? પહેલી ચાપડીમાં પાસ ન થનાર માણુસ, સાતમીની પરિક્ષા કદી આપી શકે ? દાન શીલ તપ અને ભાવના એ પ્રમાણે ચાર ઉત્ત રાત્તર અધિક કેટીના ધર્મના આચાર છે. જે દાન કરી શકે, તેજ શીળ પાળી શકે. અને તેજ ગૃહસ્થ તપ૫૨ આવી શકે. પરંતુ આપણે હાલ શું જોઇએ છીએ ? દાન અને શીલ વિનાનાં સ્ત્રી અને પુરૂષ તપશ્ચર્યાના પગથીએ અથડાય છે. મનુ અધ:પતન અને સત્ય ધમની ગેરસમજ આ સ્થીતિ માટે જવાબદાર છે મને વિશ્વાસ છે કે હવે એવા પુસ્તક બહાર પાડવાની જરૂર છે કે જે ધર્માંના અધઃપતનમાંથી ષના ઉદ્ધાર કરે. અમુક એક ચીજ કરવીજ અને અમુક ચીજ નાજ થઈ શકે, એવુ' એકદેશીય ફરમાન આગમામાં કેઇ ઠેકાણે નથી. ખુદ મહાવીર પ્રભુએ પેાતે ક્રિયા ઉદ્ધાર કર્યાં હતા. અને જેમ જેમ સમય ખદલાય તેમ તેમ ક્રિયા ઉદ્ધાર કરવાની આપણને સલાહ પણ મળે છે. દરેક વખતે દ્રવ્ય ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવને વિચાર કરી લાભ હાની વિચારી તે સ્થિતિ અનુસર ક્રિયા ઉદ્ધાર થયેા છે, અને કરવામાં આવશે એવું આગમમાં ક્રમાન છે. ઘણી ક્રિયાઓ, રૂઢી, રીવાજો અને માન્યતાના સબધમાં કિયા ઉદ્ધાર કરવાના સમય હાલ આવી લાગ્યા છે કે કેમ તે ખાખત વિચારવા જેવી છે. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૮ ) પંડિત બેચરદાસકે સૂચના. તુમને તા. ૨૧ જાન્યુઆરી ૧૯૧૯ કે દિન મુંબઈમાંગરોલ જેન સભામે જૈનાગમ વિરૂદ્ધ જે ભષણ દિયાહ ઉસસે અનેક અનભિજ્ઞ ભદ્રિક જીકે સત્ય શ્રદ્ધાસે ભ્રષ્ટ હે જાનેકા સંભવ રહતા હૈ, અતઃ ઉસ ભાષણકા આગમાનુસાર ખંડન કરના પ્રત્યેક ધર્મપ્રિય મહાત્માએક મુખ્ય કર્તવ્ય હૈ. ઇસ વક્ત ચુપકી લગાના ઠીક ન હોને સે મૈભી તુમ્હારે કિયે હુએ ભાષણકા ખંડન કરને કે લિયે તૈય્યાર છું. પરંતુ તુમ્હારે ભાવણકા ખંડન કરનેસે પ્રથમ તુમસે કિતનેક પ્રશ્ન પૂછને આવશ્યક હોને સે પૂછે જાતે હૈ. ઈનકા ઉત્તર જલદી દેના જિસસે લેખ લિખનેમેં સુલભતા રહે. પ્રશ્ન ૧. જૈસે ઢક લોક પરમ પવિત્ર પંચાંગીક ત્યાગકર કેવલ મૂલમાત્ર બત્તીસ સૂત્ર માનતે હૈં ઈસી તરહ તુમહારા માનનાહૈ? યા પંચાંગી સમેત પૈતાલીસ આગમ માનતે હો? પ્રશ્ન ૨. શાસન પ્રભાવક સુવિહિત ગચ્છકે ધરી શ્રીહરિભદ્ર સૂરિશ્વરજીકે બનાયે એ ગ્રન્થ સૂત્રાનુસાર તેને જૈન સમાજ સૂત્રવત્ માનતાહ, એસેહી શાશન પ્રભાવક શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય, શ્રી અભયદેવસૂરિ, શ્રી મલયગિરિ મહારાજ, શ્રી દેવેન્દ્રસૂરિ, શ્રી ધર્મ ઘેષસૂરિ, શ્રી રત્નશેખરસૂરિ, શ્રી વિજયહીરસૂરિ, શ્રીમદ વિજય ઉપાધ્યાય આદિ અનેક મહાત્માઓકે કિયે એ ગ્રન્થ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૯ ) સૂત્રવત્ આદેય હેાનેસે જૈનસમાજને પરમ માન્યઢું ઉન ગ્રન્થેાંકે! તુમ પ્રમાણ માનતેહે। યા નહી” ! પ્રશ્ન ૩. ૮ પ્રથમકે સમયમે શિમે કિવાડ (કમાડ ) નહી હેાતેથે' આર વે. મદિર જગલેામે હપ્તેથે' શરેાંમે નહી” ” ઇસ વિષયક સાબિત કરનેકે લિયે તુમ્હારે પાંસ કિસી સૂત્રકા પાઠ હૈ ? યા યુંહી ગપ્પુ મારી હૈ ? ખુલાસા કરી. પ્રશ્ન ૪. કેશર, ચંદન, ખરાસ, પુષ્પ આદિસે પરમાત્માકી મૂર્તિકી પૂજાકે। તુમ માન્ય રખતે હૈ। યા નહીં ? ખુલાસા કરે. પ્રશ્ન ૫. તાન્ત્રિકયુગ કિસ સ‘વતમે કિસ પુરુષસે શુરૂ હુવા માનતે હૈા? આર તાન્ત્રિક શબ્દસે કયા અર્થ લેતેંહા ઇસ ખાતકા ખુલાસા લિખા પ્રશ્ન ૬. તા. ૨૦ મી એપ્રીલ સન ૧૯૧૮ કે તુમ્હારા દિયા હુવા ભાષણ જિસપ્રકારસે તુમને કયા ઇસી તરહેસે ભાષણ ક્રિયાથા. રાથા. અગર ફેંક હાવે તેા સૂચના કરદેની. જૈનપત્રમે છપા હુવાહૈ. યા કુછ ફ પ્રશ્ન ૭. દેવદ્રવ્ય કે વિષયમેં તુન્નારે દિયે હુએ ઇસ વિરૂદ્ધ ભાષણસે કિતનેક લેક તુમકેા નાસ્તિક કહતેહૈં. તે કિતનેક રાયચંદ્ર મતાનુયાયી માનતેğ. તે તનેક ઢુંઢીયા હૈગયા ઐસા કહેતેહૈં ઇત્યાદ્રિ જિતને મુહુ ઇતની ખાતે હતી અતઃ તુમકે! ઉચિતહૈ કિ અપના મન્તવ્ય જાહિર કરે। કિ“ મેં મૂર્તિપૂજન શ્વેતામ્બર Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૦ ). ધમકી પૂર્ણ શ્રદ્ધા રખતાહે યા દિગમ્બર યા ઢંઢક અથવા રાયચંદ્ર મતકી શ્રદ્ધા રાખતાહે કિ કહાવતહ કિ–પુટ વક્તા ન વંચકઃ ”. જબતક તુમ તુમ્હારે હસ્તાક્ષરસે ઈસ વિષયક નિર્ણય નહીં કરે વહાં તક તુમ્હારેમેં મિથ્યા દર્શનકી અસરહૈ ઐસા માનકર આસ્તિક લેક તુમ્હારી બાબત પર કદાપિ વિશ્વાસ નહી રહેંગે. છપાવી પ્રસિદ્ધ કરનાર ) લેખક –શ્રીમદ વિજયકમલસુરીશ્વર શા. નાથાભાઈ દલતચંદ ચરણકમલ ચંચરીક વ્યાખ્યાન વાચસ્પ રહેવાસી–ડાઇ. ) શ્રીમાન સુનિ લબ્ધિવિજ્યજી Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૧ ) જૈન સમાજનું તમસ્તરણ ! ( લેખક—પડિતજી બેચરદાસ. ) આ નિવેદન લખતાં પહેલાં મારે એક કથા લખવાની છે, અને એ તરફ આખા જૈન સમાજ લક્ષ્ય કરશે એવી આશા રાખુ છું. સચ શિયાળાના દ્વિવસેામાં, પણ જે સમયે ધુમસ વધારે પડતે તે વખતે એક નાના સ`ઘ, પેાતાના માનીતા સરદારની વ્યવસ્થા નીચે પગ રસ્તે યાત્રાએ જતેા હતેા. સઘના યાત્રાળુએ પેાતાન સરદારનેજ વા સરદારની આજ્ઞાનેજ ઇશ્વરરૂપે માનતા હતા, એટલે તે પેાતાના સરદારની વા તેની આજ્ઞાની નીચેવિના વિચાયે જ પ્રવૃત્તિ કરતા હતા. યાત્રાળુઓ સરળ તેમજ ભેાળા હતા અને સરદારપણુ તેવાજ હતા, માત્ર પેાતાનું સરદારપણુ વાય એ માટે તેણે કેટલીક ઈશ્વરી વાતા સુખસ્થ કરી હતી અને તેમાંની કેટલીક લેાકેાને કરી હતી. ત્યારે બીજી કેટલીક વાતે માટે લેાકેાને અનધિકારી ઠરાવી ચલાવ્યુ હતુ. રાજચાર અને પાંચ વાગ્યાની વચ્ચે. મુસાફ઼ી શરૂ થતી એટલે રસ્તે ચાલતાં તેઓએ અને તેના સરદારે, સામે પાણીના તરગની જેમ ગતિ કરતા, ધુમસના પ્રવાહ જોયા. સંઘમાંના કેઈએ કે સરદારે દી સમુદ્ર નજરે જોયા ન હતા, પણ માત્ર તેની અડાઈ, તે પણુ નહી” જેવી સાંભળી હતી. આથી ધુમસને જોઇને સરદારે પેાતાના સધને આજ્ઞા કરી કે ભાઇએ ! જુએ, આ સામે દેખાય એ દિરયા છે Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૨ ) માટે આપણે તેને તરી પેલે પાર જવાનું છે.” આ આજ્ઞા સાંભળી સંઘના પ્રત્યેક મનુષ્ય પોતપોતાને સામાન પોતાના શરીર સાથે મજબુતાઈથી બાંધે અને તે દરેક પિતાના સરદારને સામાન પણ ભાગે પડતે બાંધે. પછી સરદાર સાથે તે બધા દરિયાને (ધુમસને) તરવા લાગ્યા. વાસ્તવિક રીતે તરવાનું જમીન પર હોવાથી તરતાં તરતાં તે પ્રત્યેકનું શરીર છોલાયું, છાતી છલાઈ, ગોઠણ છેલાયા અને આખરે આખું શરીર લેહીલેહાણ થઈ ગયું. તે પણ તેઓ તરતાં તરતાં એમ બેલતા હતા કે, ભાઈ ! કાંઈ દરિયે તો સહેલ નથી, એ તે લેહીનું પાણી થયેજ તરી શકાય છે. આ વખત છે. આ રીતે શેડો વખત વીત્યા પછી સૂર્યગત અરૂણિમાની અસર થવાથી ધુમસને નાસી જવું પડ્યું તે સંઘે જાણ્યું કે હાશ, હવે દરિયે તરાઈ રહ્યો. આ પ્રમાણે તેઓએ પ્રવાસ કરી ઈન્ટ સ્થાને પહોંચી ધર્મ ક્રિયાકાંડ કરી પોતાના સરદારે આપેલા ચેતવeણીને આભાર માન્યું. ત્યાં તે ભેળા લોકોને એક ભૂગોળના જાણકાર અને સમુદ્રથી પૂરા પરિચિત એવા વૈદ્યને સમાગમ થયે સમાગમને પરિણામે તે પ્રત્યેકે પિતાના પ્રવાસનું વિતક કહેવા સાથે શરીર પરનાં તે તે ત્રણે પણ બતાવ્યાં. ડહાપણવાળા વૈધે તે વીતક વિષે કાંઈ ન કહેતાં સે પહેલાં તેઓને ઔષધ આપ્યું અને આરોગ્યને બંધ કર્યો. પછી છેવટે ગંભીર મુખે સૂચવ્યું કે ભાઈ? તમે તર્યા એ કાંઈ દરિયો ન હૈ જોઈએ. પાણીમાં તરનારાઓનું શરીર પ્રાયઃ છેલાતું નથી. તમારા શરીર પરનાં ત્રણે ઉપરથી જણાય છે કે, તમે જમીન ઉપરજ તર્યા લાગે છે, તમને એ ભ્રમ થવાથી કેઈ બીજા પદાર્થને દરિયારૂપે કલ્પી તમે આ તરવાની પ્રવૃત્તિ કરી જણાય છે. મારા ધારવા પ્રમાણે આ રસ્તે સૂર્યો અને સમુદ્રથમ પ્રત્યેકે પિતાના મ વાળા વૈદ્ય તે વીત Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૩ ) દય પહેલાં ધુમસ પુષ્કળ પડે છે એથી તમે અને તમારા સરદાર તેને જ દરિયો ક જણાય છે. બીજું ભૂગોળ વિદ્યા પ્રમાણે, પણ આટલા પ્રદેશમાં કયાંય દરિયાની હયાતી હોય એવું મેં એક પણ નકશામાં જોયું નથી. એટલે માત્ર તમારા આ બ્રમને લીધે તમારે આ વિશેષ પણ વ્યર્થ જ તપ કરવું પડયું છે. આટલું બેલી તે વૈદ્ય બીજું કાંઈ કહેવા જતું હતું એટલામાં એક સંધ, પિતાના સરદારનું અને પિતાનું અપમાન થવાથી વૈવને, તેના બાપને, તેના ગામને, તેના કપડાંને, તેની ટોપીને અને તેના જોડા તથા જેડા સીવનાર મચી સુદ્ધાંને પણ ગાળેથી નવાજવા લાગે એટલે વૈદ્યરાજ મન ધરી પિતાના સ્થાને ચાલ્યા ગયા અને કદી ધુમસને દરિયે મટજ નહી જૈન સમાજના મોટા ભાગની જે અત્યારની દશા છે તે લગભગ એ સંઘના જેવી છે પરમ કારૂણિક ભવવાન મહાવીર જેવા સરદારના અભાવે મહાવીરના નિર્વાણને પ્રાયઃ બે. ત્રણ કે ચાર પાંચ સિકા જેટલે વખત વીત્યે, જૈન સમાજના વિશેષ ભાગે તમસ્તરણ આવ્યું હતું. અને તે ઠેઠ અત્યાસુધી ચાલ્યું આવ્યું છે આપણે વારસામાં આવ્યું છે આપણું ગળથુથીમાં ભેળાયું છે. એ તમસ્તરણથી આપણે આંતર આચાર બાહૃા આચાર, આપણું સાહિત્ય, આપણું રહેણી કહેણું આપણે ધમ (ક્યિાકાંડાદિ અનુઠાન), આપણું ધર્મ સાધને અને આપણે બધા એટલા બધા છેલાઈ ગયા છીએ કે જાણે આપણે અત્યારે નવી ખાલ ધરી. ન હેય. આપણે આ નવી ખાલથી એટલા બધા પરિચિત અને. સંતુષ્ટ થયા છીએ કે એનાથી થતી હાનિ તે આપણા ખ્યાલમાં આવતી જ નથી, તે આપણું મૂળ ખાલ કેવી હતી, તે વિચાર, તે ઉગેજ શી રીતે ? મારી ઘણા દિવસથી ઈચ્છા હતી કે, એવા. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૪ ) કઈ પ્રસંગે હું જૈન સમાજને તેની મૂળ ખાલને અને નવી ખાલને પરિચય કરાવું તેની મૂળ ખાલ છેલાઈ શી રીતે ? સડી શી રીતે ઉતરી શી રીતે ? અને તે તે સ્થાને નવી નવી ખાલે કર્યો કે પ્રસંગે અને ક્યા ક્યા પ્રકારે આવી? તથા છેવટે નવી ખાલવાળા આપણે માત્ર નામનિક્ષેપેજ મૂળ પુરૂષના આશ્રયી બન્યા, એ બધું સધાત પણ પ્રામાણિક ઇતિહાસના આશયથી સવિસ્તર જણાવું. આ ઈચ્છાને બર લાવવા જાન્યુઆરી માસના પાછલા ભાગમાં મારા વડિલ અને પ્રતિષ્ઠિત ધારાશાસ્ત્રના સાક્ષ્યમાં માંગરોળ જૈન સભાના સ્થાનમાં મને બોલવાનો વખત મળ્યા હતા અને તે પ્રસંગે મેં “જૈન ધાર્મિક સાહિત્યમાં વિકાર થવાથી થએલ હાની” એ મથાળ નીચે મને મારા અભ્યાસ દરમિયાન જે લાગ્યું તે જણાવ્યુ હતું. તે વખતે મેં મારા કથન વિષે ખરાખોટાને દાવે કર્યો ન હતો અને અત્યારે પણ હું તે દાવો કરતું નથી–માત્ર મને જે તથ્ય લાગ્યું તે સૂચવ્યું હતું અને એ તથ્ય (મારી દષ્ટિએ તથ્ય છે પણ) વસ્તુતઃ કેવું છે, એ સંબંધે કસવા શોધ કેને આમંચ્યા હતા. પ્રકાશ થએલ મારા ભાષણમાં મારે આશય અબાધિત છે, પણ કેઈ સ્થળે ક્યાંય એકાદ બે શબ્દ ઉગ્ર પ્રકટયા લાગે છે. મને યાદ છે ત્યાં સુધી મેં મારા ભાષણમાં નહીં જેવીજ ઉગ્રતા આણી હતી. જિજ્ઞાસુઓએ તે શબ્દની સામે નજર ન કરતાં આશય ઉપર ચર્ચવાનું છે, પણ જેઓ નરા શબ્દહી છે તેઓએ વિના કારણે તપ તપવાનું નથી. છપાએલ મારા ભાષણમાં મેં જે શાસ્ત્રનાં વાક્ય કહ્યાં હતાં તે સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત હોવાથી પ્રકટ થયાં જણાતાં નથી, તેમ કઈ કઈ વિચાર અપ્રકટ રહ્યા છે. જેટલું છપાવ્યું છે કે, મારા આશ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૫ ) યથી તે મને અબાધિત લાગે છે. એટલે “ત ખબર નથી” ૧ એવું કહેવાનું મારે રહેતું નથી. જે જે મુદ્દાઓ તે વખતે મેં ચર્ચા હતા તે પ્રત્યેક ઉપર મારે સવિસ્તર ( નિબંધરૂપે ) લખવાનું હોવાથી મારું આખું ભાષણ હું હાલમાં જ પ્રકટ કરવા ઈચ્છતે નથી મે કઈ પાસે મારા બેલવા વિષે જવાબ માગવાની ઈચ્છા કરી જ નથી, તે પણ કેટલાક અકાળવર્ષે દાની મહાશયે મને જવાબ આપવા પૂછાવે છે કે, ૨ તમે કહે એ ગ્રંથમાંથી જવાબ આપીએ, શું તમેને સૂત્રો માન્ય છે?? કેટલાં અને કયાં કયાં સૂત્રો માન્ય છે? પંચાંગી માન્ય છે? પંચાંગી ઉપરાંત પૂર્વાચાર્યના પ્રથે માન્ય છે? ઈત્યાદિઆને ઉત્તર, મારી જવાબ મેળવવાની અનિચ્છા જ છે. પુછનાર મહાશયે પિતાનું દાનિત્વ અહીં ન જણાવતાં આવા ભયંકર દુકાળમાં કોઈ સુધાર્ત વ્યકિત પ્રતિ જણાવ્યું હેત તે જરૂરપુણ્યભાગ બનત અસ્તુ. વસ્તુસ્થિતિ આમ છતાં પુછનારના આદરની ખાતર અને ચર્ચાના ક્ષેત્રને વિસ્તીર્ણ કરવાની વૃત્તિથી મારે જણાવવું જોઈએ કે, મારે સાહિત્યમાત્ર સાહિત્યરૂપે સ્વીકાર્ય છે, એથી કંઈપણ ચર્ચક જિજ્ઞાસુએ મારી સાથે ચર્ચા કરતાં, કેઈપણ સાહિત્યને પોતાના તમસ્તરણની ઢાલ બનાવતાં નીચેના મુદાઓ ઉપર લક્ષ્ય રાખવાનું છે, જે સાહિત્યની ઓથે રહી મારી સાથે ચર્ચા ચલાવવામાં આવે તે સાહિત્યમાં મૂળ ૧. જનધર્મ પ્રકાશના ચાલુ માસના અંકમાં અમોને તે ભાષણના સંબંધમાં જણાવવામાં આવે છે કે, જે ભાષણ પ્રકટ થયું છે, તે બરોબર નથી. આમ જણાવ્યું છે, તે કોના કહેવાથી જણાવ્યું છે, તે હું જાણતો નથી. ૨ જુઓ એજ માસિક પૃ. ૧૭. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૬ ) પુરૂષના મૂળ વિચારેને કેટલે અંશ છે? નૈમિત્તિક કેહ્યું છે? આગ્રહજન્ય કેટલું છે? આલંકારિક કેટલું છે? સાસગિક કટલું છે? અનુકરણુજન્ય કેટલું છે? અને રૂઢિજન્ય કેટલું છે? તથા એ સાહિત્ય ક્યા આસપુરૂષે રચ્યું છે ? (“આમ”ને અર્થ અહીં ધગ્રહહન પુરૂષ સમજવાને છે). ઇત્યાદિ. એ બધા મુદ્દાઓ ઉપર લક્ષ્ય રાખી જે મારી સાથે ચર્ચા ચલાવવામાં આવશે તો હું તેને તેજ પ્રમાણે ઘણીજ કે મળતાથી ઉત્તર આપીશ. પણ માત્ર મેટા મોટા આચાર્યોનાં નામે આપી જે ટિખળ કરવામાં આવશે તો સૈની સાથે હું પણ હસીશ, પણ ભડકીશ નહિ. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जैन तंत्रीनो पक्षपात ॥ પ્રિય સજ્જને ! લેાકેાને ભ્રમ જાલમાં ક્સાવી પોતાના આત્માની પરલેાકથી બેદરકારી કરનાર જૈનપત્રકાર તા. ૭ સપ્ટેમ્બર ૧૯૧૯ ના અ’કમાં પક્ષપાતનાં ચશ્માં ચઢાવી જૈનરત્ન વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ શ્રીમાન મુનિ લિિવજયની તરથી શાસન સેવા નિમિત્તે નિર્મિત દેવદ્રવ્યાદ્ધિ સિદ્ધિ નામના પુસ્તકને દેખીનેજ જાણે ભડકી ગયેલા હેાય એવી રીતે શ્રાવક્રને ન છાજતા શબ્દોમાં ટીકા કરવાને મ’ડી પડયા છે. પરંતુ એટલે પશુ વિચાર નથી કર્યો કે મારી એક પક્ષીય રૂદન લીલાથી શુ વળવાનું છે. અમે આવી એક પક્ષીય રૂદન લીલાને જવાકે આપવાને જરાપણ આતુરતા નથી ધરાવતા. અને આવા યુક્તિશૂન્ય લખાણાને ઉત્તર લખવાને અમેને વખતજ નથી, તેમ છતાં પણ અમે અમારી લેખણને સતેજ કરવામાં એટલુ જ કારણુ માર્તીથે છીએ કે જૈનપત્રકારની કરેલી પક્ષપાતથી ભરેલી ટીકાને વાંચી કેટલાક સરલ હૃદયવાળા ભાટ્રિક પુરૂષો એમ ન માની એસે કે, અધિપતિની કરેલી ટીકામાં-સત્ય અથવા ન્યાય જેવું કાંઇ રહેલુ છે. બસ એટલાજ માટે અમેને આ પ્રયત્ન કરવા પડયા છે. તંત્રીજી પેાતાના સ્વાર્થ તંત્રને આગળ રાખી લખે છે કે, “ તેઓ કાંઇ નવું શાસન પ્રરૂપવા કે શાસ્ત્ર રચવા માગતા નથી; પરંતુ ઐતિહાસિક દ્રષ્ટિએ જૈન શાસનના કાલનું દિગ્દર્શન પેાતાના અભ્યાસ અને અનુભવ પ્રમાણે કરીને પ્રભુ મહાવીરના સમયથી અત્યાર સુધીમાં શાસન પ્રણાલીમાં કેવા કેવા ફેરફાર થયા જાય છે તે બતાવવાથી વધારે શેાધખેાળ કે ચર્ચા કરવા વિદ્વાન તેમજ ઇતિહાસ રસનેાને તક મળે ” ઈત્યાદિ. તંત્રીનું આ લખાણુ હડહડતા જાથી ભરેલું છે. એચરદાસે પેાતાના ભાષણમાં જે જે " Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨ ) શબ્દો કહેલા છે; તે અંતિમ સિદ્ધાંત રૂપે જ હતા એમ એના અક્ષર પરથીજ સિદ્ધ થાય છે હાં. જ્યારે ચારે તરફથી ફિટકાર વરસાદ વરસવા લાગે ત્યારે ડરથી કબુલ કરતા હશે કે મેં અમુક અમુક અભિપ્રાયથી કહ્યું નથી. તંત્રીજી ! જરા અંતરચક્ષુ ઉપરના પક્ષપાતરૂપી ચસ્મા ઉતારી નાંખે તે માલુમ પડશે કે, બેચરદાસે દેવદ્રવ્યાદિ વિષયમાં જે વિચારે કહેલા છે તે દુરાગ્રહથી અસિદ્ધાંતરૂપ છતાં પોતાની સમજ પ્રમાણે સત્ય સિદ્ધાંતરૂપેજ કહેલા છે એ વિષયના નિર્ણય માટે જૈનધર્મ પ્રકાશ માસિક અંક ૩. પૃષ્ટ ૮. પુસ્તક ૩૫ મું જુ. એમાંથી એમની દુરાગ્રહ બુદ્ધિને પુરો પરિચય મળશે; કેમકે એમને એક વિષયમાં એવા નિરૂત્તર કર્યો છે કે, જેમાં સેલિસિટરે પણ કહ્યું હતું કે, આ તમારે હેતુ સિદ્ધ છે છતાં એમણે પિતાની હઠ છેડી નથી. તંત્રીજી ! કેમ થયું ? આ વાત તમોએ વાંચી નથી કે વાંચતાં પક્ષપાતનાં પાળ આવી ગયાં હતાં? જરા ખુલાસો કરશે. બીજી એ વાત છે કે, તેજ સભામાં બેચરદાસે પિતાલિસ આગમ માનવાં છેડી દીધાં અને હું અગિયાર અંગને માનું છું. અને તેમાં પણ મિશ્રણ થયેલું છે, એવા સબ્દો જે કહેલા તે નવીન મત કહેવાય કે પ્રાચીન? જવાબમાં નવીનજ મત કહેવો પડશે. તો પછી બેચરદાસ નવીન શાસન પ્રરૂપવા કે શાસ્ત્ર રચવા માંગતા નથી. એ કેવી રીતે સિદ્ધ થઈ શકે ? અને એમણે વધારે શોધખોળ કરવાના ઇરાદાથીજ દેવદ્રવ્યાદિ વિષયમાં ભાષણ આપ્યું હતું. એવું લખવું પણ તદ્દન અસત્ય છે; કેમકે અભ્યાસ અને અનુભવ પરત્વે જે વાતો કરવાની હોય તેને ઠંગ જુદો હોય છે અને બેચરદાસનું ભાષણ તે ઢંગથી હજારો માઈલ દૂર છે છતાં તમારી મતિના વિપર્યાસથી તમને તે વાત ન ભાસે તો ચૂપ કરીને બેસી રહે, પણ વ્યર્થ ભેળા લોકોની શ્રદ્ધા બગાડી દુર્ગ તિને માગે શા માટે પકડે છે. આ ખેલીને તમે બીજું કાંઈ ન જોતાં તા. ૨૫ મી મે સન ૧૯૧૯ નું તમારું જૈન પેપરનું લખાણજ તપાસી લે. તમસ્તરણ નામના લેખથી બેચરદાસે જે પૂર્વાચાર્યોને નીચ રૂપક આપ્યું છે તેથી જ તેમના હૃદયની પરીક્ષા શું નથી થઈ શકતી Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૩ ) વારૂ! તમો પત્રકાર નામ ધરાવીને શા માટે ગપગેળા ગબડાવે છે. દુનીયા કાંઈ આંધળી નથી કે તમારી એક પક્ષીય રૂદન લીલાથી દયાર્દ થઈ ખોટા મતમાં ભળી જાય. વળી ફરીથી તંત્રીજી લખે છે કે દેવદ્રવ્યાદિસિદ્ધિ નામે એક પેમ્ફલેટ બહાર આવ્યું છે જે કેવળ ન્યાય પ્રમાણ કે દલીલ બહાર ગાલી. પ્રદાન અને ક્રોધી હમલાથી ભરાયેલું છે ઇત્યાદિ” તંત્રીજીનું આ લખાણ પણ પક્ષપાતના રસથી તરબળ છે; કેમકે વાચસ્પતિજીએ તે પુસ્તકમાં એવી મુદાસર ચર્ચા ચલાવેલી છે કે, જે પુસ્તકને વાંચીને અનેક લેકેની તરફથી ખુશીના સમાચાર મળી ચુકયા છે. અમો ન્યાયપક્ષથી કહીએ છીએ કે આ પુસ્તકમાં કઇ જાતને પણ ક્રોધાવેશથી હુમલો કરવામા આવ્યો નથી, પરંતુ સનમાર્ગ બતાવવામાં આવ્યું છે. જે આવા સન્માર્ગ બતાવવાને હુમલે માનવામાં આવે તો વાંચકના દુર્ભાગ્ય શિવાય બીજું શું કહી શકાય ? અમને એડીટરના મિથ્યાભાવ ઉપર પૂર્ણ ખેદ થાય છે કે પૂર્વાચાર્યો ઉપર કરેલ બેચરદાસનો હુમલે એમને મીઠે સાકર જેવો લાગે કે જેથી તેના ઉપર કાંઈપણ નેધ લીધી નહીં. અને એજસિવની ભાષામાં વાચસ્પતિજીના તરફથી આચાર્ય નિંદકને ફિટકાર પૂર્વક કરેલી હિત શિક્ષારૂપ લેખ ઝેર જેવા લાગે, અને યા તા લખી બળતું હતું પેટ અને માથું કુટયા જેવું કર્યું છે. અમને એડિટરજીના શબ્દપર હાંસી આવે છે. કેમકે તે લખે છે કે જે લખનાર મુનિ નહી હેત તે તેને અત્યાર અગાઉ ન્યાયમંદિરના દ્વારે પિતાના મલીન શા માટે જવાબ આપવા જવું પડયું હોત” તંત્રીજી! તમે એટલે જરા અક્ષથી વિચાર કરો કે લાખે જૈનોનું દિલ દુખાવે એવા તમસ્તરણ નામના લેખમાં પૂર્વધર આચાર્યોના છાતિ ગોઠણ વગેરે શરીરના અવયવો છેલાણા અને તે આચાર્યો લોહીલુહાણ થઈ ગયા એવા અક્ષરો લખવાવાળા અને તમે છાપવાવાળાના મોઢા ઉપર જે ન્યાયમંદિરમાં મસીને કુચે ફેરવવાનો અવસર મળે તો વાચસ્પતિજીને તો એટલી બધી ખુશી થાય કે તેની સમાજ ન રહે એવું એમના ઉત્સાહ પરથી મને જણાય છે; માટે તમારી તરફથી લખાયેલા શિયાલ ડરામણુથી ડરે તેમ નથી. વળી આગળ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૪ ) વધી તંત્રીજી એ સાધુ કેન્ફરન્સ અને વંદન વ્યવહારાદિકનો વિષય લખે છે, તે કેવલ કપલ કલ્પિત હોવાથી ઉપેક્ષણીય છે. વળી તંત્રીજી લખે છે કે, “વર્તમાન ભદ્રિક સરલ પરિણમી આચાર્ય શ્રી વિજયકમલ સૂરીજીની શાસન સેવાની લાગણીને નુકસાન ન પહોંચે ” યાદિ. તંત્રીજી! શું તમને ખબર નથી કે, આચાર્ય મહારાજની શાસન સેવાની લાગણી મિથ્યાત્વના ખંડન પરવેજ છે. આ વાતને કાઠીયાવાડ તથા ગુજરાત આદિ અનેક પ્રાંતના લકે સારી રીતે જાણે છે, અને ભાવનગરમાં પણ પિતાની નિસ્પૃહ વૃત્તિથી મિથ્યાત્વનું કેવું સચોટ ખંડન કર્યું હતું તે તમારી જાણથી બહાર નહીં જ હેય. સૂરીશ્વરજીની શાસન સેવાની લાગણીને નુકસાન પહોંચવાની કલ્પના કરે છો તેથી જ તમારૂ વંધ્યાપુત્ર અને ખરશંગ ઉત્પન્ન કરવા જેવું અલૈકિક પ્રવર્તન માલુમ પડે છે. આચાર્યશ્રી મિથ્યાત્વ ખંડનનું સ્વયં પણ પુસ્તક બનાવી રહ્યા છે જે લગભગ પાંચસે દસ પૃષ્ણ જેટલું લખાઈ ગયેલું છે; માટે આચાર્ય મહારાજ નીચ તમસ્તરણ જેવા લેખનું ખંડન કરનાર પિતાના શિષ્ય ઉપર અત્યંત આનંદથી રોમાંચિતજ થઈ રહેલા છે એજ સમજવાનું છે. અને આ વાતના વિશેષ નિશ્ચય માટે તમે જે પેમ્ફલેટને સાકર જેવું મીઠું છતાં કડવું કહે છે, તે જ પેમ્ફલેટના મંગલાચરણને અર્થ કાઈ પંડિતથી પુછી લેજે. તેમાં સાફ લખ્યું છે કે, આચાર્ય મહારાજની પ્રેરણાથી આ પુસ્તક લખું છું. વળી પત્રકારે લખ્યું છે કે, “ કે ગ્રંથમાળાના કાર્યવાહકેને ભૂલાવો ખવરાવી તેના ગ્રંથમાળાના પ્રગટ થતા ગ્રંથમાં આ મલીન પુષ્પને અંકસ્થાન આપવાની ભૂલ કરાવી જણાય છે” ઇત્યાદિ. તંત્રીજી! કોઇપણ ગ્રંથમાળાના કાર્યવાહકને ગ્રંથકારે ભુલાવ્યા નથી, પણ તમેજ પૂર્વ કર્મના ઉદયથી ભૂલભુલાઈયાના ચક્રમાં પડયા છે. અને બેચરદાસનો લખેલ તમસ્તરણ નામને નીચ લેખ લખી પિતાના છાપાને અપવિત્ર બનાવી બુદ્ધિ બગાડી બેઠા છે, જેથી એક પવિત્ર પુષ્પને મલીન માની લીધું છે. આ તે એવી વાત થઈ છે કે એક ભમરે એક ગધ્રુઇયા (ગંગા) ને કમલની સુગંધી લેવા પિતાની સાથે લઈ જવા પ્રેરણા કરી ત્યારે અવિશ્વાસી Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગહયાના મનમાં એવો વિચાર ઉદભવ્યો કે કદાચ ત્યાં કાંઈ પણ ન હોય તે હું મારી ભૂલ મુડી પણ ગુમાવી ન બેસું! એવો વિચાર કરી પોતાના મેંઢામાં અશુચિ પદાર્થની એક ગોળી લઈ લીધી, અને ભમરાની સાથે જઈ તેના બતાવેલા કમલ ઉપર જઈ બેઠે, પણ સુગંધી ન આવવાથી થાકીને બોલી ઉઠયો કે આ પુલ મલીન છે. તંત્રીજી! કેમ આ ગેંગાના કથનને તમે સાચું માની શકશે? કદાપી નહીં. બસ! એવી જ રીતે તમારી અંદર મીઠા દુર્વાસના બેઠેલી છે; ત્યાં સુધી આ નિર્મળ પુષની સુગંધીના તમ અધિકારી જ નથી. જે કદી મિથ્યા વાસનાને દુર કરે તે જેવી રીતે સમસ્ત આસ્તિક સંધ આ ચેપડી ઉપર ખુશ થયે છે અને એને નિર્મળ પુષ્પ તરીકે સ્વીકારે છે; તેવીજ રીતે તમે પણ સ્વીકાર કરવાને ભાગ્યશાળી થઇ શકશો. વાતે મીયા વાસનાને દુર કરે. અને આગળ આગળ નીકળતા ભાગેનું મનન કરે. આ તે હજુ પ્રથમ બાની થઈ છે. એટલાથીજ ન ગભરાઈ જશે. “આ ચેપડી છપાવનાર શ્રાવકે પિતાની કમાઇને દુર્વ્યય કર્યો છે.” તમારું આ લખાણ પણ ઉપર ચિતાર આપેલ વાસનાને જ આભારી છે, અને એવી વાસનાથી પીડાતા જીવોના ખુલાસાને પ્રસિધ્ધ કરતા શ્રાવકજને કાનેથી સાંભળવામાં અને આંખોથી વાંચવામાં પણ અધર્મ સમજે છે. ત્યાર પછી તમેએ લખ્યું છે કે, “બેચરદાસના વિચારે સામે લેખકે સપ્રમાણુ કે ન્યાય પુર:સર એક પણ શબ્દ લખવાને બદલે નર્ક અને પરમાધામીનું વર્ણન કરી જેમ નાના બાળકને ઉંઘાડવા તેની મા “જે બાવાં આવ્યો છેવિગેરે કહીને હવામાં બાવા અને બાઘડ બતાવે છે. ત્યાદિ. ત્રીજી ! તમો આકુળ વ્યાકુળ કેમ થઈ જાઓ છો? જરા ધીરજ - રાખો જૈનરત્ન વ્યાખ્યાન વાચસ્પતીજીના પુસ્તકમાંથી તમને એટલી બધી યુક્તિ અને શાસ્ત્રીય પાઠો મળશે કે મે હેરાન થઈ જશે, કે હાય ! બાપ! આટલા બધા પાઠ અને યુક્તિ જે વિષયને સિદ્ધ કરે છે ત્યાં Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નાસ્તિક મંડળ કેવી રીતે ટકી શકશે ? અને હમારી ધારણ કેવી રીતે પાર પડશે, અને આસ્તિક મંડળ આવા પ્રાચીન પાઠોનો અનાદર કરી હમારી વાત કેવી રીતે માનશે? હાય બાપ ! માનવું તે દુર રહ્યું, પણ અમો વધારે બેલીશું તે શાતનરક્ષા નિમિત્ત સડેલા પાનની પેઠે અમોને બહાર પણ ફેંકી દેશે હું એવા અનેક સંકલ્પ પેદા થશે. પ્રાયઃ દશ ફામ જેટલી ચેપડી થશે. તેમાં હજી તમોએ કામ તો બેજ દેખ્યાં છે, તેમાં બધી યુકિતઓ કેવી રીતે આવી શકે, અને તેમાં નર્કના સ્વરૂપને માતાના બતાવેલ બાવા અને બાઘડ જેવું સમજી બેઠા છે. તે પણ તમારી મોટી ભૂલ છે એમાં તમો મીથ્યા અભિમાની આદમી જેવી દશાને વશ થઈ જાઓ એવો અમને ભય રહે છે. જેમ કોઈ એક મિથ્યાભિમાની કરૂં પિતાની માતાના મૂખથી નાની ઉમ્મરમાં હમેશાં સાંભળતો હતો કે દેખ બેટા ! વાઘ આવ્યો તને લઈ જશે, તને ખાઈ જશે એવી વાત નિરંતર સાંભળવાથી (અધિપતિની જેમ) તેણે બધા વાઘો બોટાજ સમજી લીધા, એક વખતે ભયાનક જંગલમાં જતો હતો, તે વખતે તે સ્થાનના જાણકાર કોઈ મનુષ્ય જણાવ્યું કે, આ ઝાડીમાં વાઘ છે, અને તને ખાઇ જશે માટે તું ન જા” તથાપિ તે મિયાભિમાની મનુષ્ય માના મેઢિાને વાધ માની તે ઝાડીમાં પેઠે અને વાઘના પંઝામાં સપડાઇ જવાથી મોતને વશ થઈ ગયો. અધિપતીજી ! તમે તમને તથા તમારી શિક્ષાને માનનારા પૂર્વધર કૃતધરોના નીંદકોને જે નર્કને ભય બતાવ્યું છે. તેને હવામાંના બાવા વાધડા જે ન સમજતા. અને સમજયા તો પેલા મિથ્યાભિમાનીના જેવી સજાને પાત્ર થશે. શ્રુતકેવેલીપ્રભુની નીંદામાં તમસ્તરણ જેવા લેખ લખનારના માટે જે નર્કનું સ્વરૂ૫ ચીતર્યું છે તે તમને ઠીક નથી લાગતું તે શું તમે એવા લેખ લખવાવાળાનું સ્વર્ગ ગમન માને છે અને એમ સમજીને શું પૂર્વધર વજુવામિ, જીનભદ્ર ગણી ક્ષમા શ્રમણ, દેવધિ ગણી ક્ષમાશ્રમણ આદી મહાપુરૂષ પણ અંધારું તર્યા અને છાતી ઘુંટણ શરીર છેલાઈ ગયું, અને તે લોહીલુહાણ થઈ ગયા, અને Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૭ ) બહેચરદાસ જે નીચ આત્મા વૈદ્યના ઠેકાણે બન્યો છે, એવા સ્વરૂપને સુચક લેખ જનપત્રમાં લીધું હતું કે? જે એમ ધાર્યું હશે તો યાદ રાખજો કે તે સ્વર્ગ નીચે મળશે. ઉંચે નહીં અને ત્યાં જતાંજ લાંબા લાંબા દાંતવાળા સુળી ઉપર સનમાન કરશે, ગભરાશે નહીં. ત્યાર પછી તંત્રી મહારા વિના સમજે જેમ મનમાં આવ્યું તેમ બકવાદ શરૂ કર્યો છે, અને અનેક પૂર્વાચાર્યોનાં નામ લખી છેવટમાં બુટેરાયજી આદીનાં નામ લખી કહે છે કે, કેટલીક પ્રવૃત્તિઓને દુર કરી છે. તો તે પણ જવાબદાર ગણાવા જોઈએ” આ સ્થળે એટલોજ ખુલાસો બસ છે કે, પૂર્વોકત મહાત્માઓએ ચૈત્યવાસી તથા મિથ્યા ખંડન સંબંધી પ્રવૃત્તિ કરી છે તે પૂર્વ ધરોથી વિરૂધ્ધ તથા તેમની નિંદાની ન હતી અને તમસ્તરણ લેખ પૂર્વધરોથી વિરુદ્ધમાં જ લખાએલે છે, એવી નીચ આચરણ કરવાવાળા નર્કમાં જાય તેમાં આશ્ચર્ય શું છે, અને તમસ્તરણના લેખક તથા મુદ્રણ કરતાની સાથે પુર્વધર પુરૂષોનાં દાંત આપવાં તે એક વેશ્યાની પ્રવૃત્તિમાં સતીને સમાવેશ કરવા જેવું યુકિતશન્ય હોવાથી તે તમામ લખાણ ઉપેક્ષણીય છે. ત્યારપછી તંત્રીજી પિતાની માયા જાળને વીસ્તારી એવું લખે છે કે, આગળ જતાં લેખકે પિતાને આવયા તેટલા પૂર્વાચાર્યો અને સમર્થ પુરૂષોનાં નામો લખી ભોળી અને શ્રધાળુ જૈનપ્રજાને ઉશ્કેરવા જાણે તેઓને પંડીત બહેચરદાસે પોતાના ભાષણમાં નીંઘા હોય તેમ બતાવવા પ્રયત્ન કર્યો છે. ઇત્યાદિ તંત્રીજી ! વાચસ્પતિએ એવું કયાં લખ્યું છે કે, બેચરદાસે પિતાના ભાષણમાં પૂર્વાચાર્યોને નિધા છે? એમણે તે એમ લખ્યું છે કે, તા. ૨૫ મી મે સ. ૧૯૧૯ ના પૃષ્ટ ૩૭ ના જન પેપરનાં જે તમસ્તરણ નામને લેખ લખે છે; એમાં બેચરદાસે દેવદ્રવ્યાદિ સિધ્ધિ નામના પુસ્તકમાં લખેલા મૃતધર મહારાજાએની પણ નિઘા કરતાં આંચકે ખાધે નથી. વાસ્વામી, ઉમાસ્વામી મહારાજ, પન્નવણાકાર શ્યામાચાર્ય આર્ય રક્ષિત, જિનભદ્રગણિક્ષમા શ્રમણ આદિ જે જે મૃતધરે થયા છે તે, અને અઘાવધ થએલ સમસ્ત આચાર્યો વગેરેને અંધારૂ કરવાવાલા, અને છાતિ ગોઠણ ઘસાવાથી લોહી લુહાણ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થનાર પ્રસિધ કર્યો છે, કેમકે તમસ્તરણમાં લખેલું છે કે, “મહાવીરના નિર્વાણને પ્રાયઃ બે ત્રણ કે ચાર પાંચ સૈકા જેટલો વખત વીતે જૈન સમાજના વિશેષ ભાગે તમસ્તરણ આવ્યુ હતુ અને તે ઠેઠ અત્યાર સુધી ચાલ્યુ આવ્યું છે ” ઇત્યાદિ; હવે જન પત્રકારની માયાજાલ અને પક્ષપાતને જૈન સમાજને અનુભવ થયો હશે; કેમકે-પતેજ તમસ્તરણ નામને લેખ લખે છે, અને પિતે જ પાછા બેચરદાસને આચાર્યોની નિવા કરવાના દુષણથી અલગ જાહેર કરવાને પ્રયત્ન કરે છે. આ તે કેવો પક્ષપાત ! કિવિયાર પણ કરે છે કે મનમાં આવે તેમ ઘસયાજ કરે છે અમારા પાઠકગણને પત્રકારના પક્ષપાતના સ્વરૂપનું ભાન થઈ ગયું. હવે-એમની માયા જાલનાં દર્શન કરે–એડીટરની માયાજાલ એ છે કે, તેઓ બેચરદાસે પિતાના ભાષણમાં આચાર્યોની નિંદા નથી એમ લેખ લખી લોકોને ભ્રમ જાલમાં નાખે છે. પણ વાચસ્પતિજીએ તો તમને સ્તરણ નામના લેખમાં પૂર્વાચાર્યોને નિંદ્યા એમ જાહેર કરેલું છે ( યદ્યપેિ બેચરદામના દેવદ્રવ્યવિષયક લેખમાં પણ પૂર્વાચાર્યોનું ગર્ભિત પણે ખંડન છે છતાં ભોળા લેકે સમજી ન શકે તેટલા માટે પ્રગટપણે તમસ્તરણના લેખમાં આચાર્યોની નિંદા હોવાથી તે લેખનું નામ અપાયું છે. ) ત્યારે ભાઇ સાહેબ ભાષણનું નામ લખી અજાણ લેકેને ભુલવવાનું કરે છે એજ એમની માયાજાલનું પ્રસ્તરણ છે. ત્યારપછીના લેખને હેતુ એવો છે કે બેચરદાસના દેવદ્રવ્યવિષયક લેખને જેન રીવ્યુના અધિપતિ આદિ અનેક લોકોએ લીધેલો છે; અને ચારે ખુણે પ્રસિદ્ધ કરેલો છે છતાં જૈનને તે માન સુવાંગ આપતાં નરકની સામે આંગલી રાખી કેટલીક શિખામણ લેખકે દીધી છે ત્યારે અમારે સખેદ કહેવું જોઈએ કે વાચસ્પતિ આદિ અનેક અવનવિ ઉપાધિ યુકત લેખક હેવા પછી પણ” ઈત્યાદિ, જે લેખ છે તે પણ માયાવી છે; કેમકે વાચસ્પતિજીએ તમસ્તરણ નામના લેખનું માન સુવાંગ જૈનને આપ્યું છે, ન કે દેવદ્રવ્યવિષયક લેખનું કેમકે દેવદ્રવ્યવિષયક લેખના લેવાવાલાઓને સામાન્ય તંત્રીના નામે આગલપર પુસ્તકમાં હિત શિક્ષા દેવામાં Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૯ ). આવી છે; પરંતુ તમસ્તરણ જેવા અતીવ નીચ લેખને સંપાદકિય નેંધ વગર છાપવાથી તમારા સ્વરૂપને જે ફેટે ખિંચે છે, તે અક્ષરશ્નઃ ન્યાય છે. જે લેખ આશ્રિત તમારા ઉપર લખાણ કર્યું છે તે લખાણને તમે બીજા લેખ આશ્રિત જનસમુહમાં જાહેર કરે છે, એજ તમારા માયાવી સ્વભાવને સિદ્ધ કરે છે. ત્યાર પછી તમે જે ન્યાયાસન ઉપર બેસવાને ડોળ કર્યો છે તે પણ ઠીક નથી; કેમકે જે અંકમાં તમસ્તરણ નામને લેખ લખે છે તેજ અંકમાં વડોદરાવાલા પ્રેમાનંદ હીરાલાલને દેવદ્રવ્ય સિદ્ધિ વિષયક લેખ છે. એમાં તમેએ લેખના નીચે સંપાદકિય વિચારમાં ખાસી ત્રણ લીટીઓ લખી છે, અને તમસ્તરણ જેવા નીચે લેખને લઈ લીધે છતાં પણ સંપાદકીય વિચારની ગંધ તે લેખમાં જણાતી નથી. બતાવે, તમારા માટે ન્યાયાસનનું દ્રષ્ટાંત કેવી રીતે લાગુ પડી શકે. હાં તમારા મનથી તમે માની બેસો કે અમે ન્યાયવાલા છિએ તે વાત જૂદી છે જેમ એક છે કરો ગધેડે ચઢયે હતું, તેને બીજા કેઈએ કહ્યું કે અત્યા આ ખરાબ સ્વારી કેમ કરી છે, ત્યારે તે છોકરે કહેવા લાગ્યો કે હું તે હાથી ઉપર ચઢેલ . તે શું આ છોકરાની વાત સાચી માની શકાય ખરી? કદાપિ નહી, જે તમો ન્યાયી હોય તો વાચસ્પતિજીના લેખને પણ તમારા પત્રમાં સ્થાન આપતા, અને તમામ લેખને જાહેર કરતા એના પછી વાચસ્પતિજીના ન્યાય લેખથી ગભરાઈને સંધને જે અકુશ મુકવાની ભલામણ કરી છે, તે અકુંશના પાત્ર થોડા જ વખતમાં તમારા વહાલા નાસિકે અનુક્રમથી થતા જશે, ગભરાશો નહી અગર આટલા સામ લેખથી જે તમે નહી સમજ્યા તે ફેર જે જે ઠેકાણે પિોંહચી સ્વાર્થવૃત્તિને ખેલે પહલો કર્યો છે, તે વિષઅને મુખ્ય રાખી તમારાં શાસનવિરૂદ્ધનાં કાર્યો અનુક્રમથી બહાર પાડવામાં આવશે. ઇત્યસંવિસ્તરણ લિ. શ્રીમદાનંદ વિજ્યસૂરીશ્વરના લઘુશિષ્ય-દક્ષિણવિહારી મુનિ, અમરવિજય મુ. ડાઈ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૦) ॥ जैन तंत्रीनो मिथ्या प्रलाप ॥ તા. ૨૧ મી સપ્ટેબર સને ૧૯૧૯ ના જૈનપત્રમાં પક્ષપાતી જૈન તંત્રો “ઇંદ્ર જાલમાં આહુતિ ” નામના હેડિંગથી લખેલા લેખમાં જણાવે છે કે શાસનની હેલના કેમ ન થાય તે જ ઉદ્દેશ ઉપર અમારા કાર્યને આગલ વધારવા બહુ સંભાળ રાખતા રહ્યા છીયે ઈત્યાદિ.” . આ લેખમાં તે ત્રીજી ભોળાજનસમૂહમાં એમ સિદ્ધ કરવા માગે છે કે, અમે જૈનશાસનની હેલનાથી ઘણુજ ડરીયે છીયે; પરંતુ અમે તથા અમારા વિચારક વાચકે સારી રીતે સમજી શકયા છીયે કે, જૈન સમાજમાં હેલનાના મુખ્ય સુત્રધાર તે પોતે જ છે; કેમકે અનેક જાતની હલનામાં અને મિથ્યાત્વની પૂર્ણ પુષ્ટિમાં ભાગ લેવો એજ જૈન પત્રનું મુખ્ય કર્તવ્ય થઈ પડયું છે. આ વિષયથી સમસ્ત આસ્તિક વર્ગ સારી રીતે પરિચિત છે, એટલે વિશેષ ન લખતાં માત્ર પૂર્વોક્ત તારિખના જૈનપત્રના વાંચનથી જ આ પત્રની નાસ્તિકતાને પુરે પરિચય મળી શકશે. કેમકે આ તારીખનું આખું જૈન પ્રાયઃ મિથ્યાત્વ પુષ્ટિના લેખેથી ભરેલું છે. અમારું એમ માનવું નથી કે આ અંકથી પ્રથમના અંકમાં મિથ્યાત્વ પુષ્ટિકારક તથા જૈન શાસનની હેલનાકારક લેખે નથી આવ્યા. પરંતુ આ વખતના જૈન અંકમાં તો પવિત્ર જૈન શાસનની હેલના અને મિથ્યાત્વ પ્રકાશના ઘણાજ લેખે છે જૈન ધર્મ સંબંધી જૈન પત્રકારને જરાપણ પ્રેમ હોતતો ગત જૈન અંકમાં અનુવાદક માવજી દામજી તરફથી મળેલા નાસ્તિક લેખને કદિપણુ પિતના પત્રમાં સ્થાન આપતા નહીં; કેમકે તે લેખ જૈન શાસનના મૂલમાં કુહાડા મારવા જેવો છે. આવા સત્યાનાશી નીચ લેખને ઝટ ઝટ લઈ લ્યો છે તેથીજ તમારા હૃદયમાં જૈન ધર્મના વિષે કેટલે પ્રેમ છે તે જાહેર થઈ ચુક્યું છે; માટે અમો જૈન શાસનના રક્ષક છીએ, અને જૈન ધર્મની હેલનાથી ડરિયે છિયે આવા ડાળ ઘાલું લેખો લખી નાહક જૈન પત્રનાં, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૧ ) કલમ કાલાં કરી કેટલાક ભેળા લેકેને ઠગવાન ધધ હવે છેડી દે, કમકે નીચ કામ કરનાર એટલી સજાને પાત્ર નથી થતો કે નચ કામ કરી ઉચ્ચને ડોળ કરનાર જેટલી સજાને પાત્ર થાય છે. અમને તમારા જૈનત્વ ઉપર પણ સંદેહ છે; કારણ કે સંઘાડા બહાર કાઢેલા અને રાયચંદ્ર મતાનુયાયી સાધુના પદથી પતિત થયેલા જયવિજય નામના સાધુના નીચ લેખને સ્થાન આપે છે. જે ભ્રષ્ટાચારીએ એક વાચતિજી જેવા મુદ્દાચારી ગુરૂકુલસેવી શાસન સેવામાં કટીબદ્ધ મહાત્માને પણ વેશધારી શબ્દ લખતાં જરાપણ આંચકા ખાધે નથી. એવા એકલ વિહારી દુરાચારી શાસન સેવાથી વિમુખ હરામીના લેખો લેવાથીજ તમારી અંદર કેટલું જનપણું છે તે શું વાચક વર્ગ જાણું શકતો નથી? માટે શાસન હેલનાને અમને ડર છે, આવા ડેલ ઘાલું લેખે લખવાથી તમારું કાંઇ વળે તેમ નથી. આગળ ચાલતાં તંત્રોજ લખે છે કે, “ જેમના માટે સમગ્ર કેમને મોટું માન છે, તેમના શિષ્ય સંપ્રદાયમાંથી એક નવો ઝઘડા પંથનિક હોય ત્યાદિ. તંત્રીજીનું આ લખાણજ એમના અંદરથી શ્રદ્ધા બીજ બળી ગયું હોય એમ સિદ્ધ કરી આપે છે; કેમકે શ્રીમદ્વિજયાનંદસૂરીશ્વર મહારાજના મિથ્યાત્વ ખંડન કરવાના સ્વભાવને અનુકૂલ ચાલનાર ધર્મપષક, મિથ્યાત્વ ખંડન કરનાર અને જૈન સમાજના અગ્રગણ્ય તેમના મોટા શિષ્ય સમુદાયને “ ઝઘડા પંથ નીકળ્યો” એવા શબ્દો શ્રદ્ધાબીજ બળ્યા વગર કદીપણ લખી શકાય નહીં તંત્રીજી ! આ મંડલ તમારા મિથ્યા છાપાના મતને કેઈપણ કાલે મળી શકે તેમ જણાતું નથી. ગમે તે ઝઘડા પંથ કહો અગર તે રગડા પંથ કહો પણ એ મંડલ તમને નાસ્તિકતામાં અગ્રગણ્ય માની લેવાથી તમારી વાતમાં સમ્મત નથી થવાનું; અને મોટે જૈનમુની સમુદાય તથા આસ્તિક શ્રાવક વર્ગ તમારા કર્તવ્યથીજ તમારું સ્વરૂપ જાણું ચુક છે; માટે આ વિષયમાં વિશેષ લખવાની જરૂરત નથી. કારણ કે, વેશ્યાનો ધંધો લેઈ બેઠેલી બઈરી જેની તારીફ કરે તે પણ તેના જેવી જ હોય. અને જેણીને તે ખરાબ કહે તેજ સુશીલા હોય છે. આ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૨ ) અમારું માનવું યુકિત પુરસ્સર છે એટલે અમારે આ વિષયમાં લોકોને વધારે સમજાવવા જેવું કાંઈ રહેતું નથી. વળી તંત્રી લખે છે કે, “ સદરહુ હેંડબીલમાં અમરવિજયજીએ ન્યાયને કાટ લઈ અમારા વિચારમાં પક્ષપાત બતાવવાનો પ્રયત્ન કરતાં ઇત્યાદિ. ત ત્રીજી ! તમારા વિચારો પક્ષપાતથી ભરેલા છે. આ વિષયનું શું તમને સ્વયંભાન થતું નથી અને કદિ ન થતું હોય તે કાંઈ આશ્ચર્ય જેવું નથી; કેમકે સંનિપાતના સમયે કરેલા ચાળાઓને સનિપાતથી પ્રસ્ત થયેલ મનુષ્ય નથી જાણી શકો તેવી જ તમારી સ્થિતિ થઈ હશે; તેથી તમને માલુમ નહીં પડતું હોય પણ દુનિયા સારી રીતે દેખે છે કે, તમે પક્ષપાતથી ભરેલા છે, કેમકે તમે અમરવિજયજી મહારાજના તરફથી નિકળેલા હેડબિલને મુદ્દાસર જવાબ ન આપતાં ખોટા અંગત આક્ષેપ ઉપર ઉતરી પડ્યા છે. શું આ વાતને દુનિયાં નહીં સમજી શકે ? અને તમારા દારૂણ મૃષાવાદનું ભાન નહીં થઈ શકે? મહારાજશ્રીએ પોતાના હેડબિલમાં તમારી માયાજાળ ખુલ્લી કરી હતી તેને કાંઇ પણ ગ્ય ઉત્તર નહીં આપતાં એક મદ્યપની જેમ શાસનની હેલના કરવાવાળી ખેાટી ખેતી બાબતો લખી એવા તો ગપગેળા ગબડાવ્યા છે કે, કે ગૃહસ્થના ઉપર આવું લખાણ હેત તો લેઢાનાં ઘરેણાં પહેરી ભાડા વગરની કોટડીમાં રહેવાનો સમય આવ્યા વગર રહેતા નહીં. તંત્રીજી ! આ નીચ જુઠું લખાણ લખી તમે તમારી દુર્જનતાનું આખી દુનિયાને ભાન કરાવી આપ્યું છે. યાદ રાખજે સૂર્યના ઉપર ઘુળ નાંખવાથી નાખનારના જ ઉપર તે ધુળ પડે છે, પણ સૂર્ય સુધી પહોંચી શકતી નથી. આ વાતનો વિચાર નહીં કરતાં જેમ મનમાં આવ્યું તેમ કેવલ બકવાદ ઉપર કમ્મર બાંધી લીધી. શું તેથીજ તમારા મનની નબળાઈ સિદ્ધ નથી થઇ શકતી ! અરે ! અમને તો આવા બગભત છે એ વાતનો પુરેપુરો પતે પણ હવે જ મળે છે, કેમકે જ્યારે તમે દુધમાંથી પોરા કાઢવા જેવું લખાણ લખી મહામૃષાવાદથી લોકોને ભ્રમ જાળમાં નાખવા મોટા મોટા ગપગોળા ગબડાવો છે તેથી શું તમે શાસન હેલનાથી ડરો છે એમ સિદ્ધ થઈ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૩) શકે ખરૂં ? કદાપિ નહીં. હાં, શાસન હેલનાથી ડરે છે એમ નહિ, પણ શાસન હેલનાને કરો છો એમ તે સિદ્ધ થઈ શકે. ખરૂં તો એ છે કે જેણે પત્રની સાર્થકતા પેટ ભરવાને વાસ્તેજ સમજી છે એવા નાસ્તિક પત્રમાં શાસનની હેલના સિવાય બીજું શું હોય છતાં તમે શાસનસેવાને ડોળ વાલો છે એને જ અમે તમારી બગભકિત માનીયે છીએ. આગળ ચાલતાં બેચરદાસના વિષયમાં જે લખાણ લખ્યું છે તે હેંડબિલના ઉત્તર રૂપે ન હોવાથી ઉપેક્ષણીય છે. તેવાર પછી શ્રીજીમહારાજે ખુલાશો કર્યો ઈત્યાદિ આ લખાણ એવું અસત્ય છે કે, જેમ કાઈ કહે કે મેં વંધ્યા પુત્રે ગર્દભ શૃંગનું તીર બનાવી આકાશ કુસુમને વિધ્યું છે. ત્યાર પછી જન તંત્રીને પક્ષપાત” એ નામના હેડબિલને વાંચી પગથી માથા સુધી જવાલા લાગી હોય એમ બાવરા બની જઈ, અમરવિજય મહારાજ ઉપર ખેટા આક્ષેપ કરી જેમ કેઇ ડુબતે માણસ તરણને પકડે તેમ કર્યું છે. એડિટરજી! તમને શું ખબર નથી કે તમારા વાહાલા ખબર પત્રિ એવા અધમ કામના કરવાવાળા છે કે, જેમનું નામ લેવું પણ ધર્મિષ્ઠ પુરૂષ સારૂ ગણતા નથી. એવા નીચ આદમી થોના કહેવાથી તમે લખાણ લખતાં અનેક વાર ફસાઈ લેખને પાછા ખેંચી લીધા છે થોડા વખત પહેલાં એક મનુષ્ય “ અમરવિજયજી મહારાજ કાલ કરી ગયા છે અને તેમના કાલ ધર્મ નિમિત્તે પુજાઓ ભણાવી છે ત્યાદિ ” ખોટા સમાચાર તમને આપ્યા હતા, અને તમે પિતાનાજ છાપામા છપાવ્યા હતા. હવે જરા મગજને ઠેકાણે લાવી વિચાર કરો કે, જે નાચ મનુષ્ય પ્રત્યક્ષ વિરૂદ્ધ તેમના કાલ કરી જવાના નીચ સમાચાર લખે એ નીચ મનુષ્ય જેમની બાબત જે લખે અથવા કહે તે સાચું કેવી રીતે હોઈ શકે? આટલે વિચાર કઈ મૂઢમાં મૂઢ હોય તે પણ કરી શકે, છતાં તમે ન્યાયમાર્ગને ભૂલી, અને મહારાજના કરેલા સત્યખંડનથી ગાભરા બની જઇ પોતાની મતિક૯૫નાથી અથવા કાઈ નીચ મનુષ્યના કહેવાથી જે કાંઈ લખાણ કર્યું છે તેથી જ તમારી અંદર ન્યાયપક્ષને તથા શાસન સેવાને અને જૈનધર્મની થતી નિંદાથી બચવાનો કેટલે પ્રેમ તથા પ્રયત્ન છે તે સારી રીતે માલુમ પડે છે. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૪ ) આતો સાધુ મહારાજ છે તેથી શાંતિથી બેસી રહ્યા છે; પણ કોઈ ગૃહસ્થને કેાઈ નીચના ભરમાયાથી લખી બેસશો તો તમારે ઘણું જ સહેવું પડશે. યાદ રાખજો કે, તમે એકદમ જવાબના મુદાઓ છોડી આડાંઅવળાં લખાણોથી સત્ય વાર્તાના પક્ષકારોની જાહેર હિમ્મતને બંધ પડવાનો પ્રયત્ન કરો છે; તો શું તેથી બંધ પડી શકશે? કદાપિ નહીં. તમારા બાપાના નીચ લખાણોથી જનસમાજમાં મોટે ખળભળાટ થયો છે; એવું અનેક લેકેના મહારાજ સાહેબના ઉપર આવેલા કાગળોથી સિદ્ધ થાય છે. માટે હવે “વિનાશ કાળે વિપરીત બુધિ” જેવું ન કરતા સાચી શાસન સેવાથી આત્માનું હિત કરો. આગળ ચાલતાં પિતાની પોલ ખુલ્લી થઈ જવા પામી અને કાંઈ જવાબ ના આવો ત્યારે “લેખકને લેશમાત્ર ભાન નથી ત્યાં તેમને શું સમજાવવું ઇત્યાદિ ” બેટો બકવાદ કરીને છુટી પડયા છે; પણ દુનિયા સારી રીતે સમજી શકે છે, પુર્વધર, મૃતધર, કેવલી સમાન આચાર્ય ભગવાન તથા મહારાજા વિક્રમ, કુમારપાલ, પેથડ, જગડુશા, વરતુપાલ, તેજપાલ જેવા મહા પ્રભાષિક શ્રાવકવર્ગ આદિએ અંધારૂ તયું. અને તેમના ઘુંટણ, છાતિ વિગેરે છેલાઈ ગયા અને લોહી લુહાણ થઈ ગયા; આ વાતને સુચવનાર તમસ્તરણ નામને લેખના લેનાર જૈન પત્રકારમાં શ્રદ્ધાનું બીજ રહ્યું હોય એમ કેવી રીતે માની શકાય ? જ્યારે આવા મહા પ્રભાવક આચાર્યો આદિના વિરૂધ્ધપણુને લેખ જે માણસ લેઈ શકે, અને ખુલ્લા દિલથી પુર્વધરાની નિંદા લખનારને પિતાને છાપામાં સ્થાન આપે ત્યારે એવા માણસે આધુનિક શાસન પ્રેમી પ્રભાવક મુનિઓના તથા શ્રાવકવર્ગના વિરૂદ્ધ માં લખાણ લખે એમાં કાંઈ આશ્રય જેવું નથી. માત્ર લોકો ઊલટે રસ્તે ન દોરવાઈ જાય એટલાજ માટે આવાં હદપારનાં નીચ લખાણને જવાબ આપવાને પ્રયત્ન કરવો પડે છે, અન્યથા હાથીની પાછળ ઘણુંએ કુતરાં ભસ્યા કરે છે. કેણ પરવા કરે છે ! આગળ ચાલતાં લખ્યું છે કે, “છેવટ તેઓ અમારી સ્વાર્થ વૃત્તિ અને ખોળો પાથરવાની Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૫ ) આ વખતના વાત બહાર મુકવાની ધમી આપે છે. આ પ્રમાણે મુનિલશ્વિવિજયજીના પેમ્ફલેટમાં પશુ અંતગત એક વાકય છે. અને તે માટે અમે કાયદાસર ડૅફેમેશન કેશ કરવાના છીએ પરંતુ જ્યારે તેએ સ્વયમેવ આ ખોના બહાર મુકવાના છે તેા અમે તે માટે થોડા વખત શાંતિથી રાહ જેવા દુરસ્ત ધારેલ છે ઇત્યાદિ ' 'ત્રીજી ! તમારી અધમ વૃત્તિ તથા સ્વાર્થ વૃત્તિનાં પ્રમાણુ ઘણાંખરાં લેાકેાના કાગળાથી મળી ચુકયાં છે. તે લેખાત્તરમાં બહાર પાડવામાં આવત; પરંતુ જ્યારે તમેા વાચસ્પતિજી મહારાજના ઉપર ડેફેમેશન કેશ માંડવાના છે એવા સમાચાર આપેા છે. ત્યારે હવે આવા પાકા મુદાએ હમણાં સાધારણુ વખતે બહાર નહીં પાડતાં તમારા માંડેલા ફેમેશનમાંજ બહાર પાડવા વધારે અગત્યનું સમજી તે પણ તમારા ડેફમેશનની રાહ જોઇ હુમણાં શાંત બેસી રહેવાનું વધારે પસંદ કરે છે, શ્રીમદ્ માત્મારામજી જૈન પાશ્ચાળાના સેક્રેટરી શાહ; જેઠાલાલ ખુશાલચંદ્ર ભેાઇ. ॥ જૈન તંત્રીની છૂટી નાન .< તા. ૫-૧૦-૧૯ ના જૈનપત્રમાં તંત્રી મહાશય લખે છે કે, ઇંદ્રજાળમાં આકૃતિની નેટ માટે પડદામાં રહેલ ઝધડા મંડળવતી નવા નામે રદીયે લખી પેલેટરૂપે બહાર પાડયા છે.” આવાં નીચે લખાણ કરવાવાળી તંત્રીઓથી શાસન સેવાના બદલે શાસન નિકંદન થવા સંભવ રહે છે. ક્રમ}-જેમની અંદર એટલે વિપર્યાસ થયે। હાય છે કે, જે નીચ વ્યક્તિએ હાય છે, તેજ તેમના હૈયાના હાર થઇ પડે છે. અને જે ઉંચ વ્યક્તિ છે, તેજ તેમને ઝઘડા મંડળ તરીકે ભાસે છે. કર્મની ગતિ વિચિત્ર છે ધુગ્ગડને પ્રાકૃતિક સાંદર્યને પાષનાર પ્રકાશી સૂર્ય ઠીક નથી લાગતા, અને ડરામણું અંધકાર એનું પ્રીતિસ્થાન થઈ પડે છે. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૬) એક શ્રેષ્ટ મંડળે શાસન સેવામાં કટીબદ્ધ થઈ યથાસમયે શાસન સેવા બજાવી છે, એવા મંડળને ઝઘડામંડળ લખી તંત્રીજીએ પિતાની અંદરનું શ્રદ્ધા બીજ સર્વથા બળી ગયું છે. એ વાતનું લેકને પુનભાન કરાવ્યું છે, ત્યાર પછી તંત્રીજી લખે છે કે – આવા શીંગ પુંછ વિનાના લખાણો માટે લક્ષ આપવા અમારા પાસે વખત તેમ જગ્યા નથી.” આ વાત સત્ય છે કેમકે અમારા લખાણને શીંગ તથા પુંછ નથી, પરંતુ તમે તમારા લખાણને શીંગ પુંછવાળું સાબીત કરે છે તે તે શીંગ પુંછવાળું તમારું લખાણુરૂપ પશુ લોકેના શ્રદ્ધારૂપ ધાન્યને ચરી જાય છે. તેના બચાવ માટે અમારા લખાણરૂપ દંડે એને હઠાવવાનો પ્રયત્ન કરે છે, તે લખાણુરૂપ દંડમાં શીંગપુંછ ન જ હેય એ સ્વાભાવિક છે. પરંતુ એ ઉપકારી કેટલે છે. એને જરા વિચાર કરતા તે તમારા લખાણુરૂપ પશુને બંધ કરી નિરંતર ઉપકારી અમારા દંડાને વિરમવા તક આપતા. પરંતુ તેમ થવા પામ્યું નથી. એમાં અમે તમારોજ દોષ માનીએ છીએ ત્યારપછી “એકને ઢાંકવા બીજ ને બીજાને ઢાંકવા ત્રીજો ઉભો કરવા જેવું થતું હાય ” ઈત્યાદી–આ લખાણ પણ પિતાની કરેલી ખોટી વાતને જવાબ ન આપતાં ઢાંકપિછોડે કરવા જેવું છે. કેમકે કે મનુષ્ય પોતાના જાહેર નામથી જે દલીલ રજુ કરે, પ્રથમથી જ ગપ્પ ગેળા ગબડાવનારની ફરજ છે કે, તેને યોગ્ય ઉત્તર આપે. માટે હવે ખોટાં બહાનાં કાઢી નાસીપાસ બનવા પ્રયત્ન કરે તે ઠીક નથી. જો તમે શાસ્ત્ર પ્રમાણથી વાચસ્પતિ જી મહારાજના લેખનું ખંડન કરતા કે અમુક પ્રમાણ ઠીક નથી તો તેને જવાબ વાચસ્પતિજી તમને આપતા; પરંતુ જ્યારે તમે એ એમના લખાણને નિછું ત્યારે તે પોતાના લેખને ગંભીર છે એમ જાહેર કરતા સ્વમુખથી અને લેખનીથી પોતાના લેખની સ્તુતિ થઈ જાય એ માટે વાચસ્પતિજી સ્વયં તમારા લેખને રદી નાઆપે તે સહજ છે. અને એમના લખેલા Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૭) ઉત્તમ પુસ્તકના ગુણથી રંજીત હૃદય થઈ શ્રીઅમરવિજયજી મહારાજે જવાબ આપે તે વાસ્તવિક જ હતું. જ્યારે તમોએ એમના લેખના પણ અસલી મુદ્દાઓ ઉપર ચરચા ન ચલાવતાં આડે માર્ગ લઈ એમના અંગત જુઠા આક્ષેપ ઉપર પડયા, ત્યારે પોતાના હાથથી પિતાના બચાવ માટે પ્રયત્ન કરતાં કેટલાંક પ્રશંસાનાં વા આવી જાય તેથી તેમણે પણ ઉત્તર દેવામાં માનાવસ્થા પકડી તે યોગ્ય જ છે, પરંતુ આવા ઉત્તમ વૃદ્ધ પુરૂષો માટે કઇ બેપાયાદાર નીચ માણસના કેહવાથી (કેમકે તેમ અમરવિજયજી મહારાજના માટે જે લખે તે તમારા અનુભવથી લખે છે એમ તો કોઈ પણ સ્વીકારે તેમ છે જ નહીં.) તમો જેમ તેમ બકવાદ કરો એનો ઉત્તર આપ્યા વગર અમારાથી નજ રહી શકાય એ સ્વાભાવિક છે. માટે આ ચણતર ચાયનું જ ગણાય. તેમ છતાં પક્ષપાતનાં પડળ આવવાથી કદિ તમને અન્યાયનું માલુમ પડે તેમાં તમારે તમારા કર્મ રોગનું જ નડતર ગણવાનું છે. ત્યારપછી મુનિ શ્રી અમરવિજયજી મહારાજની બાબત તમે લખો છો કે અમે રૂપીએ આના જેટલું લખ્યું છે. અને અમે કહીએ છીએ કે તમેએ શૂન્યનો પર્વત કર્યો છે, પણ આ વિષયમાં હવે વધારે લખવાની જરૂર નથી. કેમકે “ખુદ આચાર્ય શ્રી જે દઈ દાબવા અને નિ:પક્ષ રીતે કંઇ વ્યવસ્થા કરવા ખાત્રી આપતા હોય તો તે ફરમાવશે ત્યારે અમે તમામ સપ્રમાણ પુરાવા રજુ કરવા તૈયાર છીએ. તમારા આ લખાણને વાંચીને દર્શન તથા ચારિત્રમાં થએલા સડાઓ પોતાના આજ્ઞા પાલેનાર સાધુઓમાં દેખી તે સડાઓને નહી દબાવતાં તે તે ગુનાઓની શિક્ષા કરનાર ન્યાયપ્રિય શ્રીમદ્વિજયકમલસૂરિજી મહારાજે તા. ૮-૧૦-૧૯ ના રાજ તમારા વિશ્વાસના માટે પિતાની સહીથી એક પત્ર જવાબી રજીસ્ટર દ્વારા તમારા ઉપર મોકલેલ છે. જેમાં મહારાજશ્રીએ ફરમાવેલ છે કે જે તમે અમરવિજયજીની બાબત સપ્રમાણ પુરાવા રજુ કરો તો અમરવિજ“જીને અમે ઉચિત શાસન કરવા તૈયાર છીએ, માટે તમો આ વદિ જ) સુધી ડભોઈમાં આવી પ્રમાણ રજુ કરે પરંતુ એટલું સ્મરણમાં Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૮) રાખવું કે અમરવિજયજીના અંગતષીઓનું કથન પ્રમાણ વગર કદાપિ માનવામાં નહી આવે. અને જો તમે અમારા સમક્ષ નહીં આવતાં છાપામાં જે છપાવશે તે વાતો ઉપર ખાન દેવામાં નહીં આવે. કેમકે છાપામાં એવા વિષય લેનાર અવશ્ય દેથી સિદ્ધ થાય છે અને દેવીઓની વાત ઉપર ધ્યાન આપવું તે ન્યાયસર ન કહેવાય તે ધ્યાનમાં રાખશે. અહીં આવવામાં તમે કઈ પણ પ્રકારનો ભય ન રાખશે. એ વિષયની શ્રીજી મહારાજે તમને ખાત્રી આપી છે તેમ અમે પણું તમને ખાત્રી આપીએ છીએ કે તમારે કેઈપણ પ્રકારથી અહીં આવવામાં હરકત નહીં સમજતાં નિશ્ચિત રેહવું કેમકે તમારૂં કોઈ પણ પ્રકારે અપમાન થાય તે એની જુસ્સેદારી અમે અમા રે શિર ઉપર લઇયે છીએ. તમે અમારી જૈનશાળાની ખાતાવહી તથા દલપત નારાયણાદિ જે વાકય લખી લાકમાં બેટી અસર પાડવા બેટા ગ૫ માળા ગબડાવો છો તેનાથી તમારું ભવિષ્ય બગડશે એને વિચાર કરી લેજેકેમકે અમારી વહી અને દલપત નારાયણની સાક્ષી શ્રીઅમરવિજયજી મહારાજના શુદ્ધ વત્તનો પરિચય આપે છે તે દ્વારા તમે તેમનું અશુદ્ધ વન સાબિત કરવા ધારે તેજ તમારૂં પથ્થર ઉપર કમલ પેદા કરવા જેવું વર્તણુંક સાબિત કરી આપે છે. આગળ વધી લખે છે કે, “સત્યારહીને લેખ છે, તે વાંચી શાંત થશો તેમ આશા છે” તંત્રીજી ! આ આશા નિરાશારૂપેજ પરિણત થવાની તેમ ખાત્રીથી સમજજે. કેમકે એક તરફથી અશાંતિવર્ધક શબ્દો ઉલ્લેખવામાં આવે અને બીજી તરફથી શાંત થશો એમ લખવામાં આવે આ શાંતિ કરવાનો કેવો પ્રકાર ? અગ્નિમાં-ધી હોમી શાંતિ કરવા જેવો ખરે કે નહી ? તે જરા વિચાર કરશે. સત્યાગ્રહીના નામે તંત્રીના પક્ષપાતી અસત્યાગ્રહીએ પોતાના મગજ અને હાયને લેખ લખવામાં જે પરિશ્રમ આપે છે (પક્ષપાતથી ભરેલ લેખ હેવાથી ) તે સર્વથા નિરર્થક છે. મરણના જૂઠે જૂઠ સમાચાર આપવાવાળા નીચમનુષ્યની વાત માની જૈન તંત્રીને ઘર ચઢેલું જોઈ અમેએ આગળ વધતાં કંઈ પર ઉપર જવાનું અથા આ લેખ છે, તે વારી આપે છે Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૧૯ ) હસી ન જાય એટલા માટે તંત્રીઓને તે અધર્મ કર્મ કરનારના વિશ્વાસથી આડું અવળું ન વેતરવા ભલામણ કરી હતી. ત્યારે અસત્યાપ્રવીપાબીબી બોલી ઉઠયાં કે તમે સર્વજ્ઞ છે કે 1 વાહ પદાબીબી ! તારી બુદ્ધિને. એ તંત્રીના સિવાય બીજ સત્તજ ( તંત્રીને કણ કણ સમાચાર આપે છે ) તે વાતને ન શકતા હશે કેમ વાર? જા તમારી બુદ્ધિ તો તમને પામેંટની મેંબરી મેળવી આપે એવી લાગે છે. અરે મુખનંદ ! તારા હાંકપીછેડાથી શું થવાનું છે. અમોને પુરી બાતમી મળી છે કે જેના તંત્રી જેના જેર ઉપર કુદી રહ્યા છે અને પ્રેમથી મળે છે અને આવા નીચ સમાચાર જે લખાવે છે તેજ મરણના સમાચાર દેવાવાળો નીચ માણસ છે. હવે પછી આવા કુકર્મનું ઘર ફલ તે પણ થોડા કાલમાં સહન કરશે. પડદાબીબીજી ! તમેએ વાચસ્પતિજીના બનાવેલા પુસ્તકને મલીન પુષ્પ જાહેર કર્યું છે એ વિષયમાં તમેએ ગંગાની પ્રકૃતિનું અનુકરણ કર્યું છે, માટે દુરવાસનરૂપ દુષ્ટ ગોળીને બહાર કાઢી નાખશો ત્યારે જ તમને દેવદ્રવ્યાદિ સિદ્ધિ નામના ખુબેદાર કમલની ખુબેનું ભાન થશે. માવજી દામજીના લેખથી જેટલી બેટી અસર થવા સંભવ છે એટલે નેધથી ફાયદો નથી, જયવિજય વગેરેના લેખોથી પણ તેમજ સમજવાનું છે. પ્રથમ જાણીને મળમાં પગ નાંખી પાછળથી જોનારની મુર્ખતાની જેમ તમારા બતાવેલાં એઠાં તમારી મુખતાને સિદ્ધ કરે છે, અને જે ધર્મશ્રદ્ધા હોય તે એવાં લખાણ કદી ન લેતા અમારું આ લખવું યુક્તિસર છે. આવા બેવકુફી. ભરેલા વખાણેનો લખવાવાળો સ્વભાવથી અસત્યાગ્રહી પણ નામને સત્યાગ્રહી કેણ હશે આ, વિષયમાં ઘણો વિચાર કર્યો પણ વેશ્યાની પુત્રીને પિતા હાથમાં આવે તો અમારા ટાંગી સત્યાગ્રહીનું સ્વરૂપ હાથમાં આવે એવું થઈ પડયું છે. તે હવે મહેરબાની કરી અમારા ગી સત્યાગ્રહી પિતાને પુરો પરિચય આપી વેચ્યા પુત્રીના લાગુ પડતા દષ્ટાંતથી દૂર રહેવા પ્રયત્ન કરશે, કે જેથી લોકોને તેમના પ્રમાણિકપણું ઉપર વિચાર કરવાને સમય મળે આ અંકના જનપત્રના ૬૩૧માં પાના ઉપર દેવદ્રવ્યાદિ સિદ્ધિની Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૦) ભાષા એવા હેડિંગથી યુવક મંડળે જે ભાષા સંબંધી નેંધ લીધી છે. તથા બીજા પણ જેન જનેતર તંત્રીએ ભાષા ઉપર વિચાર કર્યો છે એ વિષઅને ઉલ્લેખ કરી લેખકે વાચસ્પતિજી મહારાજના તરફથી નિકળેલ પુસ્તકમાં શબ્દો સારા થી અત્યાદિ આલેખ્યું છે. પણ આવા ધર્મશજૂ-મંડળ જેવા યુવક મંડળની બેંધથી મળવાનું શું હશે એ અમારી સમજમાં નથી આવતું, તંત્રી હોય કે મંત્રી હેય, મંડળ હોય કે બંડળ હેય જે દેવદ્રવ્યાદિ સિદ્ધ નામની ઉત્તમ પુસ્તકની ભાષાને નિંદે છે તે અકલના દુશ્મનનું મગજ અજ્ઞાનરૂપ કીડાઓથી ખવાઈ ગએલું હોવાથી, અથવા તો આગમ માર્ગ અને આચાર્યો ઉપરથી શ્રધ્ધા ખસી ગયેલી હોવાથી, યા તે તેમનામાં હિજડાવૃત્તિ હોવાથી તેમની પ્રવૃત્તિ થવી જોઇએ. નહીં તો જે બેચરદાસે ચતુર્દશ પૂર્વધારી મહાત્માઓએ અંધારૂ તવું. અને તે લેહીલુહાણ થઈ ગયા, શ્રી મહાવીર પ્રભુએ પણ ક્રિયા ઉધ્ધાર કર્યો, માંસ ખાનાર અને મદિરા પીનાર ભરોસેવી વ્યભિચારે તાંત્રિકમતનો જૈન સાધુએમાં અસર થયો, આવાં ખાટાં કથન કરી જનશાસનમાં મહા જુલમ ગુજારનાર વર્તણુંક કરેલી છે. એને કાંઈ પણ વિચાર નહીં કરતાં વાચસ્પતિજી મહારાજની ભાષા આવા છે ને તેવી છે. એવું ક્યન કદાપિ ન કરત. આવા હિજડાવૃત્તિ ધરનાર, આચાર્યોની ઉપર ભક્તિન્ય, ધર્મ શૂન્ય અને દેવદ્રવ્યાદિ સિધિ નામના પુસ્તકની ભાષાના નિંદનારાઓને હું પ્રશ્ન કરૂં છું કે, કેઈ વખત શ્રીજિન મંદિરમાં એકલા સાધુ ઉભા હોય અને તે વખતે કાઇ નીચ આદમી ભગવાનની મૂર્તિને ખંડિત કરવા લાગે તો તે વખતે સાધુ મહારાજ તે નીચ માણસના ઉપર એકદમ પીત્ત પ્રકૃતિથી કરડી શિક્ષા કરવાને તત્પર થઈ જાય તો તે શિક્ષાને તમે યોગ્ય માનશે કે નહીં? જો આ વાતને ઉત્તર તમો નકારમાં દેશે તો હું તમને ધર્મશન્ય હિજડાવૃત્તિવાલાજ કહીશ, અને જે “ હા ” કહેશે તે બેચરદાસે જે કામ કર્યું છે તે ઉપર આપેલ નીચ આદમીના દષ્ટાંતથી કમી નથી. હવે વિચાર કરે છે, વાચસ્પતિ મહારાજે જે શબ્દો લખ્યા છે તે ન્યાય પુરઃસર કેમ ન કહેવાય આતો કાંઈ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૧) જ આચા જિની પાસે એક * ઉપર કઈ નથી અને નથી પણ જો કોઈ જૈનધર્મી રાજા હેતતા આવા તીર્થ કર પ્રભુની તથા આચા ની ઘેર આશાતના કરવાવાળાને નાક, કાન કાપી મોટું કાળું કરી ગધેડા ઉપર બેસાડી ગામમાં ફેરવી તમામ લોકોની પાસે એવાના મુખમાં થુંકાવી કાલા પાણીની સજા કરત. જ્યારે આવી સ્થિતિના માણસ માટે એના લખેલા શબ્દો ઉપર કોઇપણ વિચાર ન કરે અને જનરત વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ શ્રીલમ્બિવિજયજી મહારાજના શબ્દો ઉપર કેવળ લખાણ કરવા મંડી પડે એવા પક્ષપાતી અકકલના બારદાન દુર્ભાગ્ય શેખર યુવક મંડળ આદિથી વાચસ્પતિજી મહારાજ કદીપણ ડરવાના નથી. અગર કોઈ કહે ગૃહસ્થ ગમે તેમ લખે પણ સાધુ તે સમતાજ રાખે તો મહારાજશ્રીના મુખથી મને ખુલાસો મળે છે કે, “એવું કહેવાવાળ ઓએ ઉપદેશ સતિ ” દ્વાદશ કુલક “જ્ઞાતા સૂરનું લખું અધ્યયન શ્રી ભગવતી સૂત્ર આદિ શાસ્ત્ર સાંભળવાં કે માલમ પડશે કે આવા ચઉદ પૂર્વ ધરાના નિંદકેનું અપમાન કરવું તે સાધુને અયોગ્ય નહીં પણ ગ્ય છે ” માટે અમે વાચસ્પતિજી મહારાજને હજારો ધન્યવાદ આપીએ છીએ કે જેમણે લેકનાં મનરંજનને ખ્યાલ નહીં રાખતાં ધર્મરંજન કર્યો છે. આવા પુરૂષોની શાસનમાં ઘણી જરૂરત છે કે જે ગંગાદાસ જમનાદાસની રીતિથી હજારે માઈલ દૂર રહે છે. ઇતિ શમ્ | શ્રીમદ્દ આત્મારામજી જૈન પાઠશાળાના સેક્રેટરી શા. જે લાલ ખુશાલચંદ ડાઇ. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨૨) ॥ जैन तंत्रीनी वांकी चाल ॥ સજ્જને ! ધણા ખેદુની સાથે લખવુ પડે છે કે, અમેાએ અનેક પ્રકારે જૈન તત્રીનું વિર્યોસપણું દૂર થવા માટે ઉપાયા લીધા, પરંતુ જ્યાં રાગની અસાધ્યતાનું પરિણામે માઠુ જ ફળ ભાગ્યમાં અનુભવવાનું હેાય ત્યાં મનુષ્ય જાતના ઉપાયેાથી કશુંએ વળતુ નથી. છતાં પણ અમારી હિત લાગણી અમને આવાં અસાધ્ય કાય કરવાને માટે પ્રેરણા કરવાથી ચુકતી નથી. અમે માનિએ છિયેકે, આ પ્રેરણા સફલતાને પ્રાપ્ત કરે તેા હજારા મનુષ્ય રાગના ભેગ થતાં અટકી શકે. કાણુ કે એક રાગી તત્રી પત્ર રૂપ વિષજ તુ દ્વારા દ્વારા રાગી પેદા કરી શકે; જેમકે બેચરદાસને સધ બહાર કરવા રૂપ અમદાવાદના સ્તુત્ય કાયના અનુમેદનરૂપ આરેાગ્યતાથી હીન તંત્રી જૈનપેપરના દરેક અંકમ ફલાણુા ગામના ફલાણા આમ લખે છે; અને ફલાણા ગામથી ફલાણા તેમ લખે છે; આવા તદ્દન ખોટા સમાચારા લખી ભાળા લેકેાની શ્રધ્ધા બગાડી બિચારાઓને મિથ્યારેાગને ચેપ લગાડે છે. ત ંત્રી જાગેછે કે, હું! ચલાવેાને ગપ! કાણુ એપીસમાં જોવા આવનાર છે અને આવશે તે ગામ ડાય ત્યાં ઢેડવાડા હેાય એટલે કાઇ હલકા માણુસાયી ખેચાર ગામની ઠામ ઠેકાણાં વગરની પત્રિકાઓ મગાવી રાખીશું, અથવા જુદા જુદા છેાકરાઓની પાસે લખાવી લઇ ફાઇમાં સત્યાગ્રહી તા કાઇમ ભિક્ષુક અને ડાઇમાં સચ્ચિદનંદ નામેાથી પ્રપંચ જાળ માંડીશુ, પણ આપણેતા જેમ એક નાક કટ્ટ! નાકકટ્ટાનું મળ વધારે તેમ મિથ્યા રેગીયાનું મંડળ વધારવાનુ છે, તે વધારીશું જ. માટે જો આ મૂલ રાગી તંત્રીને દવા લાગુ પડે તેા હજારાનુ કલ્યાણુ થાય; પરંતુ આ આશા હજી સુધીતેા નિરાશા રૂપેજ પરણત થતી રહી છે. કદાચ ભવિષ્યમાં કાંઇ ફાયદા થાય તેવા આશયથી અમે અમારી લેખનીને પુનઃ સતેજ કરીયે છીએ, તા. ૧૯ મી એકટાંબર ૧૯૧૯ના જૈનપેપરમાં અમારી તરફથી નિકળેલ જનતંત્રીની જુઠી જાળના અસલ મતલબનેા લાભ ન લેતાં તંત્રીએ વાંઢી Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨૩ ) ચાલ ચાલવી શરૂ કરી છે. તંત્રીની આ ચાલ આ વખતે જ જોવામાં આવી છે એમ નથી; કેમકે પ્રથમ “જન તંત્રીને પક્ષપાત” નામના હેડબિલના જવાબથીજ તેમને પિતાની વક્રગતીનો પરિચય અમને આપ શરૂ કર્યો છે કેમકે તા. ૭ સપ્ટેમ્બર ૧૯૧૯ ના જન પત્રમાં તેમણે લખ્યું હતું કે, તેઓ (બેચરદાસ) કાંઇ નવું શાસન પ્રરૂપવા કે શાસ્ત્ર રચવા માગતા નથી, તેના જવાબમાં એક મહારાજશ્રીએ તેમને પ્રથમ હેંડબિલમાં પ્રશ્ન કર્યો હતો કે, તેજ સભા ( જન ધર્મ પ્રસારક સભા) માં બેચરદાસે પિસ્તાલિસ આગમ માનવાં છોડી દીધો અને અગીઆર આગમને માનું છું, અને તેમાં પણું મિશ્રણ થયેલું છે; એવા શબ્દો જે કહેલા તે નવીન મત ( શાસન) કહેવાય કે પ્રાચીન તેજ અંકના જવાબમાં ફરી લખવામાં આવ્યું હતું કે અમને એડીટરના મિથ્યાભાવ ઉપર પુર્ણ ખેદ થાય છે કે; પૂર્વાચાર્યો ઉપર કરેલ બેચરદાસને હુમલે એમને મીઠે સાકર જેવો લાગ્યો કે જેથી તેના ઉપર કાંઇપણ નોંધ લીધી નહીં (તે વાજબી કેહવાય ખરૂં?) ત્યાર પછી તેજ અંકમાં તંત્રીએ લખ્યું હતું કે; “લેખકે પોતાને આવડયાં તેટલાં પૂર્વાચાર્યો અને સમર્થ પુરૂષોનાં નામો લખી ભોળી અને શ્રધ્ધાળુ જૈનપ્રજાને ઉશ્કેરવાને જાણે તેઓને (પૂર્વાચાર્યો આદિને) પંડિત બેચરદાસે પોતાના ભાષણમાં નિંઘા હાય ઇત્યાદિ ” આના ઉત્તરમાં તેઓની ( તંત્રીની માયા જાળને પ્રકાશ કરતાં મહારાજશ્રીએ જણાવ્યું હતું કે, તંત્રોજી! વાચસ્પતિજીએ એવું કયાં લખ્યું છે કે બેચરદાસે પોતાના ભાષણમાં પૂર્વાચાર્યોને નિંદ્યા છે, એમણે તે એમ લખ્યું છે કે તા. ૨૫ મી મે સન ૧૯૧૯ ના પૃષ્ટ ૩૭૩ ના જન પેપરમાં જે તમસ્તરણ નામને લેખ લખે છે એમાં બેચર દાસે દેવ દ્રવ્યાદિ સિધિ નામના પુસ્તકમાં લખેલા શ્રતધર મહારાજાઓની પણ નિંદા કરતાં આચકા ખાધ નથી. કેવલી સદશ ચતુર્દશ પૂર્વધર શ્રી સ્થૂલભદ્ર મહારાજ, દરાપૂવી વાસ્વામી મહારાજ, આર્યરક્ષિતસૂરિ, પાંચ મંથના કર્તા ઉમાસ્વાતી મહારાજ, પન્નવણાકાર સ્યામાચાર્ય મહારાજ, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ ) જનભકગણિ ક્ષમાશ્રમણ મહારાજ આદિ જે જે મૃતધર થયા છે તે; અને બઘાવધિ થયેલ સમસ્તાચાર્યો વગેરેને અંધારૂં તરવાવાળા અને અતિ ગોઠણ વસાવાથી લોહી લુહાણ થનારા પ્રસિદ્ધ કર્યા છે. કેમકે તમસ્તરણમાં લખેલું છે કે, મહાવીરના નિર્વાણને પ્રાયઃ બે ત્રણ કે ચાર પાંચ સૈકા જેટલો વખત રીતે જૈન સમાજના વિશેષભાગે તમાસ્તરણ આરંવ્યું હતું અને તે ઠેઠ અત્યાર સુધી ચાલ્યું આવ્યું છે ઇત્યાદિ. હવે જૈન પત્રકારની માયાજાલ અને પક્ષપાતને જન સમાજને અનુભવ થયો હશે. કેમકે તેિજ તમસ્તરણ નામના લેખ છાપે છે, અને પોતે જ પાછા બેચરદાસને આચાર્યોની નિંદ કરવાના દૂષણથી અલગ જાહેર કરવાનો પ્રયત્ન કરે છે, આ તે કેવો પક્ષપાત કાંઈ વિચાર પણ કરે છે કે મનમાં આવે તેમ ઘસેડયા જ કરે છે. અમાર પાઠકગણોને પત્રકારના પક્ષપાતના સ્વરૂપનું ભાન થઈ ગયું. હવે એમની માય જાલનાં દર્શન કરે. એડીટરની માયાજાલ એ છે કે તેઓ બેચરદાસે પોતાન ભાષણમાં આચાર્યોને નિંઘા નથી એમ લેખ લખી લેકેને ભ્રમજાળમાં ના છે, પણ વાચસ્પતિજીએ તે તમસ્તરણ નામના લેખમાં પૂર્વાચાર્યો અને સમયે પુરૂષોને નિંદ્યા એમ જાહેર કરેલું છે. ત્યારે ભાઇસાહેબ ભાષણ નામ લખી અજાણ લેને ભુલવવાનું કરે છે. એજ એમની માયાજાલનું પ્રસ્તરણ છે. તાત્પર્ય માં એટલું જ સૂચન કરવા માગીયે છિએ કે તા. ૯ સપ્ટેમ્બર ૧૯૧૮ ના લેખનું જનતંત્રીને પક્ષપાત નામના ફેંડબિલમાં યુક્તિસર ખંડન કરવામાં આવ્યું હતું તેમાં ઉપર સૂચના કરેલા પાકા મુદ્દાઓને પોતે (તંત્રી) જુઠા હોવાથી તેડી ન શકયા અને મૂળ મુદ્દાઓની ચર્ચાને બાજુ ઉપર મુકી એક વ્યકિતગત આક્ષેપ ઉપર ઉતરી પડયા. શું આનું નામ વાંકીચાલ ન કહેવાય ? અને આવી ચાલ ચલણવાળા આઇમને કોઈપણ વિશ્વાસ રાખી શકે ખરે? કદિપણ નહીં. આથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે તંત્રી મહાશય પ્રથમથી જ આડે માગે દેરાઇ ગયેલ છે. જે આ વાતમાં સંદેહ હોય તે તા. ૨૧ મી સપ્ટેમ્બર સ. ૧૯૧૯ નું જનપત્ર અને જૈનતંત્રીને પક્ષપાત નામનું હેડબિલ તપાસી જુઓ! એવી જ રીતે Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૫) જૈનતંત્રીને મિથ્યા પ્રલાપ નામના ફેંડબિલના જવાબમાં પણ બનવા પામ્યું છે; અને છેવટમાં “ન તંત્રીની જુઠી જાળના જવાબમાં તા. ૧૯ મી ઓકટોબર ૧૯૧૯ ના જૈનપત્રમાં પણ પ્રથમ કરતાં વધારે વાંકી ચાલ ચાલવી શરૂ કરી છે તેથી જ આ હેંડબિલનું નામ જૈન તંત્રીની વાંકી ચાલ રાખવામાં આવ્યું છે. અમારા નામે એક વધુ હેંડબિલના મથાળાવાળા લેખમાં તંત્રીજી પોતાની સ્તુતિ કરનાર નામના સત્યાગ્રહને નિઃપક્ષ તથા પવિત્ર આત્મા લખી એમની સ્તુતિ કરવાને બદલે વાળતાં – अष्ट्रकाणां विवाहे तु गर्दभा वेदपाठकाः परस्परं प्रशंसंति अहोरुपमहा ध्वनिः १ જેવું કર્યું છે એટલે આ વિષયમાં પણ કાંઈ લખવા જેવું રહેતું નથી ત્યાર પછી તંત્રીજીએ લખ્યું છે કે * * ને મરણના સમાચાર દેવાવાળે વ્યકિત તે હાલમાં તેમના જીવન માટે અજવાળું પાડનાર વ્યકિતઓમાંને એક પણ નથી. આ લખાણ કેવલ અસત્યતાથી ભરેલું છે. જે માણસે મરણના સમાચાર લખ્યા છેતે જ માણસ તમને સૂચવનાર છે. હ! તમે કદિ ભેળી પ્રકૃતિથી પત્રોમાંના નામના ભેદથી એમ સમજતા હશો કે મરણના સમાચાર આપનારનું નામ ભિન્ન છે, અને કહેવા વાળો વ્યકિત ભિન્ન છે, તે તે કારસ્થાનીની માયા જાળથી તમે ભરમમાં પડી એમ માનતા હશે? પણ અમો સારી રીતે જાણુછિએ કે; બને સમાચારોને દેવાવાળો મૂળ રૂપે એકજ છે હે એના સહવાસમાં આવી ભ્રાંત થયેલા અને વસ્તુ સ્વરૂપના અજાણુ કેટલાક અન્ય પણ હોય તો તેનું કારણ પણ તેજ છે એ વાત નિશ્ચયથી સમજજે. ત્યારબાદ તમેએ “ અમારા ઉપર લખેલ ખાનગી પત્ર પ્રગટ થયો છે' ઇત્યાદિ જે લખ્યું છે. તેના જવાબમાં માત્ર એટલું જ સમજવાનું છે કે તે પત્રને વિષય કાંઇ એવી ખાનગી બીનાવાળો ન હતો કે તમે પોતાના છાપામાં જે બીના ન લખી હોય એટલે એ વિષયનો ચમ ચલાવવી તે અપ્રસ્તુત છે. આગળ ચાલતાં તંત્રી Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૬) .. .. "" .. મહાશય લખે છે કે “પુરાવા સાથે ત્યાં જવાની સધળી તૈયારી કરેલી છતાં એક ખાનગી પત્ર સાધારણ વ્યક્તિથી જાહેરમાં આવી શકે છે. ત્યાં જવુ તે હિતાવહ ન જાયાથી તેના કારણેા સાથે સ્માચાર્યશ્રીને વિગતવાર ઉત્તર લખેલા છે.” તમારૂં આ લખાણ નાચવું નહિ એટલે આંગણું વાંકુ જેવુ' છે આચાય શ્રી મહારાજ ઉપર તમે!એ પત્રમાં જે બીના લખી છે તે ભીના અમારા નામે એક વધુ ડેડબિલ માં લખેલી નાતે સર્વથા મળતીજ છે એટલે આ લેખના ખંડનથી બીનાનું ખંડન થઇ જાય છે માટે એ વિષયમાં વિશેષ જેવું માં રહેતું નથી. ત ંત્રીજી ! મહારાજ સાહેબ તમારા જે કાગળા માલે તેનુ' ર૭૪ર તે। અમારા જેવા શ્રાવકાના હાથેજ થાય એટલે સહંજપણુ અમને કાંઇ જાણવા જેવી બીના હેાય તે જણાવ! કૃપા કરશે! એવી પ્રાર્થના કરવા સમય મળે ત્યારે આવી ચાલતી ચર્ચાના પ્રસ ગની વાતે ( તમે ખારી વાતે છપાવા છે તે વાતેા ) ના જાણનાર અમાને મહારાજશ્રી તે પત્રમાં લખેલી સામાન્ય બિના જાહેર કરે અને અમેા એ વાતને ભવિષ્યમાં લાભ થતા સમજી છપાવીએ એમાં તમારા જેવા છાપા ચલાવનાર તંત્રીને ભેાઇમાં આવવું હિતાવહ ન જાય આ વાતને યે। બુદ્ધિમાન માની શકો? અમેને આ તમારૂં લખાણ બિલકુલ યુક્તિ શૂન્ય ભાસે છે; કેમકે છાપામાં આવેલી ર૭૪ર પત્રની વાત જેની પાસે પુરતા પુરાવા હાય એને ઉત્તેજક છે પણ પ્રતિખ'ધક નથી ઢાં 1 જીડી ગુપ્ત ગાળા ચલાવનારનાં તા હાન્ત નરમ કરી નાખે એવી ખરી ! અને એજ કારણુ છે કે તમેા પુત્ર પ્રગટ થયાનુ ખાતું બહાનું કાઢે છે અને ડÀાઈમાં હાજર ન થવાના માટે “ એક વ્યક્તિના જીવનના કિટ્ટ પ્રસંગાની તપાસ શાસન હિત જળવાય તેમ શાંતિથી ગુપ્ત રીતે - કરવાને શુદ્ધ હેતુ જાળવી શકે તેવી સ્થિતીમાં તેઓશ્રી નથી ” એવુ` જે કાણુ પ્યું છે તેવી તમારા હૃદયની સ્થિતિ નથી. એટલે તે કૈવલ ધૃતતાનુ સૂચક છે આ વાતની પુષ્ટિમાં તા. ૨૧ મી સપ્ટેમ્બર સન ૧૯૧૯ ના . પત્રમાં લખેલી ઉહાપોહ કરવા જેવાના ઉપર Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨૯) જૈનપત્રમાં મુદ્દાને છેડી વ્યકિતગત આક્ષેપેાવાળું જે 1 લખાણ તમેાએ પ્રગટ કર્યું છે તેજ પૂર્ણ સહાયક છે કેમકે ઉપરના કારણને આગળ મુકનાર મનુષ્યથી એવી મનુષ્યથી એવી પ્રવૃત્તિ કદીપણ અની શકતી નથી અને એવી પ્રવૃતિ કરવાવાળા મનુષ્યે હાજર ન થવામાં આ ટલું કારણ સત્ય બની ચતુ નથી. ત્યાર પછી આત્મારામજી મહારાજના સમુદાયમાંથી અમુક અમુક મુખ્ય મુનિવરેની સભા થાય તે હું હાજર થઇ પુરાવા રજુ કફ એ પણ તમારૂં બહાનું છે કેમકે એક મહારાજાની પાસે ગયેલા દાવાને જે કે'સલે થાય તે પ્રથમની કચેરીયે માં કરેલા ફેંસલાથી વિમુખતા નથી હતી. માટે સધાડાના સરદારની પાસે ફૈસલા મુતાં નીચલી કચેરીના આમ ત્રણનું ખંહાનું કાઢવું તે પણ અસ્થાનેજ ગણુાય એના પછી અમુક આચા એકત્ર થાય તે હું પુરાવા રજુ કરૂં. આ લખાણુ પ્રથમના લખાણુથી પશુતમારી વધારે એસમજીને સિદ્ધ કરે છે; કેમકે એક રાજાતી પ્રજામાં થયેલા ગુનાના ન્યાય મેળવવામાં તમામ રાજાએ એકત્ર કરવામાં આવે તે યુક્તિયુકત નથી. હાં ! તમારૂં બહાનુ જબરૂ' છે જેમ કેાઇ હડી આદમી એ કહ્યુ કે મરી માતા હતીજ નહી. ત્યારે પાસમાં ઉભેલા આદમીએ કહ્યુ કે અરે ખેવ માતાવગર તારા જન્મજ કેવી રીતે સંભવી શકે પછી પેલે હઠી 'મેલ્યા કે મારી પાસે આ વિષયનાં જ પ્રમાણ છે, ત્યારે પાસે ૩ બેલા આદમીએ કહ્યુ` કે જે તારી પાસે પ્રમાણ હોય તેા રજુ કર હું માનવાને તૈયાર છું. આ વાત સાંભળી ધૃત્તોંનદ દુરાગ્રહી કહેવા લાગ્યા કે જો તમે તમામ દેશના માણુસાને તમારા ખરચે આમત્રણ કરી તે લેાકેાની એક વિશાલ સભા ભરાતા તમને સિદ્ધ કરી બતાવુ, સમજવાવાળ! સમજી ગયા કે" એક માલ વગરની વાત માટે હારે રૂપૈયા ખરચ કરવા કહ્યુ તૈયાર થાય. આ ધૂર્તાનંદનુ ખતાનું છે. હે દર્દી દેશના લેાકાને ખેલાવે તાપણુ જેતે ખેલે ખૂધ નહી અને કેંટ એમ કહેવા મ`ડી જાય કે એમતા નહીં પણ બધા આદમીએ માથુ જમીન સાથે લગાવી પગાને ઉંચા કરે તા પ્રમાણુ રજી કરૂં, પછી એને ઉપાય શું ? એમ તત્રીજી તમારૂ પણુ આ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૨૮ ) બહાતુ ખાટું છે. કઠીન શિક્ષાથી સુધારા અનેક જનને થયા છે અને મેટા મેટા રાજા મહારાજાએએ એ વિષયમાં ભાગ લીધે છે અગર આ વિષય લખવામાં આવે તે એક મેટા નિબંધ બને તેમ છે એવી મને મહારાજશ્રી તરફથી સૂચના મળી છે. સધપટ્ટના કર્તાનું દૃષ્ટાંત અહિં ( એચરદાસની સાથે) લાગુ પડી શકતુ નથી. અમદાવાદ અને સ સ્થળે શાંતિના માગે વળ્યાં છે એ તમારૂં લખવું ઠીક છે. તે લેાકેા બેચરદાસને સ ધ બહાર મુકવાના કાર્ય માં કૃતાર્થ થવાયી શાંતિ પકડવામાં ભાગ્યશાળી બન્યા છે. તેવીજ રીતે અમારી યુક્તિએ તમારા સમજવામાં આવી જાય તે અમે પણુ કૃતાથ થઇ શાંતિ મેળવવામાં ભાગ્યશાળી બની શકીએ, જ્યાંસુધી અમે તમારા રોગનું ચિકિત્સન કરતાં કરતાં તે રાગની પુરી અસાધ્ધતાનું ભાન નહીં કરી શકીયે ત્યાં સુધી આ ઉપકારમાં કટીબદ્ રહીશું; બાદ અ શકય પરિહાર સમજીને હાથ છેાડી દઈશું ફૅટનેટ-ગેકલભાઇ દુલભદાસને સુરત મેાકલવા પડયા હતા, તેમાં પણ તેજ ઉપર લખેલ કારસ્થાનીની માયાજાળનું પરિણામ હતુ તે વાતને શ્રોજી મહારાજને પુરા અનુભવ છે; માટે તેથી તમારી વાત કાંધ્ર મુદ્દાસર છે; એમ માની શકાય નહિ. લી. શ્રીમદ્ આત્મારામજી જૈન પાઠશાલાના સેક્રેટરી શા. જેઠાલાલ ખુશાલચંદ. ડભાઇ. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VV VVS इस ग्रन्थकर्ताके बनाये हुए जो जो पुस्तक छपकर .. प्रसिद्धि में आये हैं उनका लिष्ट 1. दयानन्दकुतर्क तिमिरतरणिः / 2. मूर्तिमण्डन 3. व्याख्यानलुधियाना. 4. ही और भी पर विचार. 5. व्याख्यानदेहली. 6. मेरुत्रयोदशी कथा. संस्कृतपद्यबद्धा. (पत्राकार). 7. अविद्याऽन्धकारमार्तण्ड. 8. वेदान्तविचार. 9. देवद्रव्यादिसिद्धि. उपरोक्त पुस्तक मिलने का पत्ता - आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल ठि. रोशन मोहल्ला. आगरा. (यू.पी. प्रांत) अथवाआत्मानन्द जैन ट्रेक्ट सोसायटी. ___ मु. अंबाला शहर. (पंजाब) "देवद्रव्यादिसिद्धि' मिलने का ठिकाना सेक्रेटरी अंबालाल जेठालाल शाह. ठे. महावीर जैन सभा अने आत्मालाल जैन लाइब्रेरी. मु. खंभात. CAAS किम्मत 0-2-0 CAYOKAYARRAYACHY EASTERSTAGRILJECADEO CLASCUCUDostLANDt