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________________ ( ३८ ) उपयुक्त हो सकता है, और तीसरा साधारणद्रव्य सातों क्षेत्रोंमे लग सकता है ऐसा सिद्धान्तमें कहा है । औरभी प्रमाण लीजिये श्रीरत्नखेखरसूरिमहाराज श्राद्धविधिके अन्दर प्राचीन आगमशास्त्रकी गाथाएं लिखते हैं: “ चोएइ चेइयाणं, खित्तहिरण्णे अ गामगोवाइ । लग्गतस्स उ जइणो, तिगरणसोही कहं तु भवे ॥ १ ॥ भन्नइ इत्थ विभासा, जो एयाई सयं विमग्गिज्जा ॥ तस्स न होई सोही, अह कोई हरिज्ज एयाई ॥ २ ॥ तत्थ करतो उवेहं, जा सा भणिया उ तिगरणविसोही । साय न होइ अभत्ती, तस्स य तमा निवारिज्जा ॥ ३ ॥ सव्वत्थामेण तर्हि संघेण य होइ लग्गियन्नं । सचरित्ताचरित्ताण य, सव्वेसि होइ कज्जन्तु ||४|| भावार्थ --- अगर साधु चैत्य संबन्धि क्षेत्र हिरण्य ( सोना ) गांव, गोप वग़ैराकी चिन्ता करे तो तीन प्रकार के संयम के धारण करनेवाले साधुकी त्रिकरणशुद्धि किस तरह होसके ? अब दो गाथाएंसे ऊपरकी शङ्काका समाधान करते हैं - इस विषय में विकल्प हैं- यानि साधुको इस विषयकी चिन्तामें त्रिकरणशुद्धि होती भी है और नहीं भी होती । अगर साधु देवद्रव्यकी वृद्धि करनेके लिये स्थान स्थान पर स्वयं याचनाकरे तो विशुद्धि नहीं होती. और जो देवद्रव्यादि पूर्वोक्त वस्तुके विनाशको देखकर उसके रक्षण में Jain Education International For Private & Personal Use Only "" www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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