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________________ ( ३७ ) आभूषण है और इनसे मिश्रित जो हजारों आभूषण हैं और मेरे पास जितना कोश (खजाना ) है इन सबको सात क्षेत्रमें लगादेना। क्योंकि परलोकमें जाते हुए जीवको यह पाथेय ( भत्ता ) है। देखिये इनसात क्षेत्रमें देवमंदिर भी हैं और पुरुषसिंहने अपनी माताके कथनानुसार जो देवमंदिरमें लाखोंका द्रव्य समर्पणकिया वह देवद्रव्य नहीं तो और क्या ? इससे सिद्ध हुआ कि-धर्मनाथ स्वामीकी वक्तमें भी यह रीवाज था. अगर तमाम तीर्थङ्करोंकी वक्तका वर्णन लिखें तो एक बड़ी भारी पुस्तक बनजाय और पाठकवर्गको और भी अनेकशास्त्रोंके पाठ सुनाने हैं इसलिये इस विषयमें ज्यादा लिखना नहीं चाहते । देखिये सोमधर्मगणिमहाराज उपदेश सप्ततिके पांचवे अधिकारमें फरमाते हैं कि'झान द्रव्यं यतोऽकल्प्यं, देवद्रव्यवदुच्यते । साधारणमपि द्रव्यं, कल्पते सङ्घसम्मतम् ।। २० ॥ एकत्रव स्थानके देववित्तं, क्षेत्रय्यामेव तु ज्ञानरिक्थम् । सप्तक्षेव्यां स्थापनीयं तृतीयं, श्रीसिद्धान्ते जैन एवं ब्रवीति ॥१॥" भावार्थ--दव द्रव्यकी तरह ज्ञानद्रव्य भी अकल्पनीय कहा जाता है, सड़की सम्मतिसे साधारणद्रव्यको सातक्षेत्र से किसी क्षेत्रमें लगा सकते हैं || २० || प्रथम देवद्रव्य है सो एक क्षेत्रमें ( देवमंदिर प्रभुपूजादि काममें ) ही लगाया जा सकता है, और दुसरा ज्ञानद्रव्य दो क्षेत्रमें (ज्ञानकार्यमें और देवकार्यमें ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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