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किया और उस नरकगामिनी बुद्धिक वशीभूत होकर सूत्रमार्ग पर चलनेवाले पूर्वधर आचार्यादिकोंकी निन्दामें ' तमस्तरण ' नामक नीचरूपक लगा दीया है कि कोई भी तटस्थ बुद्धिमान् उस लेखको देखकर बेचरदासकी वैरिणी नीच बुद्धिको धिक्कार दिये बिना कभी न रहेगा, हां, बेशक अभव्य या दुर्भव्य जीव उस लेखको देखकर खुश हुए होंगे, बेचरदासने कुबुद्धिसे प्रेरित होकर पूर्वाचार्योकी निन्दा करते समय तो अवश्य आनन्द माना होगा पर उसका फल भवभ्रमण करते हुए मिलेगा तब वह दुःख होगा कि जिसकी सीमा ही नहीं है। हमको वेचरदासके आगन्तुक दुःख पर बड़ा त्रास आता है पर बेचरदासको स्वयम् आगन्तुकदुःखका भय क्यों नहीं हुआ ? मालूम होता है कि मिथ्यात्व मदिराके नशेमें चकचूर होनेवाले बेचरदासको स्वयम् भान नहीं होसकता । जैसे शराबके नशे में चकचूर बने हुए शराबीको अनेक पुरुषोंका लत्ताप्रहार और मुंहमें गिरते हुए कुत्तों के पेशाका भी भान नहीं रहता। भव्यप्राणिगण : वेचरदासने "तमस्तर" नामक लेखमें लिखा है कि 'महावीरना निर्वाणने प्रायः बेत्रण के चार पांच सईका जेटलो वखत वीते जैनसमाजना विशेष भागे तमस्तरण आरंभ्यु हतुं अने ते ठेठ अत्यार सुधी चाल्युं आव्युं छे" इस लेख से श्रुतधर आर्यसुहस्ति महाराज पञ्चमारक में भी जिनकल्पकी तुलनाकारक श्रीमान् आर्यमहागिरी, युगप्रधान कालिकाचार्य महाराज, श्रीमान् शासनप्रभावक खपुटाचार्य, कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य
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