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________________ (७) महाराज, श्रीमतअकब्बरनृपप्रबोधकश्रीहीरविजयसूरीश्वरजी, न्यायविशारदशतग्रंथप्रणेता श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्याय आदि महापुरुषभी तमस्तरण करनेवाले-अंधेरा तैरनेवाले जाहिर होते हैं । हाय ! हाय ! ! वह हाथ क्यों न टूट पड़े जो पूर्वधरोंकी निंदामय वाक्य लिखनेमें सहायक हुए, वह शरीर निन्दक लेख लिखे जानेके पहले ही क्यों न मनुष्ययोनि छोड़ गया कि जिससे पूर्वधर आचार्यो-महात्माओंकी निन्दामय प्रवृतिका कारण बना। इससे तो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय होता तो अच्छा था परन्तु ऐसे मनका मिलना अच्छा नहीं जिससे पूर्वधर महापयोंकी निन्दा करके अधोगति को प्राप्त हो। . इससे तो मनुष्य जन्मसे ही संधा, गूंगा और बहिरा बन जाय तो भी अच्छा हो, पर आँखें जीभ और कानका यह फल अच्छा नहीं, जिनसे आचायाँकी निन्दा करनेसे अनन्त भवों तक ये इन्द्रियां मिलें ही नहीं. और मिलें तो फिर फिर शस्त्रोंसे छेदन भेदन हो । अस्तु, मिथ्यात्वके उदयसें क्या क्या अधम कर्म नहीं होते हैं। हमारे पाठकवर्गको यह कटाक्ष मालूम होता होगा पर यह कटाक्ष नहीं है अधर्मसे बचानेके लिए दयापूर्ण हितवाक्य हैं और हमारी हमेशा यही भावना रहती है कि अगर किसी भी समय पापकर्मके उदयसे जैनशासन प्रभावक पूर्वश्रुतधर पूर्वाचार्यों की निन्दा करनकी दुष्टबुद्धि उत्पन्न होने वाली हो तो. इससे हस्तशून्य, कर्णशून्य, जिव्हाशून्य होना भव भवके लिये हम पसन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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