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( ९० ) पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमामिति । '
यह सूत्र उसके खयालसे बाहर नहीं होता । और भगवान्को गहिने चढ़ाने में साधुओंको जोखिमदार जाहिर करना यह भी बेचरदासकी एकजातकी बेवकूफी है । क्योंकि अगर कोई नास्तिक ऐसा कथन करे कि ' भगवान्को आभूषण चढ़ाने योग्य नहीं है ' उस वक्त साधुवर्ग अगर चूप होकर बैठ जायें तो जिम्मेदारी ( जोखमदारी) साधुओं के शिर पर है । परन्तु आगमानुसार प्रभुकी भक्तिनिमित्त आभूषण चढें, उस वक्त जो निषेध करें तो ar निषेध करनेवाला महा पापका भागी होता है इस लिये आजतक किसी भी आस्तिकसाधुने इस शास्त्रीयरिवाजमें विरोध प्रदर्शित नहीं किया है इससे बेचरदासको खुश होना चाहिये था परन्तु खुश होने के बदले ' आ शरुआत माटे जोखमदार अने ज्वाबदार साधुवर्ग छे के जेओ पोतानी अनुकूलतानी खातर शास्त्राना नियमो तरफ तद्दन आंख मीचामणी करता हता ' ऐसा कह कर रोता क्यों है ?
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बेचरदास ! जरा विचार तो करना था कि - परमात्माको भाभूषण चढ़े उसमें साधुओं को अनुकूलता किस बात की ? तुम्हारे इस बेवकूफी भरे हुए कथनसे तो वह कहावत याद आती है किबारह वर्ष काशी में रहकर भी गधा आखिर गधा ही रहा '
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