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( ८९) लिए नवाङ्गोटीकाकार श्रीअभयदेवसरि महाराजने भी इस पाठकी टीकामें लिखा है कि-' वस्त्राणां गन्धानां चूर्णानामाभरणानां चाऽऽरोपणं करोति स्म' अर्थात् उस द्रौपदीने भगवानकी मूर्ति पर वस गन्ध चूर्ण आभूषण आदि चढ़ाये । इन पाठोंसे साफ जाहीर है कि आभूपण चढ़ानेका शिवान कोइ मुनियोंका चलया हुआ नहीं किन्तु प्रमु, महावीर स्वामके मुखसे फरमाया हुआ है। परन्तु भाग्यहीन चरदासको मिथ्यात्वमादिराके नशेमें ज्ञान नहीं रहा, इसलिये उसकी समझमें नहीं आता तो इससे कुछ यह रिवाज मुनियोंका चलाया हुवा साबित नहीं होता। अगर उसने सूत्रग्रन्थोंको देखे होते तो ऐसा कभी नहीं कहता, अगर देखा भी होगा तो मिथ्यात्वके नशेमें चकचूर होनेसे यहां पर ( जहां भगवान्को आभूषण चढ़ानेका अधिकार है) आकर उसकी आंखे चुंधिया गई होंगी। अधिकार वगैर सूत्र पढ़नेसे तो उसकी आंखे चुंधिया ( मीच ) ही जानी थी परन्तु देखो जब जैनन्यायग्रन्थ प्रमाणनयतत्वालोकाऽलंकार पढ़ता था उस वक्त भी उसकी आखें चुंधिया जानी चाहिये । अन्यथा श्रीवादिदेवसरि महाराज कि जिन्होंने चौरासीवादिओंको जितने वाले दिगम्बर कुमुदचन्द्रका सिद्धराजजयसिंहकी सभामे पराजय किया है उनके बनाए हुए प्रमाणनयतत्वालोकाऽलङ्कारके ग्यारहवें पृष्ठके पच्चीसवें सूत्रसें भी परमात्माकी मूर्तिको आभूषण चढ़ानेका रिवाज प्राचीन सिद्ध होता है । . " यथा-पश्यं
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