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(२६) चव्यालिसग्रंथके . कर्त्ता परमप्रभावक-याकिनीमहत्तरासूनु-श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज फ़रमाते हैं-तद्यथा
" न हु देवाण वि दव्वं, संगविमुक्काण जुज्जए किमवि ।
नियसेवगबुद्धिए, कप्पियं देवदव्वं, तं ९०।"
भावार्थ-वादी प्रश्न करता है कि सर्वसङ्ग विमुक्त वीतराग देवका द्रव्य नहीं होसकता ! आचार्य उत्तर देते हैं कि यद्यपि वीतराग देवको द्रव्यसे कुछ सम्बंध नहींहै तथापि उनके सेवक भक्ति के प्रेममें मग्न होकर जो आभूषणादि चढ़ाते हैं वे सेवककी कल्पनासे देवद्रव्यकी गणनामें कहेजातेहैं। इस विषयकी पुष्टिमें फिर हरिभद्रसूरि महाराज फ़रमाते हैं कि
" किज्जइ पूआ णिचं, बुच्चिज्जइ मे कया जिणींदाणं ।।
पूआ तहेव देवाण, दवमिइ लोअजण भासा. ९२।" भावार्थ-प्रभुकी पूजा नित्य कीजातीहै और करनेवाला कहताहै कि मैंने जिनप्रभुकी पूजाकी । पर इससे जिनेश्वर भगवान्को सरागताका प्रसङ्ग नहीं आता । इसी तरह जिनदेव भगवान्की भक्तिके निमित्तसे कल्पित किया हुवा द्रव्य लोकभाषा में देवद्रव्य कहाजाताहै । परन्तु उससे वीतराग देवको सरागता का प्रसंग नहीं आता ।
तटस्थ आहाहा ! ये तो बहुत अच्छी गाथायें सुनाई जब हरिभद्रसूरि महाराजजैसे परमप्रभावक आचार्यके रचे हुए संबोधप्रकरणमें यह बात आ चुकीकि सेवकके कल्पित द्रव्यसे देवमें सरागता नहीं सिद्ध होती तो फिर बेचरदासके बकवादको कौन सच्चा
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