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(१०९) महात्माके बनाए हुए ग्रन्थका प्रमाण नहीं दिया है कि देखो! फलाने ग्रन्थम सुपने उतारनेका निषेध किया है, अथवा अमुक आगममें मनाई की है और इस विषयका यह पाठ है। इत्यादि यानी प्रमाणकी गन्ध भी वेचरदासके भाषगमें नहीं है और केवल निरा बकवाद ही किया है कि यह रूढि पापकी है। एक धर्मक्रियाको बगैर शास्त्रके अक्षरोंके देखे पापक्रिया कहनेसे प्रथम जिव्हाके. सहसस्रः टुकडे होजाएं तो अच्छे हैं, परन्तु उस जिव्हासे ऐसे शब्द निकलने अच्छे नहीं क्योंकि ऐसे अक्षर बोलनेसे भव भवके लिये जिव्हाका छेदन भेदन सहना पड़ेगा। इससे एक ही बार होना बेहेतर है। बेचरदासके पाप रूढि कहनेसे स्वप्न उतारनकी रूढ़ि पापरूढ़ि नहीं हो सकती । जैसे वेश्या सतीत्वधर्मको घोरपापमय बताए और अपने व्यभिचारको धर्मरूढ़ि कहे तो क्या उसका वाक्य सत्य हो जायगा ? कदापि नहीं। बस इसी तरहसे बेचरदासके वाक्यको भी समझ लेना चाहिये । क्योंकि जैसे परमकृपालु प्रभुकी मूर्ति प्रभुगुणोंके स्मरणमें कारण होनेसे नाना प्रकारके आभूषणादि चढ़ाकर रथमहोत्सवादि द्वारा पूजी जाती है, और यह रूढि पुण्योपार्जनका हेतु है सो बात शास्त्र सिद्ध है। इसी तरह प्रभुके गर्भ में उत्पन्न होनेके समय उनकी माता जिन स्वोंको दखती है उन स्वप्नोंसे भी अपनेको प्रमुगुणका स्मरण होता है जिस प्रकारसे प्रभुकी मूर्ति प्रमुगुणस्मरणमें कारण होनेसे नानाप्रकारके आभूषण, चंदन, अक्षत नैवेद्यादिसे पूजी जाती है, और
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