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मतलब यह है कि चैत्य ( प्रभुमूर्ति ) की अग्रपूजा के लिये
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स्वर्णजवके साथिये सुवर्णका लाभ जिस
श्रेणिक महाराज हमेशां तीनों संध्यामें करते थे. अब विचार करो कि हमेशा इतने मंदिरमें होताथा क्या उस मंदिर में देवद्रव्य जमा नहीं हो कोई बुद्धिमान मान सकता है ? देखिये ! इसी विषयका पाठ पूर्वधर कृतआवश्यकचूर्णिके प्रथम सामायिकाध्ययनमें भी आता है ।
तथा च तत्पाठः- “ सो य सेणियस्स अट्ठसतं सोवणियाण जवाण करेई अचणिता निमित्तं तं परिवाड़िए सेणिओ कारेइ तिसंझं " इस पाठका अर्थ ऊपर मुजब है | इसी तरह श्री जीवाभिगमसूत्र में विजयपोलिया के अधिकार में ( छापा पृ० ६०९ में ) लिखा है कि
' से विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अनेहिय बहुहिं वाणमंतरेहिं देवेहि देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सब्बडीए सब्वजुइए निग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता सिद्धाययणमणुष्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ अणुपप्पविसित्ता जेणेव देवच्छन्दए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता आलोए जिणपड़िमाणं पणामं करेइ, पणामं करिता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिव्हित्ता जिणपड़िमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति, लोमस्थपणं पमज्जित्ता सुरभिणारा गंधोदरण
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