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________________ कल्पतां और साधुओंको कल्पता है । इसी तरह दशाश्रुतस्कंधके अष्टमाध्ययन श्री कल्पसूत्रकी,समाचारीमें भी ऐसा पाठ आता है 'वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पई निग्गंथाणं वा निगंथीण वा जाव उवस्सयाओ सत्तघरंतरं संखडिं' इत्यादि । भावार्थ-चौमासा रहे हुए मुनियोंको उपाश्रयसे लेकर सात घरों तकका आहार लेना नहीं कल्पता है-देखो इन मूल पाठोंसे भी नगरमें रहना सिद्ध हुआ । क्योंकि जङ्गलोंमें ही रहना होता तो 'पासके सात घर छोड़ने ' ऐसा कैसे लिखते । बस इसी तरहके अनेक पाठ नगरमें रहनेके प्रमाणरूप हैं। परन्तु ग्रन्थगौरवके भयसे यहां पर नहीं लिखे जाते । इसके बाद 'मारे तमने फरी जणावी देवं जोइये' यहांसे लेकर 'प्रभु वीतराग होवाथी तेओने तेनी जरूर पण होती नथी' वहांतकका खण्डन प्रथम किये हुए खण्डनसे ही हो चुका है. क्योंकि उस लेखमें बेचरदासका अभिप्राय यह है कि देवद्रव्यशब्द आगमोंमें नहीं है और वीतरागप्रभुका द्रव्यसे कुछ संबन्ध भी नहीं है, और न भगवान् कमाने गये थे । इन सब बातोंका खण्डन विस्तार हो चुकाहै। अर्थात् मूल आगमादि पञ्चाङ्गीप्रमाणसे देवद्रव्यको सिद्धकर दिखाया है । और वीतरागके साथ द्रव्यके संबन्धके विषयमें भी विवेचन कर चुके हैं जिससे फिर खण्डन करना पिष्टपेषण जैसा हो जाता है । हां, उस लेखमेंसे इस बातका खण्डन अवश्य होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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