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बनाये हैं यह भी एक इसका दारुण मृषावाद है. क्योंकि अगर शिथिलाचारि अपने स्वार्थपोषण करनेके लिये ग्रन्थ बनाते तो उसमें विषयोंका ही महात्म्य गाया जाता। जैसे तात्रिकशास्त्रों में गाया गया है, और लिखते कि- साधुओंको घोड़े गाड़ीमें बैठना चाहिये. स्त्रियों के साथ प्रेमसे हिलमिलकर रहना चाहिये, फल फूल मेवे मिठाई आदि जो कुछ मिले भक्ष्याभक्ष्यका विचार किये वगैर खालेने, चाहिये '-परन्तु ऐसे विषयपोषकवाक्योंकी जैनग्रन्थोंमें गन्धभी नहीं है । अब विचार करना चाहिये कि शिथिलाचारियोंको
और कोई विषयपोषकपदार्थका निरूपण करना नहीं सूझा, जो एक देवद्रव्य शब्दको पकड़ लिया । और फिर उसके नुकसानमें पाप बतलाया जिससे स्वार्थ पोषक मनोरथ भी सिद्ध नहीं हो कसता, बतलाइए अब ऐसे कथन करनेवालेको अक्लका दुश्मन कहना या मूखौंका सरदार कहना चाहिये या पशु कहना चाहिये, या धर्मादेका अन्न खाकर धर्मकाही नाश करनेसे धर्मद्रोही कहना चाहिये? जिसने यह भी नहीं विचार किया कि अगर प्राचीन मुनियोंको शास्त्रविरुद्ध बातें अपने शिथिलाचारको चलाने के लिये निकालनीही थी तो फिर मूल आगमों में स्थान स्थान पर ऐसे ही विचारके पाठ डालनेमें उन्हें क्या आलस थी. जो ऐसा नहीं किया । इससे साबित होता है कि कर्मसंयोगसे कितनेक प्राचीनमुनि शिथिल हो गये थे
और वे चैत्यवासी कहलाते थे तथापि श्रद्धासे भ्रष्ट नहीं होनेसे उन्होंने आगमविरुद्ध शास्त्र नहीं रचे और आगम पाठ नहीं बिगाड़े।
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