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(२३) देवरूप जो भगवान्की मूर्ति है, उसको आभूषणादि चढ़ाये जाते हैं वे सब देवद्रव्यके नामसे कहे जाते हैं, इससे भगवान्की वीतरागता या कषायमुक्ततामें क्या विरोध आया ? हां, यदि यह मानते हों कि देव यानी तीर्थकरप्रभुका सञ्चितकियाहुआ या स्वसत्तामें रक्खा हुआ जो द्रव्य हो उसको देवव्य कहतेहैं तब तो उनकी वीतरागतामें फ़रक आता, और " रागद्वेषविनाना प्रभुनुं द्रव्य शी रीते संभवी शके " ऐसा तुम्हारा कहना सत्य होता, पर ऐसा तो किसीभी जैनग्रंथमें पाठ नहीं है, फिर यह विकल्प क्यों उठाया ? अस्तु, हमको तुम्हारे कथनपर जितना खेद है उसंस भी अधिक तुम्हारे कथनका अनुमोदन करनेवाले मूर्खतांत्रियों पर है। क्योंकि तुमने तो वगैर अधिकारक सूत्र पढ़े, जिससे शास्त्रीयनियमानुसार तुम्हारी बुद्धिं तो बिगड़नीही चाहिए थी परन्तु तुम्हारे कथन के अनुमोदन करनेवाले तंत्रिआदियोंकी बुद्धि भी बिगड गई ! उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि जो वीतरागदेवका द्रव्य शब्दसे संबंध नहीं माने तो फिर वीतरागदेवका मन्दिरशब्दसेभी सम्बंध क्यों माना जाय ? इससे तो जिनमन्दिरका ही अभाव हो जायगा । मतलब कि तन्त्रियोंकी तरह मूर्ख वनकर ऐसे नास्तिकपत्र पाठक, कितनेक आस्तिकजन कभी इस बातको मान लें कि 'वीतरागप्रभुका द्रव्यके साथ सम्बंध न होनेसे देवद्रव्य नहीं होसकता', तब फिर बेचरदासजैसे नास्तिक कह देंगे कि " जिनमन्दिरशब्दभी वास्तवमें नहीं होसकता,
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