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________________ ( ६७ ) होना सिद्ध हुआ । तब बेचरदासका भाषण देवद्रव्यके उड़ाने में ऐसा निष्फल हुआ कि जैसे नपुंसक पुत्रप्रसवकी इच्छामें हतोत्साह बनता है । व्यवहारभाष्यमें लिखा है कि , पुप्फाव किण्णमंडलियावलियाउवस्सया भवे तिविहा ' | इत्यादि ॥ व्याख्या - कचिद् ग्रामे नगरे वा साधवः पृथगुपाश्रये स्थिताः ते च उपाश्रयास्त्रिविधा भवेयुः - 6 पुष्पावकीर्णका मण्डलिकाबद्धा आवलिकास्थिताः। इत्यादि । भावार्थ - उपाश्रय तीन प्रकारके होते हैं, पुष्पावकीर्ण, माण्डलिक और आवलिकाबद्ध | किसी गाम या नगरमें साधु लोग किसी जुदेजुदे उपाश्रय में ठहरे हों x x x x x इस विषयका बड़ा पाठ है । इससे भी साधुओं का शहरमें रहना साबित होता है । तटस्थ — आ ! हा ! हा ! आपने बहुत प्राचीन सूत्र ग्रन्थोंके पाठ दिये जिनसे साफ सिद्ध होगया कि बेचरदासके वाक्य असत्यता से कूट कूट कर भरे हुए हैं । इसलिये सर्वथा अनुपादेय हैं । तथा अपने को तो पञ्चाङ्गी सर्वप्रकारसे मान्य है । क्योंकि आपने व्यवहारभाष्यकी गाथा लिखी सो पूर्वघर कृत है तथा निशीथचूर्णिका प्रमाण दिया सो पूर्वघर महत्तर जिनदासगणि कृत हैं । अतः सकलश्वेताम्बरों को मान्य है । परन्तु बेचरदास जैसे दुराग्रहियोंकी तरफसे प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होगा कि ' साधुको नगर में रहनेका पाठ मूलमें बतलाइए | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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