________________
(७१) पर उल्लेख किया जावे तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन जाय । औरः
दृष्टान्त-महावीर प्रभुसे लेकर जो जो बड़े बड़े आचार्य हुए हैं उन्होंके रचे हुए हैं न कि सामान्य पुरुषके । तथा चौदह से चुम्मालीस ग्रन्थक कर्ता श्री हरिभद्रसूरि महाराजके वचनको जैनसमाज प्रभुवचनवत् मानता है। वे संबोधप्रकरणमें फरमाते
"जिणदबलेसजणियं, ठाणं जिणदवभोयणं सव्वं । साहूहिं चइयव्वं, जइ तम्मि वसिज पच्छित्तं ॥ १०८ ॥"
भावार्थ-जिनद्रव्य (देवद्रव्य) के लेश मात्रसे भी उत्पन्न हुए स्थानको और सर्वप्रकारके देवद्रव्यसे बने हुए भोजनको साधु लोगोंको छोड़ देना चाहिये.क्योंकि ऐसे स्थानमें रहनेसे और देवद्रव्यसे भोजन करनेसे प्रायश्चित लगता है. ॥१०८॥ अब पाठकजन स्वयं विचार करें कि लोकोत्तर ज्ञानदर्शन गुणोंकी वृद्धि करने वाले और समस्त जनोंको सुधारनेवाले साधुजन भी देंवद्रव्य लेशसे भी मिश्रित द्रव्यसे बने हुए मकानमें धर्मादिककी वृद्धि के लिये भी निवास न करें तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि- देवद्रव्य किसी भी सङ्घक उपयोगी काममें लग सकता है. भला साधु जैसे उपकारवृत्ति और त्यागवृत्तिवालोंकोभी देवद्रव्यके लेशसे बने मकानमें रहनेकी मनाई करते हैं तो फिर मिथ्याज्ञानकी केलवणी (शिक्षा) अदि कार्य में उस देवद्रव्यको कैसे लगा सकें ? मतलब-जिस केल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org