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(१०६) चौथी नरकके उद्देससे वाक्य जो उसने कहा था उस कथनमें भी वह झूठा सिद्ध हुआ है. क्यों कि किसी भी जैनग्रन्थके प्रमाणसे इंटका चौर चौथीनरकमें जाय इस जिकरको सावित नहीं कर सका है । कोईभी बात हो मगर जबतक उसका प्रणेता सिद्ध न हो वहां तक — पुरुषप्रमाणे वचनप्रमाणं' इस न्यायसे उस बातकी सिद्धि के लिये कॉलमभरने मुझे पसंद नहीं है, इस लिये कोईभी बात लिखनी हो तो प्रथम उस बातके कथन करने वाले पुरुषका पब्लिकको परिचय अवश्य कराना चाहिये । तबही खण्डनकर्ताको खण्डन करनेकी अभिरुचि उत्पन्न होती है बाकी जैनमन्तव्यसे विरुद्धबात सामान्यरीतिसे कथनकी हो तो भी उसका खण्डन करना आवश्यक है। इसके बाद बेचरदासका कर्मसिद्धांतको भी जानता हो ऐसा दौंग उसमें जीवरामभट्टपना सिद्ध करता है और इस कहावतको चरितार्थ करता है कि 'कुछ आवे न जावे चतुर कहावे ' अगर बेचरदासको कर्मसिद्धांतका जरा भी ज्ञान होता तो बाह्यसामग्रीको अल्पतामें नरकगति कैसे हो सके ऐसा विकल्प कदापि प्रतिपादन नहीं करता। क्योंकि उसने दृष्टांत दिया उसमें तो एक ईंटकी भी बाह्य सामग्री है, परन्तु, प्रसन्नचंद्रराजर्षिको कौनसी बाह्यसामग्रीका योगथा जिसको श्रेणिक महारानके किये हुए प्रश्नके उत्तर में प्रभु महावीर स्वामीने सातमी नरकम जानेके योग्य कहाथा। तन्दुलियेमच्छको बाह्यसामग्रीका लेशभी योग नहीं होने पर भी उसका सातवी नरकमें गमन होता है, इससे साबि
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