SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१ घुस जाते हैं. मतलब उसके निषेध की हुई बातकी विधि जिस आगम शास्त्र में आतीहो उसी शास्त्रसे किनाराकसी करते हैं और *यत्र वैयाकरणास्तत्र नैयायिकाः यत्र नैयायिकास्तत्र वैयाकरणा, यत्र नोभये तत्र चोभये यत्र चोभये तत्र नोभये " इस कहावतको चरितार्थ करते हैं । जैसे थोड़े ही दिन पेश्तर भावनगर जैनधर्मप्रसारके सभामें बेचरदासने अपने किये हुए गुनाहंको नहीं स्वीकार करनेके लिये कहा था कि 'मैं ग्यारह अङ्गको मानता हूं । इस लिये आप कृपा करके ग्यारह अङ्गके अंदरसे किसी एकाद अङ्गसे भी देवद्रव्यको साबित कर देवें कि जिससे नास्तिकोंका मुंह बंद होजाए । समालोचक – देखिये ग्यारह अङ्गमेंसे श्रीज्ञातासूत्रनामके छठ्ठे अङ्गके सोलहवें अध्ययन में श्रीमती सती द्रौपदीजीके अधिकारमें लिखा है कि—— - “ तरणं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मज्जणघरमणुष्पविसर अणुष्पवि * इसका यह मतलब है कि धूतजन जहां वैयाकरण यानि व्याकरणके जाननेवाले हो वहाँ पर हम नैयायिक हैं ऐसा कह देते हैं । और जहां नयायिक होवे वहाँ पर हम व्याकरणक वेत्ता हैं ऐसा जाहेर करते हैं । और जहाँ दोनो विषयके अनभिज्ञ होवे वहां पर हम दोनों विषयक विज्ञ हैं ऐसा बतलाते हैं, और जहां पर दोनों विएसके वेता विद्यमान हो वहां पर उन्हें हारकर कहना पडता दे कि वारा हम कुछभी नहीं जानते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy