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________________ (५२) सित्ता न्हाया कयबालिकम्मा कयकोउयमंगलपायाच्छित्ता सुद्धपावेसाइं वत्थाई परिहियाई मज्जणघराउ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता जिणघरमणुपविसइ अणुपविसित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ करित्ता लोमहत्थगं पमज्जइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डाइ' ॥ इत्यादि । सारांश-उसवक्त वह राजवरकन्या द्रौपदी जहां मजनघर ( स्नानवर ) है वहां आई और स्नानघरमें प्रवेशकिया. स्नान किया. स्नानकरके धरमंदिरकी पूजाकी (द्रौपदीके इस अधिकारसे ' ग्रामके बाहर ही मन्दिर थे' वेचरदासका यह कहना सर्वथा मिथ्या सिद्ध होता है) बादमें अपमंगल और दुःस्वप्नकी घातक कितनीक क्रियायें करके जिनघरमें आई । और वहां आकर मयूरपिच्छीसे मूर्तिकी पडिलेहणाकरके सूर्याभदेवताकी तरह पूजा की. यहां 'सूर्याभदेवताकी तरह ' इसका यह मतलब है कि सूर्याभदेवने जैसे प्रभुको वस्त्र आभूषण वगैरे चढाये इसी तरह द्रौपदीनेभी चढ़ाये अर्थात् सब क्रियाका अनुकरण किया। इस पाठकी टीकामें नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि महाराज लिखते हैं कि'गंधानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स्म' अर्थात् द्रौपदीने गंधचूर्ण वस्त्र और आभूषणोंका आरोपण किया. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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