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(८४) पीछेसे ' चैत्यशब्दनो शब्दार्थ ए छे के ' ऐसा कह कर फिर जाता है। यही इसकी मूर्खतांकी निशानी है और जो उसने मृत-महन्तोकी यादगिरीके लिये उनके संस्कार या मरणस्थानमें बनाए हुए स्मारकको चैत्यशब्दसे जाहिर किया है यह भी सिवाय प्रमाणशून्य इसकी मनोकल्पनाके शास्त्रीयबात नहीं है। क्योंकि किसी भी ग्रंथसे बेचरदासकी मनः कल्पना सिद्ध हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। और प्रमाण वगैरेकी बातको मानना अक्लमंदोंका काम नहीं । इसलिये समस्तजैनसको बेचरदासकी यह असत्यकल्पना विषतुल्य त्याग करने योग्य है । क्योंकि जैनग्रन्थोमें स्थान स्थान पर जहां चैत्यका अधिकार आता है वहां कहीं भी ऐसा नहीं लिखा कि-यादगिरीके लिये जो स्मारक बनाए जाते हैं उन्हें चैत्य कहते हैं। इसलिये स्मारकको ही चैत्य कहना बड़ी भारी भूल हैं स्मारक तो स्मारक ही कहे जाएंगे और वह प्रायः जंगलोंमें ही होते हैं क्योंकि-मृतमहंत जनोंका संस्कार जङ्गलोंमेही होता है । परन्तु वह मूलरूप यादगिरिके लिये ऐसा बनता है बाकीतो उसके भक्तजन प्रतिग्राम प्रतिनगर उसकी यादगिरीमें स्थान बनाते हैं। जैसे थोड़े समय पर श्रीमद्विजयानन्दसरि महाराज (प्रसिद्ध नाम श्रीमद् आत्मारामजी महाराज) की यादगिरीमें जहां उन्होंका अमिसंस्कार हुवा था उसी स्थल पर गामकी बाहर हज़ारों रूपैये खर्च करके भक्तिके निमित्त पञ्जाब गुजरानवालानिवासियोंने एक बड़ा भारी आलिशान आनन्दभवन बनाया है। जिसके
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