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________________ (८७) प्रथमकी कल्पना शास्त्रप्रमाण तथा इतिहासप्रमाणसे विरुद्ध है। क्योंकि इन दोनों प्रमाणोंसे प्राचीनकालमें बड़े बड़े धनाढ्य सिद्ध होते हैं। अगर शास्त्रकी आज्ञा नहीं थी ऐसा कहो तो तुम शास्त्र के अनभिज्ञ ( अनजान ) सिद्ध होतही देखो श्रीहरिभद्रसूरि महाराजादि के किए हुए पञ्चाशकादि ग्रंथोंके प्रमाण जिनको में प्रथम लिख चुकाहूं इस लिये यहां पर पुनः नहीं लिखे जाते उन्हींकोदेखलेना चाहिए : बेचरदास ! मैं तुमको हितशिक्षा देता हूं कि ऐसा मत करो जो अपनेको शास्त्रका बोध नहीं और कह देनाकि प्रथमके समयमें यह नहीं था, वह नहीं था, अमुक नहीं था, क्योंकि ऐसे मृषावादसे तुम्हारी गति बिगड़ जानेका हमको भय है, इस लिये सत्यमार्ग पर आकर असत्य कल्पनाओंका त्याग करो। बादमें तुम्हारा यह कहना कि-' मूलमां पण एवो कोई ठेकाणे उपदेश नथी' इत्यादि । तो क्या तुम श्वेताम्बरजैनसमाजको केवल मूल मानने वालाही मानते हो? अगर नहीं तो फिर क्या तुम धोखा देने के लिये ' मूलमा मूलमां' ऐसा पुकार करते हो 'पञ्चाङ्गीके मानने वालोंके पास मूलको आगे करना इसीसे तुम्हारी बुद्धिका मूल पाया जाता है । अगर जैनसमाज तुम्हारी बातको मानकर मूलमें हो उतनी ही वाने माने तो-वीसविहारमानतीर्थङ्करदेवोंकों भी मानना छोड दें। क्योंकि मूलमें इनका जिकर ही नहीं है । ऐसी एक बात नहीं अनेक बातें हैं जैसे कि-सामायिक-प्रतिक्रमण-पोषध आदिकी विधि भी मूलमें कहीं नहीं है । तो क्या इन सब बातों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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