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________________ (७३) ऐसे वचन हो सकते हैं ! कदापि नहीं । इससे भी समझ लो कि बेचरदासने प्रमाणताको जलाऽञ्जली देदी है, और अशुभकर्मोसे अप्रमाणिकताके पुञ्जको खरीद रक्खा है। इस लिये बेचरदास चाहे अपने कथनको छाती ठोककर कहे या माथाकूट कर कहे उसका वनन कदापि मान्य नहीं हो सकता । और हम इस विषयमें प्रथमही सिद्धान्तका अभिप्राय लिख आए हैं कि देवद्रव्य केवल देवके काममें ही लग सकता है. इस लिये नरकतिर्यंचगतिके दुःखोंसे डर हो तो किसीकोभी वेचरदासके वचनको सत्य नहीं मानना चाहिये. देखिए ! श्रीहरिभद्र सूरि. महाराज देवद्रव्यको खानेवाले की कैसी दुर्दशा लिखते है-यतः-- " चेइयदव्यं साहारणं च भक्खे विमूढमणसावि । परिभमइ तिरिय जोणीसु, अन्नाणित्तं सया लहई ॥ १०३॥" ___ अर्थ-चैत्यद्रव्य और साधारणद्रव्यको जो अज्ञानभावसे भी भक्षण करना है सो तिर्यञ्चयोनीमें भ्रमण करता है और हमेशा अज्ञानताको प्राप्त करता है ॥ १०३ ।। अब विचार कीजिए कि देवद्रव्यकी वस्तुका अज्ञानतासे भी उपभोग करनेसे , महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं तो फिर जानकर ऐसे पाप करनेवाले यानी देवद्रव्यके भक्षण करनेवाले ) कैसी अधोगतके पात्र बन सकते हैं । फिर देखिए सूरि महारान फरमाते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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