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"प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं, गुरुशाक्षीधृतं व्रतम् ।
व्रतभंगो हि दुःखाय, प्राणिन् ! जन्मनि जन्मनि". बस इससे साबित होता हैकि वेचरदासका पूर्वोक्त कथन शास्त्रआधार रहितही नहीं किन्तु बकवादरूप है, क्योंकि अपने त्यागके मोर सम्यक्त्त्वके सिद्धांतकोभी बदलनेकी आज्ञा सिद्धान्त कदापि नहीं देसकते । अगर बेचरदासके कथनपर जैनसमान चले तब तो सारा नैनसिद्धान्तही पलट जाय, क्या अनेकांतशैलीभी एकान्त रूपमें बदल सकती है ? कहनाही होगाकि कदापि नहीं । अगर हमारे पाठक कहेंगेकि-ऐसाही है तो फिर बेचरदासने ऐसा क्यों कहा तो उसके जवाबमें मालूमहोकि बेचरदासने अधिकार बगैर शास्त्र पढ़ेहैं, इससे उसकी बुद्धि ऐसी तो भ्रष्टहो गई हैकि इसको मालूम नहीं पड़ताकि, ' अमुक बातको अमुक रीतिसे कथन करनेमें जैनशैली रहती हैं या लुप्त हो जाती है, यही कारण है कि इसके भाषणसे सारे जैनसमाजमें खलभलाट मच गया है । इसके बाद बेचरदासका यह कहनाकि, 'प्रभु महावीर स्वामीनभी क्रिया उद्धार किया था ' ऐसा है जैसे बेचरदास कहे कि, 'मेरे शिरपर सींग है या मेरे मुंहमें जीभ नहीं है या मेरी माता बांझणी है, जैसे इन शब्दों में परस्पर विरोध है ऐसेही तीर्थकर प्रभु और क्रिया उद्धार शब्दमें परस्पर विरोध है। जो साधुलोग अपने आचरणोंसे ढीले हो गये हों उनमेंसे कितनेक उत्तम व्यक्ति फिर उत्कृष्टाचरणों को धारण करने लगे उसका नाम क्रिया उद्धार है। अब विचार करोंकि ऐसे अर्थ
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