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अपने जैनमन्थों में तो देवद्रव्य खानेवालेको अनन्त संसारी लिखा है, अगर शिथिल साधुओंने आहारादि उपाधिके लिये ग्रन्थ बनाये होते और उनमें देवद्रव्य शब्द दाखिल किया होता तो साथमें यह भी लिखा होता कि ' साधु देवको चढ़ाया हुवा माल खासकते हैं, पर श्रावक नहीं खासकते ' और देवद्रव्यके मालिक साधुही होते हैं । परन्तु जैनग्रन्थों में ऐसे लेखकी तो गंधभी नहीं है और खानेवालेको अत्यन्त दोषी माना है । इस बातको तुम खुदभी अपने भाषण में स्वीकार करते हो कि देवद्रव्यका नुकसान करने से महापाप होना लिखा है | बेचरदास ! तुमने आपही अपने पांव पर कुल्हाड़े मारने जैसा किया, क्योंकि आहारादिकी उपाधिके लिये देवद्रव्यकी प्रवृत्ति में शिथिल साधुओं को हेतु मानते हो और साथही देवद्रव्य के नुकसान से महापाप होता है ऐसा शिथिलाचारियोंका कथन जाहिर करतेहो जिससे तुम्हारे कथनसे ही तुम्हारा खण्डन हो जाता है । अगर आहारादिक खानेपीने के लोभसे जो देवद्रव्यका रिवाज कायम किया होता तो उसके भक्षणका अनन्तसंसारपरिभ्रमणरूप तथा नरक -- निगोदके अनन्तदुःखरूप जो फल वर्णन किया हैं सो कदापि नहीं करते । और फल वर्णन किया है तो फिर खाने के लिये देवद्रव्यशब्दको शास्त्रमें दाखिल किया ऐसा कैसे सिद्ध हो सकता है । इससे मालुम होता है कि बेचरदासका कथन पूर्ण मृषावादसे भराहुवा और परस्पर विरुद्धताको धारण करता है । पाठकजनों ! जरा विचार करो कि क्या ऐसा कभी बन सकता है जो तमाम साधु
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