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बेचरदास - ' आ शब्दो दाखल करवामां साधुओनो शुं - मतलब हशे ते बाबत तपासवानी मने जिज्ञासा थई अने तपास करतां जणायुं के ज्यारे विषमकाल शरू थयो अने आगमोमां सा
ओ माटे जे अति उच्च कोटीनो आचार अने त्याग वर्णव्यो हतो ते ज्यारे साधुओ माटे कालस्वभावथी पालवो अशक्य थई पडयो
ज्यारे साधुओए उद्यान अने जङ्गलोमांज रही आत्मामां मस्त रहेवानुं मांडी वाल्युं अने तेओ वस्तिमां आववा लाग्या अने आहारादिनी उपाधिने योगे तेओए श्रावकोनें, देवोने आ चढावबुं, आ पहेराववु. आ लटकाववुं. वगैरे मार्गे फक्त पोताना स्वार्थना संतोष माटे उपदेश्या. अने आ उपदेशना समर्थनमां केटलाएक साधुओए आ युगमां एवा संस्कृतग्रन्थो लखी नाख्या छे के जेमां देवद्रव्यने नुकसान करवामां महापाप जणाववामां आव्युं छे " .
समालोचक- पाठकजनों ! अब जरा विचार कर देखिये ! कि बेचरदासने कितनी असत्य बातें कथन की हैं ? काल स्वभावसे साधुओं से कठिन आचार नहीं पलसका तब शहर में रहने लगे और आहारादिकी उपाधिके योगसे देवोंको यह चढ़ाना. यह पहिराना. इत्यादि मार्ग अपने स्वार्थ के खातिर प्ररूपे हैं - बेचरदास ! तुहारी बुद्धि क्या पत्थर हो गई है, जो जराभी विचारको अवकाश नहीं मिलता. अगर साधु लोगोंको अपना स्वार्थही पोषण करना होता तो 'देवद्रव्य खाने में महा पाप है ' यह वाक्य कैसे लिखते ? क्योंकि स्वयं खानेवाला खानेका निषेध कदापि नहीं करता, परन्तु
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