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________________ ( १२८ ) हो गई है उसकी क्षमा करेंगे ! में अवश्य गीतार्थगुरुओंकी पास विषयका प्रायश्चित लेकर अपनी आत्माकी शुद्धि करना चाहता हूं | ऐसा उसके दिलमें नरक निगोदोंके भयंकर दुःखोंसे डरकर विचार उत्पन्न हो और अपना कल्याण करे, मात्र इस पवित्र अभिप्रायसे यह लेख लिखने में आया है । मेरा बेचरदास के साथ लेशमात्र भी द्वेषभाव नहीं है । मात्र कोई रीति से भी उसकी आत्माका भला हो और मिध्याजालमें न फंसे । यद्यपि जनरुचि मिष्टवाक्यश्रवणमें प्रवृत्ति होती है तथापि उसके बहुत अंशमें हित नहीं रहता, और जो हितवाक्य होते हैं उनमें यद्यपि कटुकता होती है तथापि भावी शुभोदयका कारण है । जैसे ज्वरवालेको मिश्रीका शरद जल मिष्ट लगता है तथापि रोगवृद्धिका कारण होनेसे अनिष्ट है, और क्वाथ ( कावा ) कटुक लगता है तथापि ज्वररोगको दूर करनेमें कारण होनेसे हितकर्त्ता माना जाता है । बस इसी तरह मेरे इस लेखको कटुकक्काथवत् समझकर पाठक जन तथा बेचरदास अपने हितके लिये पान करेंगे । और पान करके मेरे इस परिश्रमको सफल करेंगे ऐसी आशा रखता हूं । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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