SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२०) कितनेक नास्तिकोंने तो होटलोंमें जा जा कर अभक्ष्यभोजन और अपेयपानकरके उन्मत्तता प्राप्त की और उस उन्मत्तावस्था अभिमानसहित बोल उठतेहैं कि, " साधु लोक हमारे जूते उठाने लायक भी नहींहैं " मगर उन मिथ्याभिमानियोंको मालूम नहीं कि अनेकजातके अभक्ष्य भक्षणकरनेसे और उत्सूत्रकी प्ररूपणासे उनका ( मिथ्याभिमानियोंका ) मुंह ऐसा सावद्य बनगया है कि साधुलोक उनके जूते उठानेके लिए तो क्या उनके मुहमें पेशाब या बडी नीतिकरनेके लीये भी नहीं जासकते । मतलब कि वे लोक अपनी शक्ति और त्यागवृत्तिका विचार किये बिनाही ज्यों दिलमें आताहै त्योंही बोलउठतेहैं । ऐसे नास्तिकमनुष्योंसे सावधान रहना चाहिए, नहीं तो स्वयम् डूबते मनुष्य औरको ले डूबतेहैं इसी तरह स्वयम् नरकगामीनास्तिक अन्यको भी नरकगामी बनादेताहै । यद्यपि प्रभुमहावीरकी असीमकृपासे उन लाखों नास्तिकोंकी संख्या एकत्र हो जाय तो भी हमारे एक आत्मप्रदेशकी श्रद्धाके असंख्यातवें भागको भी नहीं हिलासकती, अतः उन नास्तिकोंके मण्डलसें हमको हानि नहींहै पर हमारे बहुतसे भोले भ्राता कहीं नास्तिकोंके वचनरूप अंधेकूएंमें न गिर जाय इसलिए हमको चितौनी करनी पड़ी है । अगर हम जानते हुएभी चूप बैठ रहे तो हम गुनहगार ठहरतेहै । फारसीमभी कहा है कि " अगर बिनमके नाविना ओचास्त वगर खामोश विनसीनम गुनाहस्त" इसका भावार्थ यह है कि अगर कोई अंधेकूएंकी तरफ़ जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy