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________________ (९८) ससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावकको सूत्रपढ़नेका अधिकारही हीं है । फिरभी देखिए श्रीसूयगडांगसूत्रके नौवें अध्ययनमें लेखा है कि " गेहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा। ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं" भावार्थ-पुरुषोंमें आदेयनामकर्मवाले धीरपुरुष घरमें पूत्ररूप दीपकको नहीं देखते हुए चारित्रको धारण करते हैं परन्तु त्रज्ञानशून्य असंयत जीवितको नहीं चाहते हैं। तथा श्रीभगवतीसूत्रके दूसरे शतकके पांचवें उद्देशे में लिखा है कि " लठा गहियट्ठा पुच्छियहा अभिगयहा विणिच्छियहा” इस पाठसेभी श्रावकोंको सूत्रपढनेका अनधिकार साबित होता है । अन्यथा "गहियसुत्ता लध्धसुत्ता" अर्थात् ग्रहण किया है अर्थ जिसने इस पाठके स्थानमें प्रहण किया है सूत्र जिसने ऐसा पाठ श्रावकके विशेषण, आना चाहिये था । और पुच्छियठ्ठाके स्थान पर पुच्छियसुत्ता यानि पुछा है सूत्र जिसने ऐसा पाठ आना चाहिये था । परन्तु ऐसा पाठ नहीं है अतः सिद्ध हुआ कि श्रावक सूत्र न पढ़े । और देखिए, श्रीव्यवहारसूत्रके दशमें उद्देशे में लिखा है कि " तिवासपरियागस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारप्पकप्पे नामं अज्झयणे उद्दिस्सित्तए । पंचवासपरियागस्स समणस्स हप्पति दसाकप्पयवहारानामज्झयणे उद्दिसित्तए । अहवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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