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(१८) महात्माओं की मतिका शरण नहीं लिया उन भाग्यहीनोंको अज्ञानरूप गधेपर चढ़कर गुरुभक्तिरूपकर्णशून्य और विवेकरूपनाकरहित, मिथ्यात्वरूप मसीसे किये हुए काले मुखसे नरक और निगोदरूप कालेपानी अनन्तकालके लिए जाना पड़ताहै । अत एव बुद्धिमान् पुरुषोंको उचितहै कि नरकगति और तिर्यचगतिके भयङ्कर दुःखोंसे बचानेवाले सम्यक्त्वको प्राप्तकरके मिथ्यात्वको जलाञ्जली देदेवें, जिससे कर्मबंधका मुरूपहेतु मिथ्यात्वरूप स्कंभ टूट जानेसे संसारका प्राबल्य मन्द होजायगा । और उसी सम्यक्त्वके प्रभावसेही मिथ्यात्त्वहेतुके हटजानेसे अविरति कषाय और योगरूप हेतुओंका भी शनैः शनैः नाश हो जाता है, और किसी पुण्यात्माको सम्यक्त्व प्राप्त होनेसे एकदम ही नाश होजाता है। अतः संसारके अभावका असाधारण कारण ज्ञानिमहात्माओने मिथ्यात्वनाशक सम्यक्त्वको ही कहा है। इस लिए भवभीरु प्राणियों को सम्यक्त्वसे कदापि पतित नहीं होना चाहिए, और अपनेमें शास्त्रीयज्ञान हो सो सम्यक्त्वसे पतित होते हुए दूसरे मनुष्योंको बचाना चाहिए । इसविषयमें जैनधर्मप्रसारक सभाके तंत्री महाशयको अंतःकरणपूर्वक सहस्रशः धन्यवाद दिया जाता है कि उन्होंने वेचरदासको अपनी सभा में बुलाकर कितनेक भाषण सम्बंधी उपयोगी प्रश्न पूछकर उसके उत्तरसे ही जगत्को जाहिर करदिया कि बेचरदास झूठा है । ढूंढिये मूल बत्तीस सूत्र मानते हैं तो बेचरदास पूरे ग्यारह सूत्र भी नहीं मानता। जहां
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