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________________ कहां है ? यह बेचरदासको मूलआगमके किसी पाठसे दिखलाना चाहिये था। हां इतना कह सकते हैं कि-सांसारिक सुखकी लालसामें पड़ कर धर्मकरणीमें लगना सो चिन्तामणिको देकर पावभर सुवर्ण लेने जैसा है । परन्तु सुवर्ण जितना भी लाभ तो रहाने ? पापगमका सिद्धांत कहांसे आया ? और स्वप्न लेने में बेचरदासने जो सांसारिक लाभको हेतु बतालाया है वहभी कितनीक बेसमझ व्यक्तिओंके लिये समझना चाहिये, न कि तमाम जनसमाजके लिये ऐसा हो सकता है। इस तरह की भावना ( सांसारिक लाभकी इच्छाकी भावना ) तो कितनेक सामायिक प्रतिक्रमण प्रभु पूजन करने वालोंमें भी अज्ञानताके कारणसे हो जाती है, तो क्या उन सब धर्मक्रियाओंको भी त्याग देनी चाहिये ? कदापि नहीं। 'जूओं के डरसे कपड़े कभी नहीं फेंके जाते ' किन्तु जूएं दूर करनेका प्रयत्न किया जाता है । इसके बाद पालना वगेरेके रिवाजको भी बेचरदासने पसंद नहीं किया है यह भी उसके दुर्भाग्यका ही कारण समझना चाहिये क्यों कितीनज्ञानके धारी भगवानकी दृष्टि हमेशह बिना विनोदके निमित्तसे भी विनोदमें रहती है तथापि उनकी दृष्टिके सामने चंदोएं पर इन्द्र भक्तिके निमित्त श्री दामगंड लंबृसक लटकाता. हैं यह बात आवश्यकसूत्रतथा कल्पसूत्रसे प्रसिद्ध है। इसी तरह प्रभुकी भक्ति निमित्त पालना बनाकर अपना अहो भाग्यमानकर स्थापनाकी अपेक्षासे उस प्रभु पालनेकी दोरीको भक्तजन खींचते हैं। उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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