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तहवासमें फंसकर उसे खोदेते हैं और अनन्तकाल तक दुःखमय संसारमें ठोकरें खाया करते हैं । सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जानेके कारण नास्तिकलोक पढने लिखने बोलने आदिक जितनी क्रियाएं करते हैं वे सब तमस्तरण जैसी हैं, क्योंकि मिथ्यात्त्वकी करणी अंधकारमय होनेसे तमस्तरणके रूपकसे जूदी नहीं होसकती। तो भी खूबी यह है कि आप अंधेरा तैरते हुए भी " जलमें तैरते हैं" ऐसा मान बैठते हैं। और जो समक्त्वकी क्रिया वाले दरअसल संसार जलधि तैर रहे हैं, वे तमस्तरण करते मालूम पड़ते हैं । यही उन मिथ्यामतिमोहितोंकी जल्दी दुर्गतिमें जानेकी निशानी है। जैसे कोई कालकी सीमाको पहुंचाहुआ मनुष्य श्वेतवस्त्रको भी लाल देखता है, अथवा कमला-पीलिया रोगग्रसित श्वेतको भी पीत ही कहता है । इसीतरह आज कल कितनेक मिथ्यात्वमोहित मनुष्य जो सूत्रविहित शुद्धमार्ग है उसको तमस्तरण ( अंधेरा तेरना) बताते हैं और स्वकपोलकल्पित सूत्र विरुद्ध असत्यमार्ग है उसको जलतरण मानते हुए अपने मुंहसे मियां मिठू बनते हैं। उदाहरणार्थ देखिये कि संवत १९७५ वैशाख वदि ११ रविवारके जैन' पत्रमें बेचरदासनामक किसी वजकर्मी व्यक्तिने अनन्तसंसारबर्द्धक "तमस्तरण " शीर्षक एक कलेख लिखकर महावीरप्रभुके निर्वाण बाद दोसो बर्षके पीछेसे लेकर आजतक दशपूर्वधर श्रीवज्रस्वामी, तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता श्रीउमास्वाति महाराज, पन्नत्रणासूत्रकार श्रीश्यामाचार्य महाराज, विक्रमनृपप्रबोधक , श्रीसिद्धसेन दिवा
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