Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.12 101 नमो उवज्झायाणं.. हेमरभरती सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा-2 Wandlibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा का पुष्प : ४६ अमर भारती प्रवचन: उपाध्याय अमर मुनि . सम्पादन : शास्त्री विजय मुनि प्रकाशक : सन्मति-ज्ञानपीठ : आगरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुस्तक अमर भारती * प्रवचनकार उपाध्याय अमर मुनि सम्पादक शास्त्री विजय मुनि ** द्वितीय संस्करण सन् १६६१, दिसम्बर * प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा * मूल्य बीस रुपया मात्र * मुद्रक विकास प्रिंटर्स १६, सुरेश नगर, न्यू आगरा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पुरोवाक् अमर-भारती में, अमर-गुरु के अमृत-कल्प प्रवचनों का संकलन, संचयन एवं सम्पादन किया गया है । लघुकाय प्रवचन हैं, लेकिन गम्भीर, मधुर, रुचिर, सुन्दर हैं। भाव गहन हैं, भाषा प्राञ्जल है, शैली शैल-सरिता तुल्य है । दस-पन्द्रह मिनट में एक प्रवचन, आसानी से पढ़ा जा सकता है आज के व्यस्त जीवन में मनुष्य के पास अधिक समय भी कहाँ ? अर्थ-प्रधान इस युग में अधिकतर समय, अर्थ अजित करने में व्यतीत होता है, कुछ समय राजनीति में व्यय हो जाता है, विज्ञान का चमत्कार भी चित्त को विचलित कर देता है। संस्कृति से सुदर, साहित्य से पराङ मुख और कलाविकल जीवन के भार को मनुष्य किसी प्रकार ढोता चला जा रहा है। किधर जाना है ? कब जाना है ? क्यों जाना है ? समाधान इन प्रश्नों का मनुष्य के पास है, नहीं। जीवन में गति नजर आती है, यति कहीं दूर-दूर भी परिलक्षित नहीं होती। नदी का वेगवान् प्रवाह है, किनारा नहीं है। लघुकाय प्रवचनों में किनारा नजर आता हैं, लक्ष्य दीख रहा है, गति में विराम भी स्पष्ट हो रहा है। किधर जाना है, कब जाना है, क्यों जाना है ? इसका भी पता लग जाता है । यही उपलब्धि हैं, अमृत कल्प प्रवचनों की । लक्ष्य का पता लगा, कि मनुष्य का जीवन फलवान् बन जाता है। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में जो तेजस्, ओजस्, वर्चस् है, वह अन्यत्र कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता। वर्तमान युग के प्रज्ञा-महर्षि की दिव्य दृष्टि ने जिस सत्य का साक्षात्कार किया है, उसे अजर, अमर एवं अभय बना दिया है, जो भी पान करेगा, वह स्वयं भी अजर, अमर तथा अभय बन जाएगा। अमर-गुरु की वाणी का यह प्रभाव एवं प्रताप है, कि उनके अमृतमय वचनों का पान करने वाला व्यक्ति, अपनी जरा को जीत Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) कर, अजर, मृत्यु को जीतकर अमर, भय को जीतकर अभय हो जाता है । मनुष्य, मनुष्य न रहकर, वह कलापी तथा शिलापी बन जाता है । उपाध्याय श्रीजी के वरदहस्त की छाया में रहकर, शिष्य गुरु बन जाता है, गुरु भगवान् बन जाता है । अपने शिष्य को गुरु कलापी एवं शिलापी बना देता है । गुरु की कला को ग्रहण करने वाला कलापी होता है, गुरु की संकल्प - शिला को ग्रहण करने वाला शिलापी बन जाता है । मोतीकटरा जैन भवन, आगरा मनुज दुग्ध से दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं । किन्तु हलाहल इस जग का तो, शिव शंकर ही पीते हैं ।। विजय मुनि ५-१२-१६६१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय बोल अमर भारती, पूज्य गुरुदेव उपाध्याय अमर मुनिजी महाराज के प्रवचनों की पुस्तक है । तीन खण्डों में विभक्त है । सब मिलाकर इसमें तेतालीस प्रवचन उपनिबद्ध हैं । प्रवचन लघुकाय हैं, लेकिन हृदय-स्पर्शी हैं। अमर भारती का यह द्वितीय संस्करण है। इसका प्रथम संस्करण जयपुर में छपा था। इसकी लोकप्रियता का यह प्रबल प्रमाण है, कि जनता में इसको निरन्तर माँग रही है। आज भी दूर-दूर के क्षेत्रों से इसके पुनः प्रकाशन की मांग की जा रही है। अतः यह द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। आगरा क्षेत्र के सद्भाग्य से पण्डित प्रवर श्री विजय मुनिजी शास्त्री का वर्षावास आगरा में है । अतः उनकी देख-रेख में ही पुस्तक का पुनः प्रकाशन किया जा रहा हैं। दोनों संस्करणों का संकलन, सम्पादन और प्रकाशन मुनिश्री जी के सानिध्य में सम्पन्न हुआ है । पूज्य गुरुदेव की अन्य अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी आप ने बड़ी योग्यता के साथ किया है। श्री विजय मुनिजी शास्त्री लेखन-कला में और प्रवचन-कला में निपुण, निष्णात और प्रख्यात रहे हैं। अपने महान् गुरु के अनुरूप उनके प्रमुख शिष्य विजय मुनिजी भी महान् योग्य शिष्य हैं । ___प्रस्तुत पुस्तक में, मुख्य रूप से जयपुर वर्षावास के प्रवचन हैं, लेकिन राजस्थान के अन्य नगरों के प्रवचन भी इसमें हैं । दिल्ली और ताज नगर आगरा के प्रवचन भी यथाप्रसंग उपनिबद्ध हैं । सन् १९४८ से १९५५ तक के प्रवचनों का संकलन एवं सम्पादन, इसमें है । अमर भारती के प्रवचनों की भाषा सुन्दर है, भाव मधुर हैं और शैली आकर्षक है। द्वितीय संस्करण में कुछ परिवर्तन भी किया है । इतिहास की दृष्टि से प्रवक्ता के मूल भावों की Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरक्षा की है। प्रवचनों के स्थल एवं प्रसंगों को भी सुरक्षित रखा गया है। यह कार्य श्री विजय मुनि जी शास्त्री के सहयोग के बिना सम्भव नहीं था। मन्त्री सन्मति ज्ञान पीठ सन्मति ज्ञान पीठ आगरा ओम प्रकाश जैन जैन भवन, लोहामंडी वीर तुम्हारे पद-पंकज वीर तुम्हारे पद-पकज' युग, इस धरती पर जिधर चले । चरण-चरण पर दिव्य भाव के, सुरभित स्वर्णिम पुष्प खिले ।। हिंसा, घृणा, वैर कंटक, ध्वस्त बने पीडाकारी । जन-मन में निष्काम प्रेम की, महक उठे केशर - क्यारी ॥ -उपाध्याय अमर मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १. भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी २. बरसो मन, सावन बन बरसो विषय-सूचना प्रथम खण्ड ३. मानव मन का नाग पास : अहंकार ४. यो वै भूभा तत्सुखम् ५ मानव की विराट चेतना ६. भारत की विराट आत्मा ७. काल पूजा : धर्म नहीं ८. ध्येय-हीन जीवन व्यर्थ है 8. जैन - संस्कृति का मूल स्वर १०. समस्या और समाधान ११. जब तू जागे तभी सबेरा १२. मानवता की कसौटो १३. संयम की साधना १४. दीप पर्व १५. वर्षावास की पूर्णाहुति १६. हरिजन दिवस १७. वर्षावास की विदा १. अनेकान्त दृष्टि २. सच्चा साधक ३. संसार बुरा नहीं द्वितीय खण्ड ( ७ ) पृष्ठ m ७ १४ १८ २४ २८ ३२ ३६ ४२ ४७ ५३ ५६ ६० ६५ ७० ૭૪ ८० ८७ ६४ ह Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पत्रकार सम्मेलन ५. पञ्चशील ६. जीवन : एक कला ७. जीवन : एक सरिता जीवन के राजा बनो ८. ६. दिशा के बदले से १०. भक्त से भगवान ११. चार प्रकार के यात्री १२. आज का प्रजातन्त्र १३. जैन - संस्कृति की अन्तरात्मा १४. पर्व राज पर्युषण १५. मानव की महत्ता १६. दीपावली और सहधर्मी सेवा १७. अपने आप को हीन समझना पाप १८. भारत का राष्ट्रवाद १६ जनतन्त्र दिवस २०. कर्तव्य बोध (८) ३. मंगलमय सन्त सम्मेलन ४. सादड़ी सम्मेलन १. भिक्षा कानून और साधु-समाज २. सम्मेलन के पथ पर तृतीय खण्ड ५. सत्पुरुष स्वयं अपना परिचय ६. शक्ति का अजस्र -स्रोत : संघटन १०२ १०६ १११ ११६ १२० १२४ १३० १३४ १३८ १४१ १४३ १४५ १४६ १५३ १६० १६७ १७२ १७६ १८३ १८५ १८८ १६१ १६६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथम खण्ड Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी भारत की संस्कृति - भारत के जन-जन के मन-मन की विराट भावनाओं का महान् प्रतीक है, महान् संकेत है । यह संस्कृति संगम की संस्कृति है, मेल-मिलाप की संस्कृति है । संस्कृति का अर्थ मात्र इतना ही न समझेंसाहित्य, संगीत, चित्र और नृत्य कला, यह सब होकर भी यदि जन जीवन में सादगी, संजीदगी, सहयोग और सहकारिता नहीं, तो भारतीय चिन्तन में और भारतीय विचार मन्थन में - उसे संस्कृति कहना एक गुरुतर अपराध होगा । भारत की संस्कृति उस कूप के समान नहीं है, जो अपने आप में बन्द पड़ा रहता है. बल्कि वह गंगा के उस सदावाही विशाल प्रवाह के तुल्य है, जो अपने दायें-बायें सरसता और मधुरता का अक्षय भण्डार बिखे ता चलता है । अपनी महान् निधि को मुक्त हाथों लुटाता चलता है और साथ ही वह इधर-उधर से आ मिलने वाले लघु-लघु जल प्रवाहों को अपना विराट रूप भी देता चलता है । भारत की संस्कृति का यह एक महतोमहान् संलक्ष्य रहा है, कि वह बहुत्व में एकत्व का अधिष्ठान बने, भेद में अभेद का महास्वर झंकृत करे और विरोध में भी विनोद का मधुर संगीत अलाप सके । भारत की पुण्य भूमि पर नये-नये दर्शन आए, नये-नये धर्म आए और नये नये पन्थ आए - कुछ काल तक उन्होंने अपने अस्तित्व को अलग-थलग रखा, किन्तु अन्त में वे सब सह अस्तित्व के वेगवान् प्रवाह में विलीन हो गए, एकमेक हो गये। उन सब का एक संगम बन गया और यही भारतीय संस्कृति है । यही भारतीय सभ्यता है । ( ३ ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अमर-भारती भारत की संस्कृति का सजग प्रहरी है सन्त, मननशील मुनि और श्रमशील श्रमण । महावीर और बुद्ध के भी पूर्वकाल से प्रकाशमान भारतीय संस्कृति का दैदीप्यमान नन्दा-दीप काल की प्रलम्बता के झोंकों से धूमिल भले ही पड़ता रहा हो, परन्तु परम्परा से चलती आने वाली सन्तों की विचार ज्योति से वह उद्दीप्त होता रहा है और उसकी अजस्र प्रकाशधारा आज भी संसार को स्तम्भित व चकित कर रही है । वस्तुतः भारत की संस्कृति का सच्चा स्वरूप सन्त परम्परा में ही सुरक्षित और सुस्थिर रहा है। भारत का सन्त-भले ही वह किसी भी पन्थ का, किसी भी सम्प्रदाय का और किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो-उसके विचार में, उसकी वाणी में तथा उसके वर्तन में भारतीय संस्कृति का सुस्वर झंकृत होता रहा है। भारत का विचारशील सन्त व्यक्तिशः चाहे किसी भी सम्प्रदाय विशेष में आबद्ध रहा हो, पर विचारों के क्षेत्र में वह लम्बी छलांग भरता आया है। राजस्थानी सन्त यहाँ की बोली में बोले, जन भाषा में उन्होंने अपने विचारों की किरणों को बिखेरा । मीरा का जन्म राजस्थान में हआ, लालनपालन भी यहीं हुआ, उसने अपने विचारों की लड़ियों की कड़ियों को राजस्थानी जन बोली में ही गूथा, फिर भी मीरा की उदात्त विचारधारा राजस्थान की सीमाओं को लांघ कर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक परिव्याप्त हो गई, फैल गई। राजस्थानी सन्त भले ही राजस्थान में ही रहे हों, तथापि उनकी आवाज अचल हिमाचल की बुलंदियों से लेकर कन्या कुमारी तक जा गूजी, और राजमहलों के ऊँचे सोने के शिखरों से लगा कर घासफूस की झोंपड़ियों तक फैल गई, रम गई। यही बात गुजराती, महाराष्ट्री और संजाबी सन्तों के जीवन पर भी लागू पड़ती है। अतः भारतीय सन्त बंधकर भी बंधा नहीं, घिर कर भी घिरा नहीं और रुक कर भी रुका नहीं। वह चलता ही रहा और चलता ही चला गया, किसी ने उसे सुना तो ठीक, अन्यथा वह अपनी मस्ती में मस्त होकर गाता रहा और उसकी स्वर लहरी इठलाते पवन के झकोरों में प्रसार पाती रही। भारतवर्ष का वह एक युग था, जब यहाँ के विद्वान् और पण्डित देववाणी में बोलने के नशे में चूर रहते, संस्कृत भाषा में भाषण करना वे अपने वंश व कूल की निराली शान समझते । महान् हिमालय के उत्तुंग शिखरों से वे जनता को उपदेश व आदेश देते। जनता उनके गूढ़ शब्दों के अर्थ को न समझ कर भी श्रद्धा और भक्ति के नाम पर विनम्र हो जाती। इस अन्ध Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी ५ विश्वास भरी परम्परा के विरोध में महावीर और बुद्ध ने अपनी आवाज बुलन्द की, जन बोली में अपने विचारों का प्रकाश फैलाया और वे जन-जन के जीवन में एकाकार होकर जन-नेता, लोक नायक व जनता-जनार्दन बन गए। महावीर और बुद्ध की लीक पर पीछे आने वाली सन्त सेना खूब मजबूत कदमों से चलती रही, जिससे पण्डितों के पैर उखड़ गए। सन्तों ने जनता की आध्यात्मिक नाड़ी को पकड़ा। जनता के जीवन में वे धुल-मिल गए और जनता का सुख-दुःख उनका अपना सुख-दुःख बन गया। सन्तों को चिन्तन धारा गहरी और विराट वनी । परन्तु उनकी भाषा जन बोली रही। जन की भाषा में वे सोचते थे और जनता की बोली में वे बोलते थे। वे विचारों के हिमालय से बोले, तब भी जनता ने समझा और आचार के महासागर के तल से बोले, तो भी जनता ने उन्हें पहचाना । क्योंकि वे सर्व साधारण जनता की अपनी जानी पहचानी बोली में बोलते थे, न कि पंडितों की तरह अटपटी बोली में । फलतः जनता की श्रद्धा और भक्ति की सरिता का मोड़ मुड़ा और पण्डितों से हटकर सन्त चरणों में आ टिका, जन-जीवन की श्रद्धा और भक्ति का केन्द्र सन्त बन गया। आचार्यप्रवर जिनदत्त सूरि जी-जिनकी आप आज यहाँ पर जयन्ती मना रहे हैं, भारत के उन मनीषी सन्तों में से एक थे, जिन्होंने अपने तपस्वी जीवन से और विचार पूर्ण जीवन से भारत की प्रसुप्त जनता को जागृत किया था । जन जीवन में ज्ञान की नयी चेतना और आचार की नव स्फूर्ति भरी थी। उन्होंने अपने प्रखर विचारों का प्रचार मात्र अपनी वाणी के माध्यम से ही नहीं किया, बल्कि अपने विराट चिन्तन की पैनी लेखनी से भी जन भाषा में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का ग्रन्थन व गुम्फन भी किया है। उनका जीवन एक ऐसा जीवन था-जो उत्थान के निमित्त अपने घर में भी लड़ा और अपने प्रसार के लिए बाहर भी झूझता रहा। उनकी विचारधारा से और संयमी जीवन से जन जीवन उत्प्रेरित हो-इसी भावना में उनकी जयन्ती मनाना सार्थक होता है । भारत के महान् सन्तों का जीवन अपने ही अन्तर्बल से पनपा है, उठा है और चला है। उन्होंने अपने विचारों का प्रचार तलवार की ताकत से नहीं, प्रेम की शक्ति से किया है। पण्डितों ने सन्त से पूछा-"तेरा शास्त्र क्या है ?" उत्तर मिला- मेरा चिन्तन और मेरा विचार ही मेरा आचार है मेरा बल और शक्ति है । जन भाषा ही मेरे शास्त्र की भाषा है । सन्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अमर-भारती ने जो सोचा, वह शास्त्र बना, जो बोला वह विधान बना और जिधर चल पड़े, वही जन जीवन की गन्तव्य दिशा बनी। सन्त से पूछा गया-तेरा परिवार कौन है ? तेरा देश कौन है ? नपी तुली भाषा में उत्तर मिला। जन-जीवन ही मेरा परिवार है, मेरा समाज है। यह सम्पूर्ण संसार मेरा देश है, राष्ट्र है। आचार्य शंकर की वाणी में - "स्वदेशो भुवनत्रयम् ।" यह सम्पूर्ण सृष्टि हो सन्त का स्वदेश है। सन्त की समतामयी दृष्टि में सब अपने ही हैं, पराया कौन है उसे ? इतनी विराट दृष्टि लेकर चला था, भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी, सन्त समाज । ___ भारतीय संस्कृति का यह एक महान् जय-घोष है, कि अतीत को भूलो मत । वर्तमान को मजबूत हाथों से पकड़ो और भविष्य की ओर तेज कदमों से बढ़े चलो। अतीत से प्रेरणा लो, वर्तमान से विचार-चिन्तन लो और भविष्य से आशा तथा विश्वास का सुनहरी सन्देश लो। हां, इस बात का जरा ध्यान रहे, कि आपके कदम वर्तमान से अतीत में न लौटें । उनमें गति है, तो भागे की ओर बढ़ें, भविष्य की ओर चलें। आचार्य जिनदत्त सूरी सुबोध कालेज, जयपुर जयन्ती महोत्सव ३-७-५५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरसो मन, सावन बन बरसो आज का यह दिवस, वर्षावास के प्रारम्भ का दिवस है। आज सांध्य-प्रतिक्रमण के पश्चात् सन्त जन चार मास के लिए या इस वर्ष चूंकि भादवे दो होने से पाँच मास के लिए आप के इस जयपुर क्षेत्र में नियतवास हो जाएँगे ! वैसे सन्त सदा चलने-फिरने वाला पक्का धुमक्कड़ होता है । परन्तु वर्षाकाल में वह नियत-वास हो जाता है या हो जाना पड़ता है। एक प्रश्न है, जो अपना समाधान माँगता है। सन्त विहार को पसन्द करता है कि स्थिर वास को! उसकी जीवन-चर्या का विधान क्या है ? उसके संयत जीवन की मर्यादा क्या है ? कब वर्षा-काल आए और स्थिर रहैं ? एक सच्चे साधक का यह सकल्प हो सकता है क्या ? नहीं, कदापि नहीं । उसका यह संकल्प, यह भावना नहीं रहती। विहार करते रहना, भ्रमण करते रहना, यही उसके मन को भाता है। ग्राम से ग्राम, नगर से नगर और देश से देश परिभ्रमण करते रहना ही सन्त के महान् जीवन का साध्य-तत्व है। शास्त्र का वचन है कि "विहार चरिया मुणीणं पसत्था ।"-विहार-चर्या मुनिजनों को सदा प्रिय होती है । शास्त्रों में विधान भी है, कि अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार मुनि सदा यत्र-तत्र विचरण करता रहे । चर्या उसका कल्प भी है और इसमें उसे अनेक लाभ भी हैं। व Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अमर-भारती जन जीवन के महासागर में ज्ञान-विज्ञान के पवन से मनन और मन्थन की नयी लहरें, नयी तरंगें पैदा करना, विचारों के महासमुद्र में गहरी डूबकी लगा कर जन-जन के कल्याण के लिए, उत्थान के लिए प्राणवंत और ऊर्ध्ववाही चिन्तन के मोती निकाल लाना, फिर उन्हें जन जीवन के कण-कण में बिखेर देना-सन्त जीवन का महान् कर्तव्य है । प्रसुप्त जनजीवन को ही जागृत नहीं करना है, बल्कि उसे स्वयं अपने जीवन में भी नव जागरण, नयी चेतना और नयी स्फूर्ति भरनी है। पुरातन आचार्य कभी-कभी विनोद की वाणी में भी जीवन की उलझनों को बड़ी संजीदगी के साथ सुलझाकर रख देते थे। मुनि-जनों को विहार-चर्या कितनी प्रिय है ? इस तथ्य को एक जैनाचार्य ने व्याकरण की भाषा में बड़े मधुर ढंग से समझाया है। वह कहता है, एक शब्द ऐसा है"जिसके आदि में 'आ' जोड़ने से जन-जीवन के प्राणों का रक्षक बन जाता है, आदि में 'वि' लगाने से सन्तजनों को प्रिय हो जाता है, आदि में 'प्र' जोड़ने पर सब को अप्रिय होता है और कुछ भी न लगाने पर वह स्त्रियों को प्रिय हो जाता है ।" वह जादू भरा शब्द है-'हार ।' आयुक्तः प्राणदो लोके, वियूक्तः साधु-वल्लभः । प्रयुक्तः सर्वविद्वषी, __ केवलः स्त्रीषु वल्लभः । आहार-भोजन सबको प्राण देता है, विहार-परिभ्रमण सन्तों को सदा प्रिय होता है, प्रहार-चोट सबको अप्रिय होती है, बुरी लगती है और हार-आभूषण स्त्रियों को अति प्रिय लगता है। विहार सन्तों को कितना प्रिय होता है ? इस बात का पता तो तब लगता है, जब वर्षा-वास समाप्त होने को होता है । आप लोगों में से बहुत . से श्रद्धाशील व्यक्ति अपने भोले मन को भुलावे में डालकर विचार करते होंगे, कि नियत वास में तो महाराज को सुखसाता ही रहती है । रहने-सहने को सुखद स्थान, खाने पीने का अच्छा आहार-पानी। फिर भी सन्तों को विहार प्रिय क्यों होता है ? विहार काल में क्या सुख है ? क्या सुविधा है ? न खाने को पूरा भोजन, न प्यास बुझाने को पूरा पानी, न रहने को अनुकूल स्थान ही ? परन्तु मैं कहता हूँ कि भगवान् महावीर के सपूतों के सम्बन्ध में दीनतामयी यह विचारणा योग्य नहीं है । सन्तों का जीवन तप, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरसो मन, सावन बन बरसो त्याग और संयम का जीवन है । प्रतिकूलता में मुस्कराना और अनुकूलता में सावधान रहना, सन्त जीवन की सच्ची कसौटी है । परोषह व संकटों से घबराकर एक स्थान पर बैठे रहना साधुत्व का मार्ग नहीं है । निरन्तर तपते रहना, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना - यही सन्त जीवन की शान है । यही सन्त जीवन की गरिमा है । जल की स्वच्छता और निर्मलता बहते रहने में है । एक स्थान पर पड़ा खड़ा पानी गंदा व बदबूदार हो जाता है । सतत प्रवहणशीला सरिता की नव धाराओं में प्रवाहित होने वाला जल चट्टानों से लड़ता, मैदानों को पार करता, लहराता और इठलाता - नव जीवन और नयी स्फूर्ति का सन्देश देता है । उसकी शीतलता और पवित्रता बनी रहती है । किन्तु वही जल जब अपनी धारा से विछोह पाकर किसी गर्त में जा गिरता है, तब वह स्वयं तो दूषित होता हो है, अपने आस-पास के वातावरण को भी बना डालता है ! मलेरिया को जन्म देने वाले मच्छरों को पैदा करता है । पानी तो सदा बहता ही अच्छा और सन्त सदा रमता ही भला बहता पानी निर्मला. पड़ा गंदिला होय । साधू तो रमता भला, दोष न लागे कोय ॥ ह पानी बहता भला और सन्त रमता भला । रमने का अर्थ है -चर्या, विहार, परिभ्रमण | क्योंकि रमते योगी को " दोष न लागे कोय ।" मोह, ममता और राग द्वेष के दुर्वार विकार उसके मन को घेर नहीं सकते हैं । नियत-वास हो बैठे रहने में दोष ही दोष हैं। क्योंकि उसमें एक क्षेत्र विशेष के प्रति आसक्ति पैदा होगी। जन-जीवन का सन्त के प्रति जो सद्भाव और श्रद्धा है तथा सन्त का जन-जीवन के प्रति जो प्रेम व सहयोग है - वह मोह रूप में परिणत हो सकता है । प्रेम मोह बन सकता हैं, सत्संग आसंग बन सकता है और श्रद्धा अन्धानुराग का चोगा पहन सकती है । प्रेम और मोह में सत्संग और आसंग में तथा श्रद्धा और अन्धानुराग में अन्तर हैबड़ा अन्तर है । एक लड़ी साध्य और साधक के पवित्र जीवन के लिए खतरे का बिन्दु है और दूसरो कड़ी भक्त और सन्त के उत्थान में निमित्त है । जब जीवन सत्संग की सरस भूमि को छोड़कर आसंग की कर्दम भूमि में जा टिकता है, तब लोक मानस में से "मैं और मेरे" की सर्व-ग्रासी भेद V Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अमर-भारती बुद्धि जन्म लेती है और जन-जन के जीवन में ममत्व और मोह मूलक सम्प्रदायवाद तथा पन्थशाही का प्रचार व प्रसार होने लगता है। साधक को पतन के इस महागत से बचाने के लिए ही सन्त के लिए विहार का विधान है। विहार उसका आचार बन जाता है। ___ मैं अपने श्रोताओं में से पूछता हैं, कि हमें वर्षावास करना पड़ता है या हम करना चाहते हैं । श्रोताओं में से एक ने कहा-करना पड़ता है, चाह नहीं है, करने की । हाँ, ठीक है, आपने उत्तर देने में गहरी डूबकी लगा ली है । मैं समझता हूँ, कि मेरे श्रोता सूने मन के नहीं हैं। उनका मननशील मन विचार सागर की तरंगों में तरंगित है। कभी-कभी श्रोता ठीक निशाने की बात कह जाते हैं। श्रवण करके मनन करना श्रोताओं का धर्म है, कर्तव्य है । तभी वे गहरी डुबकी लगा सकते हैं । मैं आप से कह रहा था, कि वर्षा-काल में हमें एक क्षेत्र में स्थिर हो बैठना पड़ता है। क्योंकि वर्षा बरसने से सारी धरती हरी भरी हो जाती है। वनस्पति काय की अभिवृद्धि और त्रस जीवों की उत्पत्ति के कारण वर्षाकाल की विहार-चर्या में यतना और विवेक से गमन करने पर भी सन्त जन जीवों की दया का रे रूप में पालन नहीं कर पाते, नहीं कर सकते । अतः सन्त अपने कल्प के अनुसार, विधान के अनुरूप वर्षाकाल में चार मास का वर्षावास करता है, जिसे आप अपनी जन-बोली में चातुर्मास कहा करते हैं, चौमासा कहा करते हैं । द्वादश प्रकार के तपों में एक तप है -'प्रति संलीनता' अर्थात् जीवों की अनुकम्पा और दया के निमित्त अपने आपको समेट कर रखना । अपनी बाहरी क्रियाओं को, शरीर की हल-चल को सीमित और नियमित कर लेना। इसी को क्षेत्र-संन्यास भी कहते हैं । इस दृष्टि से सन्त जीवन में विहार-चर्या यह . भी एक तप है और वर्षाकाल में स्थिर हो बैठना यह भी एक तप है। साधुत्व का सम्पूर्ण जीवन ही तपोमय है । उसका जीवन त्यागमय होता है। ____ मैं अभी आप से वर्षा काल के विषय में कह रहा था। वर्षा कब होती है ? यह आपको पता ही है। पहले आता है, भीष्म ग्रीष्म, आतप और प्रचण्ड धूप । आकाश तपने लगता है, और धरती आग उगलने लगती है । सम्पूर्ण सृष्टि अग्निमय हो जाती है । तपतपाते जेठ मास की लुओं से न केवल मनुष्य, पशु और पक्षी ही, बल्कि पहाड़ तथा मैदान भी झुलस-झुलस जाते हैं। प्रकृति के कण-कण में बिखरी उस आग को शान्त करने के लिये Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरसो मन, सावन बन बरसो ११ मनुष्य अनेक प्रकार के प्रयत्न करता है । अपने मकानों पर, दूकानों पर और बाजारों में पानी छिड़क-छिड़क कर उसको शांत करता है। किन्तु उसका यह प्रयत्न उतना ही निःसार है, जैसा कि महाग्नि काण्ड को बुझाने के लिये दो चार पानी के छींटे डाल कर बैठ जाना, और समझ लेना कि अब अग्निकाण्ड शान्त हो गया है । यह असीम कार्य मनुष्य की ससीम शक्ति से भला कहाँ हो सकता है ? कैसे हो सकता है ? यह महाशक्ति तो उस महामेघ में ही है, जो घहर-घहर कर आकाश पर छा जाता है और छहर-छहर कर धरती पर बरस पड़ता है। आकाश के विराट प्रांगण में घुमड़-घुमड़ कर उठ खड़ी होने वाली काली-पीली घनघोर घटाएं, जब हजार-हजार धाराओं में धरती से मिल भेंट करती हैं, तब कहीं धरती की तपन बुझती है । मनुष्य, पशु और पक्षियों को सुख और शान्ति मिल पाती है । आकाश में शीत पवन लहरें मारने लगता है । धरातल के महागर्भ में हजारों-हजार रूपों में हरियाली फूट निकलती है। सर्वत्र सुख, शान्ति और समृद्धि का सुखद प्रसार होने लगता है । बन हरे-भरे हो जाते हैं। पहाड़ भरे-पूरे दीखने लगते हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है। मानव का मन भी अपने आप में एक विराट विश्व है। उसमें भी विषय और कषाय की आग धू-धू कर जलती है। काम, क्रोध, लोभ और मान की प्रदग्ध कर देने वाली गरम लू चलती रहती है। माया और छलना के अंधड़ व तूफान उठते रहते हैं। मन को अशान्त, असंयत और अप्रसन्न बनाये रखते हैं। विकृत मन शान्ति, सन्तोष व सुख का अनुभव नहीं कर पाता । मानव मन संस्कृत तब बनता है, जब उसमें प्रेम और सद्भाव का महामेघ स्नेह की वर्षा करने लगता है। उस समय मानव के अन्तर्जगत में अहिंसा, मैत्री और करुणा की कोमल हरियाली फूट पड़ती है। स्नेह, सद्भाव, सहयोग और सहकार के प्रयोग से चित्त में एक प्रकार का आनन्द, उल्लास और प्रमोद बढ़ता है, जिससे मानव, मानव के प्रति विश्वास करना सीखता है। ___ एक सन्त का सरस कवि मानस मधुर स्वर में गा उठा था-"बरसो मन, सावन बन बरसो।" मेरे मन ! तुम बरसो। सावन बनकर बरसो । मूसलाधार बरसो । रिम-झिम होकर बरसो। धीरे बरसो, वेग से बरसो । बरसो, बरसते ही रहो-रुको मत । अहिंसा, समता और सत्य का नीर बहा दो । स्नेह और सद्भाव का मस्त पवन बहने दो। संयम और वैराग्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अमर-भारती को मृदु हिलोरें उठने दो । मेरे मन ! तुम सावन बनकर बरस पड़ो। मेरे जीवन के अण अणु में, कण-कण में बरसो । और कहां बरसोगे तुम ! बरसो, खूब बरसो-परिवार में, समाज में और राष्ट्र में । आज के जन-जन के जीवन में, संघर्ष, विग्रह और कलह की जो सर्वग्रासी भयंकर आग जल रही है, उसे शान्त करने के लिए मेरे मन ! तुम सावन के सुहावने, कारे-कजरारे मेघ बन कर घुमड़-घुमड़ कर बरस पड़ो। इतना बरसो, कि तुम्हारे वेगवान् नीर के प्रवाह में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अशान्ति, अविश्वास और असहयोग की कलुषित भावनाएं बह-बहकर सुदूर विस्मृति महासागर में लीन हो जाएं, जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सुखद जीवन व्यतीत कर सकें । मानव का अशान्त और भ्रान्त मन जब सरस, सुहावना सावन बनकर बरसना सीख लेगा, तब वह अपने मनोगत जात-पात के टंटों को, ऊँच-नीच के रगड़ों को और मान-महत्ता के झगड़ों को भूल कर एकता, संघटन और समभाव के सुन्दर वातावरण में पनप सकेगा, ऊँचा उठ सकेगा, अपना उत्थान और कल्याण कर सकेगा। सोजत सन्त-सम्मेलन के कार्यक्रम में, मैं जब व्यस्त था। एक सज्जन आकर बोला-"महाराज, आप अपनी समस्याओं के सुलझाने में ही मस्त रहोगे या कुछ हम लोगों की भी उलझी उलझनों को भी सुलझाने का समय दे सकोगे ? सज्जन का स्वर करुणा पूर्ण था । मैंने उसकी बात में दिलचस्पी लेते हुए कहा-“कहो तुम्हारी क्या समस्याएँ हैं ?" उसने कहा - वैसे तो समस्या कुछ भी नहीं, और हैं, तो बहुत बड़ी भी ? सुनेंगे, तो आपको ताज्जुब भी होगा और हँसी भी आएगी कि क्या ये भी अपने को भगवान् महावीर का भक्त कहते हैं ? श्रावक कहलाते हैं ?" बात उसने यो प्रारम्भ की-"हमारे यहाँ 'दो जी' का झगड़ा खड़ा हो गया है। बरसों हो गए हैं, अभी तक निवटने में नहीं आया ।" मैं नहीं समझ पाया, उसकी संकेतमयी भाषा से कि यह 'दो जी' क्या बला है ? कम से कम मेरे जीवन में तो यह एक नयी समस्या ही थी। उस सज्जन ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा-"हमारे यहाँ के ओसवाल दो थोकों में बंटे हैं-एक व्यापारी और दूसरे राज-कर्मचारी । राज-कर्मचारी सत्ता प्राप्त होने से अपने नाम में दो जी' का प्रयोग करते थे-"जैसे भंडारी जी, सोहनलाल जी।" एक 'जी' गोत्र के आगे और दूसरो नाम के आगे । परन्तु, व्यापारी लोग एक ही 'जी' लगा सकते थे। यह उन्हें शल्य की तरह चुभता था। कालान्तर में राजा साहब से पट्टा लेकर व्यापारी भी 'दो जी' लगाने लगे । बस, रगड़े-झगड़े का Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरसो मन, सावन बन बरसो १३ मूल बीज यही है । अनेक प्रयत्न भी किए और कर रहे हैं, परन्तु अभी तक समस्या सुलझी नहीं है । बिरादरी दो टुकड़ों में बँटी हुई है । इसी कारण धर्म और समाज का कोई भी उत्थान का कार्य हम नहीं कर पाते हैं । इस सज्जन की बात में कितना दर्द था ? कितना था, उसके दिल में तुफान ? मैं समझता हूँ, कि इन रगड़ों का, झगड़ों का, टंटों का और समस्याओं का अन्त तभी होगा, जब मानव का मन क्षुद्र घेरों से ऊपर उठकर विराट भावना के प्रवाह में गतिशील बनेगा । अपनी सुख-समृद्धि में फूलेगा नहीं और दूसरों के विकास में झुलसेगा नहीं । गये-बीते युग की इन गलीसड़ी दीवारों से ऊपर उठकर जब मानव स्नेह, सद्भाव और सहकार की मृदुल भावनाओं से उत्प्रेरित होकर अपने मन को विराट और उदात्त बना लेगा । अपनी बुद्धि के द्वारों को नये विचारों के प्रकाश के लिए खुला रखेगा और अपने मानस के सरस भाव कणों को जन-जन में बिखेर देगा, तब वह सुखी, समृद्ध और बलवान बनता चला जाएगा । 1 वर्षा काल सरसता और मधुरता का महान् सन्देश वाहक है । इस सुहावनी ऋतु में जैसे बहिर्जगत् में सरसता, सुन्दरता और मधुरता का अभिवर्षण होता रहता है, वैसे ही मानव के अन्तर जगत में भी स्नह की सरसता का, सद्भाव की मधुरता का और सहकार की सुन्दरता का अजस्र, अमृतमय अभिवर्षण तभी सम्भव है, जब वह अपनी मनोभूमि में से अर्थहीन, शुष्क और निर्जीव विधि-निषेधों के तूफान और अन्धड़ों को शान्ति, तथा विवेक बल से बाहर निकाल फेंकने में समर्थ हो सकेगा, तभी वह युगयुग से सूखी अपनी जीवन घाटियों में मन की सरस और सुखद बरसात बरसा सकेगा । समता लाल भवन, जयपुर ** ४-७-५५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-मन का नाग पास : अहंकार मानव जब बड़प्पन के पहाड़ की ऊँची चोट पर चढ़ कर अपने आसपास के दूसरे मानवों को तुच्छ व हीन मानने लगता है, तब उसकी इस अन्तर की वृत्ति को शास्त्र भाषा में अहंकार, अभिमान और दर्प कहते हैं। अहंत्ववादी मानव परिवार में, समाज में और राष्ट्र में अपने से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति को महत्व नहीं देता। दर्प-सर्प से दष्ट व्यक्ति कभी-कभी अपनी शक्ति को बिना तोले, बिना नापे कार्य करने की धृष्टता करता है। परन्तु अन्त में असफलता का ही मुख देखता है। क्योंकि उसके अन्तर मन में अधिकार-लिप्सा और महत्वाकांक्षा की वृत्ति इतनी प्रबलतम हो उठती है कि वह दूसरे के सहयोग तथा सहकार का अनादर भी कर डालता है। मनुष्य जब अहंकार के नशे में चूर-चूर रहता है, तब उसका दिल व दिमाग अपने काबू में नहीं रह पाता । अहंकारी मानव के जीवन की यह कितनी विकट बिडम्बना है ? मनुष्य अपने शरीर की बड़ी से बड़ी चोट को बरदास्त कर जाता है, किन्तु वह अपने अन्तर मन के गहरे कोने में पड़े अहंत्व पर कोमल कुसुम के आघात को भी सह नहीं सकता । मनुष्य का यह अहंभाव उसके जीवन के अनेक प्रसंगों पर अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता रहता है। मानव के मन का अभिमान एक चतुर चालाक बहुरूपिया के तुल्य है । बहुरूपिया एक ही दिवस में अनेक बार अनेक रूपों को बदल-बदल कर बाजार में आता है और हजारों हजार जन नयनों को धोका दे, भाग जाता है । मानव Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव मन का नाग पास : अहंकार १५ मन के अन्तराल में छुपा अहंत्व भाव भी मानव की चेतना को धोका देता है, छलना और माया करता है । जन मंच पर कभी वह क्रूर बनकर उपस्थित होता है, कभी दया प्रवण होकर प्रस्तुत होता है । कभी वह शत्रु बन बैठता है और कभी वह अपने स्वार्थ के अतिरेक की पूर्ति के लिए परम मित्र के रूप में प्रकट होता है । यों वह अपने आप में एक होकर भी अनेक रूप-रूपाय है । अणु होकर भी महान् है, लघु होकर भी विराट है। __ मनुष्य के अभिमान-केन्द्र अनेक है, जिनमें शरीर पहला है । मनुष्य अपने शरीर के सौंदर्य पर, रूप-लावण्य पर और रंग-रूप पर फूला नहीं समाता । वह भूल जाता है, कि यह रूप-विलास संसार सागर का अस्थिर जल बुद-बुद है । सनत्कुमार चक्रवर्ती अपने अपार रूप वैभव पर कितना गर्वित था ? स्वर्गवासी देव और देवों का राजा इन्द्र भी उसके रूप-सौंदर्य पर मुग्ध था । रूप और सौंदर्य अपने आप में बुरा नहीं, बुरा है रूप का मद, सौंदर्य का अहंकार । सनत्कुमार ने अपने जीवनकाल में ही अपने सौंदर्य कुसुम को खिलाने और महकते देखा और देखा उसे मुरझाते व सड़ते । जीवन और जगत की वह कौन वस्तु है, जिस पर मनुष्य स्थिरता का अभिमान टिका सके । रूप-सौंदर्य की तरह मनुष्य अपने नाम को भी अजर-अमर देखना चाहता है । नाम की लालसा मनुष्य को अशांत रखती है। नाम के लिए, यश कीर्ति के लिए और ख्याति के लिए मनुष्य अपने कर्तव्य और अकर्तव्य की भी मर्यादा-रेखा का उल्लंघन करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता है । उस पर कभी गिला नहीं करता। इस सम्बन्ध में मैं आपको जैन इतिहास की एक सुन्दर कहानी सुनाता हूँ ! भारतवर्ष का सर्व प्रथम महान सम्राट भरत दिगविजय करताकरता ऋषभकुट पर्वत पर पहुंचता है और वहाँ के विशाल शैल शिला-पट्टों पर अपना नाम, अपना परिचय अंकित करने की प्रबल लालसा उसके मानस में जाग उठी । जरा गौर से देखा, तो मालूम पड़ा कि यहां परिचय तो क्या ? 'भरत' इन तीन अक्षरों को बैठाने की भी जगह नहीं । हजारों और लाखों चक्रवतियों ने अपना-अपना नाम जड़ा है- इन शिला-पट्टों पर । सोचा-"किसी का नाम मिटाकर अपना नाम टांक दं।" ज्योंही भरत का हाथ उठा, किसी का एक नाम मिटा और अपना 'भरत' नाम उत्कीर्ण हुआ, त्योंही भरत के हृदय गगन में विवेक-बुद्धि की बिजली Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अमर-भारती कौंधी-जिसके ज्ञान प्रकाश में भरत ने पढ़ा-- "आज तूने किसी का नाम मिटाया है, कल कोई तेरा भी नाम मिटाने वाला पैदा होगा।" भरत की अन्तर चेतना जागी और विचार किया-यह अहंत्व-भाव की मोह मोदकता, बड़ी बुरी बला है । भरत, इस विश्व के विराट पट पर किसका नाम अमर व अमिट रहा है ?" धन का अहंकार भी मानव के मन की जकड़ता है, बांधता है । मानवी मन जब असन्तोष की लम्बी सड़क पर दौड़ता है, तब हजार से लाख, लाख से करोड़ और फिर आगे अर्ब-खर्ब के स्टैण्ड पर भी वह ठहर नहीं पाता । धन का नशा, सब नशों में भयंकर नशा है। धर्म चेतावनी देता है - "धन भले रखो, पर धन का नशा मत रखो।" रावण की लंका और यादवों की द्वारिका-सोने की होकर भी खाक की हो गई। रावण का अभिमान और यादवों का धन मद उन्हें वासना के महासागर में ले डूबा । हिन्दी साहित्य का अमर कवि बिहारीलाल आप के राजस्थान का ही था, जिसने एक बार आपके आमेर नरेश मानसिंह की नारी आसक्ति पर-"अली कलि ही सौं बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल"-कह कर करारी चोट मारी थी। वही महाकवि बिहारीलाल मानव मन में प्रसुप्त धनलालसा पर जोरदार फबती कसता कहता है "कनक कनकतें सौ गुनी, मादकता अधिकाय । या खाये बौरात है, वा पाये बौराय ॥" कनक का अर्थ सोना भी होता है और धतूरा भी । धतूरे को खाकर उसके नशे में मनुष्य बोराने लगे, बड़-बड़ाने लगे, तो इस में ताज्जुब की कोई बात नहीं । आश्चर्य की बात तो यह है, कि मनुष्य, धन के हाथ में आते ही बोराने लगता है, बड़बड़ाने लगता है। कवि कहता है-“धतूरे की अपेक्षा सोने का नशा, धन का मद, भयंकर है, अधिक घातक है । धन का अभिमान मानव जीवन के लिए एक अभिशाप है। __ मनुष्य का अभिमान इतना विराट बन गया है कि वह भौतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जन-जीवन के आध्यात्मिक पावन-पारावार में भी उसने अपनी कालिमा घोल दी है। सत्कर्म व धर्म-क्षेत्र में भी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव मन का नाग पास : अहंकार १७ मानव मन के अभिमान ने तूफान खड़ा कर दिया है। किसी को दान दें, तब अभिमान । सामायिक-सवर करें, तब अहंकार । त्याग-तपस्या करें, तब दर्प । मैंने इतना दिया, मैंने इतना किया। धर्म के परम पावन क्षेत्र में भी मनुष्य के अन्तर में स्थित दर्प का सर्प फुत्कार कर उठता है। सम्भव है, धन का अहंकार आत्मा को उतना न गला सके, किन्तु यह जो सत्कर्मों का, धर्म के क्षेत्र का अहंकार है, वह अधिक घातक है और यह आत्मा को गला देने वाला है । अहंकार कैसा भी क्यों न हो ? उससे आत्मा का पतन ही होता है, उत्थान नहीं । विष तो विष ही रहेगा, अमृत नहीं हो सकता। महाबली बाहुबली कितना घोर तपस्वी था, परन्तु अहंकार के संस्कारों ने केवल-ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होने दी। शास्त्र में वर्णित अष्ट-मदों में कल, जाति, ज्ञान आदि मद भी परिगणित हो जाते हैं, जिन्हें लोक भाषा में अहंकार, अभिमान और दर्प कहासुना जाता है । आठों ही प्रकार का मद मानव के आध्यात्मिक सद्गुणों का विनाशक है, घातक है । मानव के मन में विराट शक्ति और अपार बल है, परन्तु अहंकार के नाग-पास में जकड़ा हुआ वह महाबली हनुमान की तरह अपनी अमितशक्ति और अतुत-बल को भूल बैठा है । अहंकार की घनी काली तमिस्रा में वह अपने अध्यात्म-सूर्य की चमकती किरणों को देख नहीं पा रहा है । जिस दिन मनुष्य के अहंत्व-भाव का नाग-पाश टूटेगा-तब वह लघु से महान बनेगा, क्षुद्र से विराट बनेगा-इसमें जरा भी शंका नहीं है, सन्देह नहीं है। लाल भवन, जयपुर १३-७-५५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो वै भूमा तत्सुखम् आज के जन जीवन में पग-पग पर विकट संकट और विषम समस्याओं का तूफान व अंधड़ प्रबल वेग से चल रहा है । आज के इस अणुयुग का मानव सत्ता और महत्ता के हिमगिरि के उच्चतम शिखर पर पहुँच कर भी शान्ति, सुख और सन्तोष की सुखद साँस नहीं ले पा रहा है । आज के जीवन और जगत के क्षितिज पर अशान्ति और असन्तोष का घना कुहरा छाता चला जा रहा है जिसमें मानव-मानव को देख नहीं पा रहा है। अधिक स्पष्ट कहूँ, तो वह अपने आपको भी पूरे रूप में देख नहीं पा रहा है। देखने का प्रयत्न भी नहीं कर रहा है। आज का यह विराट विश्व सुख और शान्ति के मधुर और सुन्दर नारे लगा कर भी उस सुख और शान्ति को पकड़ क्यों नहीं पा रहा है ? आज की मानुषी-मनीषा से युग इस महाप्रश्न का समाधान माँग रहा है ? विचार-महासागर के अन्तस्तल का संस्पर्श करते चलें, तो मालूम होगा कि यह महाप्रश्न आज का ही नहीं, सनातन संसार के सदाकाल से यह अपना समाधान माँगता रहा है । हम देखते हैं कि इस जगती-तल के जीव कभी सुख के और कभी दुःख के झूले पर निरन्तर झूलते रहे हैं। मानव जीवन के गगन-तल पर सुख-दुःख के बादल स्थिर होकर नहीं बैठते । धूप-छांह की तरह उड़ते-फिरते ( १८ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो वै भूमा तत्सुखम् १९ हैं। कभी सुख है, तो कभी दुःख है। आज सुख है, तो कल दुःख है। आज शान्ति के मधुर क्षणों में झूम रहा है, तो कल अशान्ति की विषम ज्वालाओं में झुलस रहा है । मानव की चाह है कि उसके जीवन पट में दुःख, दैन्य और दरिद्रता के काले धागे न हों, हों केवल सुख, शान्ति और समृद्धि के सुनहरी धागे । सम्पूर्ण जीवन - वस्त्र सुख और समृद्धि के ताने-बाने से बुना हो । भारतीय दर्शन शास्त्र में सुख-दुःख की सूक्ष्म मीमांसा की गई है। परन्तु एक वाक्य में उसे यों कहा जा सकता है-“अनुकूलता सुख है और प्रतिकूलता दुःख ।" भारतीय दर्शन की विचार परम्परा इस तथ्य में अमित, अमिट व अडिग विश्वास लेकर चली है, कि इस आदिहीन और अन्तहीन अनन्त जगत में जहाँ दुःख और दुःख के कारण बिखरे पड़े हैं, वहाँ सुख और सुख के उपकरण भी प्रस्तुत हैं। भारत के जीवनशास्त्री इस सत्य-तथ्य को स्पष्ट शब्दों में उद्घोषणा करते हैं-"मानव अपने जीवन के जिन पूण्य पलों में दुःख और दुःख के कारणों से विमुख हो, सुख और सुख के कारणों को अपना लेगा, तब वह जीवन में सुख, शान्ति और सन्तोष का अनुभव कर सकेगा। उसका जीवन शान्त और समृद्ध बन सकेगा, जीवन में सरसता, मधुरता और समरसता का आनन्द ले सकेगा। भारतीय विचारधारा मूल में एक होकर भी हजारों-हजार धाराओं में प्रवाहित होकर अन्त में एक ही महासागर में विलीन हो जाती है। जीवन के संलक्ष्य के सम्बन्ध में मतभेद नहीं । विचार भेद है, केवल साधना के उपकरणों में । साधकों का ध्येय एक है, परन्तु हर साधक अपनी राह अपनी शक्ति को तोल कर ही बनाता है। “दुख है और उससे छुटकारा पाना है।" यह भारतीय दर्शन शास्त्र का मूल महाश्वर है। दुःखों से मुक्ति कैसे पाना-यह एक प्रश्न उलझन का अवश्य रहा हैं, फिर भी मैं कहता हूँ, कि इस विचार चर्चा की गहराई में जब आप उतरेंगे, तब इसमें भी आपको समन्वय मिल सकेगा। जैन दर्शन जीवन के हर क्षेत्र में अनेकान्त और समन्वय को लेकर चला है । उपनिषद्-काल के एक ऋषि से पूछा गया-"भगवान् ! इस समूचे संसार में दुःख हो दुःख है, या कहीं सुख भी ? यदि सुख भी है, तो वह कैसे मिले ? ऋषि ने शान्त और मधुर स्वर में कहा-सुख भी है, शान्ति भी है, आनन्द भी है । “यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति ।" जीवन में सुख अवश्य है, किन्तु वह एकत्व में नहीं, समग्रत्व में सन्निहित है। जो भूमा है, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अमर भारती जो विराट है, जो महान् है और जो जन-जीवन में समग्रत्व है, वह सुख है, वह शान्ति है, वह आनन्द है ।" परन्तु याद रखो, सुख की निधि समग्रत्व में है, अपनत्व में नहीं । जहाँ मन का दायरा छोटा है, वहाँ सुख नहीं है । वहाँ है— दीनता, दरिद्रता और दुःख । मानव की विराट भावना में सुख है और उसके क्षुद्र विचारों में दु:ख दैन्य है । मानवतावादी विराट भावना में विभोर होकर एक ऋषि कहता है"यथा विश्वं भवत्येक नीडम् ।" सारा संसार और यह विराट लोक क्या है ? यह एक घोंसला है। समूचा संसार एक घोंसला है और हम सब पक्षी हैं । इस नीड में अलग-अलग दीवार नहीं, हदबन्दी नहीं, बाड़ाबन्दी नहीं । जिसका जहाँ जी चाहे बैठे और चहके । इतनी विराट भावना, इतना विशाल मानस, जिस समाज को और जिस देश को मिला हो - वही सुख, शान्ति और आनन्द के झूले पर झूल सकता है । सुख का अक्षय भण्डार मानव- समग्रत्व की चेतना की जागृति में है । यह समाज और यह राष्ट्र क्या है ? यह भी एक नीड है, एक घोंसला है, जिसमें सब मानव पक्षी मिल-जुल कर रहते हैं । ऋषि की भाषा में यही सुख का सही रास्ता है । भगवान महावीर ने कहा - " संचय मत करो, संचय मत करो, जो पाया है, उसे समेट कर मत बैठो । संविभाग जीवन में सुख की कुंजी है ।" जन जागरण और जन जीवन की चेतना के अग्रदूत भगवान् महावीर ने कहा है- "सुख और दुःख कहीं बाहर नहीं हैं, वे तो मानव के मन की अन्तर पड़त में लुके-छुपे रहते हैं ।" जब मानवत्व की विराट चेतना “मैं और मेरा" के घेरे में बन्द हो जाती है, मानव का विराट मन "मैं ओर मेरा" के तंग दायरे में जकड़ जाता है, तब संकटों के काँटे मानव के चारों ओर बिखर जाते हैं, जिनमें वह जाने-अनजाने पल-पल में उलझता रहता है । यह मैं हूँ, यह मेरा है, मैं स्वामी हूँ और सब मेरे दास हैं । यह दानवी भावना ही अन्तर में दुःखों को पैदा करती है । जहाँ मैं और मेरे का आसुरी राग महाभीम स्वर में अलापा जा रहा हो, वहाँ मानव मन का प्रसुप्त देवत्व को जगाने वाला और जन-जन के मन को झंकृत करने वाला सर्वोदयवादी मधुर मन्द संगीत कौन सुने ? फिर वहाँ सुख, शान्ति और सन्तोष का सागर कैसे लहरा सकता है ? मानव के मन में स्वार्थ के अतिरेक की जब गहरी रेखा अंकित हो जाती है, तब उसकी दृष्टि में यह सारा संसार दो विभागों में विभक्त होने लगता है - " एक स्व और दूसरा पर, एक अपना और दूसरा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो वै भूमा तत्सुखम् २१ बेगाना, एक घर का और दूसरा बाहर का यह वर्गीकरण ही हमारे मन की तंगदिली का सबूत पेश करता है।" मानव के विराट एकत्व को विभक्त करने वाली इस भेद-भूमि में से ही द्वेष, घृणा और हिंसा को जन्म मिलता है । मानव का सोता हुआ दानत्व जाग उठता है, आसुरी भावना प्रबल हो जाती है। भगवान् महावीर से पूछा गया-"जीवन में पाप कर्म क्या है ? और उससे छुटकारा कैसे मिले ? इस जीवन-स्पर्शी प्रश्न के उत्तर में उस विराट सदात्मा ने, जन-जीवन के प्रवीण पारखी ने कहा "सब भूयप्प भूयस्स, सम्म भूयाइ पासओ। पिहियासव्वस्स दंतस्स, पाव कम न बन्धइ॥" सम्पूर्ण संसार की आत्माओं को अपनी आत्मा के तुल्य समझने वाला कभी पाप कर्म से लिप्त नहीं होता। जैसा दुःख और जैसा कष्ट तुझे होता है, समझले, वैसा ही सबको होता है। जीवन और जगत अपने आप में न पाप रूप हैं, न पुण्य रूप । मानव के मन की संकीर्णता और क्षुद्रता ही पाप है, और विराटता महानता ही पुण्य है । मन भला तो जग भला । मन में पाप है, तो जीवन और जगत में भी पाप है-हमारे मन की तरंगों से ही तरंगित होता है-जीवन और जगत का सम्पूर्ण संव्यवहार । राजा भोज की राज सभा में एक विद्वान आया, जो दूर देश का रहने वाला था । अपने जोवन की दरिद्रता के अभिशाप को राजा के पूण्यमय वरदान से प्रक्षालित करने के संकल्प को लेकर वह आया था । द्वारपाल ने विद्वान के आने की सूचना राजा को दी और राजा भोज ने कहा"विद्वान को अतिथि गृह में ठहरा दो।" राजा भोज विद्वानों का बड़ा आदर-सत्कार करता था और उन्हें मुक्त हाथों से दान भी किया करता था। आने वाला विद्वान विचारों को कितनी गहराई में है-यह जानने के लिए राजा ने अपने एक विश्वासपात्र विद्वान के हाथों दूध से लबालब भरा कटोरा भेजा। जब वह पात्र लेकर पहुँचा, तो विद्वान प्रसन्न मुद्रा में बैठा कुछ लिख रहा था। दूध से भरे-पूरे कटोरे को देख कर विद्वान ने उस में एक बताशा डाल दिया और कहाआप इसे वापिस राजा की सेवा में ले जाएँ। समय पाकर राजा ने विद्वान Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अमर भारती को राज सभा में बुलाया और पूछा - "आपने दूध क्यों लौटा दिया ?" और उसमें फिर बताशा क्यों डाला ? इसका स्पष्टीकरण कीजिए विद्वान ने राजा भोज से विनययुक्त विनम्र स्वर में कहा - "राजन्, आपका आशय यह था कि जैसे दूध से कटोरा लबालब भरा है, वैसे मेरी सभा भी विद्वानों से भरी है - यहाँ पर जरा भी स्थान नहीं है । भोज ने इस सत्य को स्वीकृत किया और फिर बताशा डालने का अर्थ पूछा ? आने वाले विद्वान ने कहा- राजन ! इसका अर्थ था कि दूध से भरे कटोरे में जैसे बताशा अपना स्थान बना लेता है, वैसे मैं भी आपकी सभा में अपने आप स्थान पा लूंगा । आप किसी प्रकार की चिन्ता में न पड़ें। जगह नहीं होने पर भी जगह बनाना मेरा अपना काम है । राजन् ! आपकी सभा में भले स्थान न हो, परन्तु आपके मन में स्थान है, तो फिर क्या कमी है ? बताशा दूध के कण-कण में रम कर मिठास भर देता है । मैं भी प्रेम की मिठास आपके मन में और आपकी सभा के सभासदों के मन में अर्पित कर आपकी गौरव गरिमा को और अधिक महिमान्वित करूंगा, फिर स्थान की क्या कमी है ? मानव मन जब अपनत्व में बँधकर चलता है, तब जगह होने पर भी जगह नहीं दे पाता । मानव तंगदिली के दायरे में अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को भी भूल बैठता है । मैं और मेरा की क्षुद्र भावना मनुष्य का कितना पतन करती है ? मैं आपसे कह रहा था कि संसार में जितने भी दुःख व कष्ट हैं, वे सब परायेपन पर खड़े हुए हैं और बेगानेपन पर ही पनपते हैं । इस हालत में सुख और शान्ति के मधुर नारे लगाने पर भी वह कैसे मिलेगी ? एक बार की बात है कि हम विहार करते-करते एक अपरिचित गाँव में जा पहुँचे । गाँव छोटा था । एक मन्दिर के अलावा ठहरने को दूसरी कोई जगह नहीं थी । सन्त मन्दिर के महन्त के पास पहुँचे, स्थान की याचना की । मन्दिरका महन्त इन्कार हो गया । मैं स्वयं वहाँ गया । महन्त अपने मन्दिर के द्वार पर खड़ा था । बातचीत चली और मैंने भी रात भर ठहरने को स्थान माँगा । टालू नीति का आश्रय लेते हुए उसने कहा- यहाँ पर कोई जगह नहीं है । मैंने कहा आपके मन्दिर में जगह नहीं है, तो न सही । आप के मन में जगह है न । उसने मुस्करा कर कहा- मन में तो बहुत जगह है। मैंने कहा - यदि मन में जगह है, तब तो आपके इस मन्दिर में भी जगह हो जाएगी । मनोमन्दिर में जिसे जगह मिल जाती है, उसे फिर इस ईंट पत्थर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो वै भूमा तत्सुखम् २३ के मन्दिर में जगह क्यों नहीं मिलेगी ? अन्त में महन्त ने प्रसन्न भाव से मन्दिर में ठहरने की जगह दे दी । वहाँ ठहरे, परिचय हुआ। अब तो ज्योंज्यों मन की घुण्डी खुली, महन्त ने अपना निजी कमरा भी खोल दिया । मैंने परिहास की भाषा में पूछा कि पहले तो साधारण स्थान भी नहीं था, इस मन्दिर में और अब आपने अपने सोने-बैठने का कमरा भी खोल दिया है। वह भी हँसा और बोला आप तो कह रहे थे कि मन में जगह चाहिए। मनोमन्दिर में जगह होने से इस मन्दिर में भी जगह हो गई है। हाँ, तो मैं आपसे कह रहा था कि सबसे बड़ी बात मन की होती है। मन विराट तो विश्व भी विराट, मन छोटा तो दुनियाँ भी छोटी है, तंग है। पहले महन्त के मन में जगह नहीं थी, एक कोठरी भी मिलना कठिन हो गया था और मन में जगह होते ही बढ़िया कमरा भी तैयार। जीवन और जगत का सारा संव्यवहार मानव के मन की विराटता पर चलता है और मानव के मन की तंगदिली पर अटकता है। मन की अटक ही सारे दुःखों की खटक है। जब मनुष्य "मैं और मेरे" के तंग घेरे में बन्द हो जाता है, तब वह सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। परन्तु जब उसके मन में विराट भावना जाग उठती है, तब वह अल्प साधनों में भी सन्तोष के द्वारा सुख लाभ पा लेता है। वह अपनत्व के संकीर्ण घेरे में से निकलकर परिवार, समाज, राष्ट्र और उससे भी बढ़कर विराट विश्व में फैल जाता है। इस स्थिति में पहुँचकर मानव का जागृत मन अपनत्व में समग्रत्व का दर्शन करने लगता है । समग्रत्व के इसी महासागर की तलछट में से मनुष्य ने सुख, सन्तोष, शान्ति और समृद्धि अधिगत करने की अमर कला सीखी है। लाल भवन, जयपुर १७-७-५५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव की विराट चेतना शास्त्रों में और नीति ग्रन्थों में मनुष्य जीवन को सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ कहा है। इतना ही नहीं, मनुष्य को भगवान ने अपनी वाणी में देवताओं का प्यारा कहा है। विचार होता है, कि मनुष्य जीवन की इस श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का मूल आधार क्या है ? सत्ता, महत्ता और वित्तक्या इन भौतिक उपकरणों की विपुलता के आधार पर मनुष्य-जीवन की महिमा वर्णित है ? मैं कहता हूँ नहीं, कदापि नहीं। ऐसा होता तो संसार के इतिहास में रावण, कंस और दुर्योधन मनुष्यों की पंक्ति में सर्व प्रथम गण्य-मान्य होते, परन्तु दुनिया उन्हें मनुष्य न कहकर राक्षस और पिशाच कहती है । उस युग के इन तानाशाहों के पास सत्ता, महत्ता और वित्त की क्या कमी थी ? वित्त और धन-वैभव के उनके पास अम्बार लगे थे। फिर भी वे सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं थे और यही कारण है कि उनका मनुष्य जीवन श्रेष्ठता और ज्येष्ठता की श्रेणी में नहीं आता।। मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का मूल आधार है-त्याग, वैराग्य और तपस्या । यदि जीवन में त्याग की चमक, तपस्या की दमक और वैराग्य की समुज्ज्वलता हो तो निःसन्देह वह जोवन अपने आप में एक तेजस्वी और मनस्वी जीवन है । हर इन्सान को अपने अन्दरः झाँककर देखना चाहिए कि उसके हृदय में सहिष्णुता कितनी है ? उसके मानस में सरसता कितनी है ? और उदारता व सन्तोष कितना है ? यदि ये सद्गुण ( २४ ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव की विराट चेतना २५ उसमें हैं, तो समझना चाहिए कि वह सच्चा इन्सान है। स्नेह, सद्भाव और समता का मधुमय स्रोत जिसके मानस-पर्वत से कल-कल करता बहता हो, संसार में उससे बढ़कर मनुष्य और कौन होगा ? शास्त्रकारों ने मनुष्य जीवन को श्रेष्ठता इस आधार पर कही है कि मनुष्य अपने जीवन को जैसा चाहे वैसा बना सकता है, घड़ सकता है। वह अपना नया विकास और निर्माण कर सकता है। अपने अन्तर में सोये पड़े ईश्वरी भाव को साधना के द्वारा जगा सकता है। अपने काम, क्रोध और मोह प्रभृति विकारों को क्षीण कर सकता है। . मैं आपसे कह रहा था, कि मनुष्य के जीवन की महत्ता-त्याग, वैराग्य और स्नेह-सद्भाव में है । त्याग और वैराग्य से वह अपने आपको मजबूत करता है और स्नेह तथा सद्भाव से वह परिवार, समाज और राष्ट्र में फैलता है। व्यक्ति अपने स्वत्व में बन्द रह कर अपना विकास नहीं कर पाता । व्यक्तित्व का बन्धन मनुष्य की आत्मा को अन्दर ही अन्दर गला डालता है । स्व से पर में, व्यष्टि से समष्टि में और क्षुद्र से विराट में फैल कर ही मनुष्य का मनुष्यत्व सुरक्षित रह सकता है। जितने-जितने अंश में मनुष्य की चेतना व्यापक और विराट होती चली जाएगी, उतनेउतने अंशों में ही मनुष्य अपने विराट स्वरूप की ओर अग्रसर होता जाएगा । भगवान महावीर ने कहा है-"जो साधक सर्वात्मभूत नहीं हो पाता, वह सच्चा साधक नहीं है।" मानव ! तेरी महानता तेरे हृदय के अजस्र बहने वाले अहिंसा स्रोत में है, तेरी विशालता तेरी करुणा और दया के अमृत-तत्व में है और तेरी विराटता है-तेरे प्रेम की व्यापकता में । तेरा यह पवित्र जीवन, जिसे स्वर्ग के देव भी प्यार करते हैं-पतन के गतं में गलने-सड़ने के लिए नहीं है, वह है तेरे उत्थान के लिए। तू उठ, तेरा परिवार उठेगा । तू उठ, तेरा समाज' जागेगा। तू उठ, तेरा राष्ट्र भी जीवन के नव स्फुरण और नव कम्पन की नव लहरियों में लहरने लगेगा। व्यक्ति की चेतना की विराटता में ही जग की विराटता सोयी पड़ी है। महावीर की विराट चेतना केवल महावीर तक ही अटक कर नहीं रह गई, वह जग जीवन के कण-कण में बिखर गई । इसी तथ्य को भारत के मनीषी यों कहते हैं -मनुष्य देव है, मनुष्य भगवान है, मनुष्य सब कुछ है । सोधे रास्ते पर चले, तो वह देव ओर भगवान है और यदि उल्टी राह पर चले, तो वह शैतान, राक्षस और पिशाच भी बन जाता है । नरक, स्वर्ग और Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ अमर भारती मोक्ष - जीवन की ये तीनों स्थितियाँ उसके अपने हाथ में है । जब मनुष्य की आत्मा में उसका सोया हुआ देवत्व जागृत हो जाता है, तब उसकी चेतना भी विराट होती जाती है और यदि उसका पशुत्व भाग जाग उठता है, तो वह संसार में अशान्ति और तूफानों का शैतान हो जाता है । मनुष्य के अन्तर में जो अहिंसा, करुणा, प्रेम और सद्भाव हैं - वे उसके देवत्व के, ईश्वरी भाव के कारण हैं और उसके अन्तर मानस में उठने वाले तथा उसके व्यवहार की सतह पर दीख पड़ने वाले द्व ेष, क्रोध, घृणा और विषमता उसके राक्षसत्व के कारण हैं । इसलिए मनुष्य अपने आप में राक्षस भी है और देवता भी है । इस प्रकार भारतीय चिन्तन की परम्परा मनुष्य को विराट रूप में देखती है। गीता में श्रीकृष्ण के विराट रूप का जो वर्णन आता है, उसका तात्पर्य यही है, कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में एक विराट चेतना लिए घूमता है । हर पिण्ड में ब्रह्माण्ड का वास है । आवश्यकता केवल इस बात की है, कि मनुष्य अपनी सोई हुई शक्ति को जागृत भर करता रहे। S जैन धर्म का यह एक महान सिद्धांत है, कि हर आत्मा परमात्मा बन सकती है, हर भक्त भगवान हो सकता है और हर नर नारायण होने को शक्ति रखता है । वेदान्त दर्शन भी इसी भाषा में बोलता है - " आत्मा तू क्षुद्र नहीं, महान है, तू तुच्छ नहीं, विराट है ।" भारत की विचार परम्परा जन-जीवन में विराटता का प्राणवन्त सन्देश लेकर चली है । चेतना का वह विराट रूप लेकर चली है । भारत के मनीषी विचारकों का प्रेम-तत्व मात्र मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहा - उस प्रेम तत्व की विराट सीमा रेखा में पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और वनस्पति जगत भी समाहित हो जाता है । भारत की विराट जन चेतना ने साँपों को दूध पिलाया है । पक्षियों को मेवा मिष्ठान खिलाया है। पशुओं के साथ भी स्नेह और सद्भाव का सम्बन्ध रखा है । इतना ही नहीं, पेड़ और पौधों के साथ भी तादात्म्य सम्बन्ध रखा है । महर्षि कण्व अपने आश्रम से दुष्यन्त के साथ जब अपनी प्रिय पुत्री शकुन्तला को विदा करते हैं, तब आश्रम की लताएँ और वृक्ष अपने फूल और पत्तों का अभिवर्षण करके अपना प्रेम व्यक्त करते है, हर्ष भाव को प्रकट करते हैं । मैं आपसे विचार कर रहा था, कि भारत की विचार परस्परा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव की विराट चेतना २७ मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से भी स्नेह का प्रेम का तथा सद्भाव का सम्बन्ध स्थापित करती है । मनुष्य की विराट चेतना का यही रहस्य है कि वह केवल मनुष्य समाज तक ही सीमित न रह कर जग के अणु -अणु में व्याप्त हो गई है और इसी में है मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व | लाल भवन, जयपुर १८-१-५५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भारत की विराट आत्मा महान भारत का अतीत युगीन मानचित्र उठाकर देखते हैं, तो उसमें भारत की विराट आत्मा के दर्शन होते हैं । भारत के गौरवपूर्ण अतीत के इतिहास को पढ़ने वाले भली-भाँति जानते हैं, कि इस युग के भारत का क्षेत्रफल कितना विशाल और कितना विराट था ? आज का पाकिस्तान ही नहीं, उसे भी लाँघ कर आज के काबुल के अन्तिम छोरों तक भारत का जन-जीवन प्रसार पा चुका था । केवल भूगोल की दृष्टि से हो उस युग का भारत विस्तृत और महान नहीं था, बल्कि विचारों की उच्चता में, सभ्यता के प्रसार में और अपनी संस्कृति तथा धर्म के फैलाब में भी भारत महान और विराट था । उस युग के भारत का शरीर भी विशाल था और उसकी आत्मा भी विराट थी । आज का भारत क्या पूछते हो तुम आज के भारत की बात ? वह देह से भी छोटा और ओछा होता जा रहा है और विचारों से भी बोना बनता चला जा रहा है । यह एक खतरा है । मैं आपसे भारत की विराटता की बात कह रहा था । परन्तु, प्रश्न यह है, कि वह विशालता और विराटता कहाँ से आयी और कहाँ चली गई ? प्रश्न के समाधान के लिए हमें विचार महासागर के अन्तस्तल का संस्पर्श करना होगा । जन जीवन की संस्कारिता और समुज्ज्वलता किसी भी देश की शिक्षा और दीक्षा, आदेश और उपदेशों पर निर्भर रहा करती है । पुरातन ( २८ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की विराट आत्मा २ भारत में शिक्षा और दीक्षा दोनों साथ-साथ चला करती थी, जन जीवन के ये दोनों अविभाज्य अंग माने-समझे जाते थे । जन जीवन की वेधशाला में विज्ञान के साथ उसका प्रयोग भी चलता था । प्राचीन भारत में शिक्षा के बड़े-बड़े केन्द्र खुले हुए थे, जिन्हें उस युग की भाषा में 'गुरुकुल' कहा जाता था । आज जिन्हें आप हम कॉलेज और यूनिवर्सिटी कहते हैं । आज के ये शिक्षा केन्द्र नगर के कोलाहल संकुलित वातावरण में चलते हैं, परन्तु वे गुरुकुल वनों और जंगलों के एकान्त व शान्त वातावरण में चलते थे । मानव के नैतिक जीवन की पावनता की सुरक्षा जितनी प्रकृति माता की मंगलमयी और मोदभरी गोद में रह सकती है, वैसी भोग-विलास से भरे - पूरे नगरों में नहीं । गुरुकुलों के पुण्य प्रसंगों में आचार्य और उनके शिष्य एक साथ रहते-सहते, एक साथ खाते-पीते और एक साथ उठ-बैठते थे । आचार्य अपने शिष्यों को जो भी शिक्षा देता, वह आज की तरह पोथीपन्नों के बल पर नहीं, बल्कि वह ज्ञान को आचरण का रूप देता था, जिसका शिष्य अनुसरण करते । शिक्षा को दीक्षा में उतार कर बताया जाता था । ज्ञान को कर्म में उतारा जाता था । बुद्धि और हृदय में समन्वय साधा जाता था । उस युग का आचार्य या गुरु अपने शिष्यों से या अपने छात्रों से स्पष्ट शब्दों में चेतावनी और सावधानी देता हुआ कहता था" यान्यस्माकं सुचरितानि तान्येव सेवितव्यानि नो इतराणि । " मेरे प्रिय छात्रों ! मैं तुमसे स्पष्ट शब्दों में जीवन का यह रहस्य कह रहा हूँ कि तुम मेरे सुचरितों का और सद्गुणों का अनुसरण करना, परन्तु दुर्बलता और कमजोरी का अनुसरण मत करना। जीवन में जहाँ कहीं भी सद्गुण मिले ग्रहण करो और दोषों की ओर मत देखो । ये हैं, वे प्राचीन भारत की शिक्षा-दीक्षा के जीवन-सूत्र, जो देश और समाज की बिखरी शक्ति को संयत करते हैं और राष्ट्र की आत्मा को विशाल बनाते हैं । मैं आपसे कह रहा था, कि उस युग का भारत इतना विराट क्यों था ? किसी भी देश की विराटता वहाँ के लम्बे-चौड़े मैदान, ऊँचे गगन - चुम्बी गिरि और विशाल जनमेदनी पर आधारित नहीं होती । उसका मूल आधार होता है - बहाँ के जन जीवन में धर्म की भावना और मनों की विराटता । छात्रजन गुरुकुल की शिक्षा को पूरी करके अपने गृहस्थ जीवन में जब वापिस लौटता, तब अपने दीक्षान्त भाषण में आचार्य कहता था"धर्मे धीयतां बुद्धिर्मनस्ते महदस्तु च । " Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर भारती वत्स ! तुम्हारी बुद्धि धर्म में रमे । तुम अपने जीवन के क्षेत्र में कहीं पर भी रहो, परन्तु अपने धर्म, अपने सत्कर्म, अपने शुभ संकल्प और अपने जीवन की पवित्रता को न भूलो। जीवन के संघर्ष में उतरते ही तुम्हारे मार्ग में विकट संकट, विविध बाधाएँ और अनेक अड़चनें भी आ सकती हैं, किन्तु उस समय भी तुम अपने मन में धैर्य रखना, अपने धर्म के प्रति वफादार रहना, अपने सदाचार के प्रति वफादार रहना तथा अपने जीवन की पवित्रता, जो वंश परम्परा से तुम्हें प्राप्त है और जो भारत की संस्कृति का मूल है— उस धर्म को तुम कभी न भूलना और अपनी बुद्धि को सदा धर्म के संस्कारों से संस्कृत करते रहना । एक ओर शूली की नोंक हो और दूसरी ओर धर्म त्यागने की बात हो, तो तुम शूली की पैनी नोंक पर चढ़ जाना, परन्तु अपने धर्म को कभी मत छोड़ना । जीवन में धन बड़ा नहीं, धर्म बड़ा है | मान बड़ा नहीं, धर्म बड़ा है । अपनी बुद्धि को धर्म में लगा दो, धर्म में रमा दो । ३० आचार्य आगे फिर कहता है - " मनस्ते महदस्तु च - वत्स ! तेरा मन विराट हो, तेरा हृदय विशाल हो ।" भारत का दर्शन और धर्म मानव के मन को विराट बनने की प्रेरणा देता है । मनुष्य के मन में जब छोटापन और हृदय में जब क्षुद्रता पैठ जाती है, तब वह अपने आप में घिर जाता है, बन्द हो जाता है । उसके मानस का स्नेह रस सूख जाता है, उसके मन में किसी के भी प्रति स्नेह और सद्भाव नहीं रहता । हृदय की क्षुद्रता और लक्ष्य की संकीर्णता मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा दोष है । इस दोष के कारण ही मनुष्य अपने परिवार में घुल-मिल नहीं पाता, वह घर में जब जाता है, तो सबके चेहरों की हंसी गायब हो जाती है । औछे विचारों का मनुष्य अपने समाज और राष्ट्र के जीवन में भी मेल-मिलाप नहीं साध सकता । उसकी संकीर्णता की दीवार उसे विश्व के विराट तत्व की ओर नहीं देखने देती । भारत का दर्शन और भारत का धर्म मानव मन की इस संकीर्णता को, क्षुद्रता को और अपनेपन को तोड़ने के लिए ही आचार्य के स्वर में कहता है - " मनस्ते महदस्तु च ।" मनुष्य तेरा मन महान् हो, विराट हो। उसमें सबके समा जाने की जगह हो । तेरा सुख सबका सुख हो । तेरे अन्तर मन में परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति मंगलमयी भावना हो । कल्याण की कामना हो । अपनेपन की सीमा में ही तेरा संसार सीमित न हो, समग्र वसुधा तेरा कुटुम्ब हो, परिवार हो । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की विराट आत्मा ३१ तो, भारत की विराटता और विशालता का अर्थ हुआ - यहाँ के दर्शन और धर्म की विशालता । भारत का धर्म और दर्शन जो कभी यहाँ के जनजन के मन में रमा हुआ था, वह पोथियों में बन्द है, मन्दिर और मस्जिदों की दीवारों में कैद है । धर्म और दर्शन जब जन जीवन में उतरता है, तब उस देश की आत्मा विराट बनती है । शरीर की विशालता को भारत महत्त्व नहीं देता, वह देता है मन की विराटता को । शरीर की विशालता कुम्भकर्ण, कंस और दुर्योधन को पैदा करती है, जिससे संसार में हाहाकार मचता है और तूफान आता है, परन्तु मन की विराटता में से राम, कृष्ण; महावीर बुद्ध अवतार लेते हैं - जिससे ससार में सुख, शान्ति और आनन्द का प्रसार होता है । देश फलता और फूलता है । मैं आपसे कह रहा था, कि भारत के उन्नयन का कारण भारत के धर्म और दर्शन के उन्नयन में रहा हुआ है, जिस देश के निवासियों का हृदय विशाल हो, मन विराट हो, उसमें धर्म-तत्व रमा हो, दर्शन -तत्व के अमृत से जिस देश के हृदयों का अभिसिञ्चन हुआ हो, वह देश फिर विराट और विशाल क्यों न हो ? लाल भवन, जयपुर २४-७-५५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल पूजा : धर्म नहीं काल बड़ा है या मानव महान् है ? यह एक प्रश्न है, जो अपना . मौलिक समाधान चाहता है ? भिन्न-भिन्न प्रकार से इसका समाधान किया गया है । एक आचार्य ने तो यहां तक कहा-“मनुष्य न अपने आप में बलवान है और न दुर्बल । समय व काल ही मनुष्य को महान् व क्षुद्र बनाता है।" "समय एव करोति बलाबलम् ।" आचार्य ने सम्पूर्ण शक्ति काल के हाथों में सौंप कर मनुष्य को पंग बना डाला है। मनुष्य काल के आधीन है। काल अच्छा, तो मनुष्य भी अच्छा । काल बुरा, तो मनुष्य भी बुरा । परन्त जैन संस्कृति इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है । जैन धर्म के महान् चिन्तकों ने मनुष्य के जीवन की बागडोर काल के हाथ में न थमा कर स्वयं मनुष्य के हाथ में ही सौंपी है । उन्होंने कहा-“मनुष्य, तू अपने आप में लघु और हीन नहीं, महान् और विराट है । तेरा चढ़ाव और ढलाव, तेरा उत्थान और पतन, तेरा विकास और विनाश स्वयं तेरे हाथ में है । तू स्वयं ही अपने जीवन का राजा है, भाग्य विधाता और निर्माता है-अपने आपको चाहे जैसा बना ले ।" तू उठता है, तो तेरे साथ में जगत् भी उठता है। तेरी आत्मा में अनन्त शक्ति का अजस्र स्रोत प्रवाहित है, उसके प्रकटीकरण में काल निमित्त मात्र भले ही रहे, परन्तु उपादान तो स्वयं तेरी आत्मा ही है। ( ३२ ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ काल पूजा, धर्म नहीं जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार षट द्रव्यों में जीव भी है और काल भी । जीव सचेतन है और काल अचेतन है, जड़ है । किन्तु, मुझे कहना पड़ता है कि आज समाज में और राष्ट्र में काल की पूजा हो रही है, जबकि होनी चाहिए सचेतन मनुष्य की । काल को लेकर समाज में बड़ा विवाद चल पड़ता है । वातावरण अशान्त ही नहीं, विषाक्त भी हो जाता है । उदय और अस्त के कलह, चतुर्थी और पंचमी के विग्रह, संवत्सरी और वीर जयन्ती के संघर्ष प्रतिवर्ष इस जड़ काल पूजा के कारण हमें परेशानी में डाले रखते हैं । संवत्सरी सावन की करें या भादवे की ? चतुर्थी की करें या पंचमी की ? शताधिक वर्षों में भी हम इसका समाधान नहीं कर सके, निष्कर्ष नहीं निकाल सके । यह काल की पूजा नहीं तो और क्या है काल-पूजा का अर्थ है - जड़ पूजा, जो मानव के सचेतन और सतेज जीवन को भी जड़ बना देती है । संवत्सरी, वीर जयंती आदि पर्वों को लेकर संघ के संघटन का विघटन करना, संघर्ष का तूफान खड़ा करना और समाज के शान्त वातावरण को उत्तेजना पूर्ण वना डालना काल की जड़ पूजा नहीं; तो क्या है ? बड़ी विचित्र बात है, यह । आपके हाथ को हथेली पर मिसरी की डली रखी है | आप पूछते फिरें कि " कब खाने से इसमें अधिक मिठास निकलेगा ? भोले भाई, यह भी कोई पूछने की बात है ? जब अपनी जीभ पर रखेगा, तभी उसमें से मिठास निकलेगी । क्योंकि मिठास देना मिसरी का स्वभाव है और मिठास लेना जीभ का । लोग हमसे पूछते हैं, तप कब करें ? कब करने से अधिक फल होता है ? पहले भादवे में संवत्सरी करने में धर्म है या दूसरे भादवे में ? मैं कहता हूँ कि धर्म तो विवेक में है । यदि विवेक है, तो दोनों में से कभी भी क्यों न करो। यदि विवेक नहीं है, तो फिर भले सावन में करो, अथवा भादवे में करो । भावना शून्य क्रिया का जीवन में कुछ भी मूल्य नहीं है । क्योंकि धर्म का आधार भावना पर है, न कि जड़ भूतकाल पर । विराट काल के विशाल पट पर कहीं पर भी सावन और भादवे की चतुर्थी और पंचमी की छाप अंकित नहीं है । जोवन का संव्यवहार स्थूल तत्व को पकड़ कर चलता है । सामाजिक और सामूहिक जीवन में संघविचारणा को लेकर ही इन बाहरी स्थूल मर्यादाओं का मूल्य आंका जाना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अमर-भारती चाहिए । वास्तविक मूल्य तो मानव के विचार का और संकल्प का है। जिससे संघ में शान्ति और समता का प्रसार हो, वह कार्य धर्ममय माना जाना चाहिए । जैनधर्म में काल की अपेक्षा शान्ति, समता और समभाव का मूल्य अधिक है । क्योंकि जैनधर्म आत्मा का धम है । वह चैतन्य जगत का धर्म है। उसका सम्बन्ध आपके अन्तर मन से है। जीवन में सद्गणों का विकास करना, मानव के मन का काम है या काल का ? मैं देख-सुन रहा है कि समाज के पत्रों में आज-कल संवत्सरी को लेकर काफी गर्म चर्चा चल पड़ी है । कोई कहता है, संवत्सरी पहले भादवे में करो-यही सिद्धान्त सम्मत है । कोई कहता है-दूसरे भादवे में करोयह शास्त्रानुकूल है । कोई पहले ५० दिनों को पकड़ कर चलते हैं और कोई पिछले ७० दिनों को पकड़ कर बैठा है। इन ५० और ७० से आत्मा का कल्याण होने वाला नहीं है। आत्मा का कल्याण होगा, आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र को विशुद्ध करने से । आत्मा को शुद्ध करने वाला हो सच्चा आराधक है। यदि आत्म-संशुद्धि की भावना से जप-तप किया जाता है, तो वह ५० और ७० दोनों में भी हो सकता है। दोनों पक्षों में मुख्य वस्तु है, शुद्ध भावना । मेरी समझ में नहीं आता-लोग किस बात पर संघष करते हैं । भला यह भी क्या बात है कि सत्य बोलना ठीक है, परन्तु वह पहले भादवे में बोला जाए या दूसरे भादवे में । पहले में बोलने से अधिक धर्म है या दूसरे में बोलने से ? कितनी नासमझी का प्रश्न है ? भगवान की वाणी है-"सच्यं लोगम्मि सारभूयं, सच्चं खु भगवं ।" सम्पूर्ण लोक का सारतत्त्व सत्य ही है, सत्य ही तो भगवान् है । जब बोलो, तभी वह मधुर है, सुन्दर है। तप करना है, पर कब करें ? चतुर्थी को या पंचमी को । सप्तमी को या अष्टमी को ! त्रयोदशी को या चतुर्दशी को ? मैं कहता हूँ. इस प्रकार सोचना ही गलत है। क्योंकि तप तो आत्मा का तेज है। जब करोगे, तभी चमकोगे, तभी दमकोगे। दीपक प्रज्वलित होते ही प्रकाश बिखेरता है। हमारी दृष्टि तो यह होनी चाहिए कि समाज में और संघ में जिस किसी भी प्रकार शान्ति, समता, स्नेह और अनुशासन बड़े, उस अवस्था के Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ काल पूजा, धर्म नहीं अनुसार व्यवस्था कर लेनी चाहिए। सादड़ी सम्मेलन में जिस भावना का आधार लेकर हमने निर्णय कर लिया है उसका पालन होना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य भी है । श्रमण संघ के अनुशासन का परिपालन हमारे लिए महान् धर्म है, भले ही हमसे विपरीत मतवालों की दृष्टि में वह निर्णय योग्य न भी हो । एक ओर श्रमण संघ के संविधान का अनुशासन और दूसरी ओर विरोधी मत की कटु और तीव्र आलोचना का भय । परन्तु हमें विचारना यह होगा कि इन दोनों में से हमें कौन-सा पक्ष वरेण्य है । आज के श्रमण संघ को ओर श्रावक संघ को यही निर्णय करना है। याद रहे होनहार परम्परा के अग्रदूत श्रमण संघ का इतिहास यों लिखेंगे - " श्रमण संघ अपने अनुशासन में सुदृढ़ रहा, कटु आलोचना और तीव्र भर्त्सना के बावजूद भी ।" अथवा - " श्रमण संघ का बालू का किला ढह गया, विरोधी मत की कटु आलोचना और तीव्र भर्त्सना से ।" आज के श्रमण संघ को अपने भविष्य के भाल-पट्ट पर क्या लिखवाना अभिप्रेत है ? इसका सुदृढ़ निर्णय उसे आज या कल में करना होगा । लाल भवन, जयपुर २७-७-५५ * Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ध्येय-हीन जीवन, व्यर्थ है आपका जीवन आपका सबसे अधिक मूल्यवान धन है । आपके जीवन की सारी सफलता आपके जीवन के ध्येय पर आधारित है। आप अपने जीवन में जो करना चाहते हैं, और होना चाहते हैं, उस पर अधिक से अधिक चिन्तन करें, मनन करते रहें। जीवन का अनुभव मनुष्य को महान् बनाता है । क्योंकि अनुभव संसार का सवंतो महान् गुरु होता है । जीवन के नित्य-निरन्तर अनुभव से मनुष्य बहुत-सी भूलों से बच जाता है और अपने ध्येय को और मजबूत कदमों से चल पड़ता है। सम्पूर्ण जीव-सृष्टि में मानव जीवन से श्रेष्ठ अन्य जीवन नहीं है, क्योंकि मनुष्य जीवन ही मुक्ति का द्वार है । स्वर्गवासी देव भी मनुष्य जीवन की कामना करते रहते हैं। जैनागमों में एक शब्द है-"देवाणुप्पिया" जिसका अर्थ होता है, देवताओं का प्रिय अर्थात् मानव जीवन-भौतिक सत्ता के अधिष्ठाता देवों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है। परन्तु यहाँ पर जो मनुष्य जीवन को देव प्रिय कहा गया है, उसका अर्थ केवल हाड़-मांस के ढेर इस मानव देह से नहीं है, बल्कि मानव की आत्मा और मानव मन की पवित्रता से ही आंकना चाहिए। मनुष्य जीवन की सफलता तब है, जबकि वह अगरबत्ती के समान हो। अगरबत्ती अपने आपको जला कर भी आस-पास के वातावरण को महका देती है। अगरबत्ती से पूछा जाय कि तू जलकर भी खुशबू क्यों ( ३६ ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय-हीन जीवन, व्यर्थ है ३७ छोड़ती है ? तो वह कहेगी — क्योंकि यह मेरा स्वभाव है । मैं जलती रहूँगी, पर दूसरों को आनन्द देती रहूँगी । यही मेरे जीवन का ध्येय है । मोमबत्ती की भी यही दशा है । वह स्वयं जलती है, पर दूसरों को प्रकाश देती है । प्रकाश देना उसके जीवन का ध्येय बन गया है । कण-कण करके जलने वाली मोमबत्ती मुक्त-भाव से अपने प्रकाश-धन को बिखेरती रहती है | जलाने वाले से मोमबत्ती कहती है " बहारें लुटा दीं, जवानी लुटा दी । तुम्हारे लिये जिन्दगानी लुटा दी || " कवि कहता है - मोमबत्ती का जीवन भी क्या जीवन है ? वह अपना यौवन, अपना वसन्त और अपना जीवन, जलाने वाले इन्सान को अर्पित कर देती है । जब तक उसका जीवन शेष रहता है, निरन्तर वह प्रकाश की किरणें बिखेरती ही रहती है- यही उसके जीवन की शान है । इसी तरह मनुष्य वह है, जो दूसरों के रुदन को हास में परिणत कर दे । जो हृदय में स्नेह की सुरभि रखता है और बुद्धि में विवेक का प्रकाश लेकर जीवन यात्रा में चलता रहता है । मनुष्य का यह स्वभाव होना चाहिए कि वह इस संसार - सदन में अगरबत्ती के समान महके और मोमबत्ती के समान जले । परिवार, समाज और राष्ट्र की दुर्गन्ध और अन्धकार को दूर करता रहे - यही मानव जीवन का ध्येय है । मनुष्य और पशु में क्या भेद है ? यही कि पशु डण्डे से हांका जाता है और मनुष्य विवेक से स्वयं चलता है। बिना विचार और विवेक के पशु और मानव में भेद - रेखा नहीं रहती । फूल का निवास कांटों की सेज पर होता है। गुलाब का फूल कितना मोहक होता है । परन्तु उसके चारों ओर कांटे खड़े रहते हैं । वह कांटों में भी मुस्कराता है । कांटों की सेज पर बैठा भी हँसता रहता है मनुष्य का जीवन भी गुलाब का फूल है, जिसमें स्नेह की सुरभि और सत्य का सौन्दर्य है । परिवार और समाज की समस्यायें वे काँटे हैं, जिसमें जीवन गुलाब घिरा रहता है । परन्तु साहसी मनुष्य कभी व्याकुल नहीं होता । वह विकट संकटों में भी हंसता ही रहता है। अनुकूल वातावरण में मुस्कराना बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है, प्रतिकूलता में भी अपने मन को प्रसन्न और शान्त रखना । यदि मनुष्य ऊँचे पद पर पहुँचकर नम्रता और शिष्टता को भूला Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अमर-भारती नहीं है, तो कहना होगा कि उसमें मनुष्यता शेष है । पदानुरागी और मदानुरागी मनुष्य में मनुष्यता का संदर्शन सुलभ नहीं कहा जा सकता । रोम के पोप के जीवन का एक मधुर प्रसंग है । एक बार पोप के दर्शन को उसके गांव का एक बड़ा-बूढ़ा मनुष्य आया । वृद्ध ने अपने गाँव में जब यह सुना कि मेरे ही गाँव का एक तरुण युवक पोप बना है, तब वह अपने हृदय के आनन्द को रोक नहीं सका । पोप से मिलने को रोम जा पहुँचा । वृद्ध ने पोप के निवास स्थान पर जाकर देखा - हजारों भक्त और सैकड़ों पादरियों के मध्य में पोप विराजित है । पोप ने भी ज्यों ही अपने गाँव के बूढ़े को देखा, त्योंही अपने सिंहासन से खड़ा हो गया और वृद्ध को अभिवादन भी किया । बड़े प्रेम के साथ बातचीत करने लगा । परन्तु पादरियों से यह देखा नहीं गया। उन्होंने कहा - आप यह क्या कर रहे हैं ? आप खड़े क्यों हो रहे हैं ? आप अभिवादन और सत्कार किसका कर रहे हैं ? पोप ने मधुर-भाव से कहा - " मेरे गाँव के बड़े-बूढ़े व्यक्ति आये सत्कार करना मेरा कर्तव्य है ।" पादरियों ने कहा- नहीं, यह ठीक नहीं । आप पोप हैं । विश्व में आपसे बड़ा कौन है ? किसी का अभिवादन और सत्कार करना, यह पोप की मर्यादा की परिधि से बाहर है । पोप ने हँस कर कहा - " आप ठीक कहते होंगे । परन्तु क्या करूँ ? मेरी इन्सानियत अभी जिन्दा है, वह मरी नहीं है ।" बात सुनकर हँसी आना सहज है । किन्तु पोप की बात में जीवन का कितना महान् सत्य भरा है । अपना विकास करो, अभ्युदय करो - पर नम्रता और शिष्टता को भूलकर नहीं । मैं आपसे जीवन के ध्येय की बात कह रहा था । जीवन का ध्येय क्या है ? क्या मानव देह प्राप्त कर लेना ही जीवन का ध्येय है ? कदापि नहीं । वीतराग की वाणी है - माणुस्सं खु दुल्लह ।" मनुष्य बनना कठिन नहीं, मनुष्यत्व को प्राप्त करना ही वस्तुतः कठिन है । मानव देह पाना जीवन का ध्येय नहीं है, जीवन का सच्चा ध्येय है, मानवता को प्राप्त करना, इन्सानियत को पाना । मैं कह रहा था कि मनुष्य वह है, जो अपने हृदय में प्रेम और सद्भाव रखता है । मनुष्य वह है, जिसके दिल में दया और अनुकम्पा है । मनुष्य वह है, जो भ्रातृ-भाव की सरस तरंगों में तरंगित है । मनुष्य वह है, 1 1 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय-हीन जीवन, व्यर्थ है ३६ जो यह कहता है कि आओ, मैं भी जीवित रहूँ और तुम भी । मनुष्य वह है, जो वैर-विरोध के क्षणों में भी अपने कर्तव्य को नहीं भूलता है। आपके राजस्थान के जन जीवन की एक घटना है एक ही नगर में और एक ही मुहल्ले में रहने वाले दो राजपूतों का परस्पर वैर-विरोध बड़े लम्बे अर्से से चल रहा था। दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। दोनों अवसर की तलाश में थे। कब अवसर मिले, और कब मार्ग का काँटा साफ हो ? यह थी, उन दोनों के मन की विनाशक भावना। एक दिन का प्रसंग है कि राजा का मदोन्मत्त गजराज बन्धन तुड़ा कर भाग निकला । जिधर भी गया, सर्वनाश करता गया। बाजार, गली और मुहल्ले सबमें सन्नाटा छा गया। एक बच्चा गली के मोड़ में से निकला और दूसरी तरफ जाने को भागा । सामने से यमराज की तरह गजराज आ पहुँचा । लड़के का पिता भी यह भयंकर दृश्य देखकर कांप गया। परन्तु अपने प्राणों के मोह से छुपा ही खड़ा रहा, साहस करके अपने लाडले लाल की रक्षा करने के लिए आगे नहीं बढ़ सका। प्राणों का भय मनुष्य को कायर बना देता है । जहाँ सबको अपने प्राणों की पड़ी हो, वहाँ दूसरों के प्राणों की रक्षा करना, विरले मनुष्यों का ही काम है। लेकिन वह राजपूत जो उस लड़के के बाप का कट्टर वैरी था और वह यह भी जानता था कि यह लड़का मेरे वैरी के घर का एकमात्र चिराग है, वह बिजली के वेग से आगे बढ़ा और लड़के को गजराज के आगे से गोद में भर कर भागा । मौत के भयानक मुँह में से स्वयं भी निकला और लड़के को भी बचा लाया । वह चाहता, तो अपने वैर का बदला चुका सकता था। परन्तु उसकी दिव्य मानवता ने उसे यह क्रूर-दृश्य देखने नहीं दिया। नगर के हजारों लोगों ने दिल दहलाने वाले इस भयंकर दृश्य को देखा और उस साहसी तथा सच्चे इन्सान की जय-जयकार करने लगे । लड़के का पिता भी उसकी सच्ची मानवता को देख कर पिघल गया । अपने वैर-विरोध और घृणा को भूल गया । लड़के का पिता उसके पैरों में गिर पड़ा और बोला-तू मेरे प्राणों का गाहक था, मेरा सर्वनाश करने को तुला हुआ था, फिर तूने जान-बूझकर मेरे घर के चिराग की रक्षा कैसे कर ली? लड़के को बचाने वाले राजपूत ने गम्भीर स्वर में कहा-“मेरी . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अमर-भारती लड़ाई तुझसे है, तेरे लड़के से और तेरे घर वालों से नहीं । यह बच्चा जैसा तेरा वैसा मेरा । यदि आज मैं इसके प्राणों की रक्षा नहीं करता, तो मेरी मानवता, दानवता में बदल जाती।" ___ मैं आपसे कह रहा था कि न जाने कब, मनुष्य के अन्तर में प्रसुप्त देवत्व और दानत्व जाग उडे ? मनुष्य की मनुष्यता की परीक्षा इसी प्रकार के प्रसंगों में होती है। इस घटना ने उन दोनों राजपूतों के जीवन के मोड़ को ही मोड़ दिया ! जहाँ पहले वैर, विरोध और घृणा की आग जल रहो थी, वहाँ अब स्नेह, सद्भाव और मैत्री की सरस सुन्दर सरिता प्रवाहित होने लगो । भगवान् महावीर ने और संसार के दूसरे महापुरुषों ने मनुष्य जीवन को 'देव प्रिय और दुर्लभ" कहा है, वह इसी प्रकार के मनुष्य जीवन की बात है । संसार में देहधारी मनुष्य तो करोड़ों और अरबों हैं, परन्तु अन्तर मन के सच्चे मनुष्य तो इस संसार में बिरले ही मिलते हैं। ____ मैंने अभी आपसे कहा था-मनुष्य का सबसे अधिक मूल्यवान धन है, उसका जीवन और उसके जीवन की सफलता का अमर आधार है, उसका पवित्र ध्येय । ध्येय के बिना जीवन में चमक-दमक नहीं आ पाती। मनुष्य जीवन का ध्येय क्या हो ? इस प्रश्न का समाधान उस मनुष्य की स्थिति और अवस्था पर अवलम्बित है। सेवा, भक्ति, परोपकार, दया, प्रेम" इन पवित्र भावों में से कोई भी एक भाव जीवन का ध्येय बन सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि इन्सान को अपना एक ध्येय स्थिर कर लेना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन यापन करना चाहिए। क्योंकि ध्येय बिना का जीवन एक जड़ जीवन है, निष्क्रिय जीवन है।। __ कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अपने मित्र को पत्र लिखता है। एक कार्ड लिखता है । कार्ड बड़ा मजबूत और सुन्दर है। बेल-बूटे भी उस पर हो रहे हैं । आर्ट पेपर का चिकना कार्ड है । सुन्दर अक्षरों में सुन्दर बनावट से लिखा गया है। लिखने में और अनेक रंग की स्याही से उसे सज्जित करने में पर्याप्त श्रम किया है, परन्तु उस पर भेजने वाला व्यक्ति भेजने के स्थान का पता लिखना भूल गया है। मैं आपसे पूछु कि क्या यह कार्ड अपने लक्ष्य पर पहुँच सकेगा ? कभी नहीं । वह तो लेटर वाक्स से निकलते ही डैड औफिस में डाल दिया जाएगा। कार्ड का आर्ट पेपर, रंग-बिरंगी स्याही और लिखने की सुन्दर कला, क्या काम आई ? यही स्थिति मनुष्य जीवन को भी है । लम्बा-चौड़ा शरीर हो, गौर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय-हीन जीवन, व्यर्थ है ४१ वर्ण हो, अंग-विन्यास व्यवस्थित हो, देह में बल-शक्ति भी हो, परन्तु यदि इस सुन्दर मनुष्य जीवन का कोई ध्येय न हो, तो सुन्दर रेशमी-वस्त्र और माणक-मोतियों के अलंकार भी मनुष्य शरीर के वास्तविक अलंकार नहीं हैं । इनकी कोई कीमत नहीं होती । ये तो पते बिना के कार्ड के समान हैं। यदि जीवन में ये सब कुछ होकर भी मनुष्यता, दया, प्रेम और सद्भाव नहीं तो वह जीवन पते बिना के कार्ड के समान व्यर्थ है, निरर्थक है। सुन्दर कार्ड पर जैसे पता आवश्यक है, वैसे ही जीवन में ध्येय भी आवश्यक है। लाल भवन, जयपुर ३१-७-५५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-संस्कृति का मूल स्वर : विचार और आचार मानव की जय और पराजय उसके अन्तर में ही रहती है । जब तक उसमें विचार शक्ति और आचार बल है, तब तक उसे भय नहीं, खतरा नहीं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता और विजय श्री उसे उपलब्ध होती रहती है । विचार तथा आचार-ये दोनों शक्ति के अक्षय भंडार हैं । जैन संस्कृति का मूल स्वर-विचार और आचार ही है । भगवान् महावीर ने कहा है साधक तू साधना के महामार्ग पर आया है । इधर-उधर न देखकर सीधे लक्ष्य की ओर देखना तेरा परम धर्म है। यह तेरा जीवन-सूत्र है। विचार और आचार तेरी यात्रा में संबल हैं, पाथेय हैं। इनकी भूल पर तू साधना नहीं कर सकेगा। सदा इनकी संस्मृति रख कर चलता चल । विचार प्रकाश है और आचार शक्ति । प्रकाश ओर शक्ति के सुमेल से जीवन पावन होता है । साधक भले श्रमण हो या श्रावक, सन्त हो या गृहस्थ दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही है-नित्य-निरंतर ऊपर उठना। साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरना । पक्षी अपने घोंसले से निकलते ही अनन्त गगन में अपनी शक्ति भर उड़ान भरता है। पर, कब ? जबकि ( ४२ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का मूल स्वर : विचार और आचार ४३. उसकी दोनों पाँखें सशक्त हैं, स्वस्थ हैं, मजबूत हैं । पक्ष-विहीन पक्षी कैसे उड़ान भर सकता है ? बिना पांख का पखेरू नीचे जमीन पर ही गिरता है । उसके भाग्य में अनन्त गगन का आनन्द कहाँ ? यदि वह दुर्भाग्यवश उड़ने का संशल्प भी करे, तो मिट्टी के ढेले की तरह नीचे की ओर ही पड़ेगा, ऊँचे नहीं उड़ेगा । यदि एक पांख का पक्षी हो, तो उसकी भी यही गति होती हैं, यही दशा होती है । उसके भाग्य में पड़ना लिखा है, उड़ना नहीं । मैं आपसे कह रहा था - साधक कोई भी क्यों न हो ? श्रमण हो, श्रमणी हो, श्रावक हो, श्राविका हो और भले ही वह सम्यग् - दृष्टि ही क्यों न हो । साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरने के लिए विचार और और आचार की मजबूत पांखें होनी चाहिए। तभी वह बेखतरे ऊँचे उड़ सकता है ? इस विषय को लेकर भारत के चिन्तकों में पर्याप्त मतभेद हैं । कुछ कहते हैं - जीवनोत्थान के लिए केवल विचार ही चाहिए, आचार की आवश्यकता हो क्या ? ब्रह्म को जान लेना, बस यही तो मुक्ति है । आत्म तत्व को जान लेने मात्र से माया के बन्धन टूट जाते हैं । अतः विचारज्ञान मुक्ति का अनिवार्य साधन है । कुछ कहते हैं - जीवन को परम पवित्र करने लिए केवल आचार चाहिए, केवल क्रिया चाहिए। पूजा करो, भक्ति करो, जप करो, तप करो - शरीर को तपा डालो, बस यही तो है, मुक्ति का मार्ग । जीवन में करना ही सब कुछ है । ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है | भगवान ने अथवा आचार्यों ने जो बताया है, वह ठीक है । वे बता गये और हमें करना है । लक्ष्य पर पहुँचने के लिए यात्रा में पैरों की जरूरत रहती है । आँख भले ही न हो, चलने में पैरों की ही जरूरत रहती है । परन्तु मैं कहता हूँ कि यह एकांगी चिन्तन और विचार जैन संस्कृति की साधना में उपयुक्त नहीं है । वहाँ तो आँख और पैर दोनों की आवश्यकता ही नहीं, अपितु अनिवार्यता भी है । चलने के लिए पैरों की जरूरत है, यह ठीक है, पर देखने के लिए आँखों की भी आवश्यकता है ही । "देखो और चलो” यह सिद्धांत तो ठीक है परन्तु चलते ही चलो, देखो मत, यह मत ठीक नहीं है । अन्धों की तरह चलने में कोई लाभ नहीं है | भगवान महावीर कहते हैं - "जीवनोत्थान के लिए जीवन विकास के लिए, जीवन की पवित्रता के लिए और जीवन की सिद्धि के लिए विचार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अमर-भारती और आचार, ज्ञान और क्रिया दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। ज्ञान को क्रिया की और क्रिया को ज्ञान की आवश्यकता है। साधक को देखने के लिए आँख चाहिए और चलने के लिए पैर भी चाहिए । जैन संस्कृति का यह परम पवित्र सूत्र है "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ।" ज्ञान और क्रिया से मोक्ष मिलता है। विचार और आचार से मुक्ति मिलती है । साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरने के लिए साधना करो विचार की, साधना करो आचार की। जीवन में प्रकाश भी हो और चलने की शक्ति भी। .. मै कह रहा था कि विचार एवं विवेक के अभाव में साधक विपथ पर भी जा सकता है। जो नहीं करना चाहिए वह भी कर बैठता है। मैं एक बार एक ग्राम में ठहरा हुआ था। वहाँ एक भक्त था श्रीदास । भक्ति में मगन रहता । सन्तों की सेवा करता । जप और तप में उसे बड़ा आनन्द आता। पढ़ा लिखा नहीं था । परन्तु बहुत से सन्तों की वाणी उसे याद थी। बोलने लगता तो झड़ी लगा देता। एक दिन वह बिगड़ बैठा। गाली देने लगा। जिस मुख से भक्ति के फूल झड़ते थे, आज उस मुख से अंगारों की बरसा हो रही थी। सब लोग हैरान थे कि इसे आज हो क्या गया ? एक सज्जन ने साहस करके पूछा-भक्त जी, गाली किसे दे रहे हो ? और किस लिए दे रहे हो ? भक्त श्रीदास जी ने तपाक से कहा--"जिसे मेरी घरवाली दे रही है और जिस लिए दे रही है। मैं भी उसे ही दे रहा हूँ। आखिर, पत्नी की बात तो रखनी ही पड़ती है न ?" श्रीदास के साथ किसी का संघर्ष नहीं। उसे यह भी पता नहीं कि किसके साथ और किस बात पर झगड़ा हो गया। घरवालो गाली देती घर में आई, तो खुद भी गाली देने लगा। जहाँ विवेक नहीं, विचार नहीं, चिन्तन नहीं, वहाँ यही स्थिति होती है, यही दशा होती हैं। परिवार में झगड़े क्यों होते हैं ? नासमझी के कारण। समाज में संघर्ष क्यों होते हैं ? अज्ञानता के कारण । राष्ट्र में युद्ध क्यों होते हैं ? अविवेक के कारण । बहुत से लोग इस कारण गलत परम्परा को निभाते हैं कि उनके बड़ेरे ऐसा ही करते थे। दूसरे कूप का चाहे मधुर व शीतल जल ही क्यों न हो? परन्तु परम्परावादी अपने बाप-दादा के कूप का खारा पानी ही पीता है । इसलिए कि कूप उसके बड़ेरों का है। वे लोग चलते रहे हैं, किन्तु अन्धे हाथी की तरह । हाथी में कितना ताकत होती है ? पर आँखे न होने के Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन संस्कृति का मूल स्वर : विचार और आचार ४५ कारण अन्धा हाथी इधर-उधर टकराता ही फिरता है । मैं कह रहा था कि जीवन में विचार के प्रकाश के बिना अंधेरा ही अंधेरा है । श्रीदास की तरह अंधे होकर चलने में कुछ भी सार नहीं है । वह गति नहीं, बल्कि तेली के बैल की तरह भटकना ही कहा जाएगा । जिस व्यक्ति के जीवन में विचार और विवेक का प्रकाश होता है, वह जानता है कि मैं कौन हूँ ? मेरे जीवन का क्या लक्ष्य है ! वह चिन्तन करता हैं अपने सम्बन्ध में - "हुँ कौन हुँ ? क्या थी थयो ? शुं स्वरूप छे मारू खरू ?" मैं कौन हूँ? मैं देह नहीं हूँ । मैं इन्द्रिय नहीं हूँ । मैं मन नहीं हूँ । ये सब तो पौद्गलिक है, जड़ हैं। मैं तो इन सबसे भिन्न हूँ । चैतन्य हूँ । ज्योतिरूप हूँ । अविवेक और अविचार के कारण ही मैंने इनको अपना समझा था । इस प्रकार का भेद विज्ञान जिनके घट में प्रकट होता है, वे सच्चे साधक हैं, भले वे ग्रहस्थ हों या सन्त हों । शास्त्रों में साधक को मधुकर तुल्य कहा है । जैसे मधुकर पुष्प में से सुरभि और रस ग्रहण कर लेता है, वैसे साधक भी शास्त्रों में से सार तत्व ग्रहण कर लेता है । सुगृहीत विचार को फिर वह आचार का रूप देता है। ज्ञान के साथ क्रिया न हो, तब भी भव बन्धन से मोक्ष नहीं । अकेला ज्ञान भी निरर्थक और अकेली क्रिया भी व्यर्थ है । एक आचार्य ने कहा - "ज्ञानं भारः क्रियां विना, क्रिया निष्फला ज्ञानं विना ।" दोनों के सुमेल में ही जीवन की पावनता व पवित्रता रह सकती है । मैं अभी आप से कह रहा था कि-जीवन में विचार की आवश्यकता है, परन्तु आचार के साथ हो । केवल विचार ही विचार हो, आचार न हो, तब भी जीवन की साध पूरी नहीं हो सकती । मधु मधुर होता है, यह जान लेने पर भी उसके माधुर्य का आनन्द चखने पर ही आता है । भोजन भोजन पुकारने से क्या किसी को भूख मिटी है ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि पहले समझो, फिर करो । पहले ज्ञान और फिर दया का यही गूढ़ रहस्य है । समझ बहुत कुछ लिया पर किया कुछ भी नहीं । यदि जीवन की यही स्थिति रही तब तो वही बात होगी रात को अंधेरे में सेठ के घर में चोर आ घुसा। सेठानी को खबर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अमर-भारती लग गई । सेठजी सो रहे थे । सेठानी धीमी आवाज में बोली- घर में चोर घुस आया है । सेठ ने कहा- मुझे पता है, चुप रह । चोर घर की कीमती चीजें समेटता रहा, गाँठ बाँध ली, सिर पर भी रख ली । सेठ की चुप्पी देखकर सेठानी ने फिर कहा-चोर सामान लेकर जाने को है । सेठ ने कहा - चुप रह, मुझे भी तो पता है। चोर चीजें लेकर घर से बाहर हो गया । सेठानी ने कहा- वह तो गया । सेठ ने कहा मुझे भी ज्ञान है कि बहुत-सा सामान ले जा रहा है । सेठ की वेपरवाही पर सेठानी को रोष आया और बोली - " धूल पड़े तुम्हारे इस ज्ञान पर । घर लुटता रहा और तुम देखते ही रहे । इस देखने से तो न देखना ही अधिक अच्छा रहता । " जो ज्ञान उपयोग में न आये वह किस काम का ? वह तो मस्तिष्क का भार मात्र है । आत्मा रूप घर में विषय कषाय का चोर आ गया । विवेक बुद्धि मन से कहती है - सावधान, अन्दर चोर है । परन्तु मन कहे - हाँ, मुझे पता हैं । पर करता कुछ भी नहीं । आत्मा की शान्ति, समता और संतोष धन को कषाय लुटेरा लूट रहा है, फिर भी मन कुछ नहीं कर पाता । जीवन में इस प्रकार की जानकारी से कोई लाभ नहीं होता । पण्डित और साधक में बड़ा अन्तर है । पण्डित जानता बहुत कुछ है, पर करता कुछ भी नहीं । साधक जानता कम है, पर करता अधिक है । गधे पर चन्दन लाद दो, वह उसके भार को समझ सकता है, पर उसके महत्व को नहीं । इसलिए जैन संस्कृति विचार और आचार दोनों को समान रूप में महत्व देती रही है। ज्ञान से क्रिया में चमक और क्रिया से ज्ञान में दमक आती है । दोनों के सुमेल से जीवन सुन्दर बनता है । लाल भवन, जयपुर २-८-५५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० समस्या और समाधान सन्त से किसी एक व्यक्ति ने पूछा - "मनुष्य अपने जीवन में भूलों का शिकार क्यों होता है ।" सन्त ने सहज भाव में कहा - "जीवन में आधी से अधिक भूलें तो इस कारण से होती हैं कि जहाँ विचार से काम लेना होता है, वहाँ मनुष्य भावना के वेग में बह जाता है और जहाँ भावना से काम लेना होता है, वहाँ वह विचारों की उलझन में उलझ जाता है ।" यही कारण है कि मनुष्य भूलों का शिकार होता रहता है । भावना की आवश्यकता पर भावनाशील बने, और विचार की आवश्यकता पर विचारशील । फिर वह किसी भी उलझन में नहीं उलझेगा । जीवन में इस प्रकार के विवेक की बड़ी आवश्यकता है । मानव जीवन में उलझन और समस्या सदा बनी ही रहती है । विशेषतः आज का युग तो एक समस्या-युग है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्याओं में उलझता ही चला जा रहा है। मेरे विचार में समस्या और उलझन का होना, जीवन विकास के लिए आवश्यक भी है। जब मनुष्य के समक्ष कोई समस्या आ खड़ी होती है, तो वह उसे सुलझाने का प्रयत्न करता है । अपनी बुद्धि और शक्ति का प्रयोग करता है । इस अपेक्षा से जीवन में उलझन और समस्या अपना बड़ा महत्त्व लेकर आती है । वह मनुष्य को तेजस्वी और श्रमशील बना देती है । जीवन को सहिष्णु और सतेज बनाए रखने के लिए समस्या अभिशाप नहीं, बल्कि एक दृष्टि से प्रकृति का एक सुन्दर वर ( ४७ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अमर भारती दान ही है, जो जीवन - विकास के लिए आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी है, अपरिहार्य भी है । आज के भाषण का विषय है- 'हमारी समस्याएँ ।' अभी आप लोगों सम्मुख तीन प्रवक्ता इस विषय पर बोल भी चुके हैं। मैं तो समझता हूँ कि आज का भाषण भी अपने आपमें एक समस्या ही है । कम से कम मेरा भाषण तो अवश्य ही मेरे लिए एक समस्या बन गया है । ग्यारह बज चुके हैं । आपको भी अब अपने घर की याद आ रही होगी । चौके की स्मृति आपको अस्थिर बना रही होगी । इस स्थिति में मेरा भाषण एक समस्या नहीं, तो और क्या है ? मेरा स्वास्थ्य भी कुछ अर्से से मेरे मन को तरंगों का साथ नहीं दे पा रहा है । आज यहाँ भी अस्वस्थ दशा में ही आया हूँ, और अब भाषण देने को कहा गया है । यह भी एक समस्या है । परन्तु एक बात सबसे अच्छी हुई । वह यह है कि भाष्य पहले ही लिखा जा चुका है, व्याख्याएँ और टीकाएँ पहले ही हो चुकी हैं । अब सूत्र रचना करना मेरा काम है। सतयुग में सूत्र पहले रचा जाता था और बाद में भाष्य, व्याख्या और टीकाएँ लिखी जाती थीं । लेकिन अब तो कलियुग है न । आज का समाज जिस पथ पर चल रहा है, आज का व्यक्ति जिस परिस्थिति में से जीवन यात्रा कर रहा है, आज का राष्ट्र जिस परेशानी में से गुजर रहा है - ये सब समस्याएँ हैं, उलझनें हैं । समस्याएँ जीवन में बहुरंगी और अनेक हैं । वैयक्तिक समस्याएँ, सामाजिक समस्याएँ, राष्ट्रीय समस्याएँ और आर्थिक समस्याएँ । मालूम पड़ता है, आज का जन जीवन समस्याओं में घुलता जा रहा है, पिसता जा रहा है। दिलों में धड़कन बढ़ रही है, दिमाग में तूफान उठ रहे हैं । राष्ट्र परेशान हैं, समाज हैरान है, व्यक्ति अपने आप में बेकरार है । चारों ओर से समस्याओं ने घेरा डाल रखा है । ये सब समस्याएं हैं, उलझनें, जिनका समाधान व्यक्ति, समाज और राष्ट्र माँग रहा है । मेरे विचार में सर्वत्र जो विग्रह, विद्रोह और कलह की आग जल रही है, उसे बुझाना - यही है, समस्याओं का समाधान / भावना की जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ भावना से काम लेना सीखें और जहाँ विचार की जरूरत हो, वहाँ विचार करें । समस्याओं के समाधान का यही मार्ग है । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या और समाधान ४६ भारत के प्रधान मन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू से एक बार विदेश में पूछा गया था-' - " आपके भारत को कितनी समस्याएं हैं ।" एक मधुर मुस्कान के साथ नेहरू ने कहा - "आज के भारत की जनसंख्या ३५ करोड़ है, तो ३५ करोड़ ही समस्याएँ हैं ।" लेकिन मैं तो कहता हूँ कि यह भी एक सौभाग्य की बात है, जो एक व्यक्ति के पास एक ही तो समस्या आई । परन्तु यहाँ तो एक व्यक्ति के पास ही ३५ करोड़ समस्याएँ हों, तो कोई बड़ी बात नहीं । भारत का धर्म और भारत की संस्कृति मनुष्य के हृदय की पवित्रता में विश्वास रखती है । मनुष्य एक दिन अपने आप उलझा, तो एक दिन अपने आप सुलझ भी सकता है । मनुष्य जब अपने बौने रूप का परित्याग करता है, जब वह विराट बनता है, तब वह सुलझता है । जब मनुष्य अपने में विश्वात्मा के दर्शन करता है, तब वह समस्या का समाधान पा लेता है । तत् सुखं, नाल्पे सुखम् ।" यह भारत के चिन्तन का मूल केन्द्र रहा है । कभी भी अपने आपको अपने आप में बन्द करके जीवित नहीं रह सकता । व्यक्ति समाज के लिए, समाज राष्ट्र के लिए और राष्ट्र विश्व के लिए अपने स्वार्थी का परित्याग करें, यही समस्याओं के समाधान का एक राजमार्ग है । भारत के एक मनस्वी चिन्तक ने समस्याओं का समाधान देते हुए कहा " यो वै भूमा "अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥!” यह मेरा है, यह पर का है । यह अपना है, प्रकार की गणना, इस प्रकार की विचारणा, बे लोग और दिमाग बहुत हल्के होते हैं । यह स्वत्व और यह परत्व जब तक रहेगा, तब तक समस्या का सही हल निकलना कठिन है । प्राचीन युग का एक ऋषि कहता है - "यत्र विश्वं भवत्येक नीडम् ।" यह सम्पूर्ण विश्व क्या है ? एक नीड है, एक घोंसला है, एक घर है, जिस में मानव जाति को प्रेम, स्नेह और सद्भाव से रहना चाहिए, जिस प्रकार एक ही घोंसले में यह बेगाना है । इस करते हैं जिनके दिल Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अमर भारती अनेक पक्षी रहते हैं । मनुष्य का यह विराट विचार, मनुष्य का यह विराट भाव ही मनुष्य को महान् बनाता है, समस्याओं के समाधान में सर्व समर्थ बनाता है । मनुष्य अपने आप में बन्द होकर अपनी समस्याओं का हल नहीं कर सकता । आज का युग तो सह अस्तित्व, सहयोग और सहकार का युग है । व्यक्ति की समस्या समाज की समस्या है, समाज की समस्या राष्ट्र की समस्या है और राष्ट्र की समस्या विश्व की समस्या है। आज व्यक्ति और समाज अपने आप में बन्द रहकर जीवित नहीं रह सकता । आज का तरुण कहता है, यह रूढ़िवाद मुझे पसन्द नहीं । पुराना सब ध्वस्त करने में ही जीवन का आनन्द है । पुराना जो कुछ भी है, गल-सड़ गया है, उसे निकालकर फेंक दो । नये मानव के लिए नया संसार ही बसाना होगा । वृद्ध कहता है - यह सब नासमझी है, नादानी है, बेवकूफी है । पुराना पुराना ही रहेगा और नया नया ही । आखिर पूर्वज भी तो बुद्धि रखते थे । नया और पुराना यह भी एक समस्या है। तरुण बूढ़े को पुराने ढर्रे का कहता है और वृद्ध तरुण को नास्तिक कहकर झुठलाता है । यह भी एक समस्या है | एक सेठ ने सुन्दर बाग लगाया । हरे-भरे सघन वृक्ष, फल और फूलों की अपार शोभा । पीने को शीतल और मधुर जल आने जाने वाले यात्री वहाँ पर बैठकर सुख और शान्ति का अनुभव करते थे । एक दिन सेठ का तरुण पुत्र बाग में आया । इधर-उधर घूमने लगा, तो पैर में बबूल की शूल चुभ गई । बड़ा क्रोध आया । माली को बुलाकर रोष के स्वर में कहा "इस मनहूस बाग को उजाड़ डालो। इसमें तीखे काँटे हैं । इस स्थान पर नया बाग लगाओ, जिसमें कांटे न रहें ।" सेठ को मालूम पड़ा तो माली से कहा खबरदार इस बाग को उजाड़ा तो । क्योंकि यह मेरे बाप दादों का बाग है। और इस पर मेरा बहुत खर्चा भी हो चुका है । वर्षों का परिश्रम इसके पीछे हो चुका है। कांटे हैं तो क्या ? देखभाल कर क्यों नहीं चलते। यह क्या बात है कि असावधानी अपनी और रोष बाग पर । माली के सामने विकट संकट और टेढ़ी समस्या थी । दोनों के विरोधी विचार | माली चतुर था - उसने बाग में से कुछ काटा, कुछ छाँटा । बबूल के पेड़ों की जगह फल और फूलों के हरे सघन वृक्ष लगा दिये गये । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या और समाधान ५१ एक दिन पिता और पुत्र दोनों साथ आए । बाग को देखा । पुत्र प्रसन्न था कि अब उसमें कांटे नहीं रहे । पिता प्रसन्न था कि मेरा बाग जैसा का तसा ही रहा । चतुर माली के सुधार से दोनों प्रसन्न थे । क्योंकि इसमें दोनों के विचारों का सुमेल था । दोनों की समस्याओं का सुन्दर समाधान था । पुत्र क्रान्तिकारी था, पिता रुढ़िवादी था, परन्तु माली था - सुधारवादी । जो अच्छा था, रख लिया, जो बुरा था, निकाल फेंका । परिवार, समाज और राष्ट्र सबकी यही स्थिति है । उसके कल्याण और विकास का एक ही मार्ग है कि अतीत का आदर करो और भविष्य का स्वागत । न अकेला क्रान्तिवाद काम का है और न अकेला रुढ़िवाद । सुधारवाद ही समस्याओं का मौलिक समाधान है । जीवन विकास में जो उपयोगी हो, ग्रहण करो, जो उपयोगी नहीं छोड़ दो । मैं अभी आपसे सुधार की बात कह रहा था । सुधार कहाँ से प्रारम्भ हो ? क्यक्ति से या समाज से ? मेरा अपना विश्वास यह है कि सुधार पहले व्यक्ति का होना चाहिए । व्यक्ति सुधरा तो समाज भी सुधरा । मूल मधुर है तो फल-पत्ते भी मधुर । व्यक्ति के विकास में ही परिवार, समाज और राष्ट्र का विकास सन्निहित है । उत्तर प्रदेश की एक लोक कथा मुझे याद आ गई है । एक जुलाहा था । कपड़े बुनने के सिवाय वह झाड़ा-फूँकी भी कर दिया करता था । मन्त्र-तन्त्र भी पढ़ देता था । वर्षा का समय था । छप्पर गीला रहने से चुता रहता था । एक रोज जुलाहा आने वाले के झाड़ा-फूँकी कर रहा था । और साथ हो यह मन्त्र भी बोल रहा था "आकाश बाँधू पाताल बांधू । बांधू समुद्र की खाई ।" जुलहिन कई दिनों से कह रही थी कि छप्पर ठीक बाँध लो, जिससे बच्चे और हम भी सुख से रात काट सकें । पर वह अपनी धुन में मस्त था । जब वह मन्त्र पढ़ने लगा, तो जुलाहिन दोड़ी आई और जुलाहे के सिर में दो धप्प मारे । बोली - "नपुता, आकाश, पाताल और समुद्र बांधने चला है । पहले अपना छप्पर तो बाँध ले । तुमसे अपना यह छोटा-सा छप्पर तो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अमर भारती बंधता नहीं और आकाश, पाताल तथा समुद्र बाँधने की कोरी बात करता है।" मनुष्य समूचे संसार के सुधार की विशाल संयोजना बनाता-बिगाड़ता है । परन्तु पहले अपने जीवन को तो सुधार ले । विश्व, राष्ट्र और समाज के सुधार से पहले व्यक्ति को अपना सुधार करना होगा, तभी वह अपनी समस्याओं का मौलिक समाधान कर सकेगा। आगम, वेद और त्रिपिटक की लम्बी और गहरी चर्चा करने वालों को सोचना होगा, कि हम मानव जीवन की उलझी समस्याओं के सुलझाने में कितना योगदान कर रहे हैं। बुलियन हॉल, जयपुर ७-८-५५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जब तू जागे तभी सबेरा साधक का जीवन अथ से इति तक कठोर कर्मठता का महामार्ग है । साधक अपनी साधना की सही दिशा को पकड़ कर ज्यों-ज्यों उस पर अग्रसर होता जाता है, त्यों-त्यों उसके गन्तव्य-पथ पर विकट संकटों की रुकावट और उपसर्ग एवं परीषहों की अड़चन आगे आकर अड़ कर खड़ी होती रहती है । इसी दृष्टि से साधक के साधना-पथ को कंटकाकीर्ण-पथ कहा गया है। __ जीवन आखिर जीवन है। उसमें उलट-फेर होते ही रहते हैं, व चढ़ाव-ढलाव आते ही रहते हैं। सावधानी इस बात की रखनी है कि साधक अनुकूलता में फूले नहीं और प्रतिकूलता में भूले नहीं। महाकवि रविन्द्र ने अपनी एक कविता में कहा है -"सुख के फूल चुनने के लिए ठहर मत और संकटों के कांटों से विकल हो लौट मत ।" साधक को पवनधर्मी बनना होगा । पवन सघन कँज-पंजों में आसक्त हो बैठा नहीं रहता और दुर्गन्ध पूर्ण स्थानों में जाकर व्याकुल नहीं रहता। जीवन की उभय स्थिति में वह निलिप्त भाव से बहता चलता है । ___ भगवान् महावीर की वाणी में जीवन की इस स्थिति को, जीवन की इस दिशा को, वैराग्य या विराग भाव कहा गया है। भगवान् की मर्मस्पर्शी भाषा में वैराग्य का तात्पर्यार्थ जीवन के दायित्वों को फेंक कर किसी ( ५३ ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अमर भारती वन-प्रान्त के एकान्त शान्त कोने में टिक कर जीवन-यापन करना नहीं है । उनकी वाणी में वैराग्य का अर्थ है-मन के दुर्वार विकारों से लड़ना, मानस-स्थित वासना से जूझना । संकटों के समय अडिग रहना और अनुकूलता की सरिता में बह न जाना । आचारांग सूत्र में साधकों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा है-"जाए सद्धाए निक्खंतेतमेव अणुपालेल्जा ।" साधकों ! त्याग-वैराग्य के इस महा-पथ पर तुम अपने मन में जिस श्रद्धा, जिस निष्ठा और जिस दृढ़ता को लेकर चल पड़े हो, जीवन के अस्ताचल पर पहुँचने तक उसका वफादारी से पालन करना। ___ मैं अभी आप लोगों से कह गया है कि महावीर का वैराग्य मनुष्य को अपने कर्तव्यों से विमुख हो भागने की प्रेरणा नहीं देता, वह प्रेरणा देता है-जीवन के क्षेत्र में डटकर अपने दायित्वों को पूरा करने की । जैन धर्म का वैराग्य एक वह वैराग्य है, जिसने फूलों की कोमल शय्या पर सोने वाले शालिभद्र को, सुनहरे महलों में रंगरेली करने वाले धन्ना को और अमित धन वैभव के सुरभित बसन्त में पगे-पोसे जम्बुकुमार को एक ही झकझोर में वैराग्य के हिमगिरि के चरम शिखर की अन्तिम चोटियों पर ला खड़ा किया। यह जागरूक जीवन का जीवट वैराग्य है। यह वैराग्य फूलों की सेजों से जागा, कांटों की राहों पर चला और मानव के अन्तस्तत्व की चरम सत्ता-महत्ता का संस्पर्श कर गया, आखिरी बुलंदी पर जा पहुँचा । जैनधर्म का मूल स्वर ज्ञान गर्भित वैराग्य में झंकृत होता है। जैनधर्म जीवन के जीते-जागते वैराग्य की बात कहता है। वह उस मृत वैराग्य का संदेश नहीं देता, जिसमें परिवार की, समाज की और राष्ट्र की उपेक्षा भरी हो । घर में माता-पिता रोग की पोड़ा से कराह रहे हों, बाल-बच्चों का हाल-बेहाल हो और पत्नी अभावों की आग में झुलस रही हो, जीवन की इन विषम समस्याओं से आँख मूंद कर आप यदि यह कहें कि यह तो संसार खाता है । संसार अपने स्वार्थों को रोता आया है और रोता ही रहेगा । माता-पिता और भाई-बहिन स्वार्थ के साथी-संगी हैं। बाल-बच्चे अपना भाग्य अपने साथ लाये हैं और नारी तो नरक की खान है मैं इन उलझनों में उलझ कर अपना अमूल्य मानव जन्म क्यों हारूँ ? माता-पिता भाई-बहिन और पुत्र-कलत्र, अनन्त बार मिले हैं-पर, क्या जीबन की साध-सधी हैं ? यह सब प्रपंच हैं । जीवन की छलना है । मैं समझता हैं, कि इसी म्रियमाण वैराग्य से भारत की आत्मा का Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तू जागे तभी सबेरा ५५ पतन हुआ है । नारी के मरण-पर्व में से जिनके वैराग्य का उदय हुआ है, वे क्या अपनी आत्मा को साध सकेंगे और क्या संसार को संदेश दे सकेंगे ? जो जन्म से ही रंकता के, गरीबी के दुर्भर भार से कराह रहे हैं ? वे कैसे अपने जीवन के राजा बन सकेंगे ? इस वैराग्य से आत्मा का उत्थान नहीं, पतन ही होता है। यह वैराग्य मसानिया वैराग्य हैं, अन्तस्तत्व के तलछट से उभरने वाला वैराग्य नहीं। जैनधर्म का वैराग्य जब जीवन और जगत् के भौतिक पदार्थों को क्षणिक, क्षणभंगुर और अशाश्वत की संज्ञा देता है, तब उसका मतलब यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वह मनुष्य के जागतिक दायित्वों की उपेक्षा करता है। उसकी क्षणिकता का तात्पर्य यह है कि मनुष्य भोग-विलास, राग-रंग और विषय-कषायों में ही आसक्त न बना रहे । वह भौतिक धरातल से ऊपर उठ कर अध्यात्म की ओर बढ़े। महावीर का वैराग्य एक ओर अनासक्ति का संदेश लेकर आया है, तो दूसरी ओर वह मनुष्य के झूठे अहंत्व पर भी करारी चोट जमाता है। गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता अगर यह सोचे कि-मैं ही इसे खींच रहा हूँ, तो यह उसका झूठा अभिमान है। इसी प्रकार मनुष्य यह समझे कि परिवार व समाज की गाड़ी मेरे बल-बूते पर ही चल रही है। इसलिए तो जैनधर्म का वैराग्य कहता है कि यह कथन तेरा अहंत्व से भरा है। विश्व में मानव ! तेरा अस्तित्व ही कितना है ? तेरा जीवन तो मृत्यु की शूली की नोंक पर लटक रहा है। फिर भी इतना अभिमान ! देवों का अपार बल-वैभव भी जब काल के महाप्रवाह में स्थिर नहीं, तो तेरा परिमित बल व वैभव क्या हस्ती रखता है ? जीवन क्षण-क्षण और पल-पल मृत्यु के वेगवान प्रवाह में बह रहा है। - मैं आप से कह रहा था कि महावीर का वैराग्य पतन का नहीं, उत्थान का वैराग्य है। वह मनुष्य के मन में छपे हुए झूठे अहंकार को तोड़ता है, वह अनासक्ति का संदेश देता है और जन-जीवन में जागृति का जयघोष करता है । वह कहता है-“मानव ! जब तू जागे तभी तेरे जीवन का सुनहला प्रभात है । जब तू जागे तभो सबेरा। जीवन के क्षणों में जब भो तेरी मोह ममता की नींद खुले, तभी तू जीवन की सही दिशा को पकड़ कर अपने कदम बढ़ा चल।" लाल भवन, जयपुर ६-७-५५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता की कसौटी : दया विचार पक्ष का यह एक परम सत्य सिद्धान्त है कि संसारी जीवन हिंसा-संकुल है। चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते और सोते-जागते जीवन के हर पहलू में हिंसा व्यापी रहती है। फिर भी हिंसा मानव जीवन का व्रत नहीं बन सकी। व्रत-कोटि में तो अहिंसा ही युग-युग से व्रत पद से अभिहित होती चली आ रही है। वीतराग धर्म में जीवन की सर्वोच्च साधना अभय, अहिंसा और समता रही है । संवेदना, अनुभूति एवं अमृतत्व के साम्य दर्शन से अहिंसा तथा साम्य भावना समुत्थित होती है। अनावेग की साधना ही जैन धर्म की भाषा में सच्ची अहिंसा है। अभी मैं आपके समक्ष अभय, समता और अहिंसा की मूल भावना की परिभाषा कर रहा था। परन्तु अब जरा अभय और अहिंसा के दार्शनिक पहलू पर भी विचार कर लें। दार्शनिक दृष्टिकोण से मानव जीवन में अहिंसा का क्या स्थान है ? भारत के सभी धर्मों ने और सभी दर्शनों ने आत्मा का शुद्ध स्वरूप सत्, चित् और आनन्द कहा है । सत् का अर्थ होता है, सत्ता । वह तो जगत की जड़भूत वस्तुओं में भी उपलब्ध है, परन्तु वहाँ चित् नहीं हैं, ज्ञान नहीं हैं। कषाय युक्त आत्मा में सत् भी है और चित् भी है, किन्तु आनन्द नहीं है, शाश्वत सुख की स्फुरणा नहीं है। और यह एक सत्य सिद्धान्त है कि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता की कसोटी : दया ५७ प्रत्येक आत्मा सुख व आनन्द के लिए प्रतिपल प्रयत्नशील है । जैन दर्शन का कहना है कि जब आत्मा को चित् शक्ति का पूर्ण विकास होगा, तब उसमें आनन्द और शाश्वत सुख भी स्वतः समुत्थित होगा। जैन दर्शन के अनुरूप कषाय मुक्त आत्मा में ही सत्, चित् और आनन्द का पूर्ण विकास सम्भव होता है । कषाय मुक्त आत्मा ही परमात्मा व सिद्ध होता है । सत्, चितु और आनन्द की पूर्ण समष्टि का नाम ही तो परमात्मा या सिद्ध है । अभय, अहिंसा और समता की साधना इसी परमपद को प्राप्त करने के लिए की जाती है । जीवों पर अहिंसा दया और करुणा का उपदेश इसलिए नहीं किया जाता कि वे जीव हैं, चेतन हैं, प्राणवान हैं । अपितु इस हेतु से किया जाता है कि सभी जीव सुख चाहते हैं, सभी जीव आनन्द के अभिलाषी हैं । जैन धर्म के अनुसार जोव के आनन्द और सुख को क्षति पहुँचाना ही हिंसा है । उस हिंसाजन्य पाप से स्वयं बचना और दूसरों को बचाना, यही वीतराग धर्म में अभय, अहिंसा, समता और अनुकम्पा है । अभी मैं अभय, अहिंसा और समता के साथ अनुकम्पा दया और करुणा का नाम लेकर गया हूँ । मेरे विचार में दया मनुष्य का सर्वप्रथम गुण है । किसी भी प्रकार का किसी के साथ पूर्व सम्बन्ध न होने पर भी दूसरे के दुःख दर्द के प्रसङ्ग पर जो कोमल भावना मनुष्य के मन में पैदा होती है और जो मनुष्य के कठोर हृदय को द्रवित कर देती है, उसी का नाम दया, करुणा या अनुकम्पा है । यह दया ही मानव धर्म की जड़ है । सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है "दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छांड़िये, जब लग घट में प्राण ॥ " धर्म का मूल दया ही है इस तथ्य में विचारशील मनुष्यों के दो मत नहीं हो सकते हैं । सम्यक्त्व के पाँच अंगों में दया व अनुकम्पा भी एक अंग है । जो हृदय दया द्रवित नहीं वहाँ धर्म भावना पनप ही नहीं सकती । अभय और अहिंसा का व्यक्त स्वरूप ही दया और अनुकम्पा है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में श्रावक के २१ गुणों में दयाशीलता को भी एक विशिष्ट गुण कहा है । दया से परिपूर्ण हृदय सुख का स्रोत है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर भारती अभय और अहिंसा की साधना में संसार के हर एक प्राणी के सुख और आनन्द की सुरक्षा की जाती है । ५८ मैं समझता हूँ अब आप जैन धर्म की अभय भावना, अहिंसा, समता और दया करुणा के मूल स्रोत से लेकर उसकी अभिव्यक्त धारा तक के इतिहास को समझ गये होंगे । मैं आपसे कह रहा था कि कषाय युक्त से कषाय मुक्त बनने के लिए, आत्मा के शाश्वत सुख और आनन्द को प्राप्त करने के लिए जीवन में अभय की आराधना और समता की साधना करना आवश्यक है । समता का अर्थ है, स्व भिन्न जीवों के प्रति समभाव रखना । समभाव के आचरण से ही अपने शरीर तक सीमित रहने वाला आत्म-भाव विश्व व्यापी होकर "आत्मवत् सर्व भूतेषु" के रूप में प्रकट होने लगता है । समत्व योग की साधना से मनुष्य का संकुचित आत्मभाव विराट बनता जाता है । जब मनुष्य समत्व के सिद्धान्त को हृदयंगम कर लेता है, तब वह अभय और अहिंसा की साधना में स्थिर हो जाता है । दूसरे के दिल का दर्द जब अपने दिल का दर्द बन जाता है, तब समझ लेना चाहिए कि अब जीवन में अभय, अहिंसा और दया का मधुर स्रोत बह निकलने लगा है । निष्ठुर हृदय सूखी रेत के तुल्य है । दयाहीन मानव वस्तुतः मानव न होकर मानव के शरीर में दानव ही होता है । दया जैन धर्म का प्राण है। दया सम्यक्त्व की सच्ची कसोटी है । दया जीवन विकास का अनन्य साधन है । दयाशील मानव दूसरे को कभी दुख में नहीं देख सकता, दूसरे को संकट में नहीं देख सकता । महापुरुषों का हृदय दया के अमृत से ओत-प्रोत रहता है। आपने सुना ही होगा कि एक तापस ने गोशाला पर तेजोलेश्या फेंकी, तो वह आर्तनाद करने लगा । दया-प्रवण महावीर से नहीं गई और उन्होंने शीतल लेश्या के प्रयोग से रक्षा की । बौद्ध साहित्य में भी एक सुन्दर प्रसंग आता है कि देवदत्त ने हंस को बाण मारा । वह हंस बाण से विद्ध होकर करुणाशील गौतम की गोदी में जा गिरा । देवदत्त ने अपने शिकार को मांगा, पर दयाशील गौतम ने नहीं दिया। दोनों में संघर्ष खड़ा हो गया । अन्त में दोनों का यह संघर्ष शाक्यों उसकी यह दशा देखी गोशाला के प्राणों की Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तू जागे तभी सबेरा ५६ की न्याय-सभा में प्रस्तुत किया गया। शाक्य न्याय-सभा के उच्चतम न्यायाधीश ने गौतम और देवदत्त की मांगों को गम्भीरता से सुनकर कहा -"मैं अपने हाथों से हंस को छोडूंगा। जिसकी गोद में वह स्वतः चला जाए, उसी को हंस मिलेगा।" सभाध्यक्ष के हाथों से छूटते ही वह घायल हंस अपने प्राण-रक्षक गौतम की गोद में जा बैठा । हंस ने प्रमाणित कर दिया कि मारने वाले से बचाने वाला महान होता है। दयाशील मानव के हृदय में एक आकर्षण होता है, एक जादू होता है । दया और करुणा अपने आप में एक बड़ी ताकत है, महान् शक्ति है । मानवता के परखने की सच्ची कसौटी है। दया और करुणा मानव की आत्मा का एक दिव्य गुण है। जिस प्रकार बीज से अंकुर, अंकुर से वृक्ष, वृक्ष से पत्र-पुष्प और फल होते हैं, वैसे ही अभय से अहिंसा, अहिंसा से समता और समता से दया, करुणा तथा अनुकम्पा होती है। अभय बीज का दया एक मधुमय अमृत फल है, जिसके आस्वादन से आत्मा अमृतमय हो जाता हैं, अमर बन जाता है। आज आप लोगों में से बहुत-सों ने दया व्रत ग्रहण किया है, जिसका अर्थ है आज आप संसार के प्रपंचों से दूर हट कर आत्म-साधना में संलग्न हैं। पांच आस्रवों का परित्याग करके पाँच संवरों की साधना कर रहे है। हिंसा से अहिंसा की ओर, असत्य से सत्य की ओर, स्तेय से अस्तेय की ओर, काम से सयम की ओर और संचय से सन्तोष की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। बासना और विकारों से निकलकर आत्म-भाव में स्थिर हो जाना और अपने स्वत्व में विश्वात्मा के दर्शन करना-वस्तुतः यही अभय और अहिंसा का विराट रूप है । जयपुर, लाल भवन २६-६-५५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ संयम की की साधना जैन संस्कृति में सर्वोच्च विजय उसे माना गया है, जो आत्म-विजय है । संसार को जीत लेना सरल है, पर अपने आपको जीतना कठिन है । पाश्चात्य संस्कृति सिकन्दर, नेपोलियन और हिटलर को महान कहती है । भारत में भी शतशः रण- बिजेता और लड़ाके रण बांकुरे हुए हैं । परन्तु उन्हें महापुरुष नहीं कहा गया । यहाँ महापुरुषत्व की कसौटी यह है कि जो अपना दमन कर सके, अपने आप को जीत सके, अपनी वासना और विकारों को रोक सकने में समर्थ हो । त्याग, तपस्या के महामार्ग पर चलने वाला ही वस्तुतः यहाँ महापुरुष, महाविजेता और महावीर कहलाता है । जैन धर्म त्याग, संयम और तप का धर्म है । जिस व्यक्ति में, जिस परिवार में, जिस समाज में और जिस राष्ट्र में त्याग भावना, संयम साधना और तप आराधना है, वहाँ सर्वत्र जैन धर्म व्यक्त या अव्यक्त रूप में परिव्याप्त है । जैन धर्म की यह चेतावनी है कि आशा रखकर श्रम करो, किन्तु आवश्यकता के समय त्याग के लिए भी तैयार रहो । भोग के लिए जितनी - तैयारी है, उससे कहीं अधिक त्याग के लिए भी तैयार रहो । जैन धर्म की मूल भावना का यदि किसी ने स्पर्श किया हो, तो वह इस बात को भली भाँति जान सकता है और समझ सकता है कि शालिभद्र की ऋद्धि से जम्बु ( ६० ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम की साधना ६१ कुमार की सिद्धि से और धन्नाजी की वैभवशीलता से यहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है । जैन धर्म तो केवल इतना ही अनुरोध करता है कि बटोरना सीखा है, तो छोड़ने की कला भी सीख लो। यदि आपके जीवन में त्याग भावना की इतनी तीव्र तैयारी हो, तो भले ही शालिभंद्र बनो, धन्ना बनो और जम्बू बनो । अपनी जिन्दगी की कार को मोड़ देने की कला यदि सीख ली है, तो फिर धन-वैभव के अम्बार में भी क्या खतरा है ? ___मैं आपसे कह रहा था कि त्याग की भावना, संयम की साधना और तप की आराधना-जीवन की बहुत बड़ी आवश्यकता है। त्याग की बलवती भावना के बिना मनुष्य का दैनिक कृत्य भी नहीं चल सकता। जननी अपने नवजात शिशु के लिए कितना त्याग करती है ? कौन है जो जननी के ऋण से उऋण हो सका हो ? बन्धु अपने बन्धु के लिए और मित्र अपने मित्र के लिए जो त्याग करता है, उसका लेखा-जोखा नहीं आंका जा सकता। राम ने भरत के लिए कितना त्याग किया ? अपने स्वार्थ को छोड़े बिना त्याग नहीं किया जा सकता? और स्वार्थ त्याग, यही संयम है, यही तप है। व्यक्ति परिवार के लिए त्याग करे, परिवार समाज के लिए त्याग करे, और समाज राष्ट्र के लिए त्याग करे, तभी जीवन-सागर में सुख, समृद्धि और आनन्द की लहरें तरंगित हो सकती हैं। जैन धर्म की मूल भावना यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन धन का स्वामी होकर रहता है, वही त्यागी कहा जा सकता है । इच्छा और वासना का दास क्या त्याग करेगा? अपनी जिन्दगी में गुलाम बनकर चलने वाले के भाग्य में तो कदम-कदम पर ठोकरें खाना ही लिखा है। भगवान महावीर कहते हैं-"साधक तुम अपने जीवन के सम्राट बनो। अपने मन के राजा बनो।" जिसके जीवन में त्याग की चमक-दमक होती है, वही यथार्थ में मनो विजेता है। जो मनो विजेता बन गया, वह अवश्य ही जगतो विजेता है । अपने को जीतकर सबको जीता जा सकता है और अपने को हार कर सबको हारा जाता है । सन्त कबीर की वाणी में जीवन का यह परम सत्य उतरा है-"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।" जैन धर्म की यही प्रेरणा है कि अपने जीवन के अधिष्ठाता बनो, दीन, हीन, दरिद्र नहीं। __मैं आपसे कह रहा था कि जन-कल्याण के लिए जैन धर्म के पास यदि कोई भावना है, तो वह यही है-"मनुष्य तू अपने जीवन सागर में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अमर भारती डुबकी लगा और खूब गहरी लगा, पर सूखा का सूखा रह, गीला मत बन ।" जीवन जीने की यह कला यदि तूने प्राप्त कर ली, तो फिर निश्चय ही तू शालिभद्र है, धन्ना है और है अनासक्त योगी जम्बूकुमार । भगवान महावीर के पास यही तो कला थी कि वे स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर भी उससे चिपके नहीं | जल में रह कर भी जल से ऊपर कमल बने रहे । त्याग की ज्योति जब साधक के अन्तर मन में प्रस्फुटित होती है, तब उसे स्वर्ग और स्वर्ग के सुखों की अभिलाषा नहीं रहती । उसका जीवन ही हजारों-हजार पापतापित मानवों के लिए स्वर्ग बन जाता है। त्यागी स्वर्ग की कामना नहीं करता, उसका जीवन ही स्वर्गमय हो जाता है । पुराण साहित्य का एक सुन्दर रूपक है- "विष्णु ने बलि से पूछाबोलो, तुम्हें दो बातों में से कौन सी पसन्द है ? सज्जन के साथ में नरक जाना अथवा दुर्जन के साथ स्वर्ग जाना ? बलि ने तपाक से के साथ नरक में जाना मुझे पसन्द है । क्योंकि सज्जन में स्वर्ग बनाने की अपूर्व क्षमता रहती है ।" कहा सज्जन नरक को भी मैं विचार करता हूँ कि ये स्वर्ग और ये नरक क्या हैं ? ये स्थान विशेष भी हो, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं । परन्तु मैं कहता हूँ कि मनुष्य का असंस्कृत मन नरक है और संस्कृत मन स्वर्ग । बात को मैं व्यंजनात्मक भाषा में कह गया हूँ । कारण यह है कि किसी भी बात को गहराई से सोचने की मेरी आदत रही है । अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मुझे भी अपने श्रोताओं के विचार की सतह पर आना होगा । तभी आप मेरी बात को समझ सकेंगे । आगम वाङ्मय में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि - "देव मर कर देव नहीं बन सकता और नारक मरकर नारक नहीं बन सकता ।" परन्तु भगवती सूत्र के एक पाठ में यह भी आया है - "देव, देव ही बनता है और नारक, नारक ही बनता है ।" मैं समझता हूँ कि आप में से कतिपय सज्जन यह सोचते होंगे कि वीतराग एवं सर्वज्ञ की वाणी में इतना विरोध क्यों ? पर, मैं कहता हूँ कि यह विरोध तो अपनी बुद्धि का है, सर्वज्ञ की वाणी का नहीं । वह तो अपने आप में स्पष्ट तथा बिल्कुल सरल है । भगवान की वाणी का आशय यह है कि - " विकृत मन वाला मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में भी नारक है और Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम की साधना ६३ मरकर भी वह नारक ही बनता है और संस्कृत मन वाला मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में भी देव है और मरकर भी देव ही बनता है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि देवत्व और नारकत्व स्थान विशेष होते हुए भी मानव मन की स्थिति विशेष भी है । जैन धर्म का दिव्य सन्देश है कि तुम अपने जीवन में देव बनो, नारक नहीं ।" देवत्व प्राप्ति करने का मार्ग है, त्याग, संयम और तप । मैं आपसे एक बात और कह देता हूँ कि जैन संस्कृति का परम पवित्र पर्व पर्युषण आपके द्वार पर आ गया है। आज तो वह द्वार पर ही है, पर कल से वह आपके सदन में भी प्रविष्ट हो जाएगा, सदन का अर्थ आप अपने लाल भवन से ही न समझ लें, बल्कि वह आपके मनो मन्दिर में आ जाना चाहिए । आज उसकी तैयारी का दिन है और कल आप मुक्त हृदय से उसका नव्य एवं भव्य स्वागत करें। भगवान महावीर ने कहा है कि काल की प्रतिलेखना करना साधक का परम धर्म है । काल प्रतिलेखना का अर्थ है, समय का ध्यान रखना - " काले कालं समायरे ।" सिद्धान्त का यही रहस्य है - " साधक ! तू अपना हर काम समय पर कर, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण कर स्वाध्याय के समय स्वाध्याय कर साधक ! तू समय का उपयोग कर । परन्तु काल की पूजा मत कर । काल पूजा का अर्थ है, काल में होने वाले कर्तव्य को भूल कर केवल जड़ काल के ही चिपके रहना । जिस समय जो कर्तव्य है, उस समय उसे करते रहो, उसका पूरा-पूरा ध्यान रखो, सावधानी रखो।" 1 एक सज्जन ने मुझे पूछा - "महाराज आप यहाँ जयपुर में कब पधारे और यहाँ पर कब तक रहेंगे ।" उसे यह पता नहीं कि वर्षा काल लगा है। और सन्त चार मास तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं । काल की प्रतिलेखना करने वाला साधक अपने जीवन में इतना बेखबर नहीं रह सकता । अतः समय का सदुपयोग करना साधक का कर्तव्य है । मैं अभी आपसे पर्युषण पर्व की बात कह रहा था कि उसके स्वागत के लिए तैयार रहो । आप कहेंगे कि आता है, तो आने दो। पहले से ही तैयारी करने का क्या अर्थ ? परन्तु जैन धर्म कहता है कि साधना के क्षेत्र में साधक को सदा तैयार रहना चाहिए । आपने सुना होगा कि चक्रवर्ती की रसोई बनाने वाले रसोइये ३६० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अमर भारती होते हैं । एक दिन की तैयारी के लिए प्रत्येक रसोइये को ३५६ दिनों तक तैयारी करनी पड़ती है, तभी वह अपने निश्चित दिवस पर चक्रवर्ती का भोजन तैयार कर सकता है। एक दिन के भोजन के लिए ३५६ दिनों की तैयारी चाहिए । पर्युषण पर्व की तैयारी के लिए आपको कितने समय की अपेक्षा है, आप विचार करें । पर्युषण आत्म-साधना का महापर्व है । इन दिनों में आप कल्प सूत्र और अन्तकृतदशांग सूत्र सुनेंगे, जिनमें त्याग की भावना, संयम की साधना और तप की आराधना का भव्य एवं विस्तृत वर्णन है । उस भावना को आप अपने जीवन में उतारेंगे, तभी कल्याण होगा । लाल भवन जयपुर १२- १०-५५ ** Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दीप - पर्व भारतीय जन-जीवन सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पर्व - प्रवाहों का एक सुन्दर सुरम्य जौर सरस संगम स्थल रहा है । इस महाद्वीप के भव्य धरातल पर जितने मधुर पर्व स्रोतों का प्रवाह प्रवाहित होता रहा है, अन्य देशों में वह दुर्लभ होगा । यहाँ पर होली, दिवाली, राखी और विजय दशमी ये राष्ट्रीय पर्व माने जाते हैं । रामनवमी, कृष्णाष्टमी और वीर जयन्ती ये भिन्न-भिन्न युग की भिन्न-भिन्न संस्कृति के प्रतीक । ऐसा विदित होता है कि भारत के क्रान्तदर्शी जन नायकों ने अपने विशाल विचार और विराट चिन्तन के आधार पर अपने-अपने युग की भावना के अनुरूप इन पवं प्रवाहों का सामाजीकरण करते समय भारत की कोटि-कोटि जनता के आध्यात्मिक और दैहिक बिकास का पूरा-पूरा ध्यान रखा है । यही हेनु है कि यहाँ के प्रत्येक पर्व की पृष्ठभूमि में किसी न किसी प्रकार से आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भावना को नत्थी कर दिया है । महापुरुषों के जीवन से सम्बद्ध पर्वों में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भावना नत्थी रहे, इसमें तो विस्मय की बात ही कौन-सी है ? परन्तु, जन-जीवन के पर्वों में भी यहाँ पर आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भावना अनुगत है । प्रस्तुत दीपावली पर्व को ही लीजिए। यह पर्व एक विशुद्ध सामाजिक पर्व है । परन्तु इसका सम्बन्ध भी यहाँ की संस्कृतिक से, यहाँ के धर्म ( ६५ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अमर भारती से और एतद् देश प्रसूत अनेक महापुरुषों से जोड़ दिया गया है या काल के महाप्रवाह में स्वतः ही जुड़ता चला गया है । और यह उपयुक्त भी था । क्योंकि भारत की मूल चेतना के अनुसार धर्म, संस्कृति और दर्शन जनजीवन से कभी अलग नहीं रहा। मेरे विचार में यकि धर्म, दर्शन और संस्कृति जन-जीवन में ओत-प्रोत न होते, तो आज का मानव, मानव के रूप में न होकर पशु-धर्मा के रूप में होता। मानव को मानवत्व प्रदान करने वाले धर्म, दर्शन और संस्कृति ही हैं। जो यहाँ के जन-जीवन में अनुस्यूत होकर पर्यों के रूप में अभिव्यक्त होते रहे हैं । मैं अभी आप से दीपावली के सम्बन्ध में कह रहा था कि यह पर्व भारतीय जीवन में सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप में युग-युग से चला आ रहा है। आज के रोज भारत की जनता इस दीप पर्व को आनन्द, हर्ष, प्रमोद और उल्लास के पुण्य पलों में मना रही है। बच्चे बूढ़े, जवान सभी का दिल आज तरंगित है। नर और नारी आज विशेष सज्जा के साथ इस पुण्य पर्व की आराधना कर रहे हैं। किसी भी वर्ण का और किसी वर्ग का व्यक्ति हो आज तो सभी के हृदय में अपार प्रसन्नता भरो है । अर्थ-मानव जीवन का मुख्य आधार है, तन-मन से आज उसकी पूजा की जा रही है। लक्ष्मी यानी धन शक्ति की आज घर-घर में आराधना हो रही है । धनी और निर्धन सभी आज विशेष वेश-भूषा में सज्जित हैं और मधुर भोजन करेंगे । रहन-सहन और खान-पान सभी में आज विशेषता रहती है यही तो इस पर्व का सामाजीकरण है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसका बड़ा महत्व है। वैदिक और जैन दोनों परम्पराओं से इसका प्रगाढ़ सम्वन्ध रहा है । इस महादेश में प्रचलित अनेक जन-श्रुति और अनेक जन प्रवाद भी इस बात के साक्षी हैं कि दीपाचलो-पर्व भारत का एक महान सांस्कृतिक पर्व है। इस पर्व की सांस्कृतिकता सिद्ध करने के लिए हमें सर्व प्रथम रामायण काल में प्रवेश करना होगा। वैदिक साहित्य के अनुसार राम अपने चतुर्दश वर्षीय वन निर्वासन की अवधि पूरी करके और लंका विजेता होकर जब अयोध्या वापिस लौटे तो अयोध्या के जन-जन में अपने आराध्य एवं मनोनीत देवता के स्वागतार्थ अयोध्या नगर की दीप पंक्ति के प्रकाश से भर दिया। तभी से यह भारत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीप - पर्व ६७ का प्रकाश पर्व वन गया । जो युग-युग से रूपान्तरित होता हुआ आज भी जन-जन के तन-मन में उल्लास और हर्ष के रूप में जीवित है । पौराणिक गाथा के अनुसार यह भी कहा जाता है कि जब नरकासुर के स्वच्छन्द उपद्रवों से और मन चाहे अत्याचारों से लोक-जीवन संत्रस्त एवं भयभीत हो उठा तो तद्युगीन लोकप्रिय नेता श्रीकृष्ण ने उस पापात्मा की जीवन लोला का संहार कर दिया। वह दिन पौराणिक साहित्य में नरक चतुर्दशी के नाम से परिचित है । और अगले दिन श्रीकृष्ण द्वारिका में प्रवेश किया, जिसके हर्ष और उल्लास में घर-घर में प्रकाश किया गया था । आज की भाषा में हम उस दिन को दीपावलो कहते हैं ! जैन परम्परा के अनुरूप इस पर्व से दो महान घटनाओं का सम्बन्ध है - प्रथम कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की यामिनी के चरमप्रहर में चरम तीर्थंकर महावीर का पावापुरी में परिनिर्वाण और द्वितीय गणधर गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान । पावापुरी नगरी में एक साथ निर्वाण महोत्सव और कैवल्य महोत्सव होने से मानव और देवो के तन, मन और नयन में हर्ष उल्लास और आनन्द छा गया । उस परम पावन दिवस की संस्मृति में आज भी भारत का जन-जन पर्व पूजा करता है । श्रमण परम्परा के महान आचार्य जिनसेन ने अपने इतिहास ग्रन्थ हरिवंश पुराण में कहा है : : " ज्वलत् प्रदीपालिकया प्रबुद्धया, सुरासुरैर्दीपितया प्रदिप्त्या | तदास्म पावानगरी समन्ततः ; प्रदीपिताऽऽकाशतले प्रकाशते ॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मादिशत्, प्रसिद्ध दीपालिकयाऽच भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वर, जिनेन्द्र निर्वाण-विभूति मुक्ति भाक् ॥ " भगवान महावीर के परिनिर्वाण होते हो पावा के मनुष्यों ने ओर स्वर्ग के देवों ने मिलकर दीपों का प्रकाश किया; जिससे पावानगरी जगमगाने लगी । तभी से भारतवर्ष को कोटि-कोटि जनता हर साल अपनेअपने घरों में, नगरों में, श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रकाश करके अपने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अमर-भारती आराध्य भगवान का संस्मरण करती है । लोक भाषा में इस दिवस को दीपावली कहते हैं। दोपाबली के साथ राम, कृष्ण और महावीर का सम्बन्ध तो है हो, लेकिन आज के युग के प्रसिद्ध संन्यासी रामतीर्थ और दयानन्द सरस्वती के महाप्रयाण से भी इसका सम्बन्ध है। अनेक परम्पराएँ इस पर्व में समाहित हो जाती है । अनेक धर्म, अनेक संस्कृतिएँ और अनेक परम्पराओं का संगम-स्थल होने से यह पर्व भारत का एक महान् सांस्कृतिक पर्व है। भारत के पर्व पुंज में दीप-पर्व की पूजा भारत के सांस्कृतिक जन-जीवन की एक मधुर कल्पना है। किसी भी पर्व को लोक प्रियता मिलती है तब, जबकि उस पर्व की मंगल भावना से लोक जीवन भावित होता है । पर्व के पुण्य पलों में जागतिक जीवन और वैयक्तिक जीवन आशा और उल्लास से भर-भर जाता है। मानव मन की आन्तरिक चेतना की अभिव्यक्ति के प्राणवन्त प्रतीक हैं-भारत के ये सांस्कृतिक पर्व । ये पर्व जन-जीवन में संजीवनी पवन की तरल लहरों की तरह आते हैं और गुलाब आशा व धवल उल्लास की रजत रश्मि बिखेर कर लोक जीवन में अखूट और अटूट ताजगी भर जाते हैं । कोटि-कोटि जनों के मन और तन को संस्कृति के एक ही परम पवित्र सूत्र में बाँध रखना यही इन पर्वो का सांस्कृतिक महत्व है। __अब जरा इस पर्व की आध्यात्मिकता के पहलू पर भी थोड़ा विचार कर लें । मैं आप लोगों से अभी कह गया हूँ कि ये दीपावली पर्व भारत का एक लोकप्रिय और महान पव है । इसका समाज, संस्कृति और आत्माइन तीनों से गहरा सम्बन्ध रहा है । इस पर्व के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व के सम्बन्ध में पर्याप्त कह गया हूँ। दीप-पर्व की पृष्ठभूमि में भारत विराट चिन्तकों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण क्या रहा है ? इस विषय में भी विचार करना आवश्यक है। राम की रावण पर विजय का अर्थ है भौतिक सत्ता पर आध्यात्मिक बल की विजय । लंका विजय का भी आध्यात्मिक संकेत यही है, कि वासना रूपी लंका पर सुसंस्कृत मनोरूप राम ने आधिपत्य कर लिया। .. कृष्ण ने नरकासुर का वध किया। आसुरी भावना पर देवी भावना की विजय । नरकासुर दैत्य आसुरी शक्ति का प्रतीक है, और कृष्ण आध्यात्मिक बल के प्रतीक । मानव के मनो राज्य में जब आसुरी भावना का Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीप-पर्व ६३ आवेग बढ़ता है, तब मानव के अन्तर मानस में छुपे हुए दैवी भावों का उत्पीड़न होता है । दिव्य भावों की प्रसुप्त अपार शक्ति को जागृत करना आध्यात्मिक भाषा में नरकासुर का वध होना कहा गया है । पौराणिक रूपक के अनुसार देव और दानवों ने समुद्र मन्थन किया, जिसके फलस्वरूप चौदह रत्न उपलब्ध हुए, जिनमें एक रत्न लक्ष्मी थी । आत्मा एक सागर है । मनोभूत दुर्वृत्तियाँ और सद्वृत्तियाँ- - दानव और देव हैं, जिनके परिमन्थन से आध्यात्मिक शक्ति रूप लक्ष्मी का आविर्भाव होता है । भारतीय जनश्रुति के अनुसार वह समुद्र मन्थन कार्तिक अमावस्या को परिपूर्ण हुआ था, उसकी स्मृति में यह दीपावली पर्व मनाया जाता है । उपनिषद् काल के महामनीषी ऋषि ने इसको "ज्योति - पर्व" की संज्ञा ने सम्बोधित किया है । और कहा - " तमसो मा ज्योतिर्गमय” अन्धकार से प्रकाश में चलो । यह पर्व प्रकाश पूजा का महा पर्व है । जैन - संस्कृति की मान्यता के अनुरूप - अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के अमर अधिदेवता महा मानव भगवान महावीर के परिनिर्वाण पर नव कौलिक और नव मल्लिक राजाओं ने करुण स्वर में कहा - " मर्त्य - लोक का भावालोकचला गया, अब द्रव्यालोक करो ।" कार्तिक बहुला अमावस्या की यामिनी के चरम प्रहर में दो महान् घटनाएँ घटित हुई- वीर परिनिर्वाण और गौतम कैवल्य । निर्वाण महोत्सव और कैवल्य महोत्सव के हर्य प्रकर्ष में से ही दीप पर्व आविर्भूत हुआ । अपने मन के अनन्त - अनन्त काल के अन्धकार को सम्यक् ज्ञान; सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के आलोक से दूर करो ! यही इस पर्व का जैन दृष्टि से आध्यात्मिक महत्व है । इस प्रकार यह दीपावली पर्व या दीप पर्व भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावना का महाप्रतीक तथा महा संकेत है । समाज, संस्कृति और आत्म-भाव के सुमेल का सुन्दर त्रिवेणी संगम-स्थल रहा है । 1 लाल भवन, जयपुर ** १३-११-५५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ वर्षावास की पूर्णाहुति आज चातुर्मास की समाप्ति की चतुर्दशी है । सन्त जीवन का एक दिन वह था, जिस दिन वह वर्षावास करने यहाँ जयपुर में आये थे और आज वर्षावास की पूर्णाहुति का दिवस है । भारत की संस्कृति आरम्भ की अपेक्षा अन्त को अधिक महत्वपूर्ण समझती है । आरम्भ में मिठास हो या न हो, पर अन्त मधुर अवश्य ही होना चाहिए । अन्त का माधुर्य जीवन भर याद रहता है । यहाँ आने की अपेक्षा जाने का अधिक महत्व आंका गया है । स्वागत की अपेक्षा विदा का महत्व भारतीय संस्कृति में गौरवपूर्ण रहा है । सन्त के जीवन की सफलता स्वागत समारोह से नहीं आंकी जानी चाहिए, बल्कि उसके जीवन की यथार्थं सफलता उस समय देखी जानी चाहिए, जब वह आपके नगर से विदा हो रहा हो | आपके जीवन से दूर होने की तैयारी कर रहा हूँ । अपरिचय की स्थिति में माधुर्य रखना सरल है, जबकि परिचय के परिपाक काल में माधुर्य भावना रख सकना कठिन है । कहा जाता है कि एक जंगल में एक साथ दो सिंह कभी नहीं रह सकते । एक राज्य में एक साथ दो राजा प्रशासन नहीं कर सकते । सन्त जीवन के सम्बन्ध में भी आज के युग की यही धारणा बन चुकी है कि एक ही क्षेत्र में एक साथ दो परम्पराओं के सन्त नहीं रह सकते हैं। किसी ( ७० ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षावास की पूर्णाहुति ७१ कारणवश यदि एकत्रित हो भी जाएं, तो बिना लड़े, बिना झगड़े क्षेत्र से निकलना कठिन है । पर मैं विचार करता हूँ कि हम यहाँ पर आज एक ही श्रमण संघ के होने पर भी भूतपूर्व सम्प्रदाय के न्याय से चार परम्पराओं के सन्त एकत्रित हुए थे । एक-दो रोज नहीं, मास दो मास नहीं, पांच-पांच मास हम आपके जयपुर में रहे हैं। आज के युग की भावना के विपरीत हम सन्तों में कितना प्रेम, कितना स्नेह और कितना सद्भाव रहा है । लघु सन्तों ने महान् सन्तों की सेवा की है, भक्ति की है और महान् सन्तों ने भी लघु सन्तों पर निरन्तर कृपा की वर्षा की है। इतने लम्बे काल में एक भी प्रसंग ऐसा नहीं आया, जब कि किसी अमुक श्रावकजी को समझौता कराने के लिए चौधरी बनने का सौभाग्य मिला हो या किसी प्रकार की शिकायत करने का अवसर मिला हो । संयुक्त वर्षावास की प्रेमपूर्ण परम्परा में जिनको मनोमालिन्य की गन्ध आती हो या फिर मिल-बैठने की सामाजिक भावना से जिनको रस नहीं है-जयपुर का संयुक्त वर्षावास उन लोगों की भावना के विपरीत एक चुनौती है, एक भावनामयी प्रेरणा है । यह कोई नई परम्परा भी नहीं है। यह तो मानवता के स्वर्णिम इतिहास में चिरकाल को सामाजिक और कौटुम्बिक भावना है। मनुष्य के अन्तस की सहिष्णुता और समता को कसौटी है । एक जगह मिल-बैठना सन्तों का सहज स्वभाव है । मैं आप से कह रहा था कि एक जंगल में दो सिंह नहीं रह सकते और एक राज्य में दो राजा राज्य नहीं कर सकते, किन्तु मैं कहता हूँ कि एक नगर में और एक स्थान में अनेकों सन्त रह सकते हैं, यदि वे वस्तुतः सन्त हों, तो ! और यदि सन्त संस्कृति की परम पवित्रता में उन्हें विश्वास हो, तो! ___ भारत के स्नेहिल जन जीवन का एक जीवन सूत्र है-"मधुरेण समापयेत" हर काम के अन्त में मिठास हो, प्रत्येक कार्य की समाप्ति मधुर हो । यही जोवन को सार्थकता और सफलता का रहस्य है। एक राजा की राजसभा में विद्वान आया। राजा ने देखा पर आदर सत्कार कुछ भी नहीं किया। बैठने को आसन तक भी नहीं दिया गया। आगन्तुक विद्वान की वेशभूषा सामान्य थी, आकृति भी सुन्दर और प्रभावक नहीं थी। राजा ने रूक्ष स्वर में पूछा-"कौन हैं, आप ? कहाँ से आए हैं ?" विद्वान् ने अपना एक लघु परिचय दिया और विद्वानों की विचार चर्चा में जुट गया । विवार चर्चा जैसे लम्बी होती गई, तैसे-तैसे आगन्ता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अमर-भारती विद्वान का व्यक्तित्व भी निखरता गया। विद्वान् की वाणी से राजा अत्यन्त प्रभावित हो गया। विद्वान् के विचार-चिन्तन से राजा के मन का अनादर आदर-सत्कार में बदल गया । जब विद्वान् राजसभा से उठकर जाने लगा तो राजा को अपनी भूल का भान हुआ कि मैंने इस विद्वान को बैठने के लिए योग्य स्थान और आसन भी नहीं दिया। फिर भी विद्वान के मुख मण्डल पर रोष की क्षीण रेखा तक भी नहीं। विद्वान बुद्धि से ही ऊँचा नहीं, बल्कि हृदय से भी महान् है, उदार है । राजा उस विद्वान की वाणी से और ज्ञान गरिमा से इतना प्रभावित हुआ कि उसे यह भान तक नहीं रहा, मैं नंगे पैरों कितनी दूर तक इस विद्वान को विदा देने के लिए आ पहुँचा हूँ। विद्वान ने मधुर स्वर में कहा-“राजन, अब आप लौट जाएँ ।फी दूर आ गये हैं।" राजा ने विनीत भाव से कहा-"आप के गुणों का प्रभाव और वाणी का जादू मुझे लौटने नहीं देता।" विद्वान ने कहा- 'राजन्, जब मैं आया था, तब आपने जरा भी आदर नहीं दिया और अब आप मुझे छोड़ भी नहीं रहे हैं । मैं वही है और आप भी वही हैं । फिर इतना अन्तर क्यों ?" राजा ने कहा - "आते समय व्यक्ति का जो आदर-सत्कार किया जाता है, वह उसकी वेश-भूषा और सुन्दर आकृति के कारण होता है । आप में उन दोनों का अभाव था । परन्तु, जाते समय व्यक्ति का जो आदर-सत्कार होता है, वह उसके गुणों के कारण होता है, उसकी आप में कमी नहीं है। बुद्धि का प्रकर्ष तो आप में है ही, परन्तु शील, शान्ति और सन्तोष भी आप में विशेष रूप में प्रकट है। आप की वाणी के माधुर्य का तो कहना ही क्या ?" भारत की संस्कृति गुण पूजा को महत्व देती है, व्यक्ति पूजा को नहीं । व्यक्ति अपने आप में कितना भी बड़ा क्यों न हो ? उसकी महानता के आधार धन, सत्ता, जाति और सम्प्रदाय नहीं बन सकते । गुणवान व्यक्ति ही वस्तुतः यहाँ पर आदर-सत्कार और पूजा का पात्र होता है, आचार्य चाणक्य ने अपने नोति ग्रन्थ में कहा है "स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।" आपके जयपुर नगर में जो सन्त और सतो विराजित रहे हैं, उनके साथ आपका जाति और कुल का क्या सम्बन्ध है ? परन्तु मैं समझता हूँ, इस सम्बन्ध से भी बढ़कर एक पवित्र सम्बन्ध है-धर्म का और गण पूजा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षावास की पूर्णाहुति ७३ का । श्रमण परम्परा में नमस्कार गुणों को किया जाता है, व्यक्ति विशेष को नहीं । सन्त में यदि सन्त के गुण हैं, तो वह आप की भक्ति का, आपकी श्रद्धा का और आपकी सेवा का सहज ही पात्र बन जाता है । मैं जयपुर संघ से कहूँगा कि वह गुणों का आदर करना सीखे । जाति पूजा, कुल पूजा और सम्प्रदाय पूजा का आज युग नहीं रहा । जैन परम्परा तो प्रारम्भ से ही गुण पूजा में विश्वास लेकर चली है । गुणों की पूजा से मनुष्य का मन महात् होता है. मानव की आत्मा विराट बनती है । जग मनुष्य के अन्तस में प्रसुप्त सद्गुण जागृत होते हैं, तब उसका भगवद् भाव प्रबुद्ध होता है । 'मेरा विश्वास है कि प्रत्येक संघ अपने आप में एक विराट शक्ति है, विराट चेतना है, जलती ज्योति है । वृक्ष को जड़ जब तक मजबूत है, तब तक वह हरा-भरा रहता है। हवा का तूफान उसे उखाड़ नहीं सकता, सूर्य की किरण उसे जला नहीं सकती और मेघों की महा वृष्टि उसे गला नहीं सकती । संघ भी एक सघन और छायादार वृक्ष है, जिसकी शीतल छाया में हम सन्त जन भी सुख, शान्ति और समता का अनुभव करते हैं । संघटन संघ की जड़ है । स्नेह, सद्भाव और भक्ति उसके पत्र, पुष्प और फल हैं । मैं जयपुर के धर्म प्रेमी श्रावकों से आशा करता हूँ कि वे इस संघ वृक्ष को सदा हरा-भरा रखेंगे | अपना स्नेह, अपना प्रेम और अपनी शुभ भावना के मधुर व शीतल जल से सतत इसका सिंचन करते रहेंगे। संघ की अभिवृद्धि और समृद्धि में ही हम सब की अभिवृद्धि और समृद्धि निहित है । संघ सुदृढ़ है, तो फिर चिन्ता की कोई बात नहीं रहती । आप में स्नेह और संघठन रहेगा, तो साधु सन्त भी यहाँ आनेको उत्साहित रहेंगे । आपकी शोभा इसी स्नेह-सद्भाव में है । लाल भवन, जयपुर २८-११५५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन दिवस भारत के विचार प्रवण मस्तिष्कों ने चिरकाल से मानव जीवन का विश्लेषण किया है, विवेचन किया है और पता पाने का चिर प्रयास किया है-कि वास्तव में मानव अपने आप में क्या वस्तू है ? भारतीय मनीषियों की परिभाषा के अनुकूल मानव में मर्त्य और अमृत का संमिश्रण है, संयोग है। मनुष्य का शरीर मर्त्य और आत्मा अमृत भाव है। उनका मयं भाग उसे पार्थिव विश्व के साथ जकड़े हए हैं। मनुष्य के भीतर एक देवी तत्व भी है, जिसे अमृतत्व कहा है । मनुष्य का देह भाग पञ्चभूतात्मक है और अमृत भाग सदा शाश्वत है। मानव अपने आप में एक ओर देह है, तो दूसरी ओर शुद्ध आत्म तत्व भी। भारत के सभी धर्म, सभी दर्शन और सभी संस्कृतियाँ मानव के मानवत्व का मूल्यांकन जाति कुल के आधार पर नहीं, गुण और कर्म के आधार पर ही करते हैं। कम से कम भारत की श्रमण परम्परा तो जीवन की पवित्रता के आधार पर ही मनुष्यत्व का मूल्यांकन करती है। जातो और कुल को माध्यम बनाकर नहीं। मेरे विचार में मनुष्य का मूल्य उसके पञ्चभौतिक देह से नहीं, बल्कि वह अपने जीवन में स्वयं क्या वन रहा है-इसे देखकर ही मनुष्य के जीवन का मूल्य सही रूप में आँकना होगा । मेरी दृष्टि में तो महाजन और ( ७४ ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन दिवस ७५ हरिजन दोनों मानव है । दोनों में परस्पर सद्भाव और सहयोग को आवश्य. कता है । दोनों में ऊंच और नीच की कल्पना एक भ्रान्त भावना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । आप जरा मेरी बात पर गम्भीरता से विचार कीजिए-"ब्राह्मण, क्षत्रिय, महाजन और हरिजन इन सब का शरीर पञ्चभूतात्मक है कि नहीं ? व्राह्मण का शरीर स्वर्ण को हो, क्षत्रिय का शरीर रजत का हो, महाजन का देह लोह का हो और हरिजन का देह मिट्टी का हो यह बात तो सही नहीं है न? अन्ततो गत्वा ये समस्त शरीर हाड़-मांस, रक्त और मज्जा से ही निर्मित है । सब के अन्दर मल, मूत्र और गन्दगी का ढेर ही तो है न । फिर तीन वर्ण पवित्र और एक अपवित्र इसका मूलभूत आधार क्या है ?" जैसी भूख और प्यास अभिजात्य वर्ण को सताती है, वैसी हरिजन को भी । दुख-सुख की जैसी अनुभूति सवर्ण कहे जाने वाले लोगों को होती है, वैसी, अस्पृष्य कहे जाने वाले को भी । एक नीच और शेष ऊँच इसका कारण क्या ? हाड़, मांस और रक्त में जात-पात नही होती । वह तो मनुष्य मात्र के शरीर में एक ही रूप का वहता है । आँसुओं में भी जात-पात नहीं होती जैसे खारे आँसू ब्राह्मण के हैं, वैसे ही एक हरिजन के भो । मनुष्य जन्म से ही ललाट पर तिलक व गले में जनेऊ पहन कर नहीं आता-ये सब मनुप्य की कल्पना से प्रभूत है। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य जाति व कुल से कभी महान् नहीं होता। उसकी महानता के अमर आधार हैं-सत्कर्म, पवित्र भावना और शुभ संकल्प । श्रमण परम्परा का यह जोरदार दावा है कि अहिंसा, संयम और तप की साधना करने वाला कभी क्षुद्र, शूद्र और नीच नहीं हो सकता । आत्मा की समुज्ज्वलता के समक्ष देह की मलिनता की कोई गणना नहीं। मन पवित्र है, तो तन की मलिनता कोई विशेष महत्व नही रखती । एक भारतीय तत्ववेत्ता इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहता है "अत्यन्त मलिनो देहो, देहित्वमत्यन्त निर्मलः ।" देह भले ही मलिन हो, परन्तु देह वाला आत्म-देव कभी मलिन नहीं होता । वह तो अपने आप में अत्यन्त निर्मल है, पवित्र है। भारत का दर्शन, भारत का धर्म और भारत की संस्कृति कभी देह पूजा की बात नहीं कहती। वह जब कभी कुछ कहती-खुनती है, तब आत्म-पूजा की बात कहती है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अमर-भारती आत्म तत्व की मलिनता अवश्य ही भारत के विचारशील मानस के लिए. गहरी चिन्ता का कारण हो सकती है, परन्तु देह की मलिनता उसके लिए कभी खतरे का बिन्दु साबित नहीं हो सकी। कारण स्पष्ट है, कि भारत को संस्कृति देह को नहीं, देही को ही महत्व देती है । आत्मा अत्यन्त निर्मल है, जैसा महाजन शरीर में, वैसा हरिजन देह में । . श्रमण विचार धारा आत्मा के सम्बन्ध में यह धारणा लेकर चली है कि आत्मा के तीन रूप हैं-प्रकृति विकृति और संस्कृति । आत्मा मूल रूप में शुद्ध है, पवित्र है, निर्मल है। परन्तु कषायों के संयोग से उसमें विकृति आई है । उस विकृति को पूरा करने का प्रयत्न ही संस्कृति अथवा साधन है । आचार्य नेमिचन्द्र कहता है “सव्वे सुद्धाहु सुद्धनया ।" कीट-पतंग से से लेकर समस्त जीव सृष्टि शुद्धनय से निर्मल व पवित्र है। शुद्धनय की अपेक्षा से संसारो आत्मा में और सिद्ध की आत्मा में कोई भेद नहीं, कोई अन्तर नहीं। फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और हरिजन में भेद कहाँ से टपक पड़े हैं। जब आत्मा में किसी प्रकार का भेद नहीं, तो भौतिक शरीर में विभेद की रेखा कैसे खींची जा सकतो है । आत्मा मूल स्वरूप में प्रकृत है, कषाय एवं विषय के संयोग से विकृत बना हुआ है, उसे संस्कृत करना यही मानव जीवन का ध्येय है । यह जीवन संस्कृति, जीवन साधना और जीवन शुद्धि जो भी कर सके वह महान् है। भले वह देह से ब्राह्मण, हो, क्षत्रिय हो, महाजन हो या हरिजन हो ? भारत के एक तत्वचिन्तक मनीषी ने इस सत्य-तथ्य को समझने के लिए एक सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है। वह कहता है, आलंकारिक भाषा में-"हर गन्दी नाली के कण-कण मैं पावन गंगा बह रही है।" बात आपको अवश्य ही अटपटी लगी होगी, परन्तु जव मेरे श्रोता विचार सागर में गहरी डुबको लगा कर सोचेंगे तो बात का तथ्य स्पष्ट होते देर न लगेगी। विचार की अलंकृत भाषा का फलितार्थ यह है कि यह पंचभूतात्म देह गन्दी नाली है और उसके कण-कण में शुद्ध चैतन्य तत्व की पावनी निर्मल गंगा प्रतिक्षण व प्रतिपल प्रवाहित हो रही है। क्षुद्र कीट से लेकर सिद्ध साधक तक उसकी शुद्ध रूप में एक स्थिति है। मैं आपसे कह रहा था कि श्रमण-परम्परा जीवन की पवित्रता में विश्वास लेकर चली है । वह जन्म से पवित्रता में विश्वास नही रखती। कर्म से प्रसूत पवित्रता में ही उसकी निष्ठा रही है । किसी ने ब्राह्मण के घर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन दिवस ७७ में, किसी ने क्षत्रिय के घर में किसी ने महाजन के घर में जन्म ले लिया, तो क्या इतने मात्र से वह ऊँचा बन गया ? यह कोई तथ्य पूर्ण बात नहीं है । ऊँचता व महानता प्राप्त करने के लिए सत्कर्म, संयम और सदाचार अपेक्षित हैं, न कि किसी के घर जन्म लेना मात्र ही । शरीर तो जड़ पुद्गलों का सचय मात्र है ? उसमें जात-पात का कोई नैसर्गिक भेद नहीं है । वह मृण्मय पिण्ड आत्म देव का मन्दिर है । वह अपने आपमें पवित्र या अपवित्र नहीं है । पवित्रता और अपवित्रता का मौलिक आधार आचार की शुद्धता और आचार की अशुद्धता ही हैं। इस प्रसंग में मैं आपको भारत के एक महान दार्शनिक सन्त के जीवन का एक सुन्दर संस्मरण सुना रहा हूँ। आचार्य शंकर गंगा की पावन धारा में स्नान करके लौट रहे थे। मार्ग में एक चाण्डाल मिल गया। जिस मार्ग से आचार्य लौट रहे थे, वह एक तग गली थी। बिना स्पर्श के एक साथ दोनों मनुष्य नहीं जा सकते थे । आचार्य के समक्ष धर्म संकट आ गया। आचार्य ने रोष के स्वर में कहा “दूर हट, चाण्डाल ! दूर हट । मैं स्नान करके आया हूँ। चाण्डाल ने विनम्र स्वर में, पर विचार सागर की गहराई में पहुँच कर कहा "अन्नमया दन्नमय मथवा चैतन्यमेव चैतन्याद् । द्विजवर ! दूरी कतुवाञ्छसि किम् ? किं गच्छ गच्छेति ॥" द्विज श्रेष्ठ ! तुम मुझे दूर हटने को कह रहे हो ! पर जरा विचार तो करो। दूर हटने वाला है कौन ? तुम मेरे शरीर के स्पर्श से यदि भयभीत हो, तो जैसा अन्नमन देह आपका है, वैसा ही मेरा । यदि मेरी आत्मा को दूर हटाना चाहते हो, तो यह भी विचार आपका संगत नहीं, क्योंकि जैसा चैतन्य आपकी देह में खेल रहा है, वैसा का वैसा ही चैतन्यदेव मेरे इस अन्नमय शरीर में भी खेल रहा है। फिर हटने की बात किससे कहते हो ? चाण्डाल की अध्यात्म भाषा में कथित अध्यात्म-वाणी को सुनकर आचार्य शंकर केवल एक ताकिक की भांति प्रभावित हो नहीं हुए, बल्कि गद-गद् हृदय हो कर बोले Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अमर-भारतो "चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ।" तू चाण्डाल हो या द्विज हो । कुछ भी क्यों न हो, परन्तु यह सत्य है कि तू मेरा सच्चा गुरु है, मार्ग दर्शक है । तेरी देह में मुझे आज विश्वात्मा का पुण्य दर्शन हुआ है । तेरा यह कथन सत्य है कि यह शरीर सबका अन्नमय है, परन्तु इसमें रहने वाला आत्मा, चैतन्य देव भी सबका समान ही है। ____ मैं आप से कह रहा था कि श्रमण परम्परा का पवित्र द्वार मानव मात्र के लिए सदा खुला है। श्रमण संस्कृति देह या आत्मा की दृष्टि से भी किसी को हीन या अपवित्र नहीं समझती। वह जन्म को नहीं, कर्म को महत्व देती है । जैन धर्म के भव्य सिंहद्वार में किसी भी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी कुल का मनुष्य बेखटके प्रवेश पा सकता है। क्योंकि जैन धर्म के द्वार पर किसी का भी जाति और कुल नहीं पूछा जाता । वहाँ पूछा जाता है, उसका सत्कर्म, सदाचार और जीवन की पवित्रता व निर्मलता। वहाँ धन, सत्ता और वैभव की पूछ नहीं है। वहां तो हर किसी इन्सान से एक ही सवाल पूछा जाता है कि अहिंसा, अनेकांत, और अपरिग्रह में तुम्हारा विश्वास है या नहीं ? तुम्हारे धर्म स्थानक में कोई भी हरिजन भाई बेखटके और वे रोक-टोक आ सकता है, यहां आकर धर्म आराधना व साधना कर सकता है। हाँ, मुझे एक बात अवश्य कहनी है । भले ही वह आपको कटु लगे क्योंकि सत्य सदा कटु ही रहा है। आज आप यहाँ हरिजन दिवस मना रहे हैं । आज हरिजन भाई बड़ी संख्या में उपस्थित भी हैं। उन्हें मै यह चेतावनी देता है कि उनका उद्धार व उनकी समस्या का हल बाहरी प्रचार से नहीं, अपने अन्दर के पवित्र आचार और विचार से ही होगा। सुरा और मांस का वे त्याग करें। सदाचार, सद्भाव और स्नेह से रहना सीखें। शिक्षा और दीक्षा के पवित्र मन्त्रों से अपने मन को शुद्ध बनाते रहें। आप लोग सवर्ण लोगों से अस्पृश्यता को दूर करने की मांग करते हो । परन्तु मैंने सुना है कि आप लोगों में भी परस्पर कथित छआ-छत की भावना मौजूद है। उन छोटे-मोटे घेरों को तोड़कर विराट बनो। इसी में आप की समस्या का हल है, इसी में आप सब का कल्याण है। पवित्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन दिवस ७६ भावना को जीवन में उतारना, यही हरिजन दिवस मनाने का सच्चा उद्देश्य है। आज कार्तिक पूर्णिमा है। पंजाब के महान् सन्त गुरु नानक की आज जयन्ती है। आज पूर्णिमा है । जैन-संस्कृति और जैन साहित्य के तेजस्वी एवं मनस्वी आचार्य हेमचन्द्र की जयन्ती है। आज पूर्णिमा है, महाप्राण, धर्मवीर, क्रान्तदर्शी लोकाशाह का आज जन्म दिवस है । हरिजन प्रिय ठक्कर बापा का भी आज जन्म दिन है । आज पूर्णिमा के दिन हजारों लाखों लोग गंगा, यमुना व पुष्कर आदि तीर्थों में पवित्र बनने की भावना से स्नान कर रहे हैं। इस प्रकार के स्नान से आत्म शुद्धि होती है कि नहीं ? यह एक विचारणीय प्रश्न है परन्तु आज की इस विचार गंगा में यदि आपका मन गहरी डुबकी मार सका, तो निश्चय ही वह पवित्र, शुद्ध और निर्मल हो सकेगा। लाल भवन जयपुर, २६-११-५५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षावास की विदा आशा मानव मन का ज्योतिर्मय दीपक है । आशा का दीपक प्रज्वलित करके ही संसार में जीवित रहा जा सकता है। जिसके मानस में आशा-दोप सतत जलता रहता है, वह कभी खेद-खिन्न नहीं होता। एक कवि की वाणी में-"आशा गुलाब की सुरभित एवं सुन्दर खिली कली के समान है, जिसे देखकर द्रष्टा के मन में सौन्दर्य की भावना भर जाती है।" यह हुआ आशा का भावना पक्ष । विचार पक्ष की दृष्टि से भी मानव जीवन में आशा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। आशा क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में एक विद्वान ने कहा-"आशा, जीवन की परिभाषा है।" मानव जीवन की यथार्थ व्याख्या का नाम तो आशा है। कविवर दिनकर के शब्दों में "फूलों पर आँसू के मोती, और अश्रु में आशा । मिट्टी के जीवन की छोटी, नपी-तुली परिभाषा ॥" आशा और निराशा दोनों मानव जीवन के अपरिहार्य पक्ष हैं । एक दिन वह था, जब आपके इस जयपुर नगर में इधर-उधर से सन्तों के पधारने के शुभ समाचार से आप सभी श्रावकों के मन आशा से भर गये थे। ( ८० ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षावास की विदा ८१ परन्तु आज आपके मनों में निराशा भर गई है । सन्तों का वियोग निराशा का कारण अवश्य है, पर इस निराशा में भी आशा की सुनहली प्रभा छुपी हुई रहती है । आज हम आपके नगर से विदा हो रहे हैं, तो निराशा लेकर नहीं, फिर लौटने की आशा लेकर जा रहे हैं। किसी भी क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जाने वाला सन्त पुनरपि क्षेत्र स्पर्शन की भावना लेकर विदा हो । हम सब सन्त जयपुर के श्रावकों की श्रद्धा व भक्ति लेकर जा रहे हैं । इसका अर्थ यह हआ कि हम फिर भी जयपूर क्षेत्र की स्पर्शना को भावना लेकर जा रहे हैं। यही तो आपको निराशा में भी आशा का दैदीप्यमान प्रदीप । ___अभी आपने भक्त कवि विनयचन्दजी का भक्ति-पूर्ण कविता का अन्तर्नाद श्रद्धेय स्थवर हजारीमलजी महाराज के श्रीमुख से सुना है । साधक के लिये आशा का कितना महान दिव्य सन्देश है इसमें । निराशा के घोर अन्धकार से घिरा हुआ मन भगवान् की दिव्य स्तुति को सुनते ही आध्यात्मिक दिव्य जीवन की आशा के महाप्रकाश में जगमगाने लगता है। वह भक्त कवि सन्त नहीं था, एक श्रद्धाशील श्रावक ही था, पर उसकी वाणी में कितना माधुर्य है ? कितना स्वारस्य है ? कितना आकर्षण है ? भौगोलिक क्षेत्र से भले वह राजस्थान का ही क्यों न हो? परन्तु भावना और विचार के क्षेत्र से उसकी वाणी के अन्तर्नाद का प्रसार गुजरात, मालवा, महाराष्ट्र और पंजाब की सुदूर सीमा में भी जा झंकृत हुआ है। और सर्वत्र भक्त से भगवान होने का शुभ संकेत साधक के लिए एक आशाप्रद दिव्य थाती है। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-"श्रमण हो, या श्रावक, जो अन्तर मन से धर्म की साधना करता है, वह वस्तुतः महान् है । संयम, सदाचार और अनुशासन की मंगलमयी भावना में प्रवाहित होने वाला साधक ऊंचा है । भगवान् के धर्म में जाति, कुल और सम्प्रदाय का कोई महत्व नहीं, वहाँ तो साधक की साधना का महत्व है। श्रमण परम्परा में जाति की पूजा नहीं, संयम और सदाचार की पूजा की जाती है। भगवान् महावीर से पूछा गया - भन्ते ! चार वर्ण कौन से हैं ? वहाँ उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये वर्ण नहीं बतलाए, बल्कि स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका-ये ही चारों वर्ण हैं । इनमें कहीं भी क्षुद्रता और महानता का भेद नहीं है । समत्व योग की साधना ही जैन सस्कृति का प्राण तत्व है। मनुष्य का कल्याण जाति, सम्प्रदाय और Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ अमर भारती पन्थों में नहीं, पवित्र भावना में है । जो पवित्रता के पन्थ पर चलता है, वह अवश्य ही कल्याण का भागी है । रेगिस्तान में कोई हरा भरा और छायादार वृक्ष हो तो दूर-दूर के यात्री भी उसकी छाया के आकर्षण से खिंचे चले आते हैं । उसकी शीतल छाया में थका-मांदा और आतप-तापित मनुष्य सुख और शांति का अनुभव करता है । आने-जाने वाले यात्रियों के आकर्षण को वह घटादार वृक्ष एक सुरम्य केन्द्र बन जाता है । उस वृक्ष की टहनी को यदि कोई तोड़ डालता है, तो द्रष्टा को कितनी पीड़ा होती । किन्तु नीरस हो जाने पर या सूख जाने पर टूट-टूट कर गिरना ही उसके भाग्य में बदा होता है । नष्ट-भ्रष्ट जाने के अतिरिक्त उसकी कोई अन्य स्थिति शेष नहीं रहती । परिवार, समाज और संघ भी अपने आप में एक हरे भरे, घटादार और छायादार वृक्ष हैं । स्नेह और सद्भाव के शीतल एवं मधुर जल से इनका सिंचन होना चाहिए, तभी ये हरे-भरे रह सकते हैं, घटादार और छायादार रह सकते हैं । संघ संघटित हैं, हरे-भरे हैं, जिनकी जड़ें मजबूत हैं, उनकी शीतल छाया में कभी सन्त भी आ सकते हैं, कभी सहधर्मी भाई भी आ सकते हैं और कभी अन्य नागरिक भी वहाँ आश्रय पाकर सुख, शान्ति का अनुभव कर सकते हैं । और यदि वे दुर्भाग्य से स्नेह शून्य हो गए, सूख गए, तो फिर टूट-टूटकर गिरना ही उनके भाग्य में लिखा होगा | विनाश और ह्रास की कहानी तो उनके जीवन में शेष रहती है । इस स्थिति में वहाँ निराशा का घोर अन्धकार ही मिलेगा, आशा का स्वर्णिम प्रकाश नहीं । अभी मैं आपसे कह रहा था कि मानव जीवन में आशा का बड़ा महत्व है | आशा जीवन है और निराशा मृत्यु । दूसरों को जो आशा का प्रकाश देते हैं, उन्हें ही आशा का दिव्य प्रकाश मिल सकता है । आपके संघ में स्नेह और सद्भाव की वह शक्ति होनी चाहिए कि आप अपने सहधर्मी भाइयों को भी सेवा कर सकें। आपके इस जयपुर क्षेत्र में पंजाब के बहुत से सहधर्मी श्रावक आये हैं, उनका ध्यान रखना आपका कर्तव्य है । सहधर्मी बन्धु किसी भी देश का हो, किसी भी जाति का हो, वह आपका धर्म बन्धु है । उसे धर्म साधना में सहयोग देना आपका सर्व प्रथम कर्तव्य है । स्वयं धर्म में स्थिर रहना और यह श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। संघ के प्रत्येक विशेष ध्यान रखना चाहिए । दूसरों को स्थिर रखना, व्यक्ति को इस बात का Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षावास की विदा ८३ मैं आपको एक बात और कह देना चाहता है, कि सन्त एक मधुकर है, सन्त एक भ्रमर है । जहाँ सुरभि और रस मिलता है, वहाँ वह अवश्य ही आस-पास के वातावरण को अपने सुमधुर गुंजार से झंकृत करता हुआ जा पहुँचता है । संघ को वह पुष्प बनाना चाहिए, जिसमें मधु और सुरभि दोनों हों, सन्त मधुकरों को बिना किसी निमन्त्रण आमन्त्रण के स्वयं ही श्रद्धाशील संघों का आकर्षण होता रहे । सन्त गुण-ग्राही होता है । संघ में जो सद्गुण हैं, श्रद्धा, भक्ति और सद्भाव हैं, उनको वह पवन की भाँति दूर-दूर ले जाकर फैला देता है। आपके जयपुर संघ की जो श्रद्धा, भक्ति और सेवा है, उसे हम भूल नहीं सकते । मैं अस्वस्थ होने के कारण आपकी विशेष ज्ञान-सेवा नहीं कर सका । इस बात का मुझे अवश्य विशेष विचार रहा है। किन्तु मैं तो आशावादी हूँ और आप को भी आशावादी होने की सतत प्रेरणा देता रहा हूँ । सन्त जन धनसम्पत्ति के नहीं, भावना के भूखे होते है । आपकी भावना में आकर्षण रहा, तो जाने वाले सन्त भी आप से दूर नहीं रह सकेंगे। आपके यहाँ वर्षावास में मैं बहुत ही अल्प प्रवचन कर पाया हूँ, क्योंकि अस्वस्थ रहा है। फिर भी जो दे पाया हूँ, वह मुक्त हृदय से सत्य की परख के रूप में दिए हैं । मैं अपने विचार व्यक्त करते समय एक मात्र सत्य की निष्ठा का ही ध्यान रखता हूँ। अतः मेरे विचार कभी-कभी श्रोताओं के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अन्तर मन में सहज रूप में प्रवेश नहीं कर पाते । विचार भेद मत-भेद के रूप में तन कर खड़े हो जाते हैं। किन्तु एक बात मैं स्पष्ट कह देता हूँ कि मत-भेद भले ही हों, परन्तु मनोभेद नहीं होना चाहिए । विचार चर्चा कितनी ही गर्म क्यों न हो, परन्तु मन गर्म नहीं होना चाहिए । जीवन का यह सत्य तथ्य पा लिया, तो फिर किसी प्रकार का भय नहीं रहता। आप और हम सब आनन्द के मधुर क्षणों में अपनी धर्म साधना कर सकेंगे । गुलाब निवास, जयपुर ३०-११-५५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दृष्टि धर्म क्या है ? सत्य की जिज्ञासा, सत्य की साधना, सत्य का सन्धान । सत्य मानव जीवन का परम सार तत्व है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में भागवत प्रवचन है-"सच्चं खु भगवं।" सत्य साक्षात् भगवान है। सत्य अनन्त है, अपरिमित है। उसे परिमित कहना, सीमित करना, एक भूल है । सत्य को बाँधने की चेष्टा करना, संघर्ष को जन्म देना है, विवाद को खड़ा करना है । सत्य की उपासना करना धर्म है और सत्य को अपने तक ही वांध रखना अधर्म है । पन्थ और धर्म में आकाश-पाताल जैसा विराट अन्तर है। पन्थ परिमित है, सत्य अनन्त है । "मेरा जो सच्चा" यह पन्थ की दृष्टि है। "सच्चा सो मेरा" यह सत्य की दृष्टि है। पन्थ कभी विष रूप भी हो सकता है, सत्य सदा अमृत ही रहता है । ___अपने युग के महान् धर्म-वेत्ता, महान् दार्शनिक आचार्य हरिभद्र से एक बार पूछा गया- "इस विराट विश्व में धर्म अनेक हैं, पन्थ नाना है और विचारधाराएँ भी भिन्न-भिन्न हैं - "नको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।" प्रत्येक मुनि का विचार अलग है, धारणा पृथक् है और मान्यता भिन्न है । कपिल का योग मार्ग है, व्यास का वेदान्त विचार है, जैमिनि कर्म-काण्ड. वादी है, सांख्य ज्ञानवादी है - सभी के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। कौन सच्चा, कौन झूठा? कौन सत्य के निकट है और कौन सत्य से सुदूर है ? सत्य धर्म का आराधक कौन है, और सत्य धर्म का विराधक कौन है ? ( ८७ ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अमर-भारती समन्वयवाद के मर्म-वेत्ता आचार्य ने कहा-"चिन्ता की बात क्या ? जोहरी के पास अनेक रत्न बिखरे पड़े रहते हैं। उस के पास यदि खरे-खोटे की परख के लिए कसौटी है, तो भय-चिन्ता की बात नहीं। जन-जीवन के परम पारखी परम प्रभु महावीर ने हम को परखने की कसोटी दी है, कला दी है। धर्म कितने भी हों, पन्थ कितने भी हों, विचार कितने भी हों, सत्य कितने भी क्यों न हों ? भय और खतरे की बात नहीं। वह कसोटी क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य ने कहा-समन्वय-दृष्टि, विचार पद्धति, अपेक्षावाद, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद ही वह कसौटी है, जिस पर खरा, खरा ही रहेगा और खोटा, खोटा ही रहेगा। जिन्दगी को राह में फूल भी है और कांटे भी ? फूलों को चुनते चलो और काँटो को छोड़ते चलो। सत्य का संचय करते रहो, जहाँ भी मिले और असत्य का परित्याग करते रहो, भले ही वह अपना ही क्यों न हो ? विष यदि अपना है, तो भी मारक है और अमृत यदि पराया है, तो . भी तारक है । आचार्य हरिभद्र के शब्दों में कहूँ, तो कहना होगा "युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।" जिसकी वाणी में सत्यामृत हो, जिसका वचन युक्ति-युक्त हो, जिसके पास सत्य हो, उसके पास संचय में कभी संकोच मत करो। सत्य जहाँ भी हो, वहाँ सर्वत्र जैन धर्म रहता ही है । वस्तुतः सत्य एक ही है। भले ही वह वैदिक परम्परा में मिले, बौद्ध धारा में मिले या जैन धर्म में मिले । प्रत्येक दार्शनिक परम्परा भिन्न-भिन्न देश, काल और परिस्थिति में सत्य को अंश रूप में, खण्ड रूप में ग्रहण करके चली है। पूर्ण सत्य तो केवल एक केवली ही जान सकता है। अल्पज्ञ तो वस्तु को अश रूप में ही ग्रहण कर सकता है। फिर यह दावा कैसे सच्चा हो सकता है कि मैं जो कहता हूँ, वह सत्य ही है और दूसरे सब झूठे है ? वैदिक धर्म में व्यवहार मुख्य है, बौद्ध धर्म श्रवण-प्रधान है, और जैन धर्म आचार लक्षी है। वैदिक परम्परा में कर्म, उपासना और ज्ञान को मोक्ष का कारण माना है, बौद्ध धारा में शील, समाधि और प्रज्ञा को सिद्धि का साधन कहा है, और जैन-संस्कृति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का हेतु कहा गया है । परन्तु सबका ध्येय एक ही है-सत्य को प्राप्त करना । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दृष्टि : जिस प्रकार सरल और वक्र मार्ग से प्रवाहित होने वाली भिन्न-भिन्न नदियां अन्त में एक ही महासागर में विलीन हो जानी हैं; उसी प्रकार भिन्न-भिन्न रुचियों के कारण उद्भव होने वाले समस्त दर्शन एक ही अखण्ड सत्य में अन्तर्भूत हो जाते हैं । उपाध्याय यशोविजयजी भी इस समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर अपने 'ज्ञान सार' ग्रन्थ में एक परम सत्य का संदर्शन कराते हुए कहते हैं "विभिन्ना अपि पन्थानः, समुद्र सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्नुवत्येकमयक्षम् ॥" मैं आप से कह रहा था, जो समन्वयवादी हैं, वे सर्वत्र सत्य को देखते हैं । एकत्व में अनेकत्व देखना और अनेकत्व में एकत्व देखना, यही समन्वयवाद है, स्याद्वाद सिद्धान्त, विचार पद्धति है, अनेकान्त दृष्टि है। वस्तु तत्व के निर्णय में मध्यस्थ भाव रखकर ही चलना चाहिए। मताग्रह से कभी सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। समन्वय दृष्टि मिल जाने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि परिमित शास्त्रों के आरटन से भी कोई लाभ नहीं । स्याद्वादी व्यक्ति सहिष्णु होता है। वह राग-द्वष की आग में झुलसता नहीं । सब धर्मों के सत्य तत्व को आदर भावना से देखता है। विरोधी को सदा उपशमित करता रहता है । उपाध्याय यशोविजय जी कहते हैं "स्वागमं रागमात्रेण, दुषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ॥" हम अपने सिद्धान्त ग्रन्थों का--यदि वे बुरे भी है, तो इस लिए आदर नहीं करेंगे, कि वे हमारे हैं । दूसरों के सिद्धान्त-यदि वे निर्दोष हैं, तो इसलिए परित्याग नहीं करेंगे, कि वे दूसरों के हैं। समन्वय की दृष्टि से, सर्व-धर्म समानत्व के विचार से जो भी जीवन-मंगल के लिए उपयोगी होगा, उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे और जो उपयोगी नहीं है, उसे छोड़ने में जरा भी संकोच नहीं करेंगे । अनेकान्तवादी अपने जीवन व्यवहार में सदा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अमर भारती 'भी' को महत्व देता है, 'ही' को नहीं। क्योंकि 'ही' में संघर्ष है, वादविवाद है । 'भी' में समाधान है. सत्य का सन्धान है. सत्य की जिज्ञासा है। __मैं आप से कहता था कि जैन दर्शन की संधारणा के अनुसार सत्य सबका एक है, यदि वह अपने आप में वस्तुतः सत्य हो, तो ? विश्व के समस्त दर्शन, समग्र विचार-पद्धतियाँ, जैन दर्शन के नयवाद में विलीन हो जाती हैं । ऋजु सूत्र नय में बौद्ध दर्शन, संग्रह नय में वेदान्त, नैगमनय में न्याय-वैशेषिक, शब्दनय में व्याकरण और व्यवहार नय में चार्वाक-दर्शन अन्तभुक्त हो जाता है। जिस प्रकार रंग-बिरंगे फूलों को एक सूत्र में गूंथने पर एक मनोहर माला तैयार हो जाती है, वैसे हो समस्त दर्शनों के सम्मिलन में से जैन दर्शन प्रकट हो जाता है। सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से विद्वेष नहीं करता। क्योंकि वह सम्पूर्ण नय रूप दर्शनों को वात्सल्य भरी दृष्टि से देखता है, जैसे एक पिता अपने समस्त पुत्रों को स्नेहमय दृष्टि से देखता है । इसी भावना को लेकर अध्यात्मवादी सन्त आनन्दघन जी ने कहा है "षड् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे। 'नमि' जिनवरना चरण उपासक, षड् दर्शन आराधे रे॥" अध्यात्म योगी सन्त आनन्द घन ने अपने युग के उन लोगों को करारी फटकार बताई है, जो गच्छवाद का पोषण करते थे, पन्थशाही को प्रेरणा देते थे और मतभेद के कटु बीज बोते थे। फिर भी जो अपने आपको सन्त और साधक कहने में अमित-गर्व का अनुभव करते थे। 'ही' के सिद्धान्त में विश्वास रखकर भी जो 'भी' के सिद्धान्त का सुन्दर उपदेश झाड़ते थे । आनन्दघन जी ने स्पष्ट भाषा में कहा "गच्छना भेद बहु नयणे निहालतां, तत्व नी बात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करतां थकां, मोह नडीआ कलिकाल राजे ॥" मैं आप से कह रहा था, कि जब तक जीवन में अनेकान्त का बसन्त Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दृष्टि ६१ नहीं आता, तब तक जीवन हरा-भरा नहीं हो सकता। उसमें समता के पूष्प नहीं खिल सकते । समभाव, सर्वधर्म, समता, समन्वय, स्याद्वाद और अनेकान्त केवल वाणी में ही नहीं, बल्कि जीवन के उपवन में उतरना चाहिए । तभी धर्म की आराधना और सत्य की साधना को जा सकती है। अभी तक मैं समन्वयवाद की, स्याद्वाद की और अनेकान्त दृष्टि की शास्त्रीय व्याख्या कर रहा था । परन्तु अब अनेकान्त दृष्टि की व्यावहारिक व्याख्या भी करनी होगी। क्योंकि अनेकान्त या स्याद्वाद केवल सिद्धान्त ही नहीं, बल्कि जीवन के क्षेत्र में एक मधुर प्रयोग भी है । विचार और व्यवहार जीवन के दोनों क्षेत्रों में इस सिद्धान्त की समान रूप से प्रतिष्ठापना है। स्याद्वाद या अनेकान्त क्या है ? इस प्रश्न का व्यावहारिक समाधान भी करना ही होगा और आचार्यों ने वैसा प्रयत्न किया भी है। शिष्य ने आचार्य से पूछा-"भगवन्, जिन वाणी का सार भूत तत्व यह अनेकान्त और स्याद्वाद क्या है ? इसका मानव जीवन में क्या उपयोग है ? शिष्य की जिज्ञासा ने आचार्य के शान्त मानस में एक हल्का-सा कम्पन पैदा कर दिया। परन्तु कुछ क्षणों तक आचार्य इसलिए मौन बने रहे कि उस महासिद्धान्त को इस लघुमति शिष्य के मन में कैसे उतारू ? आखिर, आचार्यों ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से स्थूल जगत के माध्यम से स्याद्वाद की व्याख्या प्रारम्भ की । आचार्य ने अपना एक हाथ खड़ा किया और कनिष्ठा तथा अनामिका अंगुलियों को शिष्य के सम्मुख करते हुए आचार्य ने पूछाबोलो, दोनों में छोटी कौन और बड़ी कौन ? शिष्य ने तपाक से कहा अनामिका बड़ी है और कनिष्ठा छोटी । आचार्य ने अपनी कनिष्ठा अंगुली समेट ली और मध्यमा को प्रसारित करके शिष्य से पूछा-"बोलो, तो अब कौन छोटी और कौन बड़ी? शिष्य ने सहज भाव से कहा-अब अनामिका छोटी है और मध्यमा बड़ी । आचार्य ने मुस्कान के साथ कहावत्स, यही तो स्याद्वाद है । अपेक्षा भेद से जैसे एक ही अंगुली कभी बड़ी और कभी छोटी हो सकती है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक एक ही वस्तु में कभी किसी एक धर्म की मुख्यता रहती है, कभी उसकी गोणता हो जाती है । जैसे आत्मा को ही लो! यह नित्य भी है और अनित्य भी। द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । व्यवहार में यह जो अपेक्षावाद है, वही वस्तुतः स्याद्वाद और अनेकान्तवाद है। वस्तु तत्व को समझने का एक दृष्टिकोण विशेष है। विचार प्रकाशन की एक शैली है, विचार प्रकटीकरण की एक पद्धति है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अमर भारती समन्वयवाद, स्याद्वाद और अनेकान्त दृष्टि के मूल बीज आगमों में, वीतराग वाणी में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। परन्तु स्याद्वाद के विशद और व्यवस्थित व्याख्याकारों में सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक देव, यशोविजय और माणक्यनन्दि मुख्य है, जिन्होंने स्याद्वाद को विराट रूप दिया, महासिद्धान्त बना दिया। उसकी मूल भावना को अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। उसकी युग-स्पर्शी व्याख्या कर के उसे मानव जीवन का उपयोगी सिद्धान्त बना दिया । ___ स्याद्वाद के समर्थ व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष जब विरोध पक्ष की ओर से यह प्रश्न आया-"एक ही वस्तु में एक साथ, उत्पत्ति, क्षति और स्थिति. कैसे घटित हो सकती है ? तब समन्वयवादी आचार्यों ने एक स्वर में, एक भावना में यों कहा, यह समाधान किया तीन मित्र बाजार में गए। एक सोने का कलश लेने, दूसरा सोने का ताज लेने और तीसरा खालिस सोना लेने । देखा, उन तीनों साथियों ने एक सुनार अपनी दूकान पर बैठा सोने के कलश को तोड़ रहा है । पूछा-इसे क्यों तोड़ रहे हो? जबाब मिला-इसका ताज बनाना है। एक ही स्वर्ण वस्तु में कलशार्थी ने क्षति देखी, ताजार्थी ने उत्पत्ति देखी और शुद्ध स्वार्थी ने स्थिति देखी । प्रत्येक वस्तु में प्रतिपल उत्पत्ति, क्षति और स्थिति चलती रहती है। पर्याय की अपेक्षा से उत्पत्ति और क्षति तथा द्रव्य की अपेक्षा से स्थिति बनी रहती है । इस प्रकार एक ही वस्तु में तीनों धर्म रह सकते हैं, उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है । स्याद्वाद वस्तुगत अनेक धर्मों में समन्वय साधता है, संगति करता है। विरोधों का अपेक्षा भेद से समाधान करता है। स्याद्वादी आचार्यों का कथन है, कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है। एक वस्तु में अनेक धर्म हैं, अनन्त धर्म हैं। किसी भी वस्तु का परिबोध करने में नय और प्रमाण की अपेक्षा रहती है। वस्तुगत किसी एक धर्म का परिबोध नय से होता है और वस्तुगत अनेक धर्मों का एक साथ परिबोध करना हो, तो प्रमाण से होता है। किसी भी वस्तु का परिज्ञान नय और प्रमाण के बिना नहीं हो सकता । स्याद्वाद को समझने के लिए नय और प्रमाण के स्वरूप को समझना भी आवश्यक है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दृष्टि ६३ मैं आप से कह रहा था कि स्याद्वाद, समन्वयवाद और अपेक्षावाद अनेकान्त दृष्टि-जैन दर्शन का हृदय है। विश्व को एक अनुपम और मौलिक देन है। मतभेद, मताग्रह और वाद-विवाद को मिटाने में अनेकान्त एक न्यायाधीश के समान है। विचार क्षेत्र में, जिसे अनेकान्त कहा है, व्यवहार क्षेत्र में वह अहिंसा है। इस प्रकार "आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त" यह जैन धर्म की विशेषता है। क्या ही अच्छा होता? यदि आज का मानव इस अनेकान्त दृष्टि को अपने जीवन में, परिवार में, समाज में और राष्ट्र में ढाल पाता, उतार पाता? 卐) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा साधकः सम्यग्दृष्टि मनुष्य का जीवन क्या है ? एक नाटक, जिसमें एक के बाद एक दृश्य बदलता ही रहता है। आप में से बहुत-सों ने सिनेमा देखा होगा। चित्रपट पर कितने लुभावने चित्र आते हैं और तेजी से चले जाते है । कभी सुन्दर दृश्य आता है, तो कभी बुरा भी ! सुन्दर दृश्य को देखकर आप प्रसन्न होते हैं और बुरे को देखकर खिन्न हो जाते हैं। आपके चित्त पर चित्र पटों का कितना गहरा प्रभाव पड़ता है। आप कितने प्रभावित होते हैं। मैं आपसे कह रहा था, कि यह संसार भी एक सिनेमा है, एक चित्रपट है, एक नाटक है, जिसके पात्र आप स्वयं हैं । जीवन में कभी हर्ष के दृश्य, तो कभी विषाद के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं। सुख और दुःख जीवन में धूप-छाया की तरह आते-जाते हैं । कवि की वाणी में जीवन के सम्बन्ध में हमें कहना होगा - "जीवन के अविराम समर में, कभी हार है, जीत कभी। कभी पराजय का रोना है, गाना जय के गीत कभी।" जीवन के सिनेमा में कभी हार, कभी जीत । कभी हर्ष, कभी विषाद । कभी रोना, कभी गाना-ये सब चलते रहते हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा साधक : सम्यग्दृष्टि ६५ मिथ्या दृष्टि आत्मा इस संसार को सत्य और यहाँ के पदार्थों को सत्य और शाश्वत समझ कर दिन-रात उनकी प्राप्ति में लगा रहता है। धन और जन के संयोग से वह हर्षित हो उठता है और वियोग से विचलित। धन और जन के नाश को वह अपना विनाश समझ लेता है, देह की दीवार को भेद कर वह देही के तेज को पहचान नहीं पाता। वह शुभ को देखकर प्रसन्न होता है और अशुभ को देखकर खिन्न । पुण्य और पाप की भावनाओं के घेरे से वह निकल नहीं सकता । जीवन के चलचित्र में सुन्दर दृश्य आया, तो वह नाचने लगता है और बुरा दृश्य आया, तो रोने-चिल्लाने लगता है। उसके जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति नहीं । सदा बेकरार, बेचैन बना रहता है। इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि आत्मा इस विराट-विश्व को अपना शाश्वत निवास स्थान कभी नहीं मानता, यहाँ के पौद्गलिक पदार्थों को क्षण-नाशी समझता है । धन और जन के संयोग से हर्षित नहीं होता और वियोग से विचलित नहीं होता । धन और जन के नाश को वह अपना नाश कभी नहीं मानता । उसका वीतराग वाणी में अटल व अडिग विश्वास होता है"नत्थि जीवस्स नासोत्ति ।" देह के भीतर स्थित देही को वह पहचानता है। "मैं देह नहीं हूँ, देही हूँ" इस प्रकार उसे दृढ़ निष्ठा होती है । पाप और पुण्य की भावनाओं के घेरे से ऊपर उठकर वह धर्म की भावना में स्थित रहता है। शुभ और अशुभ भावों को छोड़कर वह शुद्ध भाव की उपासना करता है । शुद्ध योग की साधना करता है। हर्ष में हषित नहीं, विषाद में विषण्ण नहीं । वह अपने अध्यात्म मार्ग पर मस्त होकर चलता रहता है । अतएव उसके जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति रहती है।। मानव जीवन के दो पक्ष होते हैं-कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष । पहला अन्धकार का, दूसरा प्रकाश का । जीवन की यात्रा में बहिमुखी होकर चलना, कृष्ण पक्ष । विभाव दशा में रखड़ना कृष्ण पक्ष और स्वभाव दशा में रमण करना शुक्ल पक्ष । कृष्ण-पक्ष वाला विवेक हीन होता है, और शुक्ल पक्ष वाला विवेकशील होता है। विवेक धर्म है और अविवेक अधर्म है। मैं आप से कह रहा था कि सुख और दुःख जीवन में धूप-छाया की तरह आते हैं । मिथ्या दृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों का जीवन सुख-दुःख की राह में से गुजरता है। पहला व्याकुल हो जाता है और दूसरा निराकुल Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अमर भारती रहता है । जहाँ निराकुलता है, वहाँ दुःख भी सुख बन जाता है, आनन्द बन जाता है, अन्तर केवल दृष्टि का है । पदार्थ एक ही होने पर भी दृष्टि भेद से परिणाम भेद हो जाता है । सुख में फूलना नहीं और दुःख में घबराना नहीं - "यह साधक का परम लक्षण है ।" आपने एक बार क्या ! अनेक बार सुना होगा कि महामुनि स्कन्दक के देह की चमड़ी मृत पशु की चमड़ी की तरह जीवित दशा में ही उतारी जाती रही, किन्तु उनके मुख मण्डल पर प्रसन्नता खेलती रही । तरुण तपस्वी गज सुकुमार मुनि के मस्तक पर आग के धधकते अँगारे रखे गए, किन्तु वे समभाव के सागर में गहरे ही उतरते रहे । शान्त और दान्त बने रहे, क्षमा श्रमण बने रहे । मैं आप से पूछता हूँ कि इसका कारण क्या ? क्या उनको पीड़ा नहीं हो रही थी ? दैहिक दुःख-दर्द तो उनको भी हुआ ही होगा ? किन्तु उनको वह समदृष्टि अधिगत हो गई थी, जिससे उन्होंने दुःख को दुःख ही नहीं माना । दुःख और कष्ट का कारण उन्होंने बाहर नहीं देखा, अपने अन्दर ही देखा । वे विचार करते थे, मनुष्य जो कुछ भी भोगता है, वह अपने कर्मों का ही फल भोगता है । कर्म सिद्धान्त का यही तो अमर सन्देश है, कि भूल करो, तो फल भी भोगने को तैयार रहो । सम्यग्दृष्टि की विचारणा में यही जादू है । सच्चा साधक तो विष को भी अमृत बना लेता है | सच्चा साधक मृत्यु के महाकराल मुख में जाता हुआ भी यही कहेगा- " देह विनाशी, मैं अविनाशी, अजर-अमर चित मेरा ।" जैन सिद्धान्त का कहना है, कि एक बार सत्य दृष्टि मिली तो फिर बेड़ा पार है । जैसे सूत्र सहित सुई खो जाने पर भी शीघ्र ही मिल जाती है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि कदाचित संसार में भटक भी जाये, तो भी अपने आपको सम्भाल लेता है । वह गिरकर भी सदा के लिए नहीं गिरता है । जैसे रबर की गेंद को जमीन पर पटकने पर वह और अधिक वेग से ऊपर उछलती है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी सदा ऊर्ध्वगामी रहता है । कभी गिर भी पड़ेगा, तो वापिस दूने वेग से ऊपर उठेगा । संसार में तीन प्रकार के जीव है - एक वे जो कभी गिरते नहीं, दूसरे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा साधक : सम्यग्दृष्टि ६७ वे जो गिर-गिरकर भी सम्भल जाते हैं और तीसरे वे जो गिरकर कभी सम्भलते ही नहीं-गिरे तो गिरते ही रहे । जो कभी गिरते नहीं, वे देव हैं, अरिहन्त हैं। क्योंकि पतन का कारण कषाय भाव उनमें नहीं है। मिथ्यात्व और प्रमाद भी नहीं है । भूल का मूल ही नहीं, तो फिर भूल हो भी तो कैसे हो? जो गिरते हैं, पर गिरकर सम्भल जाते हैं, वे साधक हैं, सन्त हैं । सन्त अपनी भूल को कभी छुपाता नहीं। भूल को भूल स्वीकार करने वाला साधक सम्यग्दृष्टि है । प्रमाद और कषाय के कारण वह साधना के पथ पर से कभी गिर भी पड़ता है, परन्तु फिर शीघ्र ही सम्भल जाता है, क्योंकि वह सच्चा है । जो गिर कर कभी उठता नहीं, वह मिथ्या दष्टि है। गिरा तो मिट्टी के ढेले की तरह पड़ा ही रहा । क्योंकि मिथ्यात्व भाव के कारण वह अपनी भूल को कभी भूल स्वीकार नहीं करता । यही कारण है, इस प्रकार की आत्मा का निरन्तर पतन होता रहता है। कवि की वाणी में कहना होगा कि "गिरकर उठना, उठकर गिरना, है यह जीवन का व्यापार ।" गिरना उतना बुरा नहीं, जितना कि गिरकर पड़े ही रहना और उत्थान के लिए किसी प्रकार का प्रयत्न हो न करना। मैं आप से कह रहा था, कि सम्यग्दृष्टि आत्म-तत्व का पारखी होता है। वह दूसरा कुछ जानता हो, या न जानता हो? पर इतना तो वह अवश्य जानता है, कि आत्मा है । वह कषाय-युक्त है, उसे कषाय-मुक्त बनाना है। आकाश में काले बादल कितने भी सघन क्यों न हों ? किन्ता अन्त में सूर्य की ही विजय होती है। सम्यग्दृष्टि की जीवन-दष्टि यही रहती है । आत्मा को विकृत अवस्था से संस्कृत अवस्था में ले जाना उसके जीवन का ध्येय होता है । समभाव की साधना से वह शुद्ध बुद्ध और मुक्त होने का सतत प्रयत्न करता रहता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार बुरा नहीं : व्यक्ति की दृष्टि बुरी है मानव जीवन विकास का एक मुख्य साधन है, जिसके द्वारा अपने कर्तव्य का योग्य रीति से पालन करने का सामर्थ्य अधिगत करके मनुष्य अपने साध्य की ओर तेजी से बढ़ सकता है। मानव जीवन ही सर्वोच्च क्यों है ? क्योंकि इस में आत्मा का सर्वांगीण विकास हो सकता है। मनुष्य से नीचे स्तर पर पशु का जीवन आता है, और उससे नीचे स्तर पर देवजीवन आता है । देव जीवन के सम्बन्ध में यह कथन आश्चर्य की वस्तु नहीं, क्योंकि जैन संस्कृति में जीवन की सफलता का मुख्य आधार धर्म साधना है। देव जीवन में यह साधना नहीं की जा सकती । धर्म की साधना कर्मभूमि में होती है, भोग भूमि में नहीं। देवत्व भोग भूमि है और मनुष्त्व है, कर्मभूमि । इसी कारण मानव जीवन की श्रेष्ठता सिद्ध है। मैं कहता हूँ, मानव देह प्राप्त करना ही जीवन की इति नहीं है। समस्या का हल यहाँ नहीं हो पाता ? सबसे बड़ी बात है, मानव देह में मानवता प्राप्त करना । यदि मानवता नहीं है, तो फिर मानव देह भी निरर्थक हैं । यदि मानवता है, तो मानव देह का भी मूल्य है। जिस कार्य के लिए जो पात्र बनाया जाए और फिर भी वह पात्र उस कार्य की सिद्धि न कर सके, तो उस पात्र से लाभ क्या ? मानवता के बिना मानव जीवन की सिद्धि नहीं। ( ६८ ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है ६६ संसार क्या है ? एक कर्मभूमि । एक कर्म क्षेत्र । मनुष्य है, उस कर्म भूमि का, उस कर्म क्षेत्र का कम-योगी। मनुष्य संघर्ष तो करता ही है, परन्तु देखना यह है कि वह संघर्ष किसलिए करता है ? स्वार्थ के लिए या त्याग के लिए ? भोग के लिए या योग के लिए? नीति के लिए, या अनीति के लिए ? धर्म के लिए, या अधर्म के लिए ? संघर्ष तो होना चाहिए, पर न्याय नीति के लिए होना चाहिए । इसी में मनुष्य जीवन की विशेषता है। अपने मन्द मुस्कान की आनन्द रश्मियों से आप कितनों के मुकुलित मानसों को विकसित कर सकते हो ? इसी में मानव जीवन की सफलता के दर्शन होते हैं । कवि की वाणी में गाना होगा "मानव होकर मानवता से, तुम ने कितना प्यार किया है ? इस जीवन में तुम ने कितना, ___ औरों का उपकार किया है ॥" अल्प शब्दों में कहा जाए, तो निज के मानस को अधिक से अधिक उदात्त बनाना ही सच्ची मानवता है। जिस सरस मानस में समूचा संसार समा सके, विश्व-बांधवता का सुन्दर अंकुर फूट सके, वह मनुष्य एक सच्चा मनुष्य है। मानवता का आधार क्षेत्र वही है। वही है, देवताओं का प्यारा इन्सान । इस प्रकार का मानवत्व बिना त्याग-वैराग्य के प्राप्त नहीं हो सकता । भोगासक्ति में मनुष्य अपना मनुष्यत्व भूल जाता है। ____ जीवन में त्याग-वैराग्य की बड़ी आवश्यकता है क्योंकि उसके बिना जीवन में चमक-दमक नहीं आ पाती, पर वह संस्कृत रूप में होना चाहिए, विकृत रूप में नहीं। वह सजग और सतेज चाहिए, निर्जीव और निष्प्राण नहीं । मुझे याद है, एक बार एक अनमोल बालक के मुख से सुना "मात-पिता सारे झूठे हैं, झूठा है, संसार।" यह वैराग्य, जो अज्ञान बालकों के मन में बैठ जाता है, कोई सच्चा वैराग्य नहीं है । इससे जोवन का निर्माण नहीं हो सकता। मात-पिता झूठे, सारा संसार झूठा, संसार में कोई मेरा नहीं। इसका मतलब क्या ? क्या दुनिया में जन्म देने वाले और लालन-पालन करने वाले मात-पिता भी झठे, धोखा देने वाले और फरेब बाज हैं ? क्या समूचा संसार मक्कारों से ही Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अमर-भारती भरा है ? उसमें सच्चा कोई नहीं ? मैं समझता हूँ, यह एक मृत वैराग्य है, अज्ञानपूर्ण वैराग्य है । इससे जीवन का विकास नहीं हो सकता । संसार में रहकर भी संसार की आसक्ति में न फंसना ही सच्चा वैराग्य । संसार को झूठा कहना, मात-पिता को झूठे कहना, कुटुम्ब - परिवार को राक्षस कहना, यह कोई वैराग्य की परिभाषा नहीं है। समूचा संसार कभी झूठा नहीं हो सकता। संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है । संसार तो एक कर्म भूमि है, एक कर्म क्षेत्र है । जिसका जी चाहे, अपने आपको बना सकता है, देव भी और राक्षस भी । दृष्टि का फेर है । संसार नरक भी हो सकता हैयदि दृष्टि पाप पूर्ण है, तो । अन्यथा मैं समझता हूँ कि यही ससार स्वर्ग भी हो सकता है । स्वग का अर्थ यहाँ, देवों का स्वर्ग न समझें । मैं यहाँ उस स्वर्ग की बात कह रहा हूँ, जिस स्वर्ग की बात व्यास ने अपने महाभारत में कही है | स्वर्ग क्या है ? व्यास ने कहा"स्वर्गः सत्वगुणोदयः ।" - सात्विक गुणों का विकास करना, यही तो स्वर्ग है । दृष्टि को बदलते ही यह नरकमय संसार भी स्वर्गमय संसार बन जाएगा । मैं कहता हूँ कि अपने आपको तोलकर और सही दिशा में अपनी दृष्टि स्थिर करके जब कोई इस संसार संघर्ष में उतरेगा, तो उसे संसार बुरा नहीं लगेगा | वह उससे भागना नहीं चाहेगा, वह संसार को और मात - पिता को झूठा नहीं कहेगा, बल्कि संसार में फैली हुई विकृति को, वह अपनी कमजोरी को समझेगा और उससे लड़ना चाहेगा । जीवन संघर्ष के लिए है, यह सत्य है । पर वह संघर्ष होना चाहिए, समाज में और राष्ट्र में फैले हुए उन भ्रान्त विचारों और गलत परम्पराओं के विरोध में, जो मानव जीवन को रूढिग्रस्त व प्रगति-विरोधी बना देते हैं और उन स्वार्थमय तुच्छ वादों के विरुद्ध जो अखण्ड मानव जाति को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट कर हृदयहीन बना देते हैं । जाति, कुल, पन्थ - आज इन सब बेड़ियों को काट डालने की आवश्यकता है । मानवता की मशाल को ज्योतित रखने वाला, अपने विमल प्रेम की विशाल भुजाओं में सारे संसार को लिपटा लेने के लिए आगे बढ़ेगा । जाज का युग सहयोग और सह अस्तित्व का युग है । यह वृत्ति सामाजिक जीवन का प्राण तत्व है । स्नेह, सद्भाव और समता से मानवता का विकास होता है, अभ्युदय होता है । भगवान महावीर ने कहा है-मुक्ति चाहे जिसको प्राप्त हो, परन्तु Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है १०१ संविभागी को नहीं हो सकती । कितना सुन्दर सिद्धांत है ? जो बांट कर खाना नहीं चाहता, जो सब कुछ अपने लिए ही संग्रह कर रखना चाहता है, वह राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है । पूँजीवादी मनोवृत्ति का मनुष्य सबको लूटने की भावना रखता है । भारत की संस्कृति में तो यह कहा गया है"शत हस्तं समाहर, सहस्रहस्तं संकिरः ।" मनुष्य तू सैकड़ों हाथों से संचय कर, पर हजारों हाथों से देना भी मत भूल । त्यागपूर्वक ही भोग कर । तू सुखी बन, यह तेरा अधिकार है, पर दूसरों को भी सुखी रहने दे | अपने सुख-कणों को बटोर कर मत बैठ, बिखेरता चल, जीवन यात्रा में । यही त्याग - वैराग्य की सच्ची भावना है, जिसकी बात मैं कह रहा था । आज का पश्चिम भौतिकवादी है, सत्तावादी है, नियन्त्रणवादी है, परन्तु वह सहृदय नहीं है । संयम का अभाव होने से युद्धों में रत रहता है । और आज का पूर्व, वह भूखा है, अभावग्रस्त है । आध्यात्किता का नारा उसके गले से नीचे नहीं उतरता । अभावों की पीड़ा से वह पीड़ित है, धर्म न अति दुःख । भौतिकता और आध्यात्मिकता का सन्तुलन होना चाहिए । दोनों एक-दूसरे के पूरक बने न कि विरोधी । भौतिकता यदि स्वच्छन्द घोड़ा है, तो आध्यात्मिकता उसकी लगाम है। बिना लगाम का घोड़ा खतरनाक होता है । भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय से जागतिक विकास सम्भव है । अब मैं, फिर अपनी मूल बात पर आ जाता है । मनुष्य जब मनुष्यता प्राप्त कर लेगा, मनुष्य जब सच्चे अर्थों में त्याग - वैराग्य को जीवन में ढाल पाएगा, और जब मनुष्य सहृदय बन सकेगा, तभी वह अपना परिवार का, समाज का और राष्ट्र का कल्याण कर सकेगा, विकास कर सकेगा । संसार को बदलने की अपेक्षा मनुष्य पहले अपने आपको बदले । दूसरों को बुरा कहने से पूर्व जरा अपने अन्दर भी झांक ले । कहीं अपने अन्दर हो तो बुरापन नहीं है । दृष्टि बदलो, तो सृष्टि अपने आप ही बदल जाएगी । व्यक्ति कदाचित् बुरा हो सकता है, परन्तु सारा संसार कभी बुरा नहीं होता । जोधपुर, सिंहपोल ११-१-५३ ! 1 1 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रकार सम्मेलन में : उपाध्याय श्री अमर मुनिजी प्रश्न-धर्म क्या है ? व्यक्ति के विकास में उसका क्या महत्व है। क्या व्यक्ति के विकास में सामाजिक धरातल भी आवश्यक है ? समाधान-धर्भ की परिभाषा एक नहीं, हजारों हैं। किन्तु कोरे शब्द प्रपंच से ऊपर उठकर धर्म को समझने का प्रयत्न किया जाए, तो मैं समझता हूँ, धर्म को परिभाषा यह होगी-"धर्म मानव मन के अन्तर की वह शुद्ध प्रेरणा है, जिससे मनुष्य सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है । भय और प्रलोभन के अभाव में अपने अन्तःकरण की स्वतः प्रेरणा से मनुष्य जो शुद्ध प्रवृत्ति करता है, वस्तुतः वही सच्चा धर्म है।" उदाहरण के रूप में समझिए-"आपके सामने चार मनुष्य खड़े हैं, उन चारों से आप यह प्रश्न पूछिए-कि तुम अन्याय, अनीति और अनाचार क्यों नहीं करते हो?" अव आप उनका उत्तर सुनिए प्रथम-कर तो लूं, परन्तु राज्य दण्ड का भय है । जेल में पड़े रह. कर सड़ना पड़े, पिटना पड़े। द्वितीय-कर तो लूँ, किन्तु समाज का भय है । समाज के लोग क्या कहेंगे ? मेरा बहिष्कार कर देंगे। ( १०२ ) . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रकार सम्मेलन में, उपाध्याय श्री अमर मुनिजी १०३ तृतीय-कर तो लूं, पर नरक में जाने का भय है। नरक की तीव्र वेदना भोगनी पड़ेगी। चतुर्थ-मैं अन्याय, अनीति और अनाचार नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा करने को मेरा अन्तर मन तैयार नहीं है । वैसा करने का कभी विचार और संकल्प भी नहीं होता। आप ने सुना, इन चारों का उत्तर । केवल चतुर्थ व्यक्ति ही सच्चा धर्भशील है । क्योंकि वह भय और प्रलोभन की भूमिका से ऊपर उठकर अपनी अन्तः प्रेरणा से पाप नहीं करता। शेष तीन पाप करने को तत्पर हैं । परन्तु भय बाधक बना हुआ है । पाप करने की अभिरुचि अवश्य है, किन्तु राज-भय, समाज-भय और नरक-भय करने नहीं देता। इस प्रकार की विवशता में धर्म नहीं पनप सकता । धर्म तो मानव के शुद्ध हृदय में ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। भगवान महावीर की वाणी में-"धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ ॥" जिस व्यक्ति के मन में छलना नहीं, माया नहीं भय नहीं और लोभ नहीं, वहाँ धर्म अवश्य होगा। धर्म मानव को प्रसूप्ति से जागृति की ओर ले जाता है। धर्म आत्मा की एक शक्ति है, जिससे मनुष्य जीवन सुघड़, सुदृढ़ और संस्कृत बनता है। धर्भ व्यक्ति का विकास की जड़ है । धर्म व्यक्ति का निर्माण करता है और उसे विकास की ओर चलने को उत्प्रेरित करता है । धर्म जड़ नहीं, एक गतिशील शक्ति है, क्रियात्मक प्रयोग है। __ मैं समझता हूँ कि व्यक्ति के विकास में सामाजिक धरातल भी आवश्यक है। यदि सामाजिक धरातल से आपका अभिप्राय भौतिकता की ओर संकेत है, तो मुझे स्पष्ट कहना होगा कि व्यक्ति के विकास के लिए वह भी आवश्यक है । आज अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के सम्बन्ध में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे सर्वथा दोष रहित नहीं हैं। मेरे विचार में दोनों के समन्वय से, दोनों के सन्तुलन से व्यक्ति का विकास उच्चस्तरीय हो सकता है। दोनों वाद परस्पद एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधक नहीं हैं। समाज का भौतिक विकास इस प्रकार का चाहिए कि व्यक्ति के पैर आसानी से आगे बढ़ने के लिए उठ सकें । भौतिकता का अविकास भी सर्वसाधारण को पतन की ओर उन्मुख कर सकता है । अभाव को चोट मनुष्य कठिनता से सहन कर पाता है । भौतिकवाद के सम्बन्ध में मेरी यह धारणा है कि वह अध्यात्मवाद से अनुप्राणित हो । भगवान महावीर के संविभाग Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अमर भारती वाद के आधार पर यदि भौतिक विकास होता है, तो उससे जीवन में कोई खतरा नहीं होगा । इस दृष्टि से व्यक्ति विकास में सामाजिक धरातल आवश्यक है । प्रश्न- धर्म में वैराग्य का क्या स्थान है ? और विरागी व्यक्ति का संसार के प्रति क्या दृष्टिकोण रहता है ? समाधान -- वैराग्य के तीन रूप हैं - दुःख-मूलक, मोह-मूलक और ज्ञान मूलक । विशुद्ध वैराग्य वही है, जिसका मूल आधार ज्ञान है, विवेक है । दुःख मूलक और मोह मूलक वैराग्य में पतन का भय बना रहता है । मेरा अपना दृष्टिकोण यह है कि धर्म को जीवित रखने के लिए वैराग्य परम आवश्यक तत्व है । क्योंकि उसके बिना जीवन स्थिर नहीं हो पाता । वैराग्य संसार से नहीं, सांसारिकता से होना चाहिए । संसार बुरा नहीं, सांसारिकता बुरी बला है, जिस से व्यक्ति का निरन्तर पतन होता रहता है । विरागी का संसार के प्रति यही विशुद्ध दृष्टिकोण बना रहना चाहिए । प्रश्न- धनागम पुण्य रूप है, या पाप रूप है ? समाधान - शास्त्रों में पाप के पाँच प्रकार हैं- हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह, अर्थात् संग्रह । प्रथम से चतुर्थ तक पाप की धारा स्पष्ट ही है । न जाने पंचम पर आकर लोक मानस का रास्ता मोड़ क्यों खा जाता है ? यह मुझे समझ में नहीं आता । धनागम के बारे में समाज में आज जो विचार फैला है, वह मध्ययुगीन सामन्तवादी प्रवाह से प्रभावित है । धन प्राप्ति को एकान्त पुण्य और एकान्त पाप रूप में नहीं माना जा सकता । धन अपने आप में जड़ है, वह न पाप रूप है और न पुण्य रूप | उसकी प्राप्ति का प्रकार व्यक्ति की भावना पर अधिक आधारित रहता है । प्रश्न - धर्म परिवर्तनशील है, या अपरिवर्तनशील है ? समाधान - जैन धर्म स्याद्वाद को मानता है । मैं कहूँगा कि धर्म के दोनों रूप स्वीकार्य होने चाहिए। एक आम्र तरु है । वह हर साल नये पत्तों और नये फलों के रूप में परिवर्तित होता है । परन्तु मूल रूप में, जड़ रूप में वह परिवर्तित नहीं होता । आम्र वृक्ष बदला भी बदला । धर्म के सम्बन्ध में भी यही सत्य लागू पड़ता है। और नहीं भी धर्म का बाह्म Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रकार सम्मेलन में, उपाध्याय श्री अमर मुनिजी १०५ रूप यथानुरूप बदलता रहता है और आन्तरिक रूप शाश्वत है। धर्म का मूल रूप स्थिर है और बाहरी रूप परिवर्तनशील । इस प्रकार धर्म परिवर्तनशील भी है और अपरिवर्तनशील भी। . प्रश्न-स्वर्ग और नरक के विषय में आप के क्या विचार हैं ? समाधान- स्वर्ग और नरक स्थान-विशेष रहें, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु, वे जीवन की स्थिति विशेष भी हैं-इससे इन्कार नहीं होना चाहिए। प्रश्न-सुख और दुःख की वास्तविक व्याख्याएँ क्या हो सकती हैं ? समाधान-सुख और दुःख की कोई निश्चित और निर्धारित व्याख्या करना आसान नहीं है । क्योंकि इस सम्बन्ध में विभिन्न व्यक्तियों के अनुभव विभिन्न होते हैं। एक का सुख दूसरे को दुःख रूप भी हो सकता है । और एक का दुःख दूसरे को सुख भी। अतः सुख-दुःख की कोई स्थिर व्याख्या नहीं की जा सकती। हाँ, सुख-दुःख की इतनी परिभाषा की जा सकती है कि अनुकूलता सुख है और प्रतिकूलता दुःख । संक्षेप में ये हैं, वे प्रश्न और समाधान, जो कविरत्न जी महाराज ने जोधपुर पत्रकार सम्मेलन में अभिव्यक्त किए थे। जोधपुर कालेज जनवरी १९५३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच शील और पंच शिक्षा वर्तमान युग में दो प्रयोग चल रहे हैं-एक अण का, दूसरा सह अस्तित्व का । एक भौतिक है, दूसरा आध्यात्मिक । एक मारक है, दूसरा तारक । एक मृत्यु है, दूसरा जीवन । एक विष है, दूसरा अमृत ।। अणु प्रयोग का नारा है -"मैं विश्व की महान शक्ति हूँ, संसार का अमित बल हूँ, मेरे सामने झुको या मरो।" जिसके पास मैं नहीं हूँ, उसे विश्व में जीवित रहने का अधिकार नहीं है। क्योंकि मेरे अभाव में उसका सम्मान सुरक्षित नहीं रह सकता।" सह अस्तित्व का नारा है-"आओ, हम सब मिलकर चलें, मिलकर बैठे और मिलकर जीवित रहें, मिलकर मरें भी। परस्पर विचारों में भेद है, कोई भय नहीं। कार्य करने की पद्धति विभिन्न हैं, कोई खतरा नहीं । क्योंकि तन भले ही भिन्न हों, पर मन हमारा एक है । जीना साथ है, मरना साथ हैं। क्योंकि हम सब मानव हैं और मानव एक साथ ही रह सकते हैं, बिखर कर नहीं, बिगड़ कर नहीं।" पश्चिम अपनी जीवन यात्रा अणु के बल पर चला रहा है, और पूर्व सह-अस्तित्व को शक्ति से । पश्चिम देह पर शासन करता है और पूर्व देही पर । पश्चिम तलवार-तोर में विश्वास रखता है, पूर्व मानव के अन्तर मन में, मानव की साहजिक स्नेहशीलता में। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच शील और पंच शिक्षा १०७ आज की राजनीति में विरोध है, विग्रह है, कलह है, असन्तोष है और अशान्ति है । नीति, 'भले ही राजा की हो या प्रजा की, अपने आप में पवित्र है, शुद्ध और निर्मल है। क्योंकि उसका कार्य जग कल्याण है, जग विनाश नहीं । नीति का अर्थ है, जीवन की कसौटी, जीवन की प्रामाणिकता, जीवन को सत्यता । विग्रह और कलह को वहाँ अवकाश नहीं । क्योंकि वहाँ स्वार्थ और वासना का दमन होता है । और धर्म क्या है ? सबके प्रति मंगल भावना । सबके सुख में सुख-बुद्धि और सबके दुःख में दुःख-बुद्धि । समत्व योग की इस पवित्र भावना को धर्म नाम से कहा गया है। यों मेरे विचार में धर्म और नीति सिक्के के दो बाजू हैं। दोनों की जीवन-विकास में आवश्यकता भी है। यह प्रश्न अलग है कि राजनीति में धर्म और नीति का गठबंधन कहाँ तक संगत रह सकता है। विशेषतः आज की राजनीति में जहाँ स्वार्थ और वासना का नग्न ताण्डव नृत्य हो रहा हो ! मानवता मर रही हो! बुद्ध और महावीर ने समूचे संसार को धर्म का सन्देश दिया-राजनीति से अलग हटकर, यद्यपि वे जन्मजात राजा थे। गांधीजी ने नीतिमय जीवन का आदेश दिया, राजनीति में भी धर्म का शुभ प्रवेश करायायद्यपि गाँधीजी जन्म से राजा नहीं थे। यों गाँधीजी ने राजनीति में धर्म की अवतारणा की। गांधीजी की भाषा में राजनीति वह जो धर्म से अनुप्राणित हो, धर्म-मूलक हो । जिस नीति में धर्म नहीं, वह राजनीति, कुनीति रहेगी। राजा की नीति धर्ममय होती है। क्योंकि भारतीय परम्परा में राजा न्याय का विशुद्ध प्रतीक हैं । जहाँ न्याय वहाँ धर्म होता ही है । न्याय रहित नीति नहीं, अनीति है, अधर्म है । आज भारत स्वतन्त्र है और स्वतन्त्र भारत की राजनीति का मूल आधार है- पंचशील सिद्धान्त । इस पंचशील सिद्धान्त के सबसे बड़े व्याख्याकार थे-भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू । भारत, चीन और रूस विश्व की सर्वतो महान् शक्तियाँ आज इस पंचशील सिद्धांत के आधार पर परस्पर मित्र बने हैं। गाँधी युग की या नेहरू युग की यह सबसे बड़ी देन है, संसार को। दुनिया की आधी से अधिक जनता पंचशील के पावन सिद्धान्त में अपना विश्वास ही नहीं रखती, बल्कि पालन भी करती है । यूरोप पर भी धीरे-धीरे पंचशील का जादू फैल रहा है। मैं आपको यह बताने का प्रयत्न करूंगा कि पंचशील क्या है ? इसका Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अमर-भारती मूल कहाँ है ? और यह पल्लवित कैसे हुआ ? सबसे पहले मैं, राजनीति में प्रचलित पचशील पर विचार करूंगा। भारत की राजनीति का आधार पंचशील इस प्रकार है राजनीतिक पंचशील अखण्डता-एक देश दूसरे देश की सीमा का अतिक्रमण न करे। उसकी स्वतन्त्रता पर आक्रमण न करे। इस प्रकार का दबाव न डाला जाए, जिससे उसकी अखण्डता पर संकट उपस्थित हो । प्रभु-सत्ता-प्रत्येक राष्ट्र की अपनी प्रभु-सत्ता है। उसकी स्वतन्त्रता में किसी प्रकार की बाधा बाहर से नहीं आनी चाहिए । ३. अहस्तक्षेप-किसी देश के आन्तरिक या बाह्य सम्बन्धों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। ४. . सह अस्तित्व-अपने से भिन्न सिद्धान्तों और मान्यताओं के कारण किसी देश का अस्तित्व समाप्त करके उस पर अपने सिद्धान्त और व्यवस्था लादने का प्रयत्न न किया जाए। सबको साथ जीने का, सम्मानपूर्वक जीवित रहने का अधिकार है । ५. सहयोग-एक-दूसरे के विकास में सब सहयोग, सहकार की भावना रखें । एक के विकास में सबका विकास है । यह है राजनीतिक पंचशील सिद्धान्त, जिसकी आज विश्व में व्यापक रूप में चर्चा हो रही है। 'शील' शब्द का अर्थ, यहाँ पर सिद्धान्त लिया गया है । पंचशील आज की विश्व राजनीति में एक नया मोड़ है-जिसका मूल धर्म भावना में है। भारत के लिए पंचशील शब्द नया नहीं है। क्योंकि आज से सहस्रों वर्ष पूर्व भी श्रमण-संस्कृति में यह शब्द व्यवहृत हो चुका है। जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा के साहित्य में पंचशील शब्द आज भी अपना अस्तित्व रखसा है और व्यवहार में भी आता है । बौद्ध पंचशील भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पाँच आचारों का उपदेश दिया था, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचशील और पंच शिक्षा १०६ उन्हें पंचशील कहा गया है । शील का अर्थ, यहाँ पर आचार है, अनुशासन है | पंचशील इस प्रकार है १. २. ३. ५. ४. ब्रह्मचर्य - मन से पवित्र रहो, तन से पवित्र रहो । विषय-वासना का परित्याग करो | ब्रह्मचर्य का पालन करो । १. अहिंसा -- प्राणि मात्र के प्रति समभाव रखो । किसी पर द्वेष मत रखो | क्योंकि सबको जीवन प्रिय है । ३. सत्य - सत्य जीवन का मूल आधार है । मिथ्या भाषण कभी मत करो । मिथ्या विचार का परित्याग करो । अस्तेय दूसरे के आधिपत्य की वस्तु को ग्रहण न करो । जो अपना है, उसमें सन्तोष रखो । उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययन में केशी - गौतम चर्चा के प्रसंग पर 'पंच- शिक्षा' का उल्लेख मिलता है | पंचशील और पंच शिक्षा में अन्तर नहीं है, दोनों समान हैं, दोनों की एक ही भावना है । शील के समान शिक्षा का अर्थ भी यहाँ आचार है | श्रावक के द्वादश व्रतों में चार शिक्षा व्रत कहे जाते हैं । पंच शिक्षाएँ ये हैं - जैन पंच शिक्षा ४. मद त्याग - किसी भी प्रकार का मद मत करो, नशा न करो। सुरापान कभी हितकर नहीं है । अहिंसा - जैसा जीवन तुझे प्रिय है, सबको भी उसी प्रकार । सब अपने जीवन से प्यार करते हैं । अतः किसी से द्वेष-घृणा मत करो । सत्य - जीवन का मूल केन्द्र है । सत्य साक्षात् भगवान है । सत्य का अनादर आत्मा का अनादर है । अस्तेय - अपने श्रम से प्राप्त वस्तु पर ही तेरा अधिकार है । दूसरे की वस्तु के प्रति अपहरण की भावना मत रख । ब्रह्मचर्य -- शक्ति सचय । वासना संयम । इसके बिना धर्म स्थिर नहीं होता । संयम का आधार यही है । यह ध्रुव धर्म है । ५. अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय पाप है । संग्रह में परपीड़न होता है । आसक्ति बढ़ती है । अतः परिग्रह का त्याग करो । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अमर-भारती वैदिक पंच यम वैदिक धर्म का पंच-यम, जैन पंच- शिक्षा के सर्वथा समान है । पंच-यम का उल्लेख योग सूत्र में इस परिग्रहा यमाः ।" यम का अर्थ है, भावना में भी और शब्द में भी । प्रकार है- "अहिंसासत्यास्ते ब्रह्मचर्या संयम, सदाचार, अनुशासन । मैं आपसे कह रहा था, कि भारत की राजनीति में आज जिस पंचशील की चर्चा की जा रही है, प्रचार हो रहा है, वह भारत के लिए नया नहीं है । भारत हजारों वर्षों से पंचशील का पालन करता चला आ रहा है । राजनीति के पंचशील सिद्धान्त का विकास बोद्ध पंचशील से, जैन पंचशिक्षा से और वैदिक पंच-यम से भावना में बहुत कुछ मेल खा जाता है । बौद्ध पंचशील और जैन पंच शिक्षा की मूल आत्मा सह अस्तित्व और सहयोग में है । मानवतावादी समाज का कल्याण और उत्थान अणु से नहीं, सह अस्तित्व से होगा - यह एक ध्रुव सत्य है । ** Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : एक कला अनादि काल से मानव जीवन में कला का विशेष स्थान रहा है। कला की एक निश्चित परिभाषा-भले ही अभी तक न हो सकी हो-परंतु जीवन को सुन्दर, मधुर और सरस बनाने की चेष्टा का जबसे सूत्रपात हुआ है, तबसे कला भी जीवन के भव्य भवन में जाने-अनजाने आ पहुँची है। कला का अर्थ भोग-विलास के साधन करना-एक भ्रान्त धारणा ही नहीं, अपितु कला के यथार्थ परिबोध की नासमझी भी है। कला, जीवन-शोधन की एक प्रक्रिया है । कला, जीवन-विकास का एक प्रयोग है। कला, जीवन यापन की एक पद्धति है, एक शैली है । भोग-विलास के उपकरणों व प्रसाधनों के अर्थ में कला शब्द का प्रयोग करना, यह कला की विकृति है, संस्कृति नहीं। अधिक स्पष्ट कहूँ, तो कहना होगा, कि यह कला शब्द की विसंगति है, संगति नहीं। ____ भारतीय संस्कृति के महामनीषी ऋषि भर्तृहरि ने कहा है-"जिस जीवन में साहित्य की उपासना नहीं, संगीत की साधना नहीं, कला की आराधना नहीं, वह जीवन मानव का नहीं, पशु का जीवन है "साहित्य-संगीत-कला-विहीनः, ___ साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण-हीनः ॥" पशुत्व भाव से संरक्षण के लिए, जीवन में कला आवश्यक तत्व है। ( १११ ) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अमर-भारती श्रमण परम्परा में मानव जीवन के दो विभाग हैं-श्रावक और श्रमण । गृहस्थ और सन्त, भोगी और त्यागी। भोग से त्याग की ओर बढ़ना-दोनों के जीवन का ध्येय-बिन्दु है । जो एक साथ सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता, वह श्रावक होता है, जो एक साथ समस्त बन्धनों को काट कर चल पड़ा, वह श्रमण होता है। परन्तु इन दो भूमिकाओं से पूर्व भी जीवन की दो भूमिकाएं और हैं-मार्गानुसारी और सम्यग्दृष्टि । जो अभी अन्धकार से मुड़कर प्रकाशोन्मुख बना है. परन्तु अभी प्रकाश को पा नहीं सका, वह मार्गानुसारी-सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला है । जिसने प्रकाश पा लिया, सत्य का संदर्शन कर लिया, वह सम्यग्दृष्टि है। सत्य के महापथ पर चल पड़ना । यह श्रावकत्व और श्रमणत्व है। श्रमण संस्कृति की मान्यता के अनुसार जीवन की ये चार रेखाएँ हैं । इनमें से पहली रेखा तक, पहली भूमिका तक जीवन की कला प्राप्त नहीं होती। सम्यग्दृष्टि व सत्य-दृष्टि ही जीवन शोधन की सच्ची कला है । यह कला जिसके पास हो, जीवन यात्रा में उसे किसी प्रकार का भय नहीं हो सकता। वैदिक परम्परा में जीवन को चार विभागों में विभाजित किया हैब्रह्मचर्य-ज्ञान साधनाकाल, गृहस्थ-कर्तव्य काल, वानप्रस्थ-संन्यास की तैयारी और संन्यास-साधना काल । पहले विभाग में जीवन की सुदृढ़ता, दूसरे में धन और जन का उपार्जन और उपभोग, तीसरे में त्याग की तैयारी और चौथे विभाग में त्याग की साधना की जाती है। भारतीय विचारधारा में मानव जीवन को "सत्यं, शिवं, सुन्दरं" कहा गया है। दर्शन सत्य है, धर्म शिव है, मंगल है और कला सुन्दर है। दर्शन विचार है और कला आचार है, सम्यक्त्व उन दोनों में शिवत्व का अधिष्ठान करता है । फलितार्थ निकला-सम्यनिष्ठा, सम्यगविचार और सम्यग् आचार- इन तीनों का समग्रत्व ही वस्तुतः जीवन कला है। जिसके जीवन में निष्ठा हो, विवेक हो और कृति हो, तो समझना चाहिए, कि यह कलावान है। आत्मा में सत्, चित् और आनन्द-ये तीन गुण हैं। इन तीनों की समष्टि को 'आत्मा' पद से कहा गया है । सत् का अर्थ सत्य, शिव का अर्थ विवेक और विचार और सुन्दर का अर्थ आनन्द । अर्थात् सत्य, शिव और सुन्दर को समष्टि को ही जीवन-कला कहा जाता है । जहाँ तक मैं समझता हूँ, जीवन का चरम ध्येय आनन्द है। यदि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : एक कला ११३ मानव जीवन में से आनन्द-तत्व को निकाल दिया जाए, तो फिर मैं पूछता हूँ कि जीवन का अर्थ ही क्या शेष बचा रहेगा ? और यदि जीवन में आनन्द नामक कोई तत्व है, तो फिर कला की नितान्त आवश्यकता है । क्योंकि कला का उद्देश्य जीवन को आनन्दमय बनाना है । कुछ विचारक कहते हैं- " कला का अर्थ है, कला । यानी कला, केवल कला के लिए है । जीवन से उसकी कोई संगति नहीं ।" मैं समझता हूँ, यह एक बड़ी भ्रान्ति है । यह नारा भारत का नहीं, विदेश का है-जहाँ भोग ही जीवन की अन्तिम परिणति है । परन्तु भारत में जीवन की चरम परिणति है-योग | अतः यहाँ कला, केवल कला के लिए ही नहीं, मनोरंजन के लिए ही नहीं, अपितु जीवन वे लिए है, भोग से योग में जाने के लिए है । भारतीय विश्वास के अनुरूप कला की निष्पत्ति जीवन के लिए हुई है । अतः कहना होगा - "कला जीवन के लिए है ।" देश, काल और परिस्थितिवश कला में विभेद हो सकते हैं, परन्तु कला कभी व्यर्थ नहीं हो सकती है । 1 सौन्दर्य की ओर ढलना, मानव मन का सहज स्वभाव रहा है । मानव मानस में स्थित सौन्दर्य, केवल मानव के अपने जीवन तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु अपने आराध्य भगवान को भी वह सुन्दर वेष में सुन्दर, भूषा में और सुन्दर रूप में देखने की कल्पना करता है। वीतराग को भी भक्त कवि अनुपम, अद्भुत और चरम सुन्दर देखना चाहता है " यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मातिस्त्रिभुवनैकललामभूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति || " मैं समझता हूँ, इससे अधिक सौन्दर्य की उपासना अन्यत्र दुर्लभ है । भक्त अपने भगवान को विश्व में सर्वाधिक चिर सुन्दर देखना चाहता है । तभी तो वह कहता है कि जिस शांतराग परमाणु पुंज से आपके शरीर की रचना हुई है, वे परमाणु विश्व में उतने ही थे। क्योंकि इस विराट विश्व में आपसे अधिक रूप किसी में नहीं हैं, आपसे अधिक सौन्दर्य किसी में नहीं है । सौन्दर्य के उपकरण ही नहीं रहे, तो सौन्दर्य कहाँ रहेगा ? भले ही हम इस भक्त कवि की सौन्दर्य भावना को भक्ति का अतिरेक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अमर भारती कह कर टाल दें। परन्तु, सत्य है, कि सौन्दर्य की ओर झुकना मानव का सहज धर्म है। सौन्दर्योन्मुख प्रवृत्ति ही तो कला कही जाती है। अन्तर इतना ही है कि भौतिकवादी बाहर के सौन्दर्य को देखता है और अध्यात्मवादी आत्मा के सौन्दर्य को देखता है। भारत के महान् चिंतकों ने जीवन की सफलता में भूलकर भी विलास की गणना नहीं की । जीवन में सौन्दर्य को भी माना, कला को भी माना । परन्तु सौन्दर्य और कला में संयम की संयोजना को वे कभी नहीं भूले । सौन्दर्य की उपासना की, पर संयम के साथ । कला की आराधना की, पर संयम के साथ । आनन्द की कामना की, पर वह भी संयम के साथ । भारत के अध्यात्मवादी कलाकारों ने अन्तर्जगत के सौन्दर्य का मन-भर कर वर्णन किया है। गीता का विराट रूप दर्शन इस कल्पना का प्रमाण है। राजा जनक की राज सभा में, अष्टावक्र ऋषि ज्योंही पहुंचे कि उन्हें देखकर समस्त विद्वान् हंसने लगे - ऋषि का रूप ही ऐसा था । पर साथ में तपस्वी अष्टावक्र भी हंसने लगे। विद्वानों ने पूछा--"आप क्यों हंसे ?" अष्टावक्र ने मुस्कान भर कर कहा- "मैं अपनी भूल पर हंसा हूँ।" मैं समझता था कि राजा जनक अध्यात्मवादी हैं, उनके विद्वान् सभासद भी अध्यात्मवादी होंगे। परन्तु, मैंने यहां आकर देखा-"यह सभा तो चर्मकारों की सभा है।" यहाँ चमड़े का रंग-रूप देखा जाता है, आत्मा का सौन्दर्य नहीं। मुनि की वाणी में भोगवादी संस्कृति पर एक करारा व्यंग है । साथ ही भारत की अध्यात्म भावना में अट निष्ठा भी है। जीवन में सौन्दर्य भी है, परन्तु उसका उपयोग योग में करो, न कि भोग में । भोग-कला में नहीं, योग-कला में भारत का विश्वास सदा से रहा है। कला-कला में भी बड़ा अन्तर होता है । एक प्राचीन अध्यात्मवादी कवि की वाणी में "कला बहत्तर पुरुष की, वा में दो सरदार । __ एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥" बहत्तर कलाओं में दो कलाएँ प्रधान हैं-भोग-कला और योग कला। भोग की एक सीमा है, उसके बाद योग की सीमा-रेखा आती है। भोग से योग की ओर जाना, आगार से अणगार बनना, यह भारत की मूल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : एक कला ११५ संस्कृति है। इसमें योग कला का बड़ा महत्व है, जिसको कवि ने “जीव उद्धार" कहा है । स्पष्ट भाषा में उसे धर्म-कला कहते हैं “सव्वा कला धम्मकला जिणेइ ।" । “धर्म कला सबसे ऊँची कला है।" धर्म कला, यही वस्तुः सच्ची जीवन कला है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : एक सरिता कवि की अलंकृत भाषा में-"जीवन एक सरिता है।" सरिता की मधुर धारा सदा प्रवाहशील रहती है। प्रवाह रुकते ही उसकी मिठास जाती रहती है। उसका अस्तित्व ही मिट जाता है। अपने उद्गम स्थल से लेकर महासागर तक नित्य-निरन्तर बहते ही रहना, सरिता का सहज स्वभाव है। उससे पूछो कि तू सदाकाल बहती हो क्यों रहती है ? वह सहज स्वर में कहेगी-यह मेरा सहज धर्म है। मेरा प्रवाह रुका कि मैं मरी । जीवन संधारण के लिए बहते रहना ही श्रेयस्कर है । देखते नहीं हो, मानव ! मेरे कूल के आस-पास ये जो छोटे-बड़े ताल-तलैया हैं, उनके जीवन की क्या दशा है ! उनका निर्मल, स्वच्छ और मधुर जल अपने आपमें बन्द होकर सड़ने लगता है। गति न होने से, क्रिया न रहने से उनका जीवन समाप्त हो गया है। "आगे बढ़ो या मिट्टी में मिलो" यह प्रकृति का एक अटल और अमिट सिद्धान्त है । गतिशील जीवन का मूल मन्त्र है। जो बात मैं अभी सरिता के सम्बन्ध में कह रहा था, मानव जीवन के सम्बन्ध में भी वह सिद्धान्त सत्य है। कवि की वाणी में जीवन एक सरिता है । जीवन को गतिशील रखना, क्रियाशील रखना, विकास का एक महान् तथ्यपूर्ण सिद्धान्त है। जीवन के विकास के लिए आवश्यक सिद्धान्त यह है, कि उसको रुकना नहीं चाहिए। जन्म से लेकर मृत्यु सीमा तक जीवन निरन्तर बहता ही रहता है । रुकने का अर्थ है, मृत्यु । ( ११६ ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीधन : एक सरिता ११७ __ बहुत-से लोग कहा करते हैं-निद्रा दशा में जीवन गति कहां करता है ? परन्तु, यह धारणा भ्रमपूर्ण है । विचार कीजिए, क्या देह की हलचल को ही आप जीवन मानते हैं। यदि यही बात आपको स्वीकृत हो, तो कहना होगा कि आपने जैन दर्शन के जीव-विज्ञान को समझा ही नहीं ? जैन धर्म कहता है, यह तो स्थूल जीवन है। सूक्ष्म जीवन है, संकल्प का, जिसे अन्तर्जीवन कहते हैं । जीव भले ही निद्रा दशा में हो या मूर्छा अवस्था में, उसका संकल्पमय जीवन सदा क्रियाशील रहता है। असंज्ञी प्राणी में भी अध्यवसाय तो माना ही गया है। यदि इससे इन्कार होगा, तो फिर पाप, पुण्य और धर्म की व्यवस्था से भी आपको इन्कार करना होगा । प्राणी बाहर में चाहे चेष्टारहित दीख रहा हो, किन्तु उसके अन्तर में सदा संकल्प और अध्यवसायों की एक विराट हलचल रहती है । आपने सुना ही होगा कि तन्दुल मच्छ महामच्छ की आंख के कोर पर बैठा-बैठा ही अध्यवसाय के ताने-बाने से सातवीं नरक का बन्ध बाँध लेता है। बाहर में भले ही उसकी क्रिया न हो, गति न हो ? पर अन्तर में उसके एक महान् द्वन्द्व चलता रहता है। वह प्राणी के अन्तर जीवन की गति है, क्रिया है। प्रसुप्त दशा में, मूर्छा की हालत में भी प्राणी अन्तर क्रिया करता ही रहता है । कभी स्थूल जीवन के चेष्टा रहित होने पर भी सूक्ष्म जीवन, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में संकल्प और अध्यवसाय कहते हैं-सदा प्रवाहित ही रहता है । अन्तर जीवन की हलचल कभी बन्द नहीं होती? इस विषय पर आध्यात्मिक दृष्टि से भी विचार करें, तो यही तथ्य निकलता है कि जीवन सदा गतिशील और क्रियाशील ही रहता है। जैन शास्त्र में इस बात का पर्याप्त वर्णन आता है-'आत्मा में गति और क्रिया होती है।" गति व क्रिया आत्मा का धर्म है। संसारी जीवों में ही नहीं, सिद्धों में भो स्व-रमण रूप क्रिया रहती ही है। क्योंकि क्रिया ओर गति आत्मा का धर्म है । वह उससे अलग नहीं हो सकता । इस दृष्टि से भी यही सिद्ध होता है कि जीवन सदा क्रियाशील है, गतिशील है। क्रियाशील रहना ही जीवन का सहज धर्म है। मैं आप से कह रहा था कि जीवन एक हल-चल है, जीवन एक आन्दोलन है, जीवन एक यात्रा है। यात्री यदि चले नहीं बैठा रहे तो, क्या वह अपने लक्ष्य पर पहुंच सकेगा? नहीं, कदापि नहीं। जगत् का अर्थ ही है-नित्य-निरन्तर आगे बढ़ने वाला । पेड़ जब तक प्रकृति से संयुक्त होकर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अमर भारती बढ़ता है, तब तक प्रकृति का एक-एक कण उसका पोषण करता है । जब उस का विकास रुक जाता है, तो वही प्रकृति धीरे-धीरे उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। मानव जीवन का भी यही हाल है। जब तक मनुष्य में गति करने की क्षमता रहती है, तब तक उसकी स्वाभाविक शक्ति के साथ प्रकृति की समस्त शक्तियां भी उस के विकास में सहयोग देती हैं । जब तक उपादान में शक्ति है, तब तज निमित्त भी उसे बल-शक्ति देते हैं । मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह शोक जीवन के साथ अपनी अन्तःशक्ति का संयोग स्थापित करता रहे, इसी को जीवन जीना कहते हैं। महाकवि प्रसाद की भाषा में कहना होगा "इस जीवन का उद्देश्य नहीं है, शान्ति भवन में टिक रहना। किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं है ॥" मैं अभी आप से कह रहा था कि चलते रहना, मनुष्य का मुख्य धर्म क्यों है ? जीवन कोई पड़ाव नहीं, बल्कि एक यात्रा है । मनुष्य जीवन की परिभाषा करते हुए कवि कहता है-- "समझे अगर इन्सान तो, दिन-रात सफर है।" जीवन एक यात्रा है, मनुष्य एक यात्री है। लोक-मार्ग में वह स्वेच्छा से खड़ा नहीं रह सकता। उसे या तो आगे बढ़ना चाहिए या मर मिटना होगा । क्योंकि जीवन एक संघर्ष है। संघर्ष करने वाला ही यहाँ पर जीवित रह सकता है। गतिशील होना ही वस्तुतः जीवन का लक्षण है । उपनिषद् का एक ऋषि कहता है शरवत् तन्मयो भवेत् ।" धनुष से छूटा बाण सीधे लक्ष्य में जाकर टिकता है। मनुष्य को भी अपने लक्ष्य पर पहुँच कर ही विराम करना चाहिए । वीर पुरुष वह है, जो कभी पथ-बाधाओं से व्याकुल नही बनता । वह अपने जीवन की यात्रा में मस्ती के साथ गाता है "पन्थ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला । . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन : एक सरिता ११६ और होंगे चरण हारे, अन्य हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे ॥" सच्चा यात्री आगे बढ़ता है । उसके मार्ग में चाहे फूल बिछे हों, या शूल गड़े हों । वह अपने संकल्प का कभी परित्याग नहीं कर सकता। पथसंकटों को देखकर वापिस लौटना, वीरत्व नहीं है। __ महावीर आगे बढ़े, तो बढ़ते ही रहे। अनेक अनुकूल और प्रतिकूल संकट, उपसर्ग और परीषह आए, पर महावीर कभी विचलित नहीं हुए। भक्त की भक्ति लुभा नहीं सकी और विरोधो का विरोध उन्हें रोक नहीं सका। इन्द्र आया, तो हर्ष नहीं, संवम आया, तो रोष नहीं। बढ़ते रहना उनके जीवन का संलक्ष्य था । संयम की साधना रुको नहीं। भक्तों की भक्ति की मधुर स्वर लहरी उस मस्त योगी को मोह नहीं सकी, और विरोध के रोध को वह देख नहीं सका । भुक्ति का त्यागी मुक्ति की खोज में चला, तो चलता ही रहा । वर्धमान की दृष्टि में फूल और शूल दोनों समान थे। धन्ना का जीवन तो आपने सुना ही होगा। वह अपने जीवन में जितना वड़ा भोगी था, उससे भी महान् था, वह एक महायोगी । अपनी पत्नी सुभद्रा की बोली की गोली लगते ही वह सिंहराज जागृत हो गया। दिशा बदल ली, तो फिर कभी लौटकर भी नहीं देखा। नित्य-निरन्तर साधना के महामार्ग पर बढ़ता ही गया। महापुरुषों के जीवन से हमें यही प्रेरणा मिलती है, सदा उत्साह और स्फूर्ति मिलती है । जीवन संग्राम में विराम की आशा स्वप्नवत् है । जीवन संघर्ष में सफल होने के लिए सातत्य यात्रा की आवश्यकता है। जीवन को सदा गतिशील रखो, चाहे एक कदम भर चलो, पर चलते ही रहो । यही सिद्धान्त है, लक्ष्य को प्राप्त करने का । जग जोता बढ़ने वालों ने । यह जगत् का एक अमर सिद्धान्त है । मैं आपसे कह रहा था कि जीवन एक सरिता है । उसका सौन्दर्य, उसका माधुर्य सदा गतिशील और क्रियाशील बने रहने में ही है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के राजा बनो : भिखारी नहीं भारत के समस्त धर्मों का सार है-तप और जप । जिस जीवन में तप नहीं, जप नहीं, वह जीवन ही क्या ? तप से जीवन पवित्र होता है और जप से जीवन बलवान वनता है। तन से तप करो और मन से जप करो। तप और जप से जीवन पूर्ण होता है । वस्त्र मलिन होता है, तो उसे स्वच्छ और साफ करने के लिए दो चीजें जरूरी हैं-जल और साबुन । अकेला जल भी कपड़े को साफ नहीं कर पाता और अकेला साबुन भी व्यर्थ होता है। दोनों के संयोग से ही वस्त्र की संशुद्धि सम्भव रहती है। वस्त्र दोनों से शुद्ध होता है। _आत्मा अनन्त काल से माया, वासना और कर्म के संयोग से मलिन हो गया है । अपवित्र और अशुद्ध हो गया है। उसे पवित्र और शुद्ध करना मनुष्य का परम कर्तव्य है । आत्मा की संशुद्धि का अमर आधार है-तप और जप । तप जल है, जप साबुन । तप और जप के संयोग से आत्मा पवित्र और निर्मल होता है। तप का अर्थ है, अपने आपको तपाना और जप का अर्थ है, अपने आपको पहचानना। पहले तपो, फिर अपने स्वरूप को प्राप्त करो। भगवान महावीर पहले तपे थे, बाद में उन्होंने अपने स्वरूप को पा लिया । भक्त से भगवान यों बना जाता है । मनुष्य महान् है, क्योंकि वह अपने तन का स्वामी है, मन का ( १२० ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के राजा बनो : भिखारी नहीं १२१ स्वामी है, अपनी आत्मा का राजा है। जो अपने जीवन में इन्द्रियों का दास बनकर रहता है, मन का गुलाम बनकर जीता है और तन की आवश्यकताओं में ही उलझा रहता है, वह क्या तो तप करेगा और क्या जप करेगा ? क्या आत्या को पहचानेगा? इन्सान जब तक अपनी जिन्दगो का बादशाह नहीं बनता, भिखारी बना फिरता है, तब तक उत्थान की आशा रखना निरर्थक है । अपने जीवन के रंक, क्या खाक साधना करेंगे? एक भिखारी भाग्य-योग्य से राजा बन गया। सोने के सिंहासन पर बैठ गया। तन को सुन्दर वस्त्र और कोमती आभूषणों से अलंकृत कर लिया। सोने के थाल में भोजन करता, सोने के पात्र में जल पीता। हजारों-हजार सेवक सेवा में हाजिर रहते । चलता, तो छत्र और चमर होते । रहने को भव्य भवन । जीवन में अब क्या कमो थी ? चारों ओर से जय-जयकार थे। किन्तु यह क्या ? मन्त्री आता, तो डरता है। सेनापति आता है, तो कांपता है। नगर के सेठ-साहकार आते हैं तो सक-पका जाता है, जिन सेठ-साहूकारों के द्वार पर कभी वह भिक्षा पात्र हाथ में लेकर द्वार-द्वार भटकता फिरता था-आज वे उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े थे, पर फिर भी वह भय-भीत था। कारण क्या था ? वह तन का राजा जरूर था, परन्तु मन का भिखारी ही था। उसका मन अभी राजा नहीं बन पाया था। सजा के उच्च सिंहासन पर आरूढ़ होकर भी वह अपने आप को अभी तक भिखारी ही समझता था। तन से राजा होकर भी वह मन से भिखारी ही था। मैं कह रहा था कि समाज में इस प्रकार के भिखारी राजाओं की कमी नहीं है । हजारों मनुष्य अपने तन के गुलाम हैं, मन के दास है, सम्पत्ति, सत्ता और ख्याति के दास हैं । घर में अपार धनराशि है। परन्तु केवल तिजोरियों में बन्द करके धूप-दीप देने को । जीवन में वे धन के दास बनकर रहे, स्वामी नहीं बन सके । धन मिला तो क्या हुआ ? न स्वयं ही भोगा और न समाज या राष्ट्र के कल्याण के लिए ही दे सके । शक्ति मिली, सत्ता मिली? पर हआ क्या ? अपने स्वार्थ का पोषण किया। अपने को सुखी बनाने के प्रयत्न में रहे। अपनी समृद्धि के लिए दूसरों के जीवन का अनादर किया । बनना चाहिए था, दीन-अनाथ रक्षक, बन बैठे भक्षक । तलवार थी, रक्षण के लिए, पर करने लगे दीन-जनों का संहार । सत्ता मिली, पर किया क्या ? उत्पीडन ही करते रहे न ! Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अमर भारती विद्या मिली, शिक्षा मिली, ज्ञान मिला ? पर हुआ क्या ? विबाद करते रहे, शास्त्रार्थ करते रहे, लड़ते ही रहे, जीवन भर । अपना पांडित्य प्रदर्शन करते रहे। जनता का अज्ञान दूर नहीं कर पाये ? जनता को सन्मार्ग नहीं बता सके, धर्म गुरु भी बने, परन्तु पन्थों के नाम पर, पोथियों के नाम पर संघर्ष करते रहे। सत्य कहने का साहस नहीं है, हिम्मत नहीं है, तो क्या धर्म गुरु रहे ? अपने-अपने विचारों के खंटों से बंधे पड़े रहे, पंथ और मतों की बेड़ियों में बंधे रहे। सत्य को परखा नहीं, परखा भी तो जीवन में उतार नहीं सके। हजारों पोथियों का भार ढोते रहे, शास्त्रों के नाम पर, धर्म ग्रन्थों के नाम पर । पर सार क्या निकला? आचार्य के शब्दों में मुझे कहना होगा "विद्या विवादाय, धनं मदाय, शक्तिः परेषां परिपीडनाय" विद्या मिली, प्रकाश नहीं पा सके, केवल वाद ही करते रहे-ये ज्ञान । के गुलाम हैं, विद्या के भिखारी हैं। धन मिला, न स्वयं भोग सके और न दे सके-धन-मद और अर्थ अहंकार ही करते रहे-ये धन के गुलाम हैं । शक्ति और सत्ता मिली, न्याय और नीति के लिए पर उत्पीडन ही करते रहे-ये शक्ति और सत्ता के गुलाम हैं। राजा बने, पर अन्त में भिखारी ही रहे। मैं कह रहा था कि अपने जीवन के ये कंगले-भिखारी क्या विकास करेंगे ? क्या अपने को संभालेंगे ? जीवन एक विशाल राज्य है। यदि हमारा प्रभुत्व हमारे तन पर नहीं चलता, मन पर नहीं चलता, तो हम कैसे राजा? यदि हम तन और मन के गुलाम बने रहे, तो जीवन राज्य में उस भिखारी राजा से अधिक कीमत हमारी क्या होगी ? एक दार्शनिक से पूछा गया-"सफल जीवन की व्याख्या क्या है ?" उसने मुस्कान भर कर कहा-"तुम मनुष्य हो, मनन-शील हो, जरा मनन करो, व्याख्या मिल जाएगी ।" मनुष्य जब जन्म लेता है, तब रोता हुआ आता है । क्यों ? इसलिए कि वह विचार करता है-"हिमालय जैसे कर्तव्य के भार को मैं उठाता हुआ, किस प्रकार अपने जीवन को सफल कर सकने में समर्थ बनूंगा ?" परन्तु परिवार वाले हसते हैं। इसलिए कि यह हमारे घर के अंधेरे को दूर करेगा । वंश, कुल और जाति का नाम रोशन करेगा। हमारे जीवन का आधार और सहारा रहेगा। हमें रक्षण और सहयोग Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के राजा बनो : भिखारी नहीं १२३ देगा | जीवन यात्रा की समाप्ति पर मनुष्य हँसता जाए और दूसरे रोते रहें और कहें कि आज परिवार, समाज और राष्ट्र की बड़ी क्षति हुई है । मनुष्य क्या था, वास्तव में देव था । उसने परिवार को स्वर्ग बनाया । राष्ट्र को स्वर्ग बनाया । यह एक सफल जीवन को व्याख्या है, सफल जीवन की परिभाषा है । और यदि मृत्यु के क्षणों में हम लोग रोएँ और संसार हँसे, तो यह हमारे जीवन की करारी हार है, एक बहुत बड़ी असफलता है । जलती आग में लकड़ी को डालो और सोने को भी । फिर देखो, क्या होता है ? लकड़ी का मुंह काला होगा और सोने की चमक-दमक बढ़ेगी - यदि वास्तव में वह सोना है, तो। जीवन में पहले तपो और फिर दमको - यह अमर सिद्धान्त है । जीवन सफलता का रहस्य यहीं पर है । दूसरों को सुखी करने वाला क्या कभी दुःखी रह सकता है ? कदापि नहीं । भारत का एक महान् दार्शनिक कहता है "हरिरेव जगद् जगदेव हरिः । " अपनी आत्मा को जगत् में देखने वाला और सम्पूर्ण जगत् को आत्मा में देखने वाला - कभी अपने जीवन में संक्लेश नहीं पा सकता । क्योंकि वह निरन्तर तप और जप से अपने जीवन को शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाता रहता है । जीवन की पवित्रता, जीवन की विमलता और जीवन की विशुद्धता ही जीवन की सर्वतोमुखी महान् सफलता मानी जाती है । पाली, मारवाड़ २०-१-५३ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ दिशा के बदलने से दशा बदलती है एक सन्त से किसी जिज्ञासु सज्जन ने कहा - "महाराज, मेरी दशा कैसे सुधरे ? घर में धन से और जन से सर्व प्रकार का आनन्द है । प्रभु कृपा से किसी वस्तु की कमी नहीं। फिर भी न जाने क्यों ? जीवन में शान्ति एवं सुख के मधुर क्षणों का आनन्द नहीं मिलता । चित्त सदा भटका करता है । "योग श्चिवृत्तिनिरोधः ।" इम योग सूत्र के अनुसार अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध करने का प्रयत्न करता है, परन्तु सफलता का पुण्य दर्शन नहीं हो पाता ? सन्त ने भक्त की करुण - कथा सुनकर कहा - "तुम अब तक क्या साधना करते रहे हो !" भक्त ने आशा और उल्लास के स्वर में कहा"साधना एक क्या, अनेक की हैं । कभी योग की, कभी वेदान्त की, कभी भक्ति की ।" किन्तु शान्ति और आनन्द किसी में नहीं मिला । चित्त की दशा जरा भी बदली नहीं । सन्त ने गम्भीर होकर कहा - "महासागर की तूफानी तरल तरंगों पर नाचने वाली नौका के समान जिनका जीवन चंचल है, उनके भाग्य में शान्ति और आनन्द कहाँ ? हर्ष और उल्लास कहाँ ? वत्स, यदि जीवन में शान्ति और आनन्द के मधुर क्षणों की कामना हो, तो पहले अपने जीवन की दिशा को बदलो, दशा बदलते विलम्ब नहीं लगेगा ! जीवन नौका को स्थिर करो। अपना एक ध्येय, एक लक्ष्य स्थिर करो । ( १२४ ) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा के बदलने से दशा बदलती है १२५ बिना ध्येय के कभी इधर और उधर भटकने से क्या कभी दशा सुधर सकती है ? मैं समझता हूँ, सन्त का समाधान सत्य के अति निकट है। जीवन की दिशा बदलने से दशा भी बदल जाती है। मूल बात है, दिशा बदलने की । पहले विचार करो, क्या बनना चाहते हो ? राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध या रावण, कंस, गोशालक, देवदत्त ? कवि के शब्दों में - "जो विचारो, सो बना लो, देव भी शैतान भी।" मनुष्य देव भी बन सकता है, और दैत्य भी? योग वासिष्ठ में कहा गया है-"मानसं विद्धि मानवम् ।" मनुष्य मनोमय है, संकल्पमय है। जैसा भी सोचेगा, बनता जाएगा । आवश्यकता इस बात की है, पहले वह अपना ध्येय स्थिर कर ले, फिर स्वीकृत पथ पर मजबूत कदमों से निरन्तर बढ़ता रहे। ध्येय को स्थिरता से मनुष्य की बिखरी शक्तियां एकत्रित हो जाती हैं । उसकी शक्ति का सन्तुलन हो जाता है । महात्मा गांधी एक दिन संसार का सर्वसाधारण मानव ही था। परन्तु उसने अपनी संकल्प शक्ति के बहुमुखी स्त्रोत को एक दिशा दी, एक मार्ग दिया । लम्बी साधना करता रहा। अपने विश्वास और उत्साह को मरने नहीं दिया। आज का ससार गांधी को मानव ही नहीं, महामानव तक भी कहता है । अपनी दशा, अपनी स्थिति स्वय मनुष्य के अपने हाथ में रहती है, चाहे जैसी बना सकता है । कोई सज्जन अपने घर से निकलता हो, कहीं जाने के लिए । मार्ग में मित्र मिला । पूछा-कहाँ चले जा रहे हो ? उत्तर मिला-कहीं नहीं, यों ही चलता आ रहा है। आप इस व्यक्ति को पागल के सिवा और क्या कहेंगे ? परन्तु वास्तविकता तो यह है कि संसार इस प्रकार के पागलों से भरा पड़ा है । जिन्दगी के हर मोर्चे पर आपको इस प्रकार के पागलों की एक बड़ी फौज मिलेगी । जीवन के क्षेत्र में चलते चले जा रहे हैं। न दिशा का पता है, न लक्ष्य का ज्ञान है, न ध्येय का भान है। मैं पूछता हूँ आप से? ऐसे लोगों की दशा कैसे सुधरेगी ! शान्ति और आनन्द के सघन मेघों की जीवन-क्षेत्र में वर्षा कैसे होगी? ___सामायिक कर रहे है, पर पता नहीं सामायिक के अर्थ का? पौषध कर रहे हैं, पर ज्ञान नहीं पोषध का । जप-तप करते हैं, पर बोध नहीं जप Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अमर भारती तप करने की विधि का । श्रावक कहलाते हैं, पर भान नहीं है श्रावक के क्या कर्तव्य हैं ? साधु बन गए हैं पर साधुत्व का परिबोध नहीं है । धर्म क्रिया करते हैं, पर इसलिए कि यह हमारी कुल परम्परा है। क्षेत्र में सन्त पधारे है । दर्शन करने और प्रवचन सुनने जाना ही पड़ेगा-भले मन मैं उत्साह और तरंग न हो। क्योंकि इस धर्म-क्रिया को हमारे पुरखे इसी रूप में करते चले आ रहे हैं । धर्म भी एक कुल परम्परा ही बन गया है । साधु को दान देना है । आहार का, पानी का, वस्त्र का और पात्र का। साधु घर पर आया हो, तो कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा-भले ही वह देय वस्तु साधु के स्वास्थ्य के अनुकूल न हो पर साधु का पात्र घर से खाली न लौटे । साधु को आवश्यकसा हो या नहीं हो, इस बात को साधु जाने । पर पात्र में डालना धर्म है। बहिनों में तो इस दिशा में और अधिक अज्ञान-अंधेरा है। तप हो, जप हो, धर्म हो, क्रिया-काण्ड हो । वे करती ही रहती हैं। उस क्रिया के पीछे क्या भावना है ? क्या विचार है ? क्या रहस्य है ? इस विवेक जागृति से उनका कोई लगाव नहीं रहता । पर्युषण पर्व आया कि उनमें तप करने की भावना बलवती हो जाती है । बेला, तेला, चौला, पचोला, और अठाई तक दौड़ लगाती हैं । काना-फूंसी आरम्भ हो जाती है। मेरी सास, ननद और सहेलियाँ अठाई तक जा पहुँची हैं। मैंने अभी तक कुछ भी नहीं किया। वे क्या समझेंगी, मुझे ! अब मैं भी अठाई करू। सासरे और पीहर में एक हल-चल पैदा होगी । पीहर से सुन्दर वस्त्र, चमकीले आभूषण और सहेलियों के मधुर गीत-इस तप के बिना नहीं मिल सकते । मैं न करूंगी तो सहेली क्या कहेंगी? भले गिर पड़ कर ही रात-दिन काटने पड़ें, पर इस वर्ष अठाई अवश्य करनी पड़ेगी। गाजे-बाजे के साथ जाकर व्याख्यान के बीच में गुरु महाराज से पचलूँगी ? सास-ससुर का आशीष और लोगों को 'धन्य-धन्य' की झड़ी। कितना आनन्द है ? - मैं समझता हूँ, इस प्रकार के तप में, जप में, धम-साधना में देहदमन भले ही हो, आत्म-दमन नहीं है, मनोमन्थन नहीं है, विवेक नहीं है, जीवन की एक सही दिशा नहीं है । जीवन का लक्ष्य स्थिर नहीं है । जीवन का ध्येय नहीं बना है । भेड़िया चाल में एक परम्परा हो सकती है, पर धर्म नहीं । धर्म की साधना के लिए स्थिरता की विशेष आवश्यकता है। मन को स्थिर करो । बुद्धि को स्थिर करो। आत्मा को स्थिर करो। जब Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा के बदलने से दशा बदलती है १२७ जीवन में इस का निश्चय ही नही, कि करना क्या है ? तब मन स्थिर कैसे हो? तरल लहरों की ताल पर नाचने वाली नौका के समान जो व्यक्ति इस संसार सागर में वहे चले जाते हैं, उन का जीवन भी क्या जीवन है ? गंगा गए गंगादास और यमुना गए यमुनादास । जीवन की यह स्थिति खतरनाक है । उपाध्याय यशोविजय जी अपने अध्यात्म ग्रन्थ ज्ञान-सार में कहते हैं "वत्स, किं चञ्चलस्वान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि । निधि स्वसन्निधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ॥" साधक ! सुख, शान्ति और आनन्द की खोज में चंचल बना क्यों इधर-उधर भटक रहा है ? खिन्न और उदास क्यों बना है ? शान्ति, सुख और आनन्द की अक्षय निधि तेरे पास ही तो है, पगले । क्यों व्यर्थ में भटक रहा है ? हीरे की खान तेरे पास ही है "पास हीरे हीरे की खान, ___ खोजता कहाँ फिर नादान ।" - हाँ, अपने आप को स्थिर कर । चित्त को शान्त रख-"स्थिरो भव ।" वह स्थिरता ही तुझे अक्षय आनन्द दे सकेगी। अपने पास अक्षय भण्डार होने पर भी तू क्यों खेद खिन्न होता है ? प्रसन्न चन्द्र मुनि का वर्णन आप ने सुना होगा। कितना तपस्वी था? कितना त्यागी था? और कैसा था, ध्यानी तथा मौनी? उसकी ध्यान मुद्रा को देखकर राजा श्रेणिक भी कितना प्रभावित हुआ था ? मन को साधे बिना ऐसा ध्यान नहीं किया जा सकता ? यह उसे विश्वास हो गया था। अपने वाहन से उतर कर मुनि के चरणों में समभक्ति से वन्दन करता है । फिर भगवान महावीर के चरणों में आकर पूछा, तो स्थिति भिन्न थी। वह मुनि देह में स्थिर अवश्य था, किन्तु अन्तर में भटक रहा था । मुनि ने अपने जीवन कल्याण के लिए जिस दिशा का निश्चय किया था, उससे भटक कर वह बहुत दूर चला गया था। बिल्कुल उल्टी दिशा में ही । उत्थान पतन की ओर चल पड़ा था। फिर शान्ति और आनन्द कहाँ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अमर-भारती था ? कथाकार यह कहता है-ज्यों ही मुनि अन्तर में जागा कि अपनी दिशा बदल ली। फिर सही दिशा पर लौट आया। दिशा बदली कि दशा भी बदल गई । नारकी होते होते बचा, इतना ही नहीं, बल्कि अमरत्व के पथ पर लग गया। अजर, अमर और शाश्वत सुख को अधिगत कर लिया। भगवान महावीर ने कहा-साधक ! तू पहले अपने आप में स्थिर हो जा । अपना एक ध्येय बना ले । एक लक्ष्य चुन ले । अपनी एक दिशा पकड़ ले। फिर सुदृढ़ संकल्प से उस ओर बढ़ा चल। इस जीवन-सूत्र को याद रख-“लक्ष्य स्थिर किए बिना, कभी यात्रा मत कर । पहले सोच, समझ और फिर चल-चलता ही चल ।" जीवन में चलने का बड़ा महत्व है, परन्तु किधर चलना है और कैसे चलना है । इसका भी तो जरा निश्चय कर लो। असत्य से हट और सत्य को ओर चल । सत्य जीवन का परम सिद्धान्त है । परम गति है। सत्य स्वर्ग का सोपान है और मुक्ति का परम साधन । सत्य जीवन का सही और सीधा रास्ता है। सत्य का मार्ग ही सन्मार्ग है । सत्य जीवन की सही दिशा है, वेखटके बढ़ा चल । सत्य के प्रकाश में किसी प्रकार का भय नहीं है। सत्य का उपासक कभी जीवन में गलत दिशा में नहीं जाता। क्योंकि सत्य का प्रकाश उसके साथ रहता है। अज्ञान के अन्धकार से निकल और ज्ञान के प्रकाश की ओर प्रगति कर । ऋषि की वाणी में-"आरोह तमसो ज्योतिः ।" अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ा चल । ज्ञान का मार्ग प्रकाश का मार्ग है । जीवन के जागरण का मार्ग है । दुराचार से दूर हो, सदाचार की ओर अग्रसर होता जा। संयम, सदाचार और मर्यादा के बिना जीवन अंक शून्य बिन्दु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वतन्त्र होना ठीक है, पर स्वच्छन्द मत बन । जो मर्यादा का पालन करता है, वस्तुतः वह मनुष्य है । पशु जीवन में एक भी मर्यादा नहीं होती। परन्तु मनुष्य जीवन मर्यादा रहित नहीं रह सकता। संयम, सदाचार, अनुशासन और मर्यादा की ओर बढ़ना, वास्तव में मनुष्यता की Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा के बदलने से दशा बदलती है १२६ ओर बढ़ना है । जीवन की सही दिशा की ओर चलना है। अपने लक्ष्य और ध्येय की ओर चलना है । जैन धर्भ की अपनी भाषा में हम कह सकते हैं-"मिथ्यात्व से हट कर सम्यक्त्व की ओर बढ़ना, अज्ञान से सम्यग्ज्ञान की ओर बढ़ना और मिथ्या चारित्र से सम्यक् चारित्र की ओर बढ़ना वस्तुतः प्रगति की ओर बढ़ना है।" अपने स्थिर लक्ष्य की ओर बढ़ना है। सुख, शान्ति और आनन्द का यही मार्ग है । दशा सुधारने का यही मार्ग है। अपनी दिशा बदलो, दशा अवश्य बदलेगी। 卐फ़ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भक्त से भगवान अभी-अभी मेरे से पूर्व प्रवक्ता आपके सामने भक्त और भगवान का वर्णन कर रहे थे । भारत का दर्शन और भारत की धर्म परम्परा, भक्त और भगवान के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहते-सुनते हैं। भक्त के जीवन का लक्ष्य क्या है ऊपर से नीचे आना या नीचे से ऊपर की ओर जाना ? दोनों दृष्टिकोणों में बड़ा अन्तर है । एक भक्त भक्ति में मस्त है । उसके चारों ओर अन्धकार फैला है । द्वेष की चिनगारियाँ उछल रही हैं। हिंसा का झंझावात चल रहा है । घृणा और नफरत के दावानल से वह दग्ध बना रहता है । भक्त भगवान से प्रार्थना करता है, प्रभु से विनयपूर्वक विनम्र स्वर में कहता है " तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ।" भक्त कहता है - "भगवन् मुझे अज्ञान के अन्धकार में परिभ्रमण करते-करते अनन्त काल हो गया, अब मुझे प्रकाश का मार्ग बतलाओ । मुझे असत्य के विनाशक मार्ग से हटाकर सत्य के प्रकाशमय मार्ग में स्थिर करो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर जाने का मार्ग बताइये । क्योंकि जन्म ( १३० ) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त से भगवान १३१ और मरण अनन्त काल से होता चला आ रहा है। प्रभो ! मुझे जीवनकल्याण का सही मार्ग बताइए। ___मैं अभी आपसे भक्त और भगवान के सम्बन्ध की चर्चा कर रहा था । जैन धर्म और जैन दर्शन द्वत-मार्ग को पसन्द नहीं करता। वह द्वैतता के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता । जैन धर्म यह नहीं मानता कि भक्त भक्त ही रहेगा, वह अनन्त काल तक संसार में भटकता ही रहेगा। वह सदा दास हो बना रहेगा, कभी स्वामी नहीं बन सकेगा? इस प्रकार दास्य भक्ति में जैन धर्म का विश्वास नहीं है। जैन धर्म का तो यह ध्रुव सिद्धान्त है कि प्रत्येक भगवान आत्मा ही है, हर साधक सिद्ध हो सकता है, भक्त भगवान बन सकता है। हरेक आत्मा परमात्मा बन सकता है। हर आत्मा में महान् ज्योति जल रही है, प्रकाश कहीं बाहर से नहीं आता, वह तो अन्तर में से ही उद्बुद्ध होता है, प्रकट होता है । आनन्द और शान्ति का महासागर हर साधक के अन्तर मानस में ठाठे मारता रहता है । प्रत्येक साधक का प्रसुप्त चैतन्य जाग उठता है। तभी वह भक्त से भगवान बनता है। कषाय-युक्त से कषाय-मुक्त हो जाता है। रागो से वीतरागी हो सकता है । क्षुद्र से विराट, लघु से महान् और अणु से महत् बनने में ही साधक को साधना का मूल्य है, महत्व है। भक्त और भगवान में क्या अन्तर है ? आत्मा और परमात्मा में क्या भेद है ? इस विषय में एक कवि कहता है "आत्मा परमात्मा में, ___कर्म ही का भेद है। काट दे गर कर्म, तो फिर भेद है, न खेद है।" साधना के इस विराट पथ पर सन्त भी चलता है और गृहस्थ भी गति कर सकता है। श्रावक और श्रमण, गृहस्थ और सन्त दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही है, उद्देश्य एक ही है। कुछ कदमों का अन्तर भले ही रहे, आगे-पीछे का अन्तर भले ही रहे । एक तेज गति से बढ़ रहा है, तो दूसरा मन्द गति से । परन्तु दोनों का पथ एक है, संलक्ष्य एक है-उसमें कोई अन्तर नहीं। अभी एक मुनिजी आपसे प्रेम के सम्बन्ध में कह रहे थे। यह निश्चित है कि जब तक प्रेम नहीं होगा, भक्ति में चमक-दमक नहीं आ सकती। जिस Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अमर भारती मानव जीवन के अन्दर प्रेम नहीं, स्नेह नहीं, घृणा, द्वष और स्वार्थ की आग जलती रहती है, वह मानव जीवन चेतना-हीन है, प्राण-रहित है, मुर्दा है। सद्भाव और वात्सल्य के अभाव में सम्पूर्ण क्रिया-काण्ड-भले ही वह कितना भी ऊँचा क्यों न हो, अंक शून्य बिन्दु के समान है । जीवन-कल्याण में उसका कुछ भी उपयोग नहीं है । जैन संस्कृति के महान दार्शनिक और भक्त आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा है "आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जन बान्यव दुःख पात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः ॥" आचार्य कहता है-रे मन ! क्या तूने भगवान का नाम कभी सुना है ? एक बार नहीं, अनेक बार सुना है, अनेक बार जपा है, अनेक बार दर्शन भी किया है, भक्ति और स्तुति भी की है, फिर भी ऐसी स्थिति क्यों? जीवन की साध पूरी क्यों नहीं हुई ? आचार्य कहता है, सब कुछ किया, परन्तु भावना शून्य होकर किया। भावना न हो, और भक्ति की जाए, तो उस का कोई फल नहीं, कोई लाभ नहीं। भावना रहित जप और तप, भावना-शून्य क्रिया-काण्ड, भावना विकल भक्ति और पूजा व्यर्थ होती है । क्योंकि उसमें प्राण नहीं रहता । आत्मा रहित शरीर के सदृश वह तो शव मात्र ही रहता है । यह तो जीवन का एक परखा हुआ सत्य है कि चेतना रहित शरीर से कभी प्यार नहीं किया जाता। उसे घर में स्थान नहीं रहता, श्मशान में ले जाया जाता है, भस्म करने को, जलाने को । इसी प्रकार भावना रहित भक्ति भी निरर्थक ही है । उससे जीवन की साध पूरी नहीं होती। जल में पड़े पत्थर पर जल का कोई प्रभाव नहीं होता। भले ही वह हजार वर्ष तक भी क्यों न पड़ा रहे ? उसी जल में जब वस्त्र निर्मित पुत्तलिका डाली जाती है, तो वह भीग जाती है। उसके कण-कण में जल रम जाता है । परन्तु सूख जाने पर उसकी क्या दशा रहती है ? गीली रहने पर तो फूली रहती है, सूखने पर सिकुड़ जाती है। उसी जल में मिसरो डालो, तो क्या होता है ? जल के कण-कण में वह अपने आपको आत्मसात् कर देती है । ससार में मनुष्य भी तीन प्रकार के हैं - एक वे जिन पर Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त से भगवान १३३ उपदेशों का असर नहीं होता, दूसरे वे जो सुनते समय तो नम्र रहते हैं, परन्तु बाद में स्नेह शून्य हो जाते हैं, और तीसरे वे जो एक बार धर्म को ग्रहण करने पर कभी छोड़ते नहीं। उनके जीवन जल में धर्म की मिसरी घुल-मिलकर एक-मेक हो जाती है। जब हम आज के भक्तों को देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि वे भक्ति के सागर में पत्थर की तरह पड़े रहते हैं। भक्ति करते-करते बूढ़े हो जाते हैं, पर उनका अभिमान नहीं टूटता, वे द्वेष और घृणा को मन से दूर नहीं कर पाते । जरा-सा छेड़ते ही उनका दिमाग अपने काबू में नहीं रहता । वे अपने आपको संयत नहीं रख सकते । दूसरे भक्त वस्त्र निर्मित पुत्तलिका की तरह होते हैं । जब उनकी भक्ति धारा चलतो है, तो मालूम पड़ता है कि वे सिद्धि के समीप हैं। परन्तु ज्यों ही धर्म स्थान से निकले, सब भक्ति हवा हो जाती है। तीसरे भक्त वह है, जो धर्म को अपने जीवन में उतारते रहते हैं । अपने जीवन को सफल करते रहते हैं। वर्तमान जितने भी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य क्षेत्र हैं, वे सब सूने पड़े हैं। क्योंकि हृदयों में स्नेह का रस नहीं रहा है, सम रसता नहीं रही है। कार्य करते हैं, परन्तु प्राण रहित होकर करते हैं, निष्क्रिय होकर करते हैं । कायर सिपाही मैदान में तो जाता है, किन्तु मन से नहीं लता है। वही हालत समाज की हो रही है। उसका जीवन लड़खड़-सा रहा है । जीवन क्षेत्र में जब संकट आते हैं, तो भागने के लिए तैयार रहते हैं । परन्तु डटकर संकटों का सामना नहीं कर सकते, मोर्चा नहीं ले सकते । जब तक जीवन में गहरी निष्ठा और ऊंची श्रद्धा नहीं होती है, तब तक भक्ति, स्तुति और जप-तप सब सारहीन ही रहता है, निरर्थक ही रहता है । भक्ति करो, स्तुति करो, साधना करो और आराधना करो-पर स्नेह-सद्भाव के साथ करो । अल्प क्रिया-काण्ड भी भावना का स्पर्श पाकर सार्थक हो जाता है। अतः जो भो कुछ करो, भावना के साथ करो। यही विकास का मार्ग है । यही जीवन-कल्याण की सही दिशा है। भक्ति की सम-रसता ही जीवन के उत्थान में प्रबल साधन है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकार के यात्री एक अज्ञात और अपरिचित व्यक्ति जब किसी के घर पर आता है, तब उस से पूछा जाता है कि आप कौन हैं ? कहाँ से पधारे हैं ? क्या करना है ? और कहाँ जाना है ? आप कहेंगे, ये भी कोई बड़े प्रश्न हैं। आने वाला कह सकता है-"मैं क्षत्रिय हैं या वैश्य है ! उदयपूर से आया है, व्यापार करना है, जयपुर जाना है। जीवन की यह स्थिति स्पष्ट और सज्ञान है। परन्तु, आने वाला व्यक्ति आप के चार प्रश्नों में से एक का भी जवाब न दे, तो आप उसे क्या समझेंगे ? पोगल अथवा मूक । संसार में बहुत से मनुष्य इसी प्रकार के हैं, जो अपने जीवन यात्रा के पथ पर अन्धकार में भटक रहे हैं । कहाँ से आए, कौन हैं, क्या करना है और कहाँ जाना है ? इस बारे में वे कुछ भी नहीं जान पाते । ऐसे मनुष्यों का जीवन एक दयनीय जीवन है । चल रहे हैं, पर चलने के उद्देश्य का पता नहीं। मिथ्यात्व के तमिस्र में, अज्ञान के अन्धकार में भटकते-भटकते अनन्त काल हो गया आत्मा को, पर कल्याण नहीं कर सकी। क्योंकि उसे अभी तक प्रकाश नहीं मिला है । अन्धेरे में तो भटकना ही होता है, चलना नहीं। भगवान् बुद्ध से पूछा गया-भन्ते ! यात्री कितने प्रकार के होते हैं ? सहज वाणी में उत्तर मिला-चार प्रकार के होते हैं । ( १३४ ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकार के यात्री १३५ पहला-जो अन्धकार से प्रकाश में जाता है। दूसरा-जो प्रकाश से अन्धकार में जाता है। तीसरा - जो प्रकाश से प्रकाश में जाता है। चौथा जो अन्धकार से अन्धकार में जाता है। जो आत्मा अन्धकार से अन्धकार में और प्रकाश से अन्धकार में जाने वाला है, वह पापात्मा है और जो अन्धकार से प्रकाश में तथा प्रकाश से प्रकाश में जाने वाला है-वह पुण्यात्मा है। आत्मा के पतन का पुख्य कारण है-मिय्यात्व, कषाय और प्रमाद । मिथ्यात्व से वह अपने स्वरूप को भूल जाता है । कषाय से वह सदा अशांत रहता है । प्रमाद से वह उत्थान के लिए सत्प्रयत्न नहीं कर पाता । भगवान की वाणी है - "साधक ! तु संसार के अंधेरे में भटकने के लिए नहीं है । तेरी यात्रा तो ज्ञान और विवेकपूर्वक होनी चाहिए । सम्यकत्व से तू मिथ्यात्व को हटा, उपशम भाव से कषाय को जीत और अपने बल-वीर्य तथा पराक्रम से प्रमाद को दूर कर । तू अन्धकार से आया है, तो चिन्ता नहीं, पर यहाँ से प्रकाश की ओर जाएगा। इस बात का ध्यान रहे कि अन्धकार की ओर तेरी गति न हो। __ साधक ! तू अपने अन्तर में गहरा डूब जा और विचार कर मैं कौन हूँ ? मैं देह नहीं हूँ, इन्द्रिय नहीं हैं। क्योंकि ये सब तो पुद्गल हैं और मैं हूँ चिन्मात्र शक्ति । शरीर मेरा घर है, पर वह शाश्वत और सनातन नहीं है। शाश्वत और सनातन तो एकमात्र आत्म-तत्व ही है । कृष्णत्व और शुक्लत्व - मेरा नहीं, पुद्गल का धर्म है । न मैं स्थल हूँ और न मैं सूक्ष्म हूँ। मैं तो अनन्त और अक्षय शक्ति का भण्डार हूँ। मैं अनन्त हूँ, शाश्वत हूँ, सना. तन है। कहाँ से आया है ? मैं एक यात्री हूँ । अनन्त काल से मेरी यात्रा चल रही है । जब तक मैं विभाव दशा से हूँ, तब तक मेरी यात्रा चालू ही रहेगी। स्वभाव दशा होते हो मैं स्थिर, शान्त और अचल बन जाऊँगा। सकर्मा हूँ, तभी तक मेरी यह यात्रा है, अकर्मा होते ही मैं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाऊँगा। क्या करना है ? अपने विकार को जीतना है, अपनी वासना को जीतना । अपने विकृत मन को संस्कृत बनाना है । आत्मा का संस्कार करना Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अमर भारती है, परिष्कार करना है । क्योंकि अन्तकाल से वह जंग, माया और वासना के संयोग से अशुद्ध और अपवित्र बना हुआ है । कहाँ जाना हैं ? प्रकाश की ओर जाना है। ज्ञान और विवेक की ओर जाना है । असत्य से सत्य की ओर जाना है । वहाँ जाना है, जहाँ से लोटना नहीं पड़े । साधक का साधकत्व कहेगा - " अब हम अमर भये, न मरेंगे ।" जिसने अपनत्व को पा लिया, उसका मरण कैसा ? निजत्व में जिनत्व का संदर्शन करने वाला अजर और अमर हो जाता है । मैं आपसे कह रहा था कि साधक वह है, जो अन्धकार से प्रकाश में जाता है या प्रकाश से प्रकाश में जाता है । प्रकाश से प्रकाश में जाने का अर्थ है, अमरत्व प्राप्त कर लेना । अन्धकार से प्रकाश में जाने का तात्पर्य है, पशुत्व-भाव से मानवत्व-भाव में आना, सच्चा इन्सान बन जाना । किन्तु प्रकाश से अन्धकार में जाने का मतलब होगा, मनुष्य से पशु बन जाना | देव से दानव हो जाना । अन्धकार से अन्धकार में जाने का फलि - तार्थ है, कीट पतंगे बनना । पशुत्व भाव से भी अधिक हीनतर और हीनतम स्थिति में पहुँच जाना । यह मिथ्यात्व भाव की दशा है, स्थिति है । जहाँ अन्धकार ही अन्धकार है, भटकना ही भटकना है । जीवन की यह स्थिति बड़ी भयंकर है । मैं आपसे कह रहा था कि सच्चा साधक वह है, जो अपने विकार को, अपनी वासना को और अपनी आसक्ति को जीत लेने में समर्थ होता है । अनुकूलता में फूले नहीं और प्रतिकूलता में अपनी राह को भूले नहीं । एक मस्त सन्त किसी नगर में पधारे । जनता ने बड़े ही उत्साह के साथ स्वागत किया । राजा और रानी को भी सूचना मिली, वे भी सन्त के दर्शनों को आए । राजा ने सन्त से प्रार्थना की- “मेरे राज भवन को पावन कीजिए ।" सन्त ने अपनी मस्ती में कहा - सभी भवन, राज भवन हैं । परन्तु राजा को अति प्रार्थना पर सन्त राजभवन में जा विराजे । सेवा, भक्ति और सत्कार की क्या कमी थी ! रानी राजा से भी अधिक श्रद्धाशील थी । रहने में, सहने में, खाने में पीने में, सन्त का विशेष ध्यान रखा जाता था । रानी की अति भक्ति ने राजा के मन में संशय खड़ा कर दिया । राजा के मन में विचार आया - गृहस्थ में और सन्त में क्या अन्तर Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकार के यात्री १३७ है ? जैसा हम खाते-पीते हैं, वैसा यह भी खाता-पीता है। महल में रहता है। जीवन के समस्त सुखद साधन इसे यहाँ उपलब्ध हैं, फिर त्याग क्या रहा ? सन्त मन राजा के संशय को समझ गया। व्यवहार मनुष्य के मन का दर्पण होता है। राजा ने सन्त से कहा-जिज्ञासा हो तो कुछ पूछो । राजा बोला-एक ही जिज्ञासा है कि आप में और हम में किन बातों में भेद है ? सन्त ने कहा-योग्य समय पर समाधान हो जाएगा। सन्त अपने मन के मौजी होते हैं। कन्धे पर अपना फटा कम्बल डाला और महल छोड़कर चल पड़े। सूचना पाते ही नगर के नर-नारी और राजा-रानी भी पीछे-पीछे दौड़े। नगर से कुछ दूर एक लघु ग्राम में सन्त ठहरे। रूखी-सूखी मोटी रोटी साथ में छाछ, सन्त बड़े आनन्द में भोजन करने लगे । राजा को भी ग्राम में वही भोजन मिला। परन्तु गले से नीचे नहीं उतर रहा था। राजा की परेशानी देखकर सन्त बोले . "राजन् ! आप में और मुझ में यही अन्तर है । जैसा सुख मुझे महल में था, वैसा ही यहां पर है। रूखी-सूखी मोटी रोटो में वही आनन्द है, जो आपके मोहन भोग में था । राजा ने सन्त के चरण पकड़ कर कहामेरा समाधान हो गया। सच्चा साधक वह है, जो अनुकूलता में और प्रतिकूलता में सम रह सके। यही प्रकाश से प्रकाश में जाने का जीवन है। ऐसा विवेकशील व्यक्ति कभी अन्धकार में नहीं भटक सकता। ** Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज का प्रजातन्त्र और छात्र-जीवन भारत की संस्कृति में शिक्षा के साथ दीक्षा को भी जोवन-विकास में परम साधन माना है। शिक्षा-शून्य दीक्षा और दीक्षा-विकल शिक्षादोनों व्यर्थ है। जीवन में दोनों की अनिवार्यता है। शिक्षा एक सिद्धांत है, तो दीक्षा उसका प्रयोग है। शिक्षा ज्ञान है, दीक्षा क्रिया है। शिक्षा विचार है, तो दीक्षा आचार । शिक्षा आँख है, तो दीक्षा पाँव । देखने को आँख और चलने को पांव हो, तभी जीवन-यात्रा शान्ति और आनन्द के साथ तय की जा सकती है। शिक्षा से बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास होता है और दीक्षा से दैहिक विकास होता है। आध्यात्मिक, नैतिक और दैहिक विकास करना, यही तो भारत की संस्कृति में शिक्षा का आदर्श है, शिक्षा का ध्येय बिन्दु है। मैं आपको प्रेरणा करता हूँ, आप शिक्षा और दीक्षा में समन्वय साधकर चलें। विचार, आचार और अनुशासन, छात्र-जीवन के ये साध्य तत्व हैं। विचार से जीवन में प्रकाश मिलता है, आचार से यह जीवन पवित्र बनता है और अनुशासन से जीवन सहिष्णु और तेजस्वी बनता है। आप लोग परस्पर सहकार रखें, अध्यापक-वर्ग का आदर करें। छात्र जीवन भावी जीवन की आधारशिला है। नींव मजबूत हो, तो उस पर भव्य भवन खड़ा किया जा सकता है। ( १३८ ) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज का प्रजातन्त्र और छात्र जीवन १३६ आप लोग अपने जीवन को मधुर, सुन्दर और सरस बनाने के लिए आत्म-विश्वास, सहिष्णुता और सहयोग की भावना को जागृत कीजिए । आत्म-विश्वास का अभाव भावी जीवन के प्रति चिन्ता उत्पन्न करता है । आज हम जिस युग में सांस ले रहे हैं, वह लोकतन्त्र का युग है, प्रजातन्त्र का युग है । इस युग की सबसे बड़ी देन है आत्म-विश्वास । एकतन्त्रीय युग में हर किसी को बोलने और करने की छूट नहीं थी । मनुष्य को अपने विचार - भले ही वे कितने ही सुन्दर क्यों न हों, अपने मन की कब्र में ही दफनाने पड़ते थे । परन्तु, आज तो हम अपने विचारों का प्रचार भी कर सकते हैं और उनके अनुसार कार्य भी । प्रत्येक व्यक्ति आज अपने जीवन का राजा है, सम्राट है । विकास के साधनों का उपयोग हर कोई कर सकता है । जाति और कुल के बन्धन आज नहीं रहे हैं । आज जाति की पूजा नहीं, मानव की पूजा का युग है । प्रजातन्त्रीय देश के नागरिक होने के नाते, आपके दायित्व आज बढ़ गए हैं। उनका भलीभाँति पालन करने के लिए आप में अटूट और अखूट आत्मविश्वास का बल होना ही चाहिए । दूसरा गुण है, सहिष्णुता । आज जीवन में इसकी बड़ी आवश्यकता है । सहिष्णुता के बिना ज्ञान की साधना नहीं की जा सकती । आप अपने जीवन के बारे में भला-बुरा सोचने में सक्षम हों । जीवन के भव्य प्रवेश द्वार पर पहुँचने के प्रयत्न में हों । यदि इस काल में आप सहिष्णु नहीं बन सके, तो गृहस्थ जीवन के संघर्षों में आप उलझ कर परेशान और हैरान बन जाएँगे । सम्भव है, आशा के हिमगिर से गिर कर पतन के, निराशा के अन्धकूप में भी जा गिरें । ऐसी विषम स्थिति में अपने आप को सम्भाल कर रख सकना, सरल नहीं होगा । अतः सहिष्णुता का गुण एक महान् गुण है । वह जीवन में आपको कर्मठ, क्रियाशील और तेजस्वी बनाए रखेगा । तीसरा गुण है, सहयोग | व्यक्ति कभी अपने आप में बन्द नहीं रह सकता । वह एक मूल केन्द्र है, जिसके आस-पास परिवार है, समाज है और राष्ट्र है । आज परिवार, समाज और राष्ट्र का दुःख-सुख उसका अपना दुःख-सुख बनता जा रहा है । समाज का संकट आज व्यक्ति का संकट है, समाज की समस्या आज व्यक्ति की समस्या है। युग के साथ कदम बढ़ाकर चलना आज के युग का नया नारा नहीं है । वेद में कहा है — " संगच्छध्वं ” — कदम मिलाकर साथ चलो । जैन संस्कृति में इस Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अमर-भारतो भावना को 'सहधर्मिवत्सलता' कहा गया है। आज के युग में इस भावना को सह-अस्तित्व, सहकार और सहयोग कहते हैं । आप एक दूसरे के साथ सहयोग की भावना रखकर चलें । मैं आज अपने आपको आपके मध्य में पाकर परम प्रसन्न हूँ । मैं भी कभी आपके ही समान छात्र था और सत्य तो यह है कि में आज भी अपने आपको एक विद्यार्थी ही समझता हूँ । सम्पूर्ण जीवन ही ज्ञान की साधना के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। ज्ञान की प्यास बुझी कि मनुष्य का विकास रुका | नया ज्ञान, नया विचार और नया चिन्तन सदा होते ही रहना चाहिए । जो स्थिति आज हमारे सामने है, उसके आधार पर मैं स्पष्ट कह सकता हूँ कि एक परिवर्तन अवश्य हो रहा है । युग बदल गया है । वह समय अब दूर नहीं रहा, जिसमें एक सुन्दर मानव समाज का निर्माण होगा । उस समाज में जाति, कुल और धन की नहीं, व्यक्ति के सद्गुणों की सत्ता और महत्ता स्वीकार होगी । अन्त में, मैं आपसे यही कहूँगा कि आप जो भी कार्य करें एक रस, समरस होकर करें, उसमें अपने मन के सरस और कोमल भावों को उड़ेलते रहें । सफलता फिर आप से दूर नहीं रहेगी। मुझे प्रसन्नता है कि मैं यहाँ हरसोरा में आया और एक सप्ताह आप के स्कूल में रहकर अब आगे की यात्रा के लिए चल पड़ा हूँ। मैं आपके जीवन की मधुर संस्कृति लेकर जा रहा हूँ । आप स्वतन्त्र भारत के योग्य नागरिक बनें, यही मेरी मंगल भावना है | Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जैन - संस्कृति की अन्तरात्मा जैन संस्कृति, जन-जन की संस्कृति रही है । आचार की पवित्रता और विचार की विराटता जैन संस्कृति का मूल आधार है । यह संस्कृति गुणों के विकास को महत्व देती है। किसी भी जाति और कुल की ऊँचतानोचता को नहीं । जैन संस्कृति जाति, कुल, देश और धन के बन्धनों से मुक्त होकर जन-जन को भेद और विरोध से दूर हटाकर एकत्व और भ्रातृत्व का का सन्देश देती है । वह मानव को विराट और महान् बनाने की प्रेरणा करती है । मनुष्य का जीवन केवल उसी तक सीमित नहीं है, वह जिस समाज और राष्ट्र में रहता है, उसके प्रति भी उसका कर्तव्य है । कर्तव्य से पराङमुख होकर भागने में मनुष्य का गौरव नहीं है, उसका गौरव है हजारोंहजार बाधाओं को, रुकावटों को पार करके अपने कर्तव्य कर्म को जन कल्याण की भावना से करते जाना । इस निःस्वार्थ कर्म योग में यदि उसे जनता का स्वागत सत्कार मिले तो क्या ? और यदि चारों ओर से हजारहजार कण्ठ-स्वरों से विरोध मिले, तो भी क्या ? मनुष्य अपने जीवन में अहिंसा, सत्य और सहयोग की भावना अपना कर ही अपना विकास कर सकता है । सम्प्रदायवाद, जातिवाद और वैरविरोध की नीति उसके विनाश के लिए है, विकास के लिए नहीं । जैन ( १४१ ) A Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अमर भारती संस्कृति कहती है कि मनुष्य स्वयं ही देवत्व और दानवत्व में से किसी भी एक व्यक्तित्व को चुन सकता है। वह देव बनकर संसार के सामने ऊंचा आदर्श रख सकता है और दानव बनकर जीवन का नाश भी खरीद सकता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का स्वामी है, जीवन का सम्राट है। विचार और विवेक से वह बहुत ऊँचा उठ सकता है। मनुष्य के विकास में ही समाज और राष्ट्र का भी विकास है और उसके पतन में उनका भी पतन ही है। जैन संस्कृति विचार-स्वतन्त्रता को मुख्यता देती है। अन्धविश्वास, अन्ध-परम्परा और रूढिवाद का विरोध करती है। सत्य जहाँ कहीं भी मिलता हो, ग्रहण कर लेना चाहिए । जो सत्य है, वह सब मेरा है, यह जैन संस्कृति का आघोष रहा है। जैसे दूध में से मन्थन द्वारा घत निकल आता है, वैसे लोक जीवन के मन्थन से जो सत्य निकलता है, वह सब अपना ही है। हां, मनुष्य का मनन और मन्थन क्षीण नहीं हो जाना चाहिए । यदि उसमें विवेक शक्ति नहीं रही, तो फिर अर्थ का अनर्थ भी होते क्या देर लगती है ? __ आज के प्रत्येक धर्म के नीचे इतना कूड़ा-करकट एकत्रित हो गया है कि जिससे धर्म का वास्तविक स्वरूप ही नष्ट होने लगा है। विवेक और ज्ञान के प्रवाह से उसे बहा देना चाहिए। जैन संस्कृति का सीधा विरोध अन्धविश्वास और अज्ञानता से है। ___ भारत के बहुत से लोग कहते हैं, "नर और नारी में बहुत बड़ा भेद है" नारी, नर के समान कार्य नहीं कर सकती । यह भी एक अन्ध-विश्वास है। मेरा अपना विश्वास तो यह है कि क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर सभी कार्यों में नारी ने अपनी विशेषता सिद्ध कर दी है । आत्म-साधना जैसे जटिल तथा विषम मार्ग में भी वह नर से पीछे नहीं रही है । जैन संस्कृति कहती है कि समाज रूपी रथ के नर और नारी बराबर के पहिये हैं, जिससे कि समाज की प्रगति होती रहती है । सत्य के महापथ पर अग्रसर होने वाले नर हों, नारी हों, बाल हों या वृद्ध हों? उन सभी का जीवन समाज और राष्ट्र के लिए मंगलमय वरदान है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा का प्राणवन्त प्रतीक : पर्वराज-पर्युषण श्रमण संस्कृति का मूल-तत्व भोग में नहीं, योग में है । प्रेम से विमुख हो, श्रेय के सन्मुख होना, 'श्रमण-परम्परा का मूल दर्शन है। सन्त-संस्कृति का कल्प-पादप मानव मानस की बाहरी धरती पर नहीं, अन्तस्तल के सरस धरातल पर ही पनपा है, फलता और फूलता है। वहाँ भौतिक सत्ता की महत्ता नहीं, अध्यात्मवादी अन्तर्दर्शन का मूल्यांकन किया जाता है। ___मानव मन के अन्तरंग के माध्यम से चलने वाली सन्त संस्कृति जनजन के मन में एक ही विचार-ज्याति को जन्म देती रही है-"पर का दमन मत करो, अपना करो। पहले अपने को पहचानो, अपने को समझो । अपने दोषों का परिहार करो, दूसरों के गुणों को स्वीकार करो। अन्तस्तत्त्व की ज्योति से ज्योतित करते रहो, अपनी जीवन दोप-शिखा को।" आज का मानव अपने आपको नहीं देखता, वह देखता है, अपने पड़ोसी की ओर । जबकि श्रमण-संस्कृति की सबसे पहली आवाज यह कहती है-"अपने को संभालो साधक ! तू सुधरा, सारा समाज सुधरा । तू सुधरा सारा जग सुधरा।" महावीर पहले सधा, तो हजारों-हजार महावीर पंदा हो गए। एक दोपक की लो हजारों और लाखों दीपों को प्रज्वलित कर ( १४३ ) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अमर-भारती देती है । मूल ज्योति 'महावीर' से ज्योतित होने वाली जीवन- ज्योतियों की एक लम्बी परम्परा आज तक चली आ रही है और चलती चली जाएगी । इन्द्रभूति, सुधर्मा और जम्बू की जीवन ज्योति के दिव्यालोक से आज भी श्रमण संस्कृति जन-मग कर रही है । संसार महासागर के ये महा-ज्योति स्तम्भ आज भी राह भटके मानवों को जीवन की सही दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं । पर्युषण कल्प का महापर्व इस अमर सन्देश की आघोषणा करता है - " मानव, भोग- क्षोभ की विलास-विभ्रम की और सत्ता महत्ता की साज सज्जा में, तू सुख की कल्पना, समृद्धि की कल्पना तथा शान्ति की कामना मत कर, भूल मत जग की चमक-दमक में । जो पाना है, वह मिलेगा" अन्तस्तत्व के चिन्तन से, मन के मन्थन से और अपनी चित्तवृत्तियों के ग्रन्थन से ।" आज न केवल व्यक्ति ही, सारा समाज और समूचा संसार भी अपनी समस्याओं से विकल है, परेशान और हैरान है । कहीं जातिगत विद्वेष की ज्वाला, कहीं प्रभुत्व की सत्ता का अनर्थकारी उन्माद और कहीं वर्ण-भेद एवं रंग-भेद का विभत्स नग्न नृत्य परेशान कर रहा है । वह भी इस युग मैं जबकि विश्व के एक कोने का स्वर दूसरे कोने में क्षणों में ही झंकृत हो उठता है । हमारे बाहरी प्रसार के साथ अन्तर का प्रसार भी विराट बनना चाहिए । पर्युषण कल्प की साधना मानव मन के कण-कण में विराट भावना को जागृत करती है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मानव की महत्ता मनुष्य का जन्म प्राप्त करना साधारण बात नहीं है ? बहुत लम्बी जन्म-मरण की यात्रा तय करते हुए मनुष्य का जन्म मिला है । पर, उसका सदुपयोग या दुरुपयोग करना, मनुष्य के पूर्ववत संस्कारों पर निर्भर होता है । मनुष्य अपने विचारों का प्रतिफल है । वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है । उसका उत्थान और पतन उसके अपने हाथ में रहता है । शास्त्र या गुरुजन तो मात्र सहायक रहते हैं । उच्चतम विचार ही मनुष्य की अपनी थाती होती है । उच्च विचारक की प्रत्येक बात शास्त्र है । वस्तुतः शास्त्र है भी क्या चीज ? उच्चतम विचार राशि ही तो शास्त्र है न ? और उसका स्रष्टा कौन है ? नारकी, पशु या देवता उसका स्रष्टा नहीं हो सकता । उसका स्रष्टा है, मनुष्य । आप मेरी भावना को स्पर्श कर रहे होंगे ? मेरा अभिप्राय यह है कि शास्त्र का प्रणेता मनुष्य ही है और कोई नहीं । मनुष्य को विचार शक्ति मिली है, वह विचारशील है । निरुक्तकारों ने 'मनुष्य' शब्द की बहुत ही सुन्दर और गम्भीर निरुक्ति की है । आचार्य यास्क ने अपने निरुक्त-शास्त्र में लिखा है - " मत्वा कार्याणि विषीव्यत्ति, इति मनुष्यः - " जो सोच-समझकर कार्य करता है, वही मनुष्य कहलाता है ।" हाँ, तो मैं आपसे कह रहा था कि शास्त्र - प्रणेता मनुष्य ही हो ( १४५ ) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अमर-भारती सकता है, दूसरा कोई नहीं । परन्तु इस विषय में विश्व की विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में मतैक्य नहीं है । मैंने जो कुछ कहा है, यह जैन-संस्कृति की मान्यता है । जैन संस्कृति का कहना है कि शास्त्र मनुष्य लोक में बने हैं । अतः उनका प्रणेता मनुष्य ही हो सकता है। जैनेतर धर्मो की विभिन्न धारणाएँ काम कर रही हैं । वह इस प्रकार हैं “शास्त्रों के बनाने वाले देवता हैं, क्योंकि उनके अन्दर अद्भुत शक्ति रही हुई है ।" "देव नहीं, ईश्वर ही शास्त्रों का जन्मदाता है ।" " सृष्टि को विश्वकर्मा ने बनाया है । अतः शास्त्रों का रचियता भी विश्वकर्मा ही है ।" " कुरान ही सबसे बड़ा शास्त्र है । और उसका बनाने वाला खुदा है ।" " बाईबिल ही महान शास्त्र है । (God) है 1" और उसका प्रणेता 'गोड' सभी का अपना-अपना विश्वास होता है । किन्तु आज के बौद्धिक युग में मात्र विश्वास से ही काम नहीं चल सकता । उसके साथ तर्क भी अत्यावश्यक है । जैन संस्कृति की मूल भावना यह है - " मनुष्य से बढ़कर विश्व में अन्य कोई शक्ति नहीं है । अतः शास्त्र - स्रष्टा मनुष्य ( विशिष्ट मनुष्य ) ही हो सकता है, अन्य कोई नहीं ।" मुझे एक सज्जन मिले। बात-चीत से ज्ञात हुआ है कि वह अपने मस्तिष्क पर अविश्वासों का बेहद बोझा उठाये हुए है । उन्होंने कहा"महाराज, आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण, साहित्य, दर्शन और ज्योतिष तथा योग शास्त्र आदि विषयों पर विशाल ग्रन्थ राशि लिख डाली है । . मालूम होता है, उन्हें सरस्वती देवी सिद्ध होगी । अन्यथा, इतना विशाल साहित्य कैसे लिख सकते थे ।" मैंने कहा - " आप आचार्य हेमचन्द्र का और विशेषतः उन की प्रतिभा का अपमान कर रहे हैं, सन्मान नहीं । क्या मनुष्य कुछ नहीं कर सकता ? जो कुछ भी महान् है, वह सब क्या देवताओं की विभूति ही है ? शास्त्र मनुष्यों के द्वारा बने हैं, जो सर्वज्ञ थे या सर्वज्ञकल्प थे । नारकी शास्त्र नहीं पढ़ सकते और पशु भी सर्वज्ञ नहीं तो शास्त्र निर्माण Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव को महत्ता १४७ नहीं कर सकते । देवताओं का जीवन भोगविलास का जीवन है । वे भला क्या शास्त्र बनायेंगे ? ____ मैं आप से कह रहा था, कि शास्त्र का बनाने वाला मनुष्य है, क्योंकि मनुष्य ही शास्त्र-प्रतिपादित सिद्धान्तों को जीवन में उतार सकता है । विचार को आचार में बदल सकता है ? पशु में अनुभूति की कमी है और देवता में चारित्र का अभाव है। मनुष्य में विचार और आचार की दोनों ही शक्तियाँ पूर्ण हैं । अतः वह जहाँ उत्कृष्ट चिन्तन कर सकता है, वहाँ उसका आराधन भी पूर्ण रूप से कर सकता है। मनुष्य की अपनी भव्य एवं विशाल अनुभूति ही उसका सब से बड़ा शास्त्र है । जो व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए होना चाहिए । जैसी अनुभूति तुम्हें होती है, वैसी ही दूसरों को भी होती है। अतः सभी के साथ समुचित व्यवहार करना चाहिए "आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।" यही सबसे बड़ा शास्त्र है । यही महत्वपूर्ण सिद्धान्त है । यही है, जैन संस्कृति का मूल-स्रोत । इस सिद्धान्त की सृष्टि मनुष्य ने अपनी उच्च. तम अनुभूति के आधार पर की है । मैं आपसे कह रहा था कि सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों के प्रति अपने जैसा ही सरल वर्ताव करता है। तेल की वृंद जमकर नहीं बैठेगी, वह फैल जाती है । और घी की बूंद जमकर बैठ जाती है। तुम्हारी अहिंसा और प्रेम भावना तेल की बूंद हो, जो समग्र विश्व के ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों के प्रति एक भाव से फैल जाए । केवल अपने लिए अहिंसक रहना, कहाँ की उच्च भावना है ? इतनी अहिंसा तो खूख्वार जंगली हिंस्र-पशु में भी मिल सकती है। जिस कष्ट से तुम पीड़ित हो रहे थे, वही तुम दूसरे को दो, तो क्या तुम मनुष्य बने रह सकोगे ? आज से ढाई हजार वर्ष पहले भारत की पथ-भ्रष्ट मानवजाति को, भगवान महावीर ने मनुष्य के रूप में मनुष्यता का अमर उपदेश दिया था। उन्होंने हमें अपने पवित्र विचारों को आचार में बदलने की पवित्र शिक्षा दी है। अतः वे सच्चे महामानव कहलाए। प्रकृति की ओर से मिले हुए दुःख बहुत थोड़े होते है। मानव जाति Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ अमर-भारती की अधिकतर पीड़ाएँ मानसिक ही होती हैं, पर मनुष्यों की ओर से लादी गई हैं । भगवान तुम किसी को दुःख नहीं दोगे, तब विश्व की दूसरों को दुःख से छुटकारा दिलाओगे, तो पाओगे । सुख और शान्ति का मधुर अनुभव प्राप्त कर सकोगे ।" और मानसिक पीड़ाएँ मनुष्यों महावीर ने कहा है - ' जब दुःख - राशि को समेट लोगे । तुम भी दुःखों से छुटकारा भगवान महावीर ने किसी भी जीवन = प्रवाह को बहने से नहीं रोका । उनका कहना है कि जीवन की गति को न रोको, बल्कि अपनी जीवन सरिता के प्रवाह को मर्यादित रूप से बहाओ । नदी के प्रवाह में बाढ़ आ जाती है, तब सैकड़ों गाँवों को नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है । किन्तु नदी का प्रवाह जब मर्यादा में बहता है, तब किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता । कोई गृहस्थ हो या साधु, राजा हो या रंक, सेनापति हों या सैनिक, जो अपनी मर्यादा में रहता है, वह कभी भी दुःखित नहीं होता । रावण ज्योंही मर्यादा से बाहर हुआ नष्ट हो गया । सीता अपनी मर्यादा पर अडिग थी, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा । हिंसा-अहिंसा की जो मर्यादाएं रही हैं, उनका परिपालन करने से मनुष्य कभी दुःख नहीं भोगता । अनन्त पुण्य का उदय होने पर मनुष्य जन्म मिलता है । मनुष्य जीवन के लिए देवता भी बड़ी इच्छा रखते हैं । भगवान महावीर ने कहाजिस तत्व को तुम समझ गए हो, उसे प्राप्त करने में विलम्ब मत करो, देर मत लगाओ । भोग-विलास में पड़कर जीवन को नष्ट न करो । यदि मनुष्य बन गए हो, तो मनुष्य के कर्तव्य सदा करते रहो । आत्मधर्म को पहिचानो, और उसका पालन करो । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपावली और सहधर्मी-सेवा दीपमालिका का उत्सव आ गया है । अब की बार दीपमालिका का उत्सव कैसे मनाएंगे ? करुणा-मूर्ति भगवान महावीर का निर्वाण-महोत्सव मनाने के लिए कौन-सी योजना काम में लाई जाएगी? क्या अब को बार भी वे हो आमोद-प्रमोद के दौर चलेंगे? विद्यत-दीपकों के रंग-बिरंगे प्रकाश से महल जगमगाए जाएँगे ? नाना-विध रस भरे मिष्ठानों से उदर देव की आकण्ठ पूजा होगी? घृत दीप के चमकते और महकते प्रकाश में महामाया लक्ष्मी का आह्वान होगा? भारतवर्ष के लिए जहां यह वर्ष असीम आनन्द और उल्लास का वर्ष है, वहाँ असीम दुःख और दर्द का वर्ष भी है। सदियों पुरानी पराधीनता के सुदृढ़ बन्धनों को तोड़कर भारतवर्ष आज आजाद है, स्वतन्त्र है। हजारों वर्षों के बाद यहां पर पहली दीपमालिका होगी, जिसे आप भारतवासी स्वतन्त्र भारत में स्वतन्त्रता के साथ मनाएंगे। परन्तु साम्प्रदायिक नेताओं के विषाक्ति और दुष्प्रचार से हिन्दू-मुस्लिम तनाव इस चरम सीमा तक पहुंच गया है कि सब आनन्द किरकिरा हो गया है। पाकिस्तान में साम्प्रदायिक उन्माद ने अपना जो भयंकर नग्न रूप दिखलाया है, उसके कारण आज मानवता का रोम-रोम सिहर उठा है। हजारों निरपराध ( १४६ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अमर भारती शान्त नागरिक बेदर्दी के साथ मौत के घाट उतार दिए गए हैं। हजारों माताओं और बहनों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी गई है, हजारों मासूम बच्चों के रक्त से भालों की नोंके रंगी गई हैं, हजारों बलात् धर्म-परिवर्तन के रूप में भेड़-बकरियों के समान इधर-उधर कैदियों-सा जीवन बिता रहे हैं। लाखों की लागत के गगनचुम्बी महल आज राख के ढेर हैं, जिनमें न जाने कितने-कितने जीवित जले हुए अभागे मानवों की लाशें दबी पड़ी होंगी । मैं आज समस्त भारतवासियों से, विशेषतः जैन धर्मावलम्बियों से प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि आप लोग इस भयंकर स्थिति में दीपमालिका का उत्सव कैसे मनाएँगे ? पुरानी पगडण्डी बदलना है या उसी पर चलना है ? भगवान महावीर का पवित्र निर्वाणोत्सव अबकी बार दूसरी तरह ही मनाना होगा । यदि आप जैन हैं और आपमें कुछ भी जैनत्व का अंश है, तो करुणा अमृतधारा बहाकर ही दीपमालिका मनाई जाएगी। गुजरानवाला, स्यालकोट, रावलपिंडी, पशरूर और लाहौर आदि क्षेत्रों के सुविशाल जैन संघ आज पूर्ण रूप से बर्बाद हो चुके हैं । करोड़ों की सम्पत्ति अपनी आँखों के सामने गुण्डों के हाथों लुटती देखते रहे, कुछ भी तो नहीं बचा सके । मैं लाहौर के एक श्रीमन्त को खूब अच्छी तरह जानता हूँ, कितना धनी मानी परिवार का स्वामी था वह ? परन्तु पाकिस्तान से जब वह दर्शन करने यहाँ आया, तो मैं उसकी दारुण दयनीय दशा को देखकर विकम्पित हो उठा। जब उसने अन्तर- वेदना में यह कहा कि महाराज ! यह क्रूरता अमृतसर और लाहौर वालों की ही हुई है । मेरी आँखें आंसुओं से छलछला आई, हृदय वेदना से तड़फ उठा । कोई भी मनुष्य जिसके शरीर में दिल हो और दिल में दर्द हो, वह इस प्रकार के करुण दृश्य से मर्माहत हुए बिना नहीं रहेगा । एक क्या, अनेक घटनाएँ ऐसी हैं, जो पत्थर को भी पिघला देने वाली हैं । पाकिस्तान के अत्याचारों से प्रताड़ित धर्म-बंधुओं की दर्द भरी कहानी, उनके मुंह की अपेक्षा उनका शरीर ज्यादा अच्छी तरह व्यक्त करता है, यदि कोई आँख खोलकर देख सके तो आज उन लक्षाधिपतियों के पास आँखों में आँसू और मर्म वेदना के अतिरिक्त ओर है ही क्या ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपावली और सहधर्मी सेवा १५१ भारतवर्ष के जैन समाज का कर्तव्य, आज उसकी आँखों के समक्ष प्रदीप्त सूर्य प्रकाश के समान पूर्ण रूप से स्पष्ट है-अब बहुत शीघ्र ही लिखे जाने वाले इतिहास की तैयारी में है। इसमें क्या लिखा जाएगा, यह बताने के लिए आज का जैन समाज पूर्णतया स्वतन्त्र है। जैन समाज के पास साधनों की कमी नहीं है । वह संगठित होकर उत्साह भरे हृदय से यदि कुछ करना चाहे, तो सब कुछ कर सकता है । ___ हजारों की संख्या में सर्वथा निराश्रित हुई जैन जनता के जीवनमरण का प्रश्न है । उसे अब सर्वथा नये सिरे से जीवन यात्रा प्रारम्भ करनी है। भोजन, वस्त्र और बसाने आदि की अपनी अनेक-विध दुरूह समस्याओं को हल करना, अब उन लोगों के बस की बात नहीं है । साधारण-से दीक्षा और रथ-यात्रा आदि के प्रसंगों पर लाखों की होली खेलने वाला जैन समाज यदि अपना दायित्व अनुभव करे, तो यह सब हिमालय जैसा महान् कार्यभार आसानी से उठाया जा सकता है। जो जैन समाज पशु-पक्षियों की दया पाल सकता है और भट्टियाँ बन्द कराकर एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा का भार उठा सकता है, क्या वह अपने धर्म बन्धुओं की रक्षा और सेवा का कर्तव्य नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है । जैन धर्म में साधर्मी-वात्सल्य का वहुत बड़ा महत्व माना गया है। जैन शास्त्रों की भाषा में श्रीसंघ को साक्षात त्रिलोक नायक तीर्थंकर देव के समान माना गया है। श्रीसंघ की सेवा, तीर्थंकर देव की सेवा है। आज दुर्भाग्य से ही सही, परन्तु श्रीसंघ की सेवा का महान् अवसर उपलब्ध हुआ है। मैं समझता है, 'जैन समाज अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होगा। सौ-दो सो की साधन सम्पन्न विरादरी को भोजन करा देना और प्रभावना वितीर्ण कर देना ही साधर्मी बात्सल्य नहीं है। सच्चे साधर्मी वात्सल्य की परीक्षा का समय तो आज आया है। देखना है, कितने थैलीशाह अपनी थैलियों के मुंह खोलते हैं ? ____ मैं अपने सहधर्मी मुनिराजों के चरणों में भी नम्र निवेदन करना चाहता है कि आप भी अपनी समस्त साधन शक्ति का प्रवाह संघ रक्षा की ओर प्रवाहित कर दें। अबकी वार दीपमालिका के महापर्व पर भगवान महावीर के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करें कि इस वर्ष न किसी बड़ो दीक्षा का ठाठ-बाट रचायेंगे, न तपश्चरण के महोत्सवों के फेर में पड़ेंगे । जैन धर्म Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अमर भारती के साधु और श्रावकों को सम्मिलित शक्ति आगामी दीपमालिका तक अपने पीड़ित जैन बंधुओं के लिए क्या व्यवस्था कर सकती है ? इसका निर्णय तो भविष्य पर ही आधारित है। मैं आशा करता हूँ कि आप अपने तन से, मन से और धन से इस संघ-सेवा के महान कार्य में अधिक से अधिक सहयोग भावना रखेंगे। महावीर भवन देहली १९४८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको हीन समझना पाप है आज आपके सामने मुझे जो कुछ बोलना है और जिसे बोलने के लिए लालमन भाई, जो प्रतिदिन निकट सम्पर्क में आते रहते हैं, उनकी शुभ प्रेरणा कहिए अथवा आपके अन्तर का सच्चा प्रेम समझिये, मुझे आप तक खींच लाया है। हमें सभा मंच पर दृष्टिगत करके आपको परम आश्चर्य हो रहा होगा, क्योंकि आप हम लोगों कों तथा जैन धर्म के अनुयायियों को अपने पास मिलकर बैठे देख रहे हैं। जन्म-जात संस्कार या हीन भावनाएँ, जो आप में रही हुई हैं, सम्भवतः उसी दृष्टि-बिन्दु से सोचने के आदी होने के कारण आपको यह सब विचित्र-सा अनुभव हो रहा हो। हम अधम हैं, पतित हैं, हमारा उत्थान या विकास नहीं हो सकता, आदि हीन भावनाएँ आपके विकास में सबसे प्रबल बाधक हैं और ऐसा सोचना एक बहुत बड़ी दुर्बलता और भयंकर पाप है। क्योंकि जीवन का यह सर्वमान्य नियम है कि जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बन जाता है। हम अपने विचारों को प्रतिमूर्ति हैं। वीरता के संकल्प वीर बनाते हैं और कायरता के संकल्प कायर । जो जैसी श्रद्धा या विश्वास रखता है, वह वैसे ही सांचे में ढल जाता है__ "श्रद्धामयोऽय पुरुषः, यो यत् श्रद्धः स एव सः।" ( १५३ ) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अमर प्रीत बात बिल्कुल ठीक ही कही गई है । मनुष्य यदि गन से साफ है, स्वयं अपने प्रति आप ईमानदार हैं, तो वह किसी से भी छोटा या हीन नहीं है । किसी जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ही मनुष्य को जाति हीन या उच्च नहीं मानी जा सकती और विशेष कर आज के जागरणशील युग में तो जात पांत की यह गली सड़ी दीवार इतनी जीर्ण-शीर्ण तथा जर्जरीभूत हो गई कि एक धक्के की चोट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती । लार्ड बेबल के समय में जब हम दिल्ली में थे, तो वहाँ 'गांधी - ग्राउण्ड' में 'अखिल भारत वर्षीय विद्यार्थी सम्मेलन' हो रहा था । जब चांदनी चौक से होकर क्रान्तिशील नवयुवकों का एक विराट जुलूस निकल रहा था, तो उच्च स्वर से वे यही नारा लगा रहे थे " इस गली सड़ी दीवार को एक धक्का और दो ।" उनके नारे का अभिप्राय था कि अंग्रेज शासन की दीवार बिलकुल गल-सड़ गई है, जर्जर हो गई है, उसे जरा एक धक्का और देकर भूमिसात् कर दो। इसी प्रकार की चेतनामय तथा ऊर्ध्वमुखी भावना जब आपके अहृदय से निःसृत होगी, तो क्या इस दीवार के ढ़ह जाने में बिलम्ब लगेगा ? अस्तु, हमें इन सारहीन जात-पांत के झगड़ों में अधिक मत्था-पच्ची करने की आवश्यकता नहीं । किसी असद्वस्तु के विषय में अधिक सोचविचार करने से भी मनुष्य मस्तिष्क विकृत हो जाया करता है । इस दीवार को तो परिवर्तनशील युग के प्रबल थपेड़े लग चुके हैं और गांधीजी का तो ऐसा जोरदार धक्का लगा है, कि जिससे यह दीवार गिरी ही समझिए । अढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व का युग भी ऐसा ही अन्धकार पूर्ण युग था, जब कि भगवान् महावीर ने इस दीवार को तोड़ने का सफल प्रयत्न किया था । उस महावीर ने जिसकी चरण-शरण प्राप्त करने का मुझे पुण्य अव-सर मिला है ? जिनके क्रान्तिशील शासन का मैं भी एक छोटा-सा सदस्य हूँ तथा जिनकी उदात्त वाणी के अनुशीलन करने का मुझे परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है । यह महावीर जो एक राजकुमार थे, सोने के महलों में फूलों के बिछोनों पर, जिसका जन्म और पालन-पोषण हुआ था, जिनके दायें-बायें Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको हीन समझना पाप है १५५ चारों ओर संसार का विपुल वैभव और भोग विलास की सामग्री अपने मोहक रूप में बिखरी पड़ी थीं, ३० वर्ष की इठलाती हुई तरुणाई में इन भोग-विलास और सोने के सिंहासन को ठोकर मारकर जन-कल्याण के लिए निकल पड़ा । उनका मन संसार की इन मोह माया की गलियों में न रमा, संसार की विषम स्थिति का भयावह हृदय उनकी आँखों के आगे रहरह कर नाचने लगा । उन्होंने देखा कि दुनिया कितनी ऊँची-नीची है । ' कोई सम्मान सत्कार से, धन से, वैभव से ऊँचा है, तो कोई अपमान, घृणा और दरिद्रता तथा जात-पांत को धधकती हुई प्रचण्ड ज्वाला में बुरी तरह झुलस रहा है । भगवान महावीर ने इस भेदभाव तथा घोर वैषम्य की खाई को पाटने का दृढ़ संकल्प किया और एक ऐसे नव समाज का निर्माण करना चाहा, जहाँ सबका स्तर एक हो, सब को सर्व विषयक समान अधिकार हों, न कोई ऊँचा हो और न कोई नोचा हो। "मानव-मानव एक है और अहिंसा एव सत्य सबका धर्म है ।" यह था उनका क्रान्तिशील नारा । उन्होंने अपनी विद्रोह भरी उदार वाणो में कहा - " मानव-मानव समान हैं, जात-पांत यदि माननी ही है, तो उसकी मूलभित्ति आचरण होना चाहिए, न कि जन्म । जन्म से तो न कोई यज्ञोपवीत धारण करके आता है, न कोई तलवार बाँधकर आता है और न किसी के हाथ में कलम या झाड़ ही होती है ।" भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यहाँ जन्म या जाति का कोई महत्व नहीं, यहाँ पूछ है आचरण की "सक्खं वुदीसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेसो कोई । " मनुष्य की तो मनुष्य ही एक जाति है । गाय, भैंस, हाथी, घोड़े आदि जिनकी नस्लें अलग-अलग हैं, उनकी जाति का बोध नस्ल या आकृति मात्र से ही हो जाता है । किसी गधे या घोड़े से आज तक किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि आपकी क्या जाति है । इसी प्रकार मनुष्य की जाति के सम्बन्ध में भी मनुष्य से यह पूछना कि आप की जाति क्या हैं ? उसका घोर अपमान करना है और मानव जाति को छिन्न-भिन्न करने का दुष्प्रयत्न मात्र है । जरा विचार तो कीजिए कि कोई निम्न जाति का व्यक्ति अहिंसा, सत्य, संयम आदि का प्रश्रय लेकर यदि अपने निम्न जीवन स्तर से ऊँचा उठ जाता है, तो उसकी आत्मा ने कितनी भाव क्रांति एवं प्रबल साहस Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अमर-भारती किया होगा ? दूसरी और वह जो जन्मना उच्च कहला कर भी पामर, असंयत तथा पाशविक जीवन यापन करता है, तो बतलाइये, क्या ऐसे हित और अस्वर्ग्य जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को ऊँचा कैसे माना जाए ? मैं आप से भगवान महावीर की बात कह रहा था. अतः उनकी वाणी को उनके शब्दों में ही आप तक पहुँचा देना चाहता हूँ "कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ " जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता । ये सारी 'विशेषताएँ तो आचरण से, सयम से प्राप्त होती हैं । जब भगवान महावीर जात-पांत के विरुद्ध क्रांति का प्रयोग कर रहे थे, तो उन जैसा ही एक और महापुरुष जनता के हृदय में क्रांति की उथलपुथल मचा रहा था । वह महापुरुष भी जिसे हम भगवान् बुद्ध कहते हैंविश्व को यह पुनीत सन्देश दे रहा था कि जन्मना जाति का निर्णय कभी भी मान्य नहीं हो सकता । जाति-पांति का अस्तित्व प्रथम तो है ही नहीं और यदि मान भी लिया जाए, तो उसकी आधारशिला आचरण है, जन्म नहीं । भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्य आनन्द एक बार पाद-विहार करते जा रहे थे कि गर्मी के कारण उनको जोर की प्यास ने व्याकुल कर दिया । मार्ग स्थित कुएँ पर जल भरती हुई बहन से उन्होंने पानी माँगा, तो वह बहन किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रह गई, क्योंकि उसने तथाकथित शूद्र जाति में जन्म लिया था । अपनी सारी शक्ति बटोर कर उस लड़की ने कहामहाराज ! मैं तो एक शूद्र कन्या हैं, आपको जल कैसे पिला सकती हूँ ? उस बेचारी को जन्मगत ऐसे ही संस्कार मिले थे, उसे समाज की ओर से घृणित, दलित और उपेक्षणीय व्यवहार का उपहार मिला था, वह अपने को सर्वथा दीन-हीन तुच्छ समझ बैठी थी । अतएव उसने भिक्षु को ऐसे दीनता भरे शब्दों में उत्तर दिया । आनन्द ने हंसकर कहा - " बहिन ! मैंने तो तुम से पानी माँगा है, जाति नहीं । यदि मैं इस तत्वहीन और थोथे सिद्धांत में कुछ सार समझता होता, तो तुम से पहले ही पूछता कि तुम्हारी क्या जाति है ? और बाद में पानी पिलाने की बात कहता । आनन्द की इस मर्मस्पर्शी वाणी से शूद्र कन्या के हृदय का कण-कण . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अपने आपको हीन समझना पाप है १५७ खिल उठा । इन सारभूत शब्दों से उसे एक अभिनव प्रेरणा और एक नयी चेतना मिली, एक अश्रुत-पूर्व दिव्य सन्देश मिला। उसने अपने जीवन को एक नये रूप में सोचा-"इस वैषम्य पूर्ण संसार में कम से कम एक स्थान तो ऐसा है, जहाँ हमारे ऊपर कोई घृणा नहीं बरसाता, जहाँ जात-पांत की कोई पूछ नहीं और जहाँ मानव-मानव एक हैं।" उसके जीवन की धारा बदली और वह 'बुद्धं सरणं, धम्म सरणं, संघं सरणं गच्छामि' का दिव्य पाठ पढ़कर बुद्ध-शासन में दीक्षित होकर एक प्रख्यात विदुषी हुई। _ 'कर्म' शब्द का अर्थ यदि शास्त्रों का पठन-पाठन अच्छा समझा जा सकता है, कलम चलाना अच्छा माना जा सकता है, दीन-दुर्बलों के परित्राण के लिए तलवार चलाना अच्छा गिना जा सकता है, तो क्या 'जनसेवा' जैसा महान कार्य किया जिसके लिए आचार्य भर्तहरि ने यह कहा'सेवा धर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः' और जिसे आप नित्यप्रति करते हैं, क्या अच्छे की कोटि में नहीं आ सकता ? आखिर, मनुष्य है और उसके सामने पेट भरने की दुनिया की सबसे आवश्यक समस्या है । इस उदरपूर्ति के लिए उसे कोई कर्म तो करना ही पड़ता है। यदि अच्छा धन्धा मिलता हो, तो उसे भी अवश्य करना चाहिए। किसी विशेष का किसी विशेष कर्म पर एकमात्र अधिकार नहीं हो सकता, विशेषकर आज के जनतन्त्र युग में । बीच का काल ऐसा था, जबकि शास्त्रों का पठन-पाठन, चिन्तन-मनन और लिखने-लिखाने के लिए, जन-रक्षार्थ तलवार चलाने के लिए, सेवा का कार्य करने के लिए विशेष जाति का अधिकार मान्य समझ लिया गया था। यह भारत के लिए सबसे दुर्भाग्य पूर्ण काल था, जब ज्ञान की पावनी शक्ति को, जनरक्षा के आदर्श कार्य को तथा सेवा जैसी महती कर्मशक्ति को एक संकीर्ण शिकंजे में जकड़ दिया था, जिसका दुष्परिणाम आज भारत भोग रहा है। इतिहास के उन पृष्ठों को उलटकर इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जान सकता है कि तत्कालीन इस अदूरदर्शिता पूर्ण संकीर्णता तथा भेद-भाव भरी भूल ने राष्ट्र को कितना लाभ या क्षति पहुँचाई है ? ___ महावीर, बुद्ध और गांधीजी की दृष्टि में जो कार्य ईमानदारी और प्रसन्न भाव से कर्तव्य समझकर सुचारु रूप से किया जाता है, वही सुन्दर और अच्छा है । एक क्लर्क है, जो बेचारा दिन भर कलम घिसता रहता है, परन्तु उस कार्य को राष्ट्र और समाज की सेवा की दृष्टि से कर्तव्य समझ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अमर भारती कर नहीं करता, सुबह से शाम तक रोता-पीटता और उपालम्भ देता रहता है, तो उसका वह कार्य सुन्दरता की कोटि में नहीं आ सकता। सड़क पर झाड़ लगाने वाला एक हरिजन भाई जन कल्याण की दृष्टि से, जनता के स्वास्थ्य की दृष्टि से, जन सेवा की दृष्टि से और यह समझकर कि मैं भी राष्ट्र या समाज का एक घटक है, उसकी सेवा करना मेरा परम कर्तव्य है, उस कार्य को सुव्यवस्थित और सुन्दर ढंग से करने का प्रयत्न करता है तथा उसके करने में सुख एवं प्रसन्नता अनुभव करता है, तो वह कार्य सर्वांग सुन्दर समझा जाता है। आप अपने कार्य को छोटा और क्षुद्र कार्य मत समझिए । यह कार्य भी उतना ही पवित्र है, जितना कि बड़े से बड़ा कार्य पवित्र हो सकता है। इसके करने में आप गौरव की अनुभूति कीजिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप जीवन पर्यन्त इसी कार्य को करते रहें, दूसरे किसी कार्य को करने के लिए प्रयत्न न करें, पराङ मुख बने रहें । यदि दूसरा कार्य करने की आपके अन्दर क्षमता है, तो उसे भी अवश्य कीजिए। कोई भी कार्य किसी की बपौती नहीं है। कार्य मात्र को करने का जन-जन को अधिकार है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वंश परम्परा से जिसको जो कार्य मिला है, उसे वही कार्य करना चाहिए, वही उसकी पैतृक सम्पत्ति है, जिसकी रक्षा करना उसका महान् कर्तव्य हो जाता है । मुझे तो इस विचारधारा के पीछे सिवाय दूसरों के अधिकार अपहरण की चिन्ता के और कोई तत्व दृष्टिगोचर नहीं होता। एक आचार्य ने जात-पात के सम्बन्ध में कितनी सुन्दर बात कही है “जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते।" जन्म लेते समय, जबकि चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार होता है, प्रत्येक मनुष्य की स्थिति शूद्र के समान होती है। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके अच्छे संस्कारों को अपनाता है, अपनी आत्मा को संयम और विवेक के प्रकाश से प्रदीप्त कर जीवन में सच्ची प्रगति करता है, तब वही मनुष्य द्विज बन जाता है । ____ मैंने आपसे कहा था कि अपने आपको छोटा और हीन समझना पाप है । मैं यह नहीं कहता कि नम्रभाव रखना पाप है या अपने को बड़ा समझ कर अहंकार का पोषण करना अच्छा है। परन्तु मैं भी आत्मा हूँ और अपने गुणों का विकास करके मैं भी अपने बन्धन को तोड़ सकता है, यह स्वाभि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको हीन समझना पाप है १५६ मान तो मनुष्य में होना ही चाहिए। यदि ऐसा स्वाभिमान आपके अन्दर जागृत न होगा, तो आप कभी भी अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, आत्म विकास नहीं कर सकते । नम्रता, सुशीलता, वाणी की मधुरता, आचरण की सत्यता आदि मानवीय गुण अपने आप में अधिकाधिक प्रस्फुटित करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए, तभी आप जीवन की सर्वोच्च परिणति प्राप्त कर सकेंगे। अपना उत्थान-पतन भी कुछ लोग ईश्वरीय सत्ता के अधीन मानते हैं । यदि ईश्वर को ही हमें उठाना होता, तो हमारी और आपकी आज यह स्थिति न होती, हम कभी के उठ गए होते। हम और आप तो तभी ऊपर उठ सकेंगे, जबकि हम स्वयं उठने का प्रयत्न करेंगे । जीवन में स्वयं जागरण प्राप्त करके अपने बन्धनों को तोड़ने के लिए परमुखापेक्षिता की, दूसरों की सहायता की उपेक्षा करके ईश्वर को भी एक ओर बैठे रहने के लिए बलपूर्वक यह कह सकेंगे “सखे ! मेरे बन्धन मत खोल! स्वयं बंधा हूँ, स्वयं खुलूंगा, तू न बीच में बोल !! यह जैन धर्म की विशेषता है, कि वह अपने बन्धनों का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लेता है और उनको तोड़ने का भी। वह प्रत्येक आत्मा को ईश्वर और भगवान मानता है । मनुष्य स्वयं ही अपना उत्थान और अभ्युदय कर सकता है। मनुष्य मात्र में महान् बनने की अपार शक्ति है। अखिल भारतीय हरिजन सम्मेलन, १९४५ आगरा awas Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत का राष्ट्रवाद आज मैं अपने श्रोताओं से उस सम्बन्ध में कुछ कहै, जो विचार मेरे सम्मुख प्रस्तुत किया गया है, और वह है-आधुनिक राष्ट्रीयता । किसी युग में व्यक्ति बड़ा था। वह अपने आपको बहुत ऊंचा समझता था। जीवन में केवल अपने लिए ही तैयारी करता था, इसके बाद कुछ आगे बढ़ा और परिवार के रूप में एक इकाई को लेकर बैठ गया । वह अपना ममत्व, अपना स्नेह और अपना सुख भूलकर परिवार के रूप में सोचने-समझने लगा। फिर और उत्क्रांति हुई। उसने आस-पास के हजारों परिवारों से सम्बन्ध जोड़ा। यह समाज का रूप बन गया। उसने विचार किया परिवार तथा समाज के सुख-दुःख अलग नहीं है। इस प्रकार व्यक्ति ने धीरे-धीरे समाज के साथ रोना और हंसना सीखा। वह समाज के आँसुओं के साथ आँसू बहाने लगा और मुस्कराहट के साथ वह भी मुस्कराने लगा इस तरह विकास करते-करते समाज बन गया। __ मानव जाति का विकास वहीं पर समाप्त नहीं हो गया। हजारों समाजों को मिलाकर एक राष्ट्र बनाने का विराट रूप मनुष्य के सामने खड़ा था। उसने समाज की किले बन्दी से निकल कर एक राष्ट्र के सम्बन्ध में सोचना प्रारम्भ किया और हजारों परिवार, हजारों समाज मिलकर ( १६० ) , Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत का राष्ट्रवाद १६१ राष्ट्र रूप में बन गए । समाज अपना अभ्युदय राष्ट्र के अभ्युदय में देखनेसोचने लगा। समाज का कल्याण, राष्ट्र के कल्याण के पीछे बंध गया। ___ अब विचारीय प्रश्न यह है कि यह राष्ट्र-वेदना हमारी अपनी है अथवा कहीं बाहर से हमारे अन्दर आ घुसी है ? यदि आप भारतवर्ष के इतिहास की कड़ियों को छूते रहे हैं, तो आपको मालूम होगा कि भारत के पुरातन मनीषियों ने हजारों-लाखों वर्षों से राष्ट्र के सम्बन्ध में चिन्तनमनन किया है। उनका राष्ट्र-प्रेम, राष्ट्र-भक्ति बहुत ही उच्च कोटि की थी। उन्होंने मानव-समाज को एक दिव्य सन्देश दिया था "संगच्छध्वम्, संवदध्वम्" मनुष्यों, साथ चलो, साथ बोलो! जीवन का आनन्द अकेले रूप में प्राप्त नहीं हो सकता। मानव तो क्या, भारत का तो ईश्वर भी अकेला नहीं रहा ? इस सम्बन्ध में, उपनिषदों में एक बड़ी सुन्दर भावना आई है "एकोऽहं बहु स्याम्" जब मैं एक से अनेक होता हूँ। भारत के एक महान दार्शनिक ने कहा है --"स एकाकी न रमते"उसका मन अकेले में नहीं लग रहा था। तो भारत का ईश्वर भी एक नहीं रह सकता, फिर वहाँ का निवासी मानव अकेला कैसे रह सकता है। इस एकाकीपन को मिटाने के निमित्त ही तो परिवार, समाज तथा राष्ट्र की रचना हुई है । भारत के धर्म तथा दर्शन तो प्राचीन काल से ही मनुष्य को एकत्व की भावना से उठाकर उसको विराट रूप का दर्शन कराते रहे हैं । अभिप्राय यह है कि भारत की पुरातन परम्परा क्षुद्र पिण्ड की बात नहीं करती, वह तो विराट रूप की ओर ले जाती है। एकत्व में अनेकत्व की साधना करती है । हजारों दवाईयों को कूट कर जब एक गोली बना ली गई, तब उसको अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का रूप मिला या नहीं? यहाँ हम हिन्दू और मुसलमान के रूप में रहते हैं । हिन्दुओं में भी जैन, बौद्ध, वैष्णव तथा सिक्ख अनेक भेद-प्रभेद हैं। मुसलमान भी सिया और सुन्नी के रूप में बँटा हुआ है । फिर राष्ट्रीयता का अधिवास किस में Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अमर भारती है, हिन्दु में या मुसलमान में ? मतलब यह है कि इस भिन्नता में भी भारत की राष्ट्रीयता एक रही है, अक्षुण्ण रही है ? भारत ने सुदूर अतीत में भी अनेक जातियों को प्रश्रय दिया है। भारत का इतिहास बतलाता है. कि एक दिन पारसी सुरक्षा की भावना से भारत माँ की गोद में आ छिपे । शक तथा हूण भी हम आप में ही घुल-मिल गये हैं। मुसलमान तो आज भी भारत की भूमि में सुख से रह रहे हैं। भारत में कोई विजेता बन कर आया, कोई व्यापारी के रूप में आया, कोई भेदिया बन कर आया, तो कोई धर्म प्रचारक का बाना पहनकर आया। शत्र, या मित्र जिस-किसी भी रूप में जब कोई विदेशी यहाँ आया, तो यहीं का बनकर रह गया। भारत की संस्कृति तो गंगाधारा के तुल्य है, जो जिस रूप में आया, सब को अपना बना लिया। सब के सब एक रंग में रंग गए । क्योंकि उस समर भारत की पाचन-शक्ति दुरुस्त थी। उसने सबको पचा लिया, हज्म कर लिया । आज हम उन जातियों का पृथक्करण करना चाहें, तो कर नहीं सकते ? पर, दुर्भाग्य है कि आज हमारी वह चिर-पोषित राष्ट्रीयता साम्प्रदायिकता की ज्वालाओं में झुलस रही है ? हमारी पाचन-शक्ति मन्द पड़ गई है । सर्व-मंगलमयी-भारतीय संस्कृति की धारा आज क्षीण-शरीरा दीख पड़ती है । फलतः भारत-अखण्ड भारत-पाक और हिन्द के रूप में बँट गया है। पतन का अवसान यहीं पर न समझिये । जाटिस्तान, सिक्खिस्तान और द्राविडस्तान का सिर दर्द करने वाला कोलाहल अभी शान्त नहीं हुआ है ? बंटवारे का फल हम देख चुके हैं। फिर भी हम बँटवारा चाहते है ? यह राष्ट्रीयता की महती विडम्बना है। आप देखते हैं कि संसार किधर वढ़ा चला जा रहा है ? चारों तरफ आग सुलग रही है। उसमें कभी कोरिया जल उठता है, कभी इन्डोनेशिया तो कभी हमारा पड़ोसी चीन जल उठता है, सारी दुनियाँ के भूकम्प से भारत कैसे बचेगा? आज' यदि भारत को संसार में जीवित रहना है, तो अन्दर की जातियता तथा साम्प्रदायिकता की भावना को नष्ट करके सब इकाइयों को मिलाकर राष्ट्रीयता की रक्षा करनी होगी। रोटी-कपड़े का भी प्रश्न बड़ा पेचीदा है । आर्थिक विषमता भी हमारी राष्ट्रीयता के विकास में अन्तराय बन रही है। इस उलझन को बिना सुलझाये सवाल हल न होगा । जिनको रोटी मिल रही है, उनको तो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत का राष्ट्रवाद १६३ मिलती रहे और जिनके पास रोटी नहीं है, उनका प्रबन्ध करना होगा । एक तरफ रंगीन महल है, दूसरी तरफ टूटी-फूटी झोंपड़ी । दोनों का सामं जस्य होना चाहिए । या तो झोंपड़ियों को महल बनाना होगा या फिर महलों को झोंपड़ियों के रूप में आना पड़ेगा । तभी विषमता दूर होगी । भारत के विचारकों से जब कभी इस सम्बन्ध में विचार चर्चा होती है, तो मालूम होता है, कि उनके पास कोई मौलिक समाधान नहीं है ? इधर का उधर करने से क्या होना-जाना है ? इस बारे में मुझे अन्धों की एक बड़ी सुन्दर कल्पना याद आ रही है - किसी सज्जन ने दस अन्धों को भोजन कराने की व्यवस्था की । थाली में भोजन लाया गया । एक अन्धे के सम्मुख थाली रखी और कहा - क्यों सूरदास जी, भोजन आ गया है न ? उसने इधर-उधर टटोल कर कहा - हाँ, आ गया है । यही थाली फिर दशों के पास फिर गई । और अन्त में यह थाली जहाँ की तहाँ पहुँच गई । घर मालिक ने कहा कि अब आप भोजन कीजिये। हाथ चला तो थाली गायब ? अन्धे एक दूसरे पर अविश्वास करने लगे । यहाँ तक कि जब उन लोगों में परस्पर मुक्केबाजी होने लगी, तो घर के मालिक ने कहा - "तुम सब के सब नालायक हो । मेरे घर से निकलो ।" सब के सब हाथ मलते लौटे । अन्धों की थाली के हेर-फेर की तरह समाज तथा राष्ट्र की आर्थिक समस्या हल होने वाली नहीं है ? व्यापारी की थाली मजदूर के आगे, मजदूर की किसान के आगे और फिर किसान की बुद्धि-जीवी शिक्षक के आगे सरकाने से काम न चलेगा । सब के पेट की आग को शान्त करने से ही राष्ट्र सुखी बन सकेगा । और यह महत्वपूर्ण कार्य सरकार तथा जनता के सहयोग से ही पूरा होगा । एक युग था - जब राजा, राजा था और प्रजा, केवल प्रजा । हजारों-लाखों वर्षो तक ऐसो हुकूमत रही है, जिसमें राजा, राजा के रूप में तथा प्रजा, प्रजा के रूप में परिसीमित थी । वैसा युग अब नहीं रहा । लोग कहते हैं कि भारत में अब प्रजातन्त्र आ गया है। पर, मैं यह कहता कि भारत के लिए यह कोई नयी वस्तु नहीं है । भगवान महावीर के युग भी प्रजातन्त्र था । वे भी वैशाली प्रजातन्त्र के राजकुमार थे । आज सरकार और प्रजा के बीच दीवार - सी खड़ी हो गई है । वह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अमर भारती अब नहीं रहनी चाहिए । प्रजातन्त्र का मतलब है - राजा तथा प्रजा के मध्य में जो भेद की दीवारें हैं, उनको तोड़ देना । वर्तमान में राष्ट्रपति भी प्रजा है और नेहरू, पटेल भी प्रजा हैं तथा प्रजा भी राजा है। सरकार को प्रजा के हित में और प्रजा को सरकार के हित में सोचना-समझना है । एक-दूसरे के साथ चलना है । दोनों हाथ धोने हैं, तो एक अकेला हाथ • अपने आप को नहीं धो सकता । दोनों का सहयोग आवश्यक हो जाता है । इसी प्रकार प्रजा की समस्या सरकार को, सरकार की कठिनता प्रजा को हल करनी है । आज तो प्रजा सरकार की आलोचना कर रही है तथा सरकार प्रजा की । घर के चौधरी की अपेक्षा पंचायत के चौधरी की मुसीबत बढ़ जाती है । आप विचार कीजिए, यदि आप में से कोई नेहरू तथा पटेल की गद्दी पर होते, तो आप के समक्ष क्या परिस्थिति बनती ? एक बात और है कि भारत का निर्माण पश्चिमी संस्कृति से होने वाला नहीं है, भारत का उद्धार उन्हीं पुराने आदर्श तथा प्राचीन तेजस्वी विचारों से हो सकेगा । भारत के पवित्र हृदय में पाश्चात्य संस्कृति के बीज नहीं पनप सकते । क्या भारत के पास एक-दूसरे के सुख-दुःख को समझने की शक्ति नहीं है ? क्या भारत को अपनी रोटी तलाश करने का ढंग नहीं आता ? क्या भारत में अपना मकान अपने ढंग से खड़ा करने की कला नहीं है ? क्या हम भाई को भाई समझने की शिक्षा कहीं बाहर से लाएँगे ? यह कला तो हमें अपने पुराने ऋषियों से हजारों वर्षों से मिली है । राम और कृष्ण, महावीर और बुद्ध तथा गाँधी ने हमें यही शिक्षा दी है, बही कला सिखलाई है । आज हम उस दिव्य कला को पाश्चात्य संस्कृति की आपाततो रमणीय चकाचौंध में गुमा बैठे हैं । बड़े खेद की बात है, कि बीसवीं सदी का भारत अपने गौरवपूर्ण प्राचीन इतिहास को भूल बैठा है । भारत के तेजस्वी सम्राट विक्रमादित्य के जीवन को क्या आप भूल गए हैं ? जब सम्राट विक्रमादित्य राज सभा में आते, तब हीरा- मणिक्य खचित सुवर्ण सिंहासन पर विराजित होते थे । ऐसा मालूम होता था कि साक्षात् इन्द्र ही स्वर्ग से उतर कर आ विराजा है ? किन्तु उनका व्यक्तिगत जीवन इससे भिन्न था। भारत के विदेशी राजदूत जब व्यक्तिगत बानघीत के समय सम्राट् को तृण निर्मित चटाई पर बैठा देखते, तब विस्मय में पड़ जाते थे । जब कोई पूछता कि आप सम्राट् होकर भी इस चटाई पर क्यों बैठते हैं, तब सम्राट् मुस्करा कर उत्तर देते - यह . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत का राष्ट्रवाद १६५ भारतवर्ष है। यहां का राजा, राजा भी है और प्रजा भी । यह मेरा व्यक्तिगत सिंहासन है और वह मेरी प्रजा का ? प्रजा का कार्य करता है, तभी उस स्वर्ण सिंहासन पर बैठाता हूँ। यह है, भारत का उज्ज्वल राष्ट्रवाद । सम्राट चन्द्रगुप्त का राज-गुरु और अखण्ड भारत का प्रधानमन्त्री आर्य चाणक्य सुनहरी महलों में नहीं, पर्ण कुटी में निवास करता था। रिक्त समय में छात्रों को ज्ञान-दान भी करता था। यह है, भारत का पुरातन प्रजातन्त्र । यह है, भारत की प्राचीन आदर्शमयी राष्ट्रीयता। आज हम फिर भारत में इसी राष्ट्रीयता को देखना चाहते हैं, लाना चाहते हैं । देश क्या है ? और राष्ट्र क्या है ? इस सम्बन्ध में तो सारी जिन्दगी सोचना पड़ेगा। एक दिन और एक घड़ी का सोचा हआ, कुछ काम नहीं आता । सोते और जगते, चलते और बैठते तथा खाते और पीते जैसे मनुष्य अपने व्यक्तित्व को संभाले रखता है, उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन में भी अपना व्यक्तित्व घुल-मिल जाना चाहिए। जैसे मनुव्य अपने व्यक्तित्व की रक्षा करता हैं, उसी भाव से, उसी लगन से राष्ट्र के व्यक्तित्व की रक्षा करना सीखें, तभी राष्ट्र का अभ्युदय सम्भव है ? __स्वामो रामतीर्थ ने लिखा है, कि जब मैं जापान गया था, तब वहां मैंने एक बड़ी सुन्दर घटना देखी। जिस जहाज में, मैं यात्रा कर रहा था, उसी में कुछ हिन्दुस्तानी भी यात्रा कर रहे थे, वे हिन्दू थे। जब उन्हें अपनी विधि के अनुसार निरामिष भोजन नहीं मिला, तब वे लोग जापान तथा उस जहाज के संचालकों की निन्दा करने लगे । पास में बैठा एक तरुण यह सब कुछ सुन रहा था। वह उठा और थोड़ी देर में कुछ फल लाकर हिन्दुस्तानियों को देकर बोला-लीजिए, आपका भोजन तैयार है । हिन्दू सज्जन बोले-बड़ी कृपा की आपने ? इनके पैसे ले लीजिए। उस तरुण ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा- आपकी कृपा है। मुझे पैसों की चिन्ता नहीं है । इसके बदले में, मैं आप लोगों से यह मांगता हूँ कि हिन्दुस्तान में या अन्यत्र कहीं भी जाकर इन शब्दों का प्रयोग न करें-"हमें जापानी जहाज में बड़ी असुविधा रही, भोजन भी नहीं मिला।" प्रिय बन्धुओं ! यह है, राष्ट्रीयता । भारत को आज इसी प्रकार की राष्ट्रीयता की आवश्यकता है। देश का सम्मान, राष्ट्र का गौरव हमारा अपना सम्मान और गौरव बन जाना चाहिए। मजदूर अपने लिए नहीं, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अमर भारती राष्ट्र के लिए काम करें । व्यापारी अपने पेट के लिए नहीं, राष्ट्र के लिए धन जुटाएँ । शिक्षक अपने पेट के लिए नहीं, राष्ट्र कल्याण के लिए शिक्षादीक्षा दें । भारत के प्रत्येक नागरिक की हरेक हरकत जब राष्ट्र के उत्थान के लिए, अभ्युदय के लिए होगी, तभी भारत बलवान बन सकेगा, ऊँचा उठ सकेगा । इस प्रकार की भावना जिस किसी राष्ट्र में होती है, वहाँ की प्रजा और राजा दोनों सुखी रहते हैं, समृद्ध बन जाते हैं । १५ अगस्त, १९५० राष्ट्र स्वतन्त्रता पर्व: ब्यावर, राजस्थान TW Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ जनतन्त्र दिवस आज यहाँ पर आचार्यश्री गणेशीलालजी महाराज का पदार्पण हुआ है, यह आपके तथा हमारे लिए परम हर्ष का विषय है । हृदय के इसी उत्साह और उमंग को लेकर आप लोग यहाँ एकत्रित हुए हो । आचार्यश्री की पावन प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर भूमिका के रूप में कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ । आज का विषय विचारणीय है । मैंने सूचना पट पर दृष्टिपात किया था, जिस पर लिखा हुआ था - 'जनतन्त्रोत्सव' । शर्माजी तथा गजेन्द्र बाबू ने अभी-अभी आप लोगों के सामने हृतंत्री से राष्ट्रीय गान की तान सुनाकर इस भावना को मूर्तरूप दिया था । आज हम सब 'जनतन्त्र दिवस मना' रहे है । किन्तु सर्वप्रथम इस बात का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण करना है, कि हमारा मन बदला है या नहीं ? हमारी चेतना में उल्लास एवं स्फूर्ति आई है या नहीं ? यह बात किसी और से नहीं, अपने मन से पूछें, अन्तस्तल में पैठ कर देखो कि 'जनतन्त्र दिवस' पर हमारी मानसिक वृत्तियों में कितना परिवर्तन हुआ है ? हमारा मानसिक धरातल बदला है या नहीं ? हमारे जीवन की धारा पहले किस दिशा में प्रवाहित हो रही है ? सर्वतोमुखी विकास करने के लिए हमें आगे किस ओर कदम बढ़ाना है ? 'जनतन्त्र दिवस' पर हमारे ऊपर ( १६७ ) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अमर- भारती कितना उत्तरदायित्व आ गया है ? और उसकी पूर्ति के लिए हमारा क्या कर्तव्य है ? उपर्युक्त उलझनों का सिरा पाने के लिए भारतीय संस्कृति का एक दिव्य सन्देश हमारी ओर अंगुली -निर्देश कर रहा है । वह यह - ' अपने आप मैं सीमित न रहो' । आज हमारे जीवन की गतिविधि यह हो गई है, कि हम प्रत्येक दिशा में अपने को अपने आप में ही मीमित कर लेते हैं । आज का मनुष्य अपने विषय में ही सोचता है । खाना-पीना, सुख-सुविधा आदि समस्त कार्य केवल अपने लिए ही करता है । किन्तु भारत की चेतना भारत का स्वभाव इससे सर्वथा विपरीत रहा है। उसने कभी भी अपने लिए नहीं सोचा है । उसका सुख अपना सुख नहीं रहा है और न ही उसका दुख भी अपना दुःख रहा है । भारत सदैव प्राणीमात्र के जीवन को अपने साथ लेकर गति करता रहा है । इसने न कभी अपनी पीड़ा से आर्त होकर आंसू छलकाए हैं और न ही सुख में भान भूलकर कह कहा लगाया है । हां, दूसरे को कांटा चुभने पर इसने अपने अश्रु-कणों से उसके दुःख को धोकर हलका करने का सत्य प्रयत्न अवश्य किया है । जैन धर्म से हमारा निकटतम सम्बन्ध है । जीवन के प्रभात से हम उसकी गोद में खेले और पले हैं । जब हम जैन-धर्म का तलस्पर्शी अध्ययन करते हैं, तो इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि वह अपने जीवन में प्रत्येक प्राणी का- - फिर चाहे क्षुद्र चींटी से लेकर विशालकाय गजेन्द्र तक क्यों न हो, सुख दुःख लिए हुए हैं। प्राणीमात्र का दुःख के गहन गर्त से निकलना उसका परम एवं चरम कर्तव्य रहा है । दूसरे को दुःखार्त देखते ही उसका अन्तःकरण सिहर उठता है । वह अपना आनन्द, अपना सुख अपनी चेतना, अपना अनुभव, किंबहुना - अपनी सम्पूर्ण शक्ति विश्वजनीनता के लिए अर्पण करने को सदैव सन्नद्ध रहा है । इसकी चेतना की धारा अजस्र, अखण्ड रूप से प्रवाहमान रही है । गजेन्द्र बाबू ने कहा था " आज इतिहास गुण गा रहा है हमारा" किन्तु विचार करना है, कि क्या लक्ष्मी वैभव के कारण इतिहास हमारा गुणगान कर रहा है ? या तलवार की पैनी धार से शत्रुओं के सिर धड़ से अलग करने के कारण ? अथवा ऊँचे-ऊंचे प्लेटफार्मों पर ओजस्वी भाषण (speech) देने के कारण ? नहीं, कदापि नहीं । हमारा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनतन्त्र दिवस १६६ गुण-गान इसलिए हो रहा है कि भारत की जो चेतना, जो संस्कृति है, वह व्यष्टि न होकर समष्टि की रही है । समष्टि के सुख में ही उसने अपना सुख माना है । उसी हार्दिक विराटता के कारण आज इतिहास हमारा गुण गा रहा है । भगवान महावीर के युग में जनता के मन में एक दार्शनिक प्रश्न उलझा हुआ था, कि 'पाप कहाँ बँधता है और कहाँ नहीं ?" इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने के लिए न मालूम कितने दार्शनिक मस्तिष्क की दौड़ लगा रहे थे । किन्तु भगवान महावीर की जन-कल्याणी वाणी ने जनता के हृदयकपाट खोल दिये । उन्होंने बतलाया कि इस प्रश्न का समाधान अन्तर्मुख होने से मिल सकता है । जब मानव व्यष्टि के चक्कर में फँस कर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करता है, अपनी आवश्यकताओं को ही सर्वाधिक महत्व देता है, अपने ही सुख-दुःख के विषय में विचार करता है, तो वह पाप कर्म का उपार्जन करता है, किन्तु जब उसकी चेतना व्यष्टि की ओर से समष्टि को ओर प्रवाहित होती है, जब वह अपने वैयक्तिक स्वार्थों से ऊपर उठकर विश्व कल्याण की सद्भावना से प्रेरित होकर विशुद्ध प्रवृत्ति करता है, तो वह विश्व में शान्ति का साम्राज्य स्थापित करता है, फलतः पाप कर्म में लिप्त नहीं होता । वह दिव्य वाणी आज भी भारत के मैदान में गूंज रही है सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ । पिहिआसव्वस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ ॥ अपने अन्तहृदय को टटोलकर देखो कि आप विश्व के प्रत्येक प्राणी को आत्मवत् समझते हो या नहीं ? यदि आप प्राणीमात्र को आत्ममयी दृष्टि से देखते हो, उन्हें कष्ट पहुँचाने का विचार नहीं रखते हो, उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझते हो, तो तुम्हें पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा । पापों का प्रवाह प्राणियों को दुःख देने में आता है, दुःख मिटाने से नहीं । अतः ज्यों-ज्यों हमारे अन्दर समाज, राष्ट्र और विश्व की विराट चेतना पनपती जाती है, त्यों-त्यों पाप का बन्ध भी न्यून - न्यूनतर होता जाता है । जब हम वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से ऊपर उठकर जागतिक चेतना से उत्प्रेरित होकर अखिल विश्व को अपना बना लेते हैं, उसके सुख-दुःख में अपनेपन की अनुभूति करते हैं, तब हमारा पापास्रव का द्वार बन्द हो जाता है । अतः हमें अपने अन्दर ही सीमित नहीं होना है, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अमर-भारतो प्रत्युत हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति विश्व हित के लिए होनी चाहिए तथा उसका प्रकाश प्राणीमात्र को मिलना चाहिए। आज के दिन हमें यही शुभ-पाठ सीखना है। हिंसा और अहिंसा का विश्लेषण एवं उसकी विविध परिभाषाएँ किया करते हैं । किन्तु संक्षेप में हिंसा और अहिंसा का निचोड़ करना चाहें, तो यह कर सकते हैं-"जो व्यक्ति अपने ही सुख-दुःख में घुलता रहता है, अपने निजी स्वार्थों से चिपटा रहता है, वह हिंसा करता है और जो व्यक्ति 'स्व' की सीमा का अतिक्रमण कर दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार बनता है, दूसरे के आँसुओं को पोंछकर उनके निराश एवं हताश हृदयों में आशा का मधुर संचार करता है, वह अहिंसा का पुजारी है।" आज हमारी वाणी में बल नहीं है, प्रवृत्तियाँ शिथिल हैं, चेतना सुषुप्त है। इसका मूल कारण यही है कि हम अपने आप में सीमित हो रहे हैं। तात्विक दृष्टि से यही हिंसा है, पाप है। अहिंसा के महान कलाकार विश्व-हितंकर भगवान महावीर ने अपने एक प्रवचन में विश्व को यह प्राणप्रद संदेश दिया "असंविभागी न ह तस्स मुक्खो" "जो व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का, अपनी शक्ति का संविभाग नहीं करता-केवल अपने लिए ही उसका उपयोग करता है, वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । चाहे ऊपर से वह कितना ही क्रियाकाण्ड करता रहे, अपने को सम्यक्त्व का अधिकारी मानता रहे । जब तक सामाजिक एवं जागतिक चेतना की ओर जीवन-धारा प्रवाहित नहीं होगो, प्राणीमात्र को आत्मवत् समझकर उसके संविभाग की मौलिक भावना जागृत नहीं होगी, तब तक मोक्ष प्राप्ति असम्भव है।" यह जैन धर्म का सार्वजनिक मूल सूत्र है। इसी तरह का प्राण संचारक उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के घोड़ों की बागडोर संभाले हुए कृष्ण ने गीता में दिया है। आप लोगों ने भी उसका परिशीलन किया होगा। परन्तु चिन्तन एवं मनन न होने के कारण सम्भव है, वह विश्व चेतनामय उपदेश आपकी बुद्धि पर अंकित न हो सका हो । अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कृष्ण कहते हैं __ "भुङ क्ते ते त्वचं पापा, ये पचन्त्यात्मकारणात् ।" जो व्यक्ति अपने लिए रोटी पकाता है, वह रोटी नहीं, पाप पकाता Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनतन्त्र दिवस १७१ है । जो केवल अपने आप ही वस्त्र पहनता है, वह वस्त्र नहीं, पाप पहनता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने लिए ही सुख-सुविधा की सामग्री जुटाने में व्यस्त रहता है, वह सुख - सामग्री एकत्रित नहीं करता, किन्तु पाप बटोरता है । सहस्रों वर्षों से इतना मौलिक उपदेश मिलते हुए भी हमारा जीवन तदनुरूप नहीं बन पाया, इसका मुख्य कारण यही है, कि हम शास्त्रों का केवल शुक-पाठ करना ही सीखे हैं, इसी में धर्म मान बैठे हैं । किन्तु कार्य तो चिन्तन तथा मनन करने पर ही होगा । जब तक हम शास्त्रों का गहम चिन्तन करके उन्हें जीवन का स्थायी अंग नहीं बनायेंगे, तब तक समाज का, राष्ट्र का एवं विश्व का उत्थान नहीं हो सकता और इनका उत्थान हुए बिना हमारे जीवन का उत्थान होना भी सुतरां असम्भव है, क्योंकि इनके साथ हमारा जीवन-सूत्र अटूट रूप से सम्बन्धित है । भारत सदा कार्य करना सीखा है, बातें बनाना नहीं । उसने दोषमयी दृष्टि से दूसरे की ओर आँख उठाकर देखने का कभी प्रयास नहीं किया है । दूसरा यदि मोह-निद्रा में सोया पड़ा है तो "संबुज्झह किं न बुज्झह" तथा "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" आदि मधुर-मधुर एवं जीवन स्पर्शी, वचनों द्वारा जागरित करना तो उसका परम कर्तव्य रहा है किन्तु निन्दा तथा आलोचना करना उसकी मनोवृत्ति के प्रतिकूल रहा है । इस दिशा में वह केवल अपनी ओर देखता है तथा अपने ही जीवन का निरीक्षण-परीक्षण करता है । किन्तु आज हम समाज तथा राष्ट्र की कटु आलोचना तो कर देते हैं, टीका-टिप्पणी करने के लिए लम्बे भाषण भी दे सकते हैं, परन्तु जब कार्य करने का समय आता है, तब दायें-बायें झाँकने लगते हैं । बातें बनाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं और कार्य करने की आशा हम दूसरों से रखते हैं । इसी भावना के पीछे हमारे पतन के बीज छिपे हैं । यदि हमें अहिंसा का दिब्य सन्देश विश्व को देना है, तो उसकी भूमिका अपने जीवन से ही प्रारम्भ करनी होगी। जीवन में उदारता का प्रसार करने के लिए हृदय को विशाल और विराट बनाना होगा, दूसरे की आशा न रखते हुए प्रत्येक सत्कार्य अपने बाहुबल से करना होगा । किन्तु आज हम एक-दूसरे की दुरालोचना करने में जीवन के अमूल्य क्षण नष्ट कर रहे हैं। मुझे अपनी आँखों देखी घटना याद आ रही है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अमर भारतो एक बार हम विहार करते हुए जा रहे थे। सड़क के बीच में एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा हुआ था। कितने ही यात्री आए और दष्टिपात करते हुए आगे निकल गए । इतने में एक बैलगाड़ी आई । गाड़ी का पहिया पत्थर से टकराने पर गाड़ीवान भी 'किस शैतान ने सड़क के बीच में पत्थर डाल दिया है' आदि गालियां सुनाता हुआ आगे निकल गया, किन्तु उससे इतना नहीं हो सका कि उस रास्ते के रोड़े को अलग कर दे। यह एक छोटी-सी घटना है। इस प्रकार की घटनाएँ हमारे दैनिक जीवन में न जाने कितनी बार घटती हैं। हमारी जीवन गाड़ी के सामने बहुत से रोड़े आते हैं । हम उनकी आलोचना करते हुए चले जाते हैं, किन्तु उन्हें दूर करने का तनिक भी प्रयास नहीं करते । आज समाज में अछूत, जातिभेद, साम्प्रदायिकता आदि कई रोड़े जड़ जमाये हुए हैं, किन्तु हमारे अन्दर उन्हें उखाड़ फेंकने की भावना ही जागृत नहीं होती। ___ मैं आचार्य जिनदास महत्तर की वाणी का मनन कर रहा था। वह पद-पद पर रत्न और जवाहरात बिखेरते हुए चले गए हैं। एक जगह उन्होंने कहा है "संतं वीरियं न निगृहितध्वं, संते वीरिए न आणाइयव्वो" ___ यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति है, प्रकाश है, तो उसे छुपाने का प्रयत्न मत करो । अपनी शक्ति का गोपन करना एक भयंकर सामाजिक पाप है। चाहे हम जिनदास की वाणी का अध्ययन करें अथवा भगवान् महावीर की वाणी का पैनी दृष्टि से अनुशीलन करें, सबके मूल में यह दिव्य सन्देश रहा हुआ है। आज जनतन्त्र दिवस है। आज हमें अपने जीवन को राष्ट्र का, प्राणी-प्राणी का जीवन बनाना है। हमें इस ढंग से कार्य करना है, जिससे हमारे जीवन को, हमारे कार्य को, हमारी भाषा को देखते ही विश्व के प्रत्येक कोने का मानव कह उठे-“यह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र जनतन्त्र भारत का सच्चा नागरिक है" ऐसे जनतन्त्र को ही हम सच्चा जनतन्त्र कह सकते हैं। जैन भवन लोहामण्डी आगरा २६ जनवरी १९५० OSOS Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य-बोध पहले अपने को और फिर दूसरों को देखो दूसरों के दोषों को देखना, जितना सरल है, अपने आत्म-स्थित को देख सकना, उतना ही कठिन है । मनुष्य अपने ही गज से जब अपने आपको नापता है, अपनी ही विचार-तुला से जब अपने आपको तोलने बैठता है और अपने ही दृष्टिकोण से जब अपने आपको परखता है, तब निःसन्देह वह अपने को ज्ञानी, विवेकी और अनुभवी समझने लगता है। उसने अपने संबंध में जो कल्पना करली है, एक मानसिक चित्र तैयार कर लिया है, उसके विपरीत जब कोई मनुष्य विचार करता है, बोलता है अथवा प्रवृत्ति करता है, तब वह उसे अपना विरोधी, वैरी और घातक घोषित कर देता है। उसके सम्बन्ध में जन-जन के मानस में द्वष, घृणा और नफरत फैलाता फिरता है। उसे निन्दक और आलोचक कहता है। - वस्तुतः वह स्वयं ही अपना बैरी है, विरोधी है और है अपना परम शत्रु । अपनी योग्यता से अधिक अपने को समझना, अपने दोषों को भूलकर, अपने अवगुणों को भी गुण समझने की भूल करना-यही है, पतन का पथ । एक विचारक ने अपनी पुस्तक में लिखा है-"प्रत्येक कार्य में छोटीछोटी भूलों का भी पता पा लेना सफल जीवन का और साधक जीवन का Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अमर भारती परमोच्च रहस्य है।" जिस ढंग से व्यवसायी अपनी रोकड़ मिलाता है, उसी ढंग से ही साधक को भी अपने जीवन का हिसाब-किताब साफ रखना है। एक पैसे की भूल से भी रोकड़ गड़बड़ा जाती है, उसी प्रकार एक भी त्रुटि से भले ही नगण्य भी क्यों न हो-साधक का धवल-जीवन धूमिल एवं मलिन बन जाता है। संस्कृत भाषा में एक शब्द है-"दोषज्ञ ।" सामान्यतः इसका अर्थ होता है दोषों को जानने वाला । विशेषतः इसका अर्थ होता है-"पंडित ।" एक आचार्य ने कहा है-"मनुष्येण दोषज्ञेन भवितव्यम् ।" मनुष्य को दोषदर्शी होना चाहिए । दोष देखना. पण्डित का लक्षण है । जो भूल देख सकता है, भूल पकड़ सकता है, वही सच्चा पण्डित है । __ पर, प्रश्न उपस्थित होता है कि दोष किसके देखें ? अपने या पराये ? पराये दोष देखते-देखते ही अनन्त-काल हो गया, परन्तु आत्मा का क्या सधा उससे ? अतः फलित हुआ कि अपने दोषों को देखो, उन्हें उसी क्रूरता से पकड़ो, जितनी क्रूरता से दूसरों के दोषों को पकड़ते हो। जिसने अपने को पकड़ा, अपनी चोरी पकड़ी, वही सच्चा पण्डित है, वही सच्चा साहकार है। अपने स्वभाव, अपने विचार और अपने व्यवहार की परीक्षा करने से मनुष्य को अपनी बहुत-सी कमजोरियों का पता चल जाता है। दूसरों को दूषण देने की अपेक्षा अपने को ही परखना सीखना चाहिए, यही जीवन की यथार्थ कला है । भगवान् महावीर ने अपने साधकों को सावधान करते हुए कहा "जाए सद्धाए निक्खंता तामेव अनुपालिया।" साधको ! जिस श्रद्धा से, जिस विश्वास से और जिस मजबूती से तुमने साधना के महामार्ग पर अपना पहला कदम रखा है, उसी श्रद्धा से, उसी विश्वास से और उसो मजबूती से जीवन की सन्ध्या तक निरन्तर चलते रहो । अपनी गति को यति देना, तो दुर्बलता नहीं है, परन्तु पथ से स्खलित हो जाना, विचलित हो जाना, अवश्य तुम्हारे लिए कलंक है, दूषण है, दोष है । और दोषमय जीवन साधक के लिए विष है, मृत्यु है । उसका जीवन तो दोष विवजित होना चाहिए । ___ संसार को दोष देने के पूर्व साधक पहले अपनी ओर देखले कि कहीं दोष का बीज स्वयं उसी में तो नहीं है ? जो साधक संसार को प्रकाश देने Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य-बोध १७५ चला है, पहले उसे अपना भी अवलोकन कर लेना चाहिए कि कहीं उसी के हृदय-सदन में तो अन्धेरा नहीं है । जो दूसरों का पथ-प्रदर्शक बनकर निकला है, कहीं वही तो उन्मार्ग पर नहीं चल पड़ा है ? साधक को इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए, कि जो विकार उसे बाहर दीख रहा है, उसका मूल कहीं उसी के भीतर तो नहीं है न ? साधक यदि अपने आप में सावधान होकर चलता है, जागरूक होकर अपने पथ पर बढ़ रहा है, तो फिर संसार कुछ भी क्यों न कहे ? उसे भय क्या हो ? यदि अभिभावक, माता-पिता और गुरुजन यह कहते हैं कि आजकल के शिष्य, आज-काल के पुत्र पूर्व काल के शिष्य और पुत्रों की भांति गुरुभक्त नहीं हैं, माता-पिता के अनुशासन को नहीं स्वीकार करते, तो उन्हें यह भी देखना चाहिए कि कहीं उनमें स्वयं गुरुत्व का अभाव तो नहीं है ? यदि किसी अभिभावक में अभिभावकत्व नहीं है, तो फिर उसका सत्कार, सम्मान और पूजा का स्वप्न देखना भी व्यर्थ है। भूख लगने से ही किसी को भोजन नहीं मिलता । प्रत्येक अभिलाषा की पूर्ति त्याग और श्रम साध्य होती है। किसी भूले राही को उसके पर का बोध कराना एक बात है और उसे अपने पुराने वैर का शिकार बनाना बिल्कुल अलग है। चीन देश के प्राचीन दार्शनिक कनफ्यूशन ने कहा है-"वही श्रेष्ठ राष्ट्र है - जिसमें राजा अपना, प्रजा अपना, पिता और पुत्र अपना, माता और पुत्री अपना तथा गुरु और शिष्य अपना कर्तव्य निष्ठा के साथ पूरा करते हैं।" वस्तुतः बात बहुत ही ऊँची कही गई है । सब अपने कर्तव्य को समझकर उसके अनुसार आचरण करें। मर्यादा का अतिक्रमण अपने लिए ही अकल्याणकर होता है । जो स्वयं अपने आचरण को मर्यादित नहीं कर सकता, वह दूसरों को अनुशासन में कैसे रख सकेगा? अतः आत्म-शासन सहज नहीं है, अपने पर अधिकार दुष्कर है । थोड़ा-सा अधिकार पाते ही मनुष्य आपे से बाहर हो जाता है । शक्ति के उन्माद में अपना कर्तव्य भूल जाता है। नीति-शास्त्र के धुरन्धर विद्वान आचार्य शुक्र के शब्दों में"अधिकार मद को चिरकाल तक पीकर कौन नहीं मोहित होता ?" अधिकार-मदं पीत्वा को न मुह्यात् पुनश्चिरम् ? भगवान महावीर ने साधकों को शिक्षा देते हुए कहा-"प्रत्येक साधक को प्रतिदिन अपने आप से ये तीन प्रश्न करने चाहिए और अपनी अन्तरात्मा से उत्तर लेना चाहिए Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अमर भारती "किं मे कडं, किंच मे किच्च सेसं, कि सक्कणिज्जं न समायरामि ॥" मैंने अपने कर्तव्य-कर्मों में से क्या-क्या कर लिया है ? अब, क्या करना शेष रह गया है ? और वह कौन-सा कर्तव्य है ? जो मेरी शक्ति की परिधि में होकर भी अभी तक मेरे से बन नहीं सका है ? पयुषण-पर्व के इन महत्ब-पूर्ण तथा सौभाग्य-भरित दिवसों में श्रमण और श्रमणी तथा श्रावक और श्राविका अपनी आत्मा के चिरपोषित विकारों को चुनकर बाहर निकाल सके और अपने कर्तव्य-कर्मों में स्थिर होकर निष्ठापूर्वक अपना-अपना भाग अदा कर सकें, तो अवश्य ही वे अपनी सुप्त आत्मा को जागृत करने के प्रयत्न में सफल होंगे। दूसरों के दोष न देख कर, यदि हम अपने ही दोष देखना सीख लें, तो आज तक का हमारा दूषण ही भूषण बन सकता है । जीवन की गति और यति में समन्वय सध सकता है। मानपाड़ा स्थानक, १०-८-५० आगरा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ___ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ “भिक्षा कानून और साधु-समाज " जैन धर्म नम्रता सिखाता है, दीनता नहीं । वह एक बहुत बड़ा त्याग का आदर्श स्थापित करता है। त्याग जैन धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है । लोक में एक कहावत है "अनमिली के त्यागी, स्त्री मरी भयं वैरागी ।" जैन धर्म इस बात को स्वीकार नहीं करता । वह तो त्याग की अन्तरंग से प्रेरणा देता है । वह मानव को जीवन जीना सिखाता है, भिखमंगापन नहीं । मन में त्याग की भावना न हो और ऊपर से त्यागी बना रहना इस बात को जैन धर्म कदापि बर्दास्त नहीं कर सकता । वह जीवन को तेजस्वी बनाता है, निस्तेज और प्राणहीन नहीं । हजारों वर्ष की दासता के बाद आज भारत स्वतन्त्र हो चुका है । भारत की धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति तेजी से बदल रही है । फलतः स्वतन्त्र भारत में भिक्षावृत्ति को मिटाने के लिए बड़ी दौड़-धूप चल रही है । बम्बई में, यह कानून लागू भी हो चुका है । इसके विरोध में साधु समाज में बड़ी हलचल मची हुई है । भविष्य में हमारा क्या होगा ? जीवन की इस भावी चिन्ता में साधु समाज आकुलव्याकुल- सा हो रहा है । समाज इस चिन्ता को दूर करने के लिए धन एक ( १७६ ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अमर भारती त्रित कर रहा है। वकील-वैरिस्टरों का मह थैलियों से भर कर वह यह कहलाना चाहता है कि उक्त कानून जैन साधुओं पर लागू नहीं होता। । परन्तु मेरा मन इस से दूर, बहुत दूर है । वह इस चीज का विरोध करता है । हमें अपनी समस्या को स्वयं सुलझाना है। साधु-समाज को अपना प्रश्न अपने आप हल करना है। आज का जैन साधु पर्दे की रानी बन चुका है। उस पर्दे की रक्षा के लिए समाज ढाल बन कर आगे बढ़ता है। किन्तु रक्षा का यह ढंग कभी भी सफल नहीं हो सकता। अपने भोजन और वस्त्र की समस्या को साधु समाज' स्वयं अपने ढंग से और अपने बलबूते से सुलझायेगा । आज से नहीं हजारों वर्षों से वह अपने तेज और पराक्रम से जीवित रहा है। उसका भिक्षा का पात्र बन्द नहीं हो सकता । यदि उसमें दम है, तो सरकार उसे भिक्षा से रोक नहीं सकती। __ महान विज्ञान-राशि आचार्य हरिभद्र ने भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई है । करुणा, सर्वसम्पत्करी और पौरुषघ्नी, दीन दुःखी, अंग-प्रत्यंग हीन, अनाथ और जिनका जीवन संकटग्रस्त हो, ऐसे व्यक्तियों को भिक्षा देना, उनको सेवा करना समाज का अपना कर्तव्य है। यह दान, यह भिक्षा कारुण भिक्षा कहलाती है। ऐसी भिक्षा देना समाज का कर्तव्य होना चाहिए। जो भिक्षा पूज्य बुद्धि से, श्रद्धा और भक्ति से दी जाती है, वह सर्व सम्पत्करी भिक्षा कहलाती है । यह भिक्षा, साधु की भिक्षा है । वह, उसके अधिकार की भिक्षा है। वह पूज्य बुद्धि से दी जाने वाली भिक्षा है। ऐसी भिक्षा देना समाज का कर्तव्य ही नहीं, बल्कि धर्म है। और लेने वाला उसका पूरा अधिकारी है । साधु ने अपना समस्त जीवन समाज के कल्याण के लिए दे डाला है, उसके जीवन का प्रत्येक क्षण जनता के हिताय और सुखाय होता है, ऐसी स्थिति में, समाज उसे भोजन और वस्त्र देता है । वह दान नहीं, बल्कि उसका हक है, उसका अधिकार है। ___ अधिकार का अर्थ क्या है ? मैं आपसे पूछता है कि आप अपने मातापिता की सेवा करते हैं ? उन्हें खाने के लिए भोजन और तन ढकने के लिए वस्त्र देते हैं, तथा जीवन सम्बन्धी अन्य सामग्री भी आप उन्हें देते हैं। क्या आप उसे दान कहेंगे? नहीं, यह तो उनका अधिकार है। वह उसके . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षा कानून और साधु समाज' १८१ अधिकारी हैं, हकदार हैं। वह अपने अधिकार के नाते लेते हैं। वह पूज्य हैं, उनकी सेवा करना आपका अपना धर्म है। इसी प्रकार साधु अपने पारमार्थिक जीवन निर्वाह के लिए समाज से भोजन और वस्त्र ग्रहण करता है । यह उसका अधिकार है, उसका अपना हक है । वह दर-दर का भिखारी होकर भिक्षा ग्रहण नहीं करता। वह अपने तेजस्वी जोवन की छाप डालकर, भिक्षा लेता है। यदि वह अपने जीवन की छाप नहीं डाल सकता, तो वह भिक्षा का अधिकारी भी नहीं है । ___ ढंढण मुनि का जीवन, आप लोगों में से अनेकों ने पढ़ा होगा या सूना होगा? वह एक महान् साधक था। जैन धर्म को उस 'महान् तपस्वी के जीवन पर गौरब है। वह साधारण घर का नहीं था। भारत के महान् सम्राट श्रीकृष्ण का वह पुत्र था । विशाल राज्य वैभव को ठुकराकर भगवान नेमिनाथ के चरणों में उसने मुनिपद अंगीकार किया था। ओर भिक्षु-जीवन ग्रहण कर उस महान् ज्योति ने कहा था _ "भगवन्, मैं आज से साधु के नाते और मात्र अपने जीवन निर्वाह के लिए भिक्षा ग्रहण करूंगा। अपने महान् कुल उच्च जाति, माता-पिता और गुरु के नाते दी हुई भिक्षा को कदापि अंगीकार नहीं करूंगा।" यह है, वह महान् ज्योति ! जो भूले-भटके साधुओं का पथ-दर्शन करती है । यह है, वह गहान् शक्ति-पुज! जिससे हजार-हजार जीवन को शक्ति मिलती है । यह है, त्याग का महान् आदर्श ! ढंढण नुनि जैसी महान् आत्माओं की भिक्षा वृत्ति को कानुन रोक नहीं सकता। विश्व की कोई भी शक्ति उसके विरोध में, अपनी आवाज बुलन्द नहीं कर सकती। वर्तमान साधु समाज को अपने सम्मुख त्याग का वह आदर्श रखना होगा, जिसे ढंढण मुनि ने अंगीकार किया था। साधु-जीवन, एक ऐसा जीवन हो, जिसे देखकर कानून बनाने वाले स्वयं अपनी भूल समझ कर, उसे रद्द करने को बाध्य हो जाएँ। वस्तुतः वर्तमान भिक्षा कानून, उस भिक्षा के लिए बना है, जिसे पौरूषघ्नी भिक्षा कहते हैं । जो भिक्षा समाज और राष्ट्र के पुरुषार्थ को नष्ट करने वाली हैं, उसी भिक्षा को रोकने के लिए यह कानून बना है। वह भिक्षा, वास्तव में एक जघन्य पाप है। जीवन को अन्धकार की ओर ले Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अमर भारती जाने वाली है । ऐसी भिक्षा ग्रहण करने वाला 'पापी श्रमण' कहलाता है । उसे भिक्षा करने का अधिकार ही नहीं है । पौरुषघ्नी भिक्षा तो दरअसल बन्द होनी ही चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र के 'श्रमण' अध्ययन में पौरुषघ्नी भिक्षा ग्रहण करने वाले श्रमण को 'पाप श्रमण' कहा है । जैन धर्म के सुप्रसिद्ध आचार - शास्त्र 'दशवैकालिक' में कहा है कि 'अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धो बहुपावं पकुब्वइ ।' जो साधु जनता का अन्न-जल ग्रहण करके उसका कुछ भी उपकार नहीं करता, वह पेटू होता है । वह एक बहुत बड़ा पाप कर्म करता है । ऐसी भिक्षा के लिए प्रतिबन्ध लगाना ही चाहिए । अब रहा, वर्तमान साधु समाज का प्रश्न ? उसे इस कानून से घबराना नहीं चाहिए ? बल्कि उसे अपनी योग्यता से यह भावना प्रकट करनी चाहिए कि आपका कानून हम पर लागू नहीं हो सकता । हमारा यह भिक्षा पात्र हजार-हजार वर्ष से जनता के द्वार पर पहुँच कर, श्रद्धा और भक्ति से भिक्षा ग्रहण करता रहा हैं । भिक्षा हमारा हक है, अधिकार है । हम गलियों में भटकने वाले भिखारी नहीं हैं, बल्कि साधक हैं । आज के साधु समाज को अब सचेत हो जाना चाहिए। नवीन उलझनों से डर कर, दूर भागने का यह समय नहीं है । ऐसे कब तक काम चलता रहेगा ? अपने जीवन, धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने का यही उपाय है, कि हम स्वयं उसका विरोध करें । देहली सदर बाजार 编卐 १४-१०-४८ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r सम्मेलन के पथ पर साधु-सम्मेलन की शुभ बेला जैसे-जैसे समीप होती जाती है, वैसेवैसे हम साधु लोग उससे दूर भागने की कोशिश करते हैं । सानु-सम्मेलन से अर्थात् अपने ही सधर्मी और अपने ही संकर्मी बन्धुओं से हम इतने भयभीत क्यों होते हैं ? इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर कौन दे सकता है ?. आज हमारे साधु-समाज में सामूहिक भावना का लोप होकर वैय - क्तिक भावना का जोर बढ़ता जा रहा है । हम समाज के कल्याणकर्म से हटकर अपने ही कल्याणबिन्दु पर केन्द्रित होते जा रहे हैं। शायद हमने भूल से यह समझ लिया है कि अपनी-अपनी सम्प्रदाय की उन्नति में ही समाज की उन्नति निहित है । इस भावना को बल देकर आज तक हमने अतनी समाज का तो अहित किया ही है, साथ में यह भी निश्चित है, कि हम अपना और अपनो सम्प्रदाय का भी कोई हित नहीं साध सके हैं । आज के इस समाजवादी धुग में हम अपने-आप में सिमिट कर अपना विकास नहीं कर सकते हैं । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के सहयोग के बिना आज जीवित नहीं रह सकता है, तब एक सम्प्रदाय, पूसरे सम्प्रदाय के सहयोग के बिना अपना विकास कैसे कर सकता है ? साधु-समाज को आज नहीं तो कल यह निर्णय करना ही होगा, कि हम व्यक्तिगत रूप में जीवित नहीं रह सकते । अतः हम सब को मिलकर संघ बना लेना चाहिए । ( १८३ ) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अमर भारती इस सिद्धान्त के बिना हम न अपना ही विकास कर सकते हैं और न अपने समाज कथा धर्म का ही । युग चेतना का तिरस्कार करके कोई भी समाज फल-फूल नहीं सकता । युग की मांग को अब हम अधिक देर तक नहीं ठुकरा सकते हैं । और यदि हम ने यह गलती की, तो इसका बुरा ही परिणाम होगा ! साधु-सम्मेलन का स्थान और तिथि निश्चित हो चुके हैं। अब इस शुभ अवसर को किसी भी भाँति विफल नहीं होने देना चाहिए । दुर्भाग्यवशात् यदि हमारा साधु-समाज जाने या अनजाने, अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में, सम्मेलन में सम्मिलित न हो सका, तो इस प्रमाद से हमें ही नहीं, वरन हमारे समाज और धर्म को भी निश्चय ही क्षति होगी । अतएव सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक प्रतिनिधि को दृढ़ संकल्प करके निश्चित स्थान की तरफ विहार करना ही श्रेयस्कर है । क्योंकि अब हमारे पास बहुत ही कम समय रह गया है । हमारा दो वर्ष का परिश्रम सफल होना ही चाहिए । यदि हम प्रामाणिकता के साथ अपने गन्तव्य स्थान की तरफ चल पड़े, तो यह निश्चित है कि हम अवश्य ही सम्मेलन में पहुँच सकेंगे । आज की बात केवल इतनी ही है । कुछ और भी है, अवसर मिला तो वह भी किसी उचित समय पर लिखने या कहने की अभिलाषा रखता हूँ । अजमेर, लोढ़ा धर्मशाला २८-४-५२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मंगलमय सन्त-सम्मेलन किसी भी समाज, राष्ट्र और धर्म को जीवित रहना हो, तो उस का एक ही मार्ग है-प्रेम का, संगठन का । जीवित रहने का अर्थ यह नहीं है कि कीड़े-मकोड़े की भांति गला-सड़ा जीवन व्यतीत किया जाए । जीवित रहने का अर्थ है - गौरव के साथ मान मर्यादा के साथ, इज्जत और प्रतिष्ठा के साथ शानदार जिन्दगी गुजारना । पर यह तभी सम्भव है, जबकि समाज में एकता की भावना हो, सहानुभूति और परस्पर प्रेमभाव हों। पण्डित सिरेमलजी ने अभी कहा है, कि हमारा जीवन सुखमय हो । बात बड़ी सुन्दर है, कि हम मंगलमय और प्रभुमय बनने की कामना करते हैं । पर, इसके लिए मूल में सुधार करने की महती आवश्यकता है । यदि अन्दर में बदबू भर रही हो, काम क्रोध की ज्वाला दहक रही हो, द्वष की चिनगारी सुलग रही हो, मान और माया का तूफान चल रहा हो, तो कुछ होने-जाने वाला नहीं है। ऊपर से प्रेम के, संगठन के और एकता के जोशीले नारे लगाने से भी कोई तथ्य नहीं निकल सकता । समाज का परिवर्तन तो हृदय के परिवर्तन से ही हो सकता है। मैं समाज के जीवन को देखता है, कि वह अलग-अलग खूटों से बंधा है । आपको यह समझाना चाहिए कि खूटों से मनुष्यों को नहीं, पशुओं को ( १८५ ) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अमर भारती बांधा जाता है। यदि हमने अपने जीवन को अन्दर से साम्प्रदायिक खूटों से बाँध रखा है, तो कहना पड़ेगा कि हम अभी इन्सान की जिन्दगी नहीं बिता सके हैं । हम मानव की तरह सोच नहीं सके हैं, प्रगति के पथ पर कदम नहीं बढ़ा सके हैं। ऐसी स्थिति में हमारा जीवन मनुष्यों जैसा नहीं, पशुओं जैसा बन जाता है । क्योंकि पशुओं के हृदय, पशुओं के मस्तिष्क एवं पशुओं के नेत्र, पशुओं के कर्ण, और पशुओं के हाथ पर उनके अपने नहीं होते, वे होते हैं, मांगे हुए । वे होते हैं, गिरवे रखे हुए । उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता । उनका दिल और दिमाग स्वतन्त्र मार्ग नहीं बना पाता। चरवाहा जिधर भी हाँके, उन्हें उधर ही चलना होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य अपने आपको किसी सम्प्रदाय, गच्छ या गुट के खूटे से बांधे रखता है, अपने को गिरबे रख छोड़ता है, तो वह पशु जीवन से किसी भाँति ऊपर नहीं उठ सकता है। संस्कृत साहित्य में दो शब्द आते हैं-समज और समाज । भाषा की दृष्टि से उनमें केवल एक मात्रा का ही अन्तर है। पर प्रयोग की दृष्टि से उनमें बड़ा भारी अन्तर रहा हुआ है । पशुओं के समूह को समज कहते हैं और मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं । पशु एकत्रित किये जाते हैं, पर मनुष्य स्वयं ही एकत्रित होते हैं। पशुओं के एकत्रित होने का कोई उद्देश्य नहीं होता, कोई भी लक्ष्य नहीं होता है किन्तु मनुष्यों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता । उनका उद्देश्य होता है, लक्ष्य होता है। जिस प्रकार पशु स्वयं अपनी इच्छा से एकत्रित न होकर उनका समज चरवाहे की इच्छा पर ही निर्भर होता है, उसी प्रकार आज का साधु वर्ग भी अखबारों की चोट से, इधर-उधर के संघर्षों से एकत्रित किए जाते हैं, जिनमें अपना निजी चिन्तन नहीं, विवेक नहीं, उन्हें समाज कैसे कहा जा सकता है ? हमारा अजमेर में एकत्रित होना-सहज ही हुआ है और मैं समझता हूँ कि हमारा यह मिलन भी मंगलमय होगा । किन्तु हमारा यह कार्य तभी मंगलमय होगा, जब हम सब मिलकर भगवान महावीर की मानमर्यादा को शान के साथ अक्षुण्ण रखने का संकल्प करेंगे। हमें जीवन की छोटी-मोटी समस्याएं घेरे रहती हैं, जिनके कारण हम कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकते । जब साधु-सन्त किसी क्षेत्र में मिलते हैं, तव वहाँ एक सनसनी पूर्ण वातावरण फैल जाता है। दो-चार मंजिल दूरी से ही . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलमय सन्त-सम्मेलन १८७. भय-सा छा जाता है कि अब क्या होगा ? अन्दर में काना-फूंसी चलने लग जाती है । अजमेर में एकत्रित होने से पूर्व मुझ से पूछा गया कि महाराज, अब क्या होगा? मैंने कहा-“यदि हम मनुष्य है, विवेकशील हैं, तो अच्छा ही होगा।" साधु जीवन मंगलमय होता है । साधु-सन्त जहाँ कहीं भी एकत्रित होते हैं, वहाँ का वातावरण मंगलमय रहना ही चाहिए। वे जहाँ-कहीं भी रहेंगे, वहाँ प्रेम, उल्लास और सद्भाव की लहरें ही नजर में आएंगी। मुनियों के सुन्दर विचार नयी राह खोज रहे हैं, युग के अनुसार स्वतन्त्र चिन्तन की वेगवती धारा प्रवाहित हो रही है। अब जमाना करवट बदल रहा है । हमें नये युग का नया नेतृत्व करना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने उपयोगी पुरातन मूलभूत संस्कारों की उपेक्षा कर देगें ? वृक्ष का गौरव मूल में खड़ा रहने में ही है, उसे उखाड़ फेंकने में नहीं। हम देखते हैं कि वृक्ष अपने मूल रूप में खड़ा रहता है और शाखा-प्रशाखाएँ भी मौजूद रहती हैं, केवल पत्र ही प्रतिवर्ष बदलते रहते हैं। एक हवा के झोंके में हजारों-लाखों पत्ते गिर पड़ते हैं। फिर भी वह वृक्ष अपने वैभव को लुटता देख कर रोता नहीं। बाग का माली भी वृक्ष को ढूंठ रूप में देख कर दुःख की आहें नहीं भरता, क्योंकि वह जानता है, इस त्याग के पीछे नया वैभव है, नवीन जीवन है। इसी प्रकार जैन धर्म का मूल कायम रहे, शाखा-प्रशाखाएँ भी मौजूद रहे, यदि इन्हें काटने का प्रयास किया गया, तो केवल लकड़ियों का ढेर रह जाएगा। अतः उन्हें स्थिर रखना ही होगा। किन्तु नियम-उपनियम रूपी पत्ते जो सड़-गल गए हैं, जिन्हें रूढ़ियों का कीट लग गया है, उनमें समयानुसार परिवर्तन करना होगा। उनके व्यामोह में पड़कर यदि उन्हें कायम रखने का नारा लगाते हो, तो तुम नवचेतना का अर्थ हो नहीं समझ पाए हो ? नया वैभव पाने के लिए पुरातन वैभव को विदा देनी ही होगी । उनको स्तीफा दिये वगैर जीवन में नव वसन्त खिल ही नहीं सकता । पतझड़ के समय पुरातन पत्तों को अपनी जगह का मोह त्यागना ही पड़ेगा। अजमेर लाखन कोठरी .३-४-५२ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ नगर-नगर में गूंजे नाद, सादड़ी सम्मेलन जिन्दाबाद करीबन दो साल से जिसकी तैयारी हो रही है, वह साधु सम्मेलन अब निकट भविष्य में ही सादड़ी में होने जा रहा है। मारवाड़ के ऊँट की तरह हमारे सम्मेलन ने भी बहुत-सी करवटें बदली । परम सौभाग्य है कि अब वह सही और निश्चित करवट से बैठ गया है । सादड़ी में चारों तरफ से सन्त सेना अपने-अपने सेनानी के अधिनायकत्व में एकत्रित होती चली आ रही है । यह एक महान् हर्ष है कि चलता-फिरता सन्त अक्षय तृतीया से अपने भावी जीवन का एक सुमहान् विधान बनाने जा रहा है । यह विधान एक ऐसा विधान होना चाहिए, जिसमें सम्प्रदायवाद, पदविवाद, शिष्यलिप्सा और गली सड़ी परम्पराओं को दूर करके एक समाचारी और मूलतः एक श्रद्धा प्ररूपणा का भव्य सिद्धान्त स्थिर होगा । क्षय हो, तुम्हारे उस सम्प्रदायवाद की जिसके लोह आवरण में तुम्हारी मानवता का साँस घुटा जा रहा है। यह एक ऐसा विष-वृक्ष है, जिसके प्रभाव से तुम्हारा दिमाग, तुम्हारा दिल और तुम्हारे शरीर की रगविषाक्त हो गई है । यह एक ऐसा काला चश्मा है, जिसमें सबका काला ही रंग, एक ही विकृत रूप दिखाता है, जिसमें अच्छे और बुरे की तमीज तो बिल्कुल ही नहीं है । ( १८८ ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर-नगर में गूंजे नाद, सादड़ी सम्मेलन जिन्दाबाद १८६ सादड़ी के सन्त-तीर्थ में पहुँचकर हमें सबसे पहले लोह आवरण का, इसी विस-वृष का और इसी काले चश्मे का क्षय करना है, अन्त करना है, विनाश करना है। आज के इस प्रगतिशील युग में भी यदि कदाचित् हम इस गले-सड़े सम्प्रदायवाद को छोड़ न सके और उसे बानरी की भांति अपनी छाती से चिपकाये फिरते रहे, तो याद रखिए हमसे बढ़कर नादान दुनिया में ढूंढ़ने से भी न मिलेगा। हम सबको मिलकर एक स्वर से, एक आवाज से और अन्योन्य सहयोग से सम्प्रदायवाद के भीषण पिशाच से लोहा लेना है। विचार कीजिए आप धन-वैभव का परित्याग करके सन्त बने हैं। अपने पुराने कुल और वंश की जीर्ण-शीर्ण शृंखला को तोड़कर विश्व हितकर साधु बने हैं । अपनी जाति और बिरादरी के घरौंदे को छोड़कर गगन बिहारी विहंगम बने हैं। यश, प्रतिष्ठा, पूजा और मान-सम्मान को त्याग कर भ्रमणशील भिक्षु बने हैं। इतना महान् त्याग करके भी आप इन पदवी, पद और टाइटिलों से क्यों चिपक गए हो ? इनसे क्यों निगहित होते जा रहे हो ? युग आ गया है कि आप सब इनको उतार फेंको। यह पूज्य है, यह प्रर्वतक है, यह गणावच्छेदक हैं। इन पदों का आज के जीवन में जरा भी मूल्य नहीं रहा है, यदि हम किसी पद के उत्तरदायित्व को निभा सकें, तो हमारे लिए साधुत्व का पद ही पर्याप्त है। सन्त-सेना के सेनानो को हम आचार्य कहें, यह बात शास्त्र संगत भी है और व्यवहार सिद्ध भी । आज के युग में तो साधु और आचार्य ये दो पद ही हमें पर्याप्त हैं, यदि इनके भार को भलीभांति सहन कर सकें तो। ___याद रखिए, यह भिन्न-भिन्न शिष्य परम्परा भी विष की गाँठ है। इसका मूलोच्छेद जब तक न होगा, तब तक हमारा संघटन क्षणिक ही रहेगा, वह चिरस्थायी न हो सकेगा। शिष्य-लिप्सा के कारण गुरु-शिष्य में, गुरु भ्राताओं में कलह होता है, झगड़े होते हैं । शिष्य-मोह में कभी-कभी हम अपना गुरुत्व भाव, साधुत्व भाव भी भूला बैठते हैं। हमारे पतन का, हमारे विघटन का और हमारे पारस्परिक मनो-मालिन्य का मुख्य कारण शिष्य-लिप्सा ही है। इसका परित्याग करके ही हम सम्मेलन को सफल बना सकते हैं। आप हमें अन्ध परम्परा, गलत विश्वास और भ्रांत धारणाएँ छोड़नी ही होगी । भिन्न-भिन्न विश्वासों का, धारणाओं का, परम्पराओं का और Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अमर भारती श्रद्धा प्ररूपणा का हमें समन्वय करना ही होगा; सन्तुलन स्थापित करना ही होगा । आज न किया गया, तो कल स्वतः होकर ही रहेगा । आओ हम सब मिलकर अपनी कमजोरियों को पहिचान लें, अपनी दुर्बलताओं को जान लें और अपनी कमियों को समझ लें । फिर गम्भीरता से उन पर विचार कर लें। हम सब एक साथ विचार करें, एक साथ बोलें और एक साथ ही चलना सीख लें । हमारा विचार, हमारा आचार और हमारा व्यवहार सब एक हो । जीवन की इन उलझी गुत्थियों को हम एक संग, एक आचार्य, एक शिष्य परम्परा और एक समाचारी के बल से ही सुलझा सकते हैं । हमारी शक्ति, हमारा बल और हमारा तेज एक ही जगह केन्द्रित हो जाना चाहिए । हमारा शासन मजबूत हो, हमारा अनुशासन अनुल्लंघनीय हो । हमारी समाज का हर साधु फौलादी सैनिक हो और वह दूरदर्शी, पैनी सूझवाला तथा देशकाल की प्रगति को पहिचानने वाला हो ! इस आगामी सादड़ी सम्म्मेलन में यदि हम इतना काम कर सके, तो फिर हमें युग-युग तक जीने से कोई रोक नहीं सकता । हमारे विधान को कोई तिरस्कृत नहीं कर सकेगा। हमारी बिगड़ती स्थिति सुधर जाएगी । हम गिरते फिर उठने लगेंगे। हम रेंगते हुए फिर उठकर चलने लगेंगे, और फिर ऊँची उड़ान भी भर सकेंगे । आओ हम सब मिल कर सादड़ी सम्मेलन को सफल बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें, ईमानदारी से कोशिश करें । हमारी भावी सन्तान हमारे इस महान कार्य को बुद्धिमतापूर्ण निर्णय कह सके । हमारे इस जीवित इतिहास को स्वर्णाक्षरों में लिख सके । हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे इस महान निर्णय पर गर्व कर सके । आने वाला युग हमारी यशोगाथा का युग-युग तक गान करता रहे । हमारा एक ही कार्य होना चाहिए कि हम सादड़ी में सब सफल होकर ही लौटें । सम्मेलन को सफल करना ही हमारा एकमात्र ध्येय है । सम्मेलन सादड़ी ** २४-४-५२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ सत्पुरुष स्वयं ही अपना परिचय आज वसन्त पंचमी का मंगलमय दिवस है । वह अपना नया रंगरूप लेकर अवतरित हो रही है । चारों ओर वसन्त प्रस्फुरित हो रहा है । वृक्षों पर नये-नये पुष्प जन्म ले रहे हैं । प्रकृति का प्रांगण आनन्द और उल्लास से हरा-भरा हो रहा है । इधर-उधर सर्वत्र उमंग तथा उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा है । मुझे महान हर्ष है, कि जैन समाज का विशाल प्रांगण भी बसन्त के आनन्दपूर्ण प्रमोद से शून्य नहीं रहा है । जैन समाज की विराट वाटिका में भी आज के रोज एक सौरभ-पूर्ण पुष्प खिला था, जिसकी सुगन्ध और मनमोहकता से एक दिवस सम्पूर्ण समाज चकित हो गया था । मेरा अभिप्राय उस मानव-पुष्प से है, जिसको आज हम और आप " पूज्यवर रघुनाथजी" के गौरव पूर्ण नाम से अभिहित करते हैं । यह ठीक है, कि मैं उस महान आत्मा की जीवन-गाथा से पूर्णरूपेण परिचित नहीं है, पर यह कहना भी वास्तविक न होगा, कि मैं उनके त्यागवैराग्य पूर्ण महान व्यक्तित्व से सर्वथा अपरिचित ही हूँ । आज से बहुत वर्षों पूर्व भी मैंने कुछ पढ़ा है और आज की सभा में मन्त्रिवर श्री मिसरी ( १९१ ) . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अमर भारती लालजी महाराज ने उनके विषय में जो परिचय दिया है, उससे उनके जीवन की झांकी स्पष्ट हो जाती है। __यदि वास्तविक रूप में कहा जाए, तो मुझे कहना होगा कि एक सत्पुरुष का सच्चा परिचय उसकी जीवन-चर्या ही है। सत्पुरुष स्वतः ही अपना परिचय है । इस दृष्टिकोण से पूज्यवर श्री रघुनाथजी महाराज का परिचय उनका त्याग-वैराग्य वासित जीवन ही कहा जा सकता है । समाज सेवा और धर्म-रक्षा के निमित्त उन्होंने मरुधर-धरा में जो कार्य किया है, उसे आज भी हम और आप भूल नहीं सके हैं। आपने उनके जीवन की एक कहानी के आधार से यह पता लगा लिया होगा कि जब वे गुहस्थ थे, तभी उनके मानस-सरोवर में अमर होने की भावना हिलोरें लेने लगी थीं। उनके अन्तःकरण में अमरत्व प्राप्त करने की बलवती भावना जाग उठी थी। अमरत्व प्राप्ति की धुन में वे अपने एक साथी की सलाह से किसी देवी के मन्दिर में अपना सिर चढ़ाने को भी तैयार थे, परन्तु उसी समय उन्हें जीवन-कला का सच्चा पारखी सन्त मिला, जिनका नाम था-"श्रद्धेय भूधरदासजी महाराज ।" श्री भूधरदास जी महाराज ने रघुनाथजी महाराज के अन्तर्जीवन को परखा और उन्हें सच्ची अमरता के महामार्ग पर लगा दिया। लोहे को चिन्ता-मणि का संयोग मिला और स्वर्ण बन गया। उसने आत्मा के स्वरूप को और उसके स्वभाव सिद्ध अमरत्व धर्म को भली-भांति समझ लिया। एक बलवान गजराज को कोमल कमल-तन्तु कैसे बाँध सकते हैं। कमल तन्तुओं से कीड़े-मकोड़ों का जीवन बाँधा जा सकता है, उस जाल में उन्हें भले ही बांधा जा सके, परन्तु एक बलशाली गजेन्द्र को उस में नहीं बाँधा जा सकता? वह क्षण भर में ही उस बन्धन को तोड़ फेंकता है। पूज्यवर रघुनाथ जी ने भी संसार को मोह-ममता के कच्चे धागों को तोड़ फेंका था । संसार के सभी प्रलोभन उन्हें सारहीन लग रहे थे। उन्होंने एक परिवार को छोड़कर सम्पूर्ण समाज को ही अपना परिवार बना लिया था। 'वसुधैव कुटम्बकम्' वाले सिद्धान्त पर वे चल पड़े थे। क्रोध की आंधी, मान की चट्टानें, माया का घुमाव और लोभ का गर्त उनकी वैराग्य नदी को रोक रखने में सर्वथा असमर्थ थे । उनके मजबूत कदम त्याग-मार्ग Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुष स्वयं ही अपना परिचय १६३ पैर बढ़ते ही रहें। मैं अपने आज के श्रमण-श्रमणी वर्ग से कहेंगा, कि उन के जीवन से त्याग और वैराग्य की शिक्षा ग्रहण करें। जो साधना के मार्ग पर चल पड़े हैं, जिन्होंने संयम के पथ पर कदम बढ़ा दिया है, उन्हें सोचना चाहिए कि उनके अन्तर्जीवन में त्याग-वैराग्य की ज्योति कितनी चमकी है ? साधना के धर्म को कितना समझ रहे हैं ? अध्यात्मवादी कवि तथा सन्त आनन्दघन जी के शब्दों में कहना होगा "धार तलवारनी सोहली, दोहली चोदवां जिन तणि शरण सेवा । धार पर नाचता देख बाजीगरी, सेवना धार पर रहे न देवा ॥ तलवार की धारा पर चलना सहज है, सुगम है। दो-दो पैसे की भीख मांगने वाले बाजीगर भो खेल दिखलाते समय तलवार की तीक्ष्ण धारा पर चल पड़ते हैं, नाच सकते हैं। परन्तु साधना की धार पर बड़ेमहारथियों के तैर भी धूजने लगते हैं, लड़खड़ाने लगते हैं। अतः संयमसाधना के पथ पर चलना कोई सहज काम नहीं है, बड़ा ही दुष्कर है। संयम-साधना के महामार्ग पर चलने वाले साधक अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो इस पथ पर रोते-रोते कदम धरते हैं और रोतेरोते ही गीदड़ों की भांति चलते हैं । दूसरे कुछ ऐसे होते हैं, जो गीदड़ों की तरह कांपते-कांपते मार्ग पर चढ़ते हैं, परन्तु बाद में शेर की तरह दहाड़ते हुए चलते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो पहले भावनाओं में बहकर शेर की तरह दहाड़ते हुए निकलते हैं, पर बाद में गीदड़ की तरह कायरतापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं । कुछ ऐसे भी साधक होते हैं, जो सिंह की भांति गर्जना करते हुए ही मार्ग पर आते हैं, वीरता-पूर्ण ही जीवन व्यतीत करते हैं। पूज्यवर श्री रघुनाथजी महाराज सिंह की भाँति ही संयम के मार्ग पर चढ़े और सिंहवृत्ति से ही उसका पालन करते रहे, अपने ध्येय की ओर बढ़ते रहे । उनके ज्ञान और चरित्र का प्रकाश हमारे अन्तर मानसों को आलोकित करता रहे, यही हम सब को भावना रहनी चाहिए। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ अमर-भारती दीपक प्रज्वलित होकर बाहर अपना प्रकाश फैलाता है, अन्धकार पर विजय पाता है । पर यदि उसके अन्दर तेल न हो, तो वह कैसे प्रकाश दे सकता है ? कैसे अन्धकार से लड़ सकता है ? अन्दर तेल न होने से वह बत्ती को जला कर अपनी धुंआ छोड़कर ही समाप्त हो जाता है । साधक जीवन की भी ठीक यही अवस्था होती है । जिस साधक के जीवन में त्याग वैराग्य, संयम - साधना और सत्य-अहिंसा का तेल नहीं है, मनोबल नहीं है, आत्म-शक्ति नहीं है, वह जीवन क्षेत्र में कैसे चमक सकते है ? जनता की श्रद्धा और विश्वास को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? उन का खोखला जीवन जनता को कैसे प्रेरणा दे सकता है ? पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज का संयम साधना का काल बहुत लम्बा रहा है । वे साधना के पथ पर स्वयं बढ़े हैं और दूसरों को भी उन्होंने सतत प्रेरणा दी है । वे जीवन कला के सच्चे पारखी थे । उन्होंने अपने एक योग्य शिष्य को भी पथ भ्रष्ट होते देख कर छोड़ दिया था । शिष्य-मोह में फँसकर उन्होंने उसकी दुर्बलता की लीपा-पोती नहीं की थी । हमें उनके जीवन से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। आज तो हम देखते हैं कि एक साधारण शिष्य का भी गुरु व्यामोह नहीं छोड़ सकता । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य की भूलों को छुराने का भी प्रयत्न करता है । यह शिष्य - व्यामोह ही हमारी गड़बड़ी का कारण बन जाता है । समय बहुत हो गया है, हमें अपना दूसरा काम भी करना है । फिर भी में इतना अवश्य कहूँगा, कि हमें उस महान साधक के गुणों से बड़ा भारी प्रकाश मिलता है । उनके त्याग - वैराग्य की जगमगाती ज्योति आज भी चमक रही है । उनके तपोमय जीवन से प्रभावित होकर हम सब उनके चरणों में अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाते हैं । किसी भी महापुरुष के साधनामय जीवन पर अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाना, वाणी का तप है । संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान और महाकवि श्री हर्ष ने कहा है कि किसी योग्य विद्वान के प्रति अथवा किसी साधक के प्रति अनुराग न रखना, उसके गुणों का उत्कीर्तन न करना भी एक प्रकार का जीवन-शल्य है, वाणी की विफलता है । कवि कहता है वाग्जन्म वैफल्यमसह य शल्यं, गुणाधिके वस्तुनि मौनिता चेत् ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुष स्वयं ही अपना परिचय १६५ गुण सम्पन्न व्यक्ति के गुणों का उत्कीर्तन न करके चुप हो बैठ जाना अपनी वाक् शक्ति का एक असह्य कण्टक है । अर्थात् उसकी वाक् शक्ति व्यर्थ है । मैंने उस महान् साधक के चरणों में श्रद्धा के पुष्प चढ़ाकर अपनी वाणी के तप को सफल किया है । सोजत सिटो A वसन्त पंचमी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शक्ति का अजस्त्र - स्त्रोत : संघटन आज प्रवचन तो मुख्य रूप से परम श्रद्धेय उपाचार्ष श्री जी का होगा । परन्तु उनका आदेश है कि पहले मैं भी थोड़ा-सा बोल दूं । फिर आप और हम श्रद्धेय श्री के सुधा मधुर प्रवचन का अमृत पान करेंगे । लोग पूछा करते हैं कि क्या जैन धर्म सम्प्रदायवाद में विश्वास करता है । इस सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास रहा है कि जैन धर्म मूल में असम्प्रदायवादी रहा है । मुझे कहना होगा कि वह सम्प्रदायवाद के विरोध में खड़ा है । उसका प्राचीन इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है, कि उस में सम्प्रदायवाद, पन्थशाही और फिरकापरस्ती को जरा भी जगह नहीं है । भगवान महावीर से पूर्व और उनके बाद कालान्तर में भी लम्बे अर्से तक जैन धर्म की धारा अखण्ड रूप में प्रवाहित रही है । जैन धर्म का मूल मंत्र परमेष्ठी इस तथ्य का प्रत्यक्ष साक्षी है, कि जैन धर्म मूल में एक था । परन्तु आगे चलकर मनुष्यों में ज्यों-ज्यों विचार भेद होता गया, त्यों-त्यों सिद्धांत भेद और मनोभेद भी होता गया । यदि भेद की सीमा, विचार तथा सिद्धांत की रेखा का उल्लंघन करके मानस तक न पहुँची होती, तो पन्थों का जन्म ही न हो पाता । मनोभेद से ही सम्प्रदाय और पन्थों का जन्म होता है, आविर्भाव होता है । आदिम युग में हम एक थे, मध्य युग में अनेक हुए और वर्तमान ( १६६ ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति का अजस्र स्रोत : संघटन १६७ युग में हम फिर एकत्व की ओर लोट रहे हैं । प्रथम युग हमारा शानदार रहा है, मध्य युग में हम विभक्त होते-होते बहुत क्षीण और बौने हो गए हैं । ८४ गच्छ, २२ सम्प्रदाय, तेरह पन्थ और बीस पन्थ - यह सब हमारा विकृत मध्य युग है । यह ठीक है, कि समाज में जब-जब सुधार का ज्वार उठता है और क्रान्ति का तूफान उमड़ता है, तब-तब समाज या संघ एकत्व से अनेकत्व की ओर बढ़ता है । क्योंकि सम्पूर्ण समाज न कभी सुधरा है और न कभी क्रान्तिशील ही बना है । ऐसी परिस्थिति में एक ही समाज में अनेक वर्गों का होना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता । किन्तु जैसे एक ही सिक्के में दो बाजू होने पर भी उनमें किसी एक का वैषम्य नहीं होता, वैसे ही वैषम्य रहित समाज की कल्पना करना अनुचित तथा असम्भव नहीं है । एक ही नदी मध्य में पर्वत आ जाने से दो धाराओं में विभक्त हो सकती है, परन्तु उसका मूल स्रोत एक होने से वह एक ही रहेगी | आवश्यकता और विकास के लिए विघटन भी हमें कभी वरदान सिद्ध हुआ होगा । पर आज वह अभिशाप बनता नजर आ रहा है । आज समाज का विघटन नहीं, संघटन अपेक्षित हो रहा है । प्रत्यक्ष या परोक्ष जैन धर्म के सभी पन्थों में आज संघटन की चर्चा है । समाज - सरिता आज एकत्व की ओर बढ़ रही है । अभी विगत वर्ष में सैकड़ों सदियों से बिखरा स्थानकवासी समाज, एक विराट रूप में संघटित हो गया है । इस विशाल संघटन को श्रमणसंघ नाम दिया गया है । लोग इस श्रमण संघ कों विभिन्न दृष्टि बिन्दुओं से देखते हैं । कुछ कहते हैं - ''यह एक जादू जैसा हो गया है ।" कुछ का विचार है - "यह युग की माँग थी ।" कुछ बोलते हैं - " ऐसा होना था, हो गया ।" कुछ भविष्य वक्ता ऐसे भी हैं कि जो कहते हैं- "यह तो बालू का किला है, बच्चों का खेल जैसा है ।" जितने मुंह उतनी बातें होती हैं । मैं तो आज भी यही कहता हूँ कि हमने जो कुछ भी किया है, वह विचार पूर्वक किया है, निष्ठा पूर्वक किया है, साधना और तपोबल से किया है । लोग नुक्ता चीनी करें. आलोचना करें, कुछ भी क्यों न करें । पर हमें अपना कर्तव्य नहीं भूलना है । समाज में आज भी कुछ ऐसे तत्व हैं, जो अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए मनमानी और मनचाही करना चाहते हैं । समाज में विघटन पैदा करते हैं । इन सब से सावधान रह कर हमैं सतत आगे बड़ना है । सचेत रहना हमारा कर्तव्य हैं, पर रुकना हमारा काम नहीं । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अमर भारती हमारा मध्य युगीन इतिहास बार-बार एक हो कहानी सुनाता है. कि - "हमारा जब-जब बिगाड़ हुआ है, तब-तब घर से हो हुआ है । गुरु और शिष्यों के लम्बे संघर्षों के अध्याय के अध्याय इस इतिहास में नत्थी हैं । शिष्य ने देखा कि गुरु की अपेक्षा मेरी पूजा-प्रतिष्ठा बहुत कम है, तो आवश्यक न होने पर भी उसने विचार भेदों के नाम पर मनोभेदों की गहरी परिखा खोद डाली। गुरु को छोड़ा, गुरु परम्परा को छोड़ा, गुरुपरिवार को छोड़ा और अपने मन मिले दो-चार साथिवों को लेकर अलग पन्थ खड़ा कर लिया । तब अपने पन्थ और सम्प्रदाय को परिपुष्ट और स्थिर करने के लिए गुरुपक्ष की निन्दा की जाने लगी और स्वपक्ष की प्रशंसा | गुरु के विचार पुराने हैं । मैं नये विचार लेकर आया हूँ | मेरी श्रद्धा विशुद्ध है । मेरा आचार शास्त्र संमत है । इस प्रकार के स्नार्थ पूर्ण नारे लगाए जाने लगे । एक अखण्ड जैन धर्म इसी तरह टुकड़ों में बँटता रहा । विभक्त होना, इतना बुरा और मँहगा न पड़ता यदि उन में परस्पर सहयोग और सद्भाव बना रहता । वृक्ष की शाखा प्रशाखा, डाली और टहनी कितनी भी क्यों न हों ? परन्तु यदि इन सब का मूल एक है, तो भूमि का जल और सूर्य का आतप उसका पोषण हो करते हैं । यदि उस वृक्ष की जड़ में जहरीले कीड़े लग जायें, तो वृक्ष कभी भी हरा-भरा नहीं रह सकता । जैन धर्म के मूल में भी जब से स्वार्थ का, अहंकार का और विद्वेष का कीड़ा लगा, तब से वह निरन्तर ही सूखने लगा । यही कारण है कि हमारा मध्य युगोन इतिहास धूमिल और अटपटा बन कर खड़ा रह गया । उसमें से प्राणतत्व निकल गया, गति और विकास निकल गया, वह जड़ हो गया । हिन्दुस्तान की आजादी के बाद भारत के लोह पुरुष सरदार पटेल ने एक बार अपने भाषण में कहा था-' - "हिन्दुस्तान को बाहर के दुश्मनों से खतरा नहीं, उसे खतरा है, अन्दर के दुश्मनों से । हिन्दुस्तान का जब कभी अहित होगा, हिन्दुस्तान के लोगों के हाथों से ही होगा ।" लंका का सर्वनाश लंका के नागरिक विभीषण के कारण ही हुआ था । जैन धर्म के टुकड़े भी उसके अपने अनुयायियों ने ही किए हैं। " इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से ।" हमारा घर भी अपने चिराग से ही जला है । श्रमण संघ का निर्माण हो चुका । जन्म हो चुका है। अब आवश्यकता है, उसके लालन-पालन और अभिवर्धन की। जितनी तीव्रता से इसके प्रति Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति का अजस्र स्रोत : संघटन १६६ हमारी श्रद्धा बढ़ेगी, उतनी शीघ्रता से ही यह श्रमण संघ सुघड़ सुदृढ़ बनता रहेगा । आलोचकों के अग्निबाण, निन्दकों के अणुबम्ब और स्वार्थ रत जनों को दुरभिसन्धि-ये ही हमारे घर के चिराग हैं, जिनसे इस संघ में आग भभकते शोले उठ सकते हैं । जब तक हमारे दिल और दिमाग मध्ययुगीन भावनाओं से रंगीन बने रहेंगे, तब सक हमारा सही अर्थ में अभ्युस्थान, विकास और प्रगति सम्भव नहीं । प्रसन्नता है, कि हम अपने धूमिल मध्य युग से निकलने का प्रयत्न कर रहे हैं। हमारा वर्तमान आशा पूर्ण है और भविष्य समुज्ज्वल प्रतीत होने लगा है । हमारे वर्तमान के पन्ने पर भविष्य की सुनहली स्याही से वही व्यक्ति महत्वशाली रूप में अंकित होगा जो अपनी तीव्रतम श्रद्धा से, निष्ठा से श्रमल संघ का पोषण करेगा, उसके प्रति वफादार रहेगा। श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका-ये जब अपने आप में परिसीमित होने की चेष्टा करते हैं, तब वे व्यक्ति होते हैं और जब ये अपना अपनत्व भूलकर समवेत होने का प्रयत्न करते हैं, तब ये समाज होते हैं, संघ होते हैं। जिस महत्वपूर्ण कार्य को एक व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में भी नहीं कर पाता, संघ उसको सहज ही में कर लेता है। संघ शक्ति का एक अजस्र-स्रोत है। हमारा प्राचीन इतिहास बताता है कि संघ के अभ्यु.. दय के लिए बड़े से बड़े व्यक्ति को भी अपनी निजी इच्छा को छोड़कर संघ की इच्छा पर चलना पड़ता है । इतना अनुशासन यदि हम में हो, तो फिर हमारा यह श्रमण-संघ कभी मिट नहीं सकेगा। वह सतत हमें प्रेरणा, स्फूर्ति और आगे बढ़ने का बल प्रदान करता रहेगा। हम सब मिलकर संघ के सघन वृक्ष की शीतल-छाया में और सुरभित पवन में आनन्द, शान्ति और सुख पा सकेंगे। जोधपुर सिंहपोल २१-६-५३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की महत्ता ( १ ) जोवन की प्रिय मधुशाला में, मधु-रस की कुछ कमी नहीं है । पीओ और पिलाओ जी-भर, लघु मन करना ठीक नहीं है ॥ ( २ ) मन की लघुता जैसा कोई, जग में दूजा पाप नहीं है । और, महत्ता जैसा कोई, अन्य सुपावन पुण्य नहीं है । जागृत जीवन ( १ ) जीवन का पथ 'पंकिल - पथ है, संभल-संभल कर चलना । क्षण-क्षण, पल-पल जागृत रहना, हो न कभी कुछ स्खलना ॥ ( २ ) सुख-दुःख दोनों क्षणभंगुर है, क्या हंसना, क्या रहो अकर्म, कर्म - रत रह कर, मन का कलिमल धोना ॥ रोना । उपाध्याय अमर मुनि Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AON A6 www.jainelib