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________________ ८ अमर-भारती जन जीवन के महासागर में ज्ञान-विज्ञान के पवन से मनन और मन्थन की नयी लहरें, नयी तरंगें पैदा करना, विचारों के महासमुद्र में गहरी डूबकी लगा कर जन-जन के कल्याण के लिए, उत्थान के लिए प्राणवंत और ऊर्ध्ववाही चिन्तन के मोती निकाल लाना, फिर उन्हें जन जीवन के कण-कण में बिखेर देना-सन्त जीवन का महान् कर्तव्य है । प्रसुप्त जनजीवन को ही जागृत नहीं करना है, बल्कि उसे स्वयं अपने जीवन में भी नव जागरण, नयी चेतना और नयी स्फूर्ति भरनी है। पुरातन आचार्य कभी-कभी विनोद की वाणी में भी जीवन की उलझनों को बड़ी संजीदगी के साथ सुलझाकर रख देते थे। मुनि-जनों को विहार-चर्या कितनी प्रिय है ? इस तथ्य को एक जैनाचार्य ने व्याकरण की भाषा में बड़े मधुर ढंग से समझाया है। वह कहता है, एक शब्द ऐसा है"जिसके आदि में 'आ' जोड़ने से जन-जीवन के प्राणों का रक्षक बन जाता है, आदि में 'वि' लगाने से सन्तजनों को प्रिय हो जाता है, आदि में 'प्र' जोड़ने पर सब को अप्रिय होता है और कुछ भी न लगाने पर वह स्त्रियों को प्रिय हो जाता है ।" वह जादू भरा शब्द है-'हार ।' आयुक्तः प्राणदो लोके, वियूक्तः साधु-वल्लभः । प्रयुक्तः सर्वविद्वषी, __ केवलः स्त्रीषु वल्लभः । आहार-भोजन सबको प्राण देता है, विहार-परिभ्रमण सन्तों को सदा प्रिय होता है, प्रहार-चोट सबको अप्रिय होती है, बुरी लगती है और हार-आभूषण स्त्रियों को अति प्रिय लगता है। विहार सन्तों को कितना प्रिय होता है ? इस बात का पता तो तब लगता है, जब वर्षा-वास समाप्त होने को होता है । आप लोगों में से बहुत . से श्रद्धाशील व्यक्ति अपने भोले मन को भुलावे में डालकर विचार करते होंगे, कि नियत वास में तो महाराज को सुखसाता ही रहती है । रहने-सहने को सुखद स्थान, खाने पीने का अच्छा आहार-पानी। फिर भी सन्तों को विहार प्रिय क्यों होता है ? विहार काल में क्या सुख है ? क्या सुविधा है ? न खाने को पूरा भोजन, न प्यास बुझाने को पूरा पानी, न रहने को अनुकूल स्थान ही ? परन्तु मैं कहता हूँ कि भगवान् महावीर के सपूतों के सम्बन्ध में दीनतामयी यह विचारणा योग्य नहीं है । सन्तों का जीवन तप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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