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बरसो मन, सावन बन बरसो
त्याग और संयम का जीवन है । प्रतिकूलता में मुस्कराना और अनुकूलता में सावधान रहना, सन्त जीवन की सच्ची कसौटी है । परोषह व संकटों से घबराकर एक स्थान पर बैठे रहना साधुत्व का मार्ग नहीं है । निरन्तर तपते रहना, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना - यही सन्त जीवन की शान है । यही सन्त जीवन की गरिमा है ।
जल की स्वच्छता और निर्मलता बहते रहने में है । एक स्थान पर पड़ा खड़ा पानी गंदा व बदबूदार हो जाता है । सतत प्रवहणशीला सरिता की नव धाराओं में प्रवाहित होने वाला जल चट्टानों से लड़ता, मैदानों को पार करता, लहराता और इठलाता - नव जीवन और नयी स्फूर्ति का सन्देश देता है । उसकी शीतलता और पवित्रता बनी रहती है । किन्तु वही जल जब अपनी धारा से विछोह पाकर किसी गर्त में जा गिरता है, तब वह स्वयं तो दूषित होता हो है, अपने आस-पास के वातावरण को भी बना डालता है ! मलेरिया को जन्म देने वाले मच्छरों को पैदा करता है । पानी तो सदा बहता ही अच्छा और सन्त सदा रमता ही भला
बहता पानी निर्मला.
पड़ा गंदिला होय । साधू तो रमता भला,
दोष न लागे कोय ॥
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पानी बहता भला और सन्त रमता भला । रमने का अर्थ है -चर्या, विहार, परिभ्रमण | क्योंकि रमते योगी को " दोष न लागे कोय ।" मोह, ममता और राग द्वेष के दुर्वार विकार उसके मन को घेर नहीं सकते हैं । नियत-वास हो बैठे रहने में दोष ही दोष हैं। क्योंकि उसमें एक क्षेत्र विशेष के प्रति आसक्ति पैदा होगी। जन-जीवन का सन्त के प्रति जो सद्भाव और श्रद्धा है तथा सन्त का जन-जीवन के प्रति जो प्रेम व सहयोग है - वह मोह रूप में परिणत हो सकता है । प्रेम मोह बन सकता हैं, सत्संग आसंग बन सकता है और श्रद्धा अन्धानुराग का चोगा पहन सकती है । प्रेम और मोह में सत्संग और आसंग में तथा श्रद्धा और अन्धानुराग में अन्तर हैबड़ा अन्तर है । एक लड़ी साध्य और साधक के पवित्र जीवन के लिए खतरे का बिन्दु है और दूसरो कड़ी भक्त और सन्त के उत्थान में निमित्त है । जब जीवन सत्संग की सरस भूमि को छोड़कर आसंग की कर्दम भूमि में जा टिकता है, तब लोक मानस में से "मैं और मेरे" की सर्व-ग्रासी भेद
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