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________________ पत्रकार सम्मेलन में, उपाध्याय श्री अमर मुनिजी १०३ तृतीय-कर तो लूं, पर नरक में जाने का भय है। नरक की तीव्र वेदना भोगनी पड़ेगी। चतुर्थ-मैं अन्याय, अनीति और अनाचार नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा करने को मेरा अन्तर मन तैयार नहीं है । वैसा करने का कभी विचार और संकल्प भी नहीं होता। आप ने सुना, इन चारों का उत्तर । केवल चतुर्थ व्यक्ति ही सच्चा धर्भशील है । क्योंकि वह भय और प्रलोभन की भूमिका से ऊपर उठकर अपनी अन्तः प्रेरणा से पाप नहीं करता। शेष तीन पाप करने को तत्पर हैं । परन्तु भय बाधक बना हुआ है । पाप करने की अभिरुचि अवश्य है, किन्तु राज-भय, समाज-भय और नरक-भय करने नहीं देता। इस प्रकार की विवशता में धर्म नहीं पनप सकता । धर्म तो मानव के शुद्ध हृदय में ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। भगवान महावीर की वाणी में-"धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ ॥" जिस व्यक्ति के मन में छलना नहीं, माया नहीं भय नहीं और लोभ नहीं, वहाँ धर्म अवश्य होगा। धर्म मानव को प्रसूप्ति से जागृति की ओर ले जाता है। धर्म आत्मा की एक शक्ति है, जिससे मनुष्य जीवन सुघड़, सुदृढ़ और संस्कृत बनता है। धर्भ व्यक्ति का विकास की जड़ है । धर्म व्यक्ति का निर्माण करता है और उसे विकास की ओर चलने को उत्प्रेरित करता है । धर्म जड़ नहीं, एक गतिशील शक्ति है, क्रियात्मक प्रयोग है। __ मैं समझता हूँ कि व्यक्ति के विकास में सामाजिक धरातल भी आवश्यक है। यदि सामाजिक धरातल से आपका अभिप्राय भौतिकता की ओर संकेत है, तो मुझे स्पष्ट कहना होगा कि व्यक्ति के विकास के लिए वह भी आवश्यक है । आज अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के सम्बन्ध में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे सर्वथा दोष रहित नहीं हैं। मेरे विचार में दोनों के समन्वय से, दोनों के सन्तुलन से व्यक्ति का विकास उच्चस्तरीय हो सकता है। दोनों वाद परस्पद एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधक नहीं हैं। समाज का भौतिक विकास इस प्रकार का चाहिए कि व्यक्ति के पैर आसानी से आगे बढ़ने के लिए उठ सकें । भौतिकता का अविकास भी सर्वसाधारण को पतन की ओर उन्मुख कर सकता है । अभाव को चोट मनुष्य कठिनता से सहन कर पाता है । भौतिकवाद के सम्बन्ध में मेरी यह धारणा है कि वह अध्यात्मवाद से अनुप्राणित हो । भगवान महावीर के संविभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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