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पत्रकार सम्मेलन में :
उपाध्याय श्री अमर मुनिजी
प्रश्न-धर्म क्या है ? व्यक्ति के विकास में उसका क्या महत्व है। क्या व्यक्ति के विकास में सामाजिक धरातल भी आवश्यक है ?
समाधान-धर्भ की परिभाषा एक नहीं, हजारों हैं। किन्तु कोरे शब्द प्रपंच से ऊपर उठकर धर्म को समझने का प्रयत्न किया जाए, तो मैं समझता हूँ, धर्म को परिभाषा यह होगी-"धर्म मानव मन के अन्तर की वह शुद्ध प्रेरणा है, जिससे मनुष्य सन्मार्ग में प्रवृत्त होता है । भय और प्रलोभन के अभाव में अपने अन्तःकरण की स्वतः प्रेरणा से मनुष्य जो शुद्ध प्रवृत्ति करता है, वस्तुतः वही सच्चा धर्म है।" उदाहरण के रूप में समझिए-"आपके सामने चार मनुष्य खड़े हैं, उन चारों से आप यह प्रश्न पूछिए-कि तुम अन्याय, अनीति और अनाचार क्यों नहीं करते हो?" अव आप उनका उत्तर सुनिए
प्रथम-कर तो लूं, परन्तु राज्य दण्ड का भय है । जेल में पड़े रह. कर सड़ना पड़े, पिटना पड़े।
द्वितीय-कर तो लूँ, किन्तु समाज का भय है । समाज के लोग क्या कहेंगे ? मेरा बहिष्कार कर देंगे।
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