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________________ वर्षावास की पूर्णाहुति ७१ कारणवश यदि एकत्रित हो भी जाएं, तो बिना लड़े, बिना झगड़े क्षेत्र से निकलना कठिन है । पर मैं विचार करता हूँ कि हम यहाँ पर आज एक ही श्रमण संघ के होने पर भी भूतपूर्व सम्प्रदाय के न्याय से चार परम्पराओं के सन्त एकत्रित हुए थे । एक-दो रोज नहीं, मास दो मास नहीं, पांच-पांच मास हम आपके जयपुर में रहे हैं। आज के युग की भावना के विपरीत हम सन्तों में कितना प्रेम, कितना स्नेह और कितना सद्भाव रहा है । लघु सन्तों ने महान् सन्तों की सेवा की है, भक्ति की है और महान् सन्तों ने भी लघु सन्तों पर निरन्तर कृपा की वर्षा की है। इतने लम्बे काल में एक भी प्रसंग ऐसा नहीं आया, जब कि किसी अमुक श्रावकजी को समझौता कराने के लिए चौधरी बनने का सौभाग्य मिला हो या किसी प्रकार की शिकायत करने का अवसर मिला हो । संयुक्त वर्षावास की प्रेमपूर्ण परम्परा में जिनको मनोमालिन्य की गन्ध आती हो या फिर मिल-बैठने की सामाजिक भावना से जिनको रस नहीं है-जयपुर का संयुक्त वर्षावास उन लोगों की भावना के विपरीत एक चुनौती है, एक भावनामयी प्रेरणा है । यह कोई नई परम्परा भी नहीं है। यह तो मानवता के स्वर्णिम इतिहास में चिरकाल को सामाजिक और कौटुम्बिक भावना है। मनुष्य के अन्तस की सहिष्णुता और समता को कसौटी है । एक जगह मिल-बैठना सन्तों का सहज स्वभाव है । मैं आप से कह रहा था कि एक जंगल में दो सिंह नहीं रह सकते और एक राज्य में दो राजा राज्य नहीं कर सकते, किन्तु मैं कहता हूँ कि एक नगर में और एक स्थान में अनेकों सन्त रह सकते हैं, यदि वे वस्तुतः सन्त हों, तो ! और यदि सन्त संस्कृति की परम पवित्रता में उन्हें विश्वास हो, तो! ___ भारत के स्नेहिल जन जीवन का एक जीवन सूत्र है-"मधुरेण समापयेत" हर काम के अन्त में मिठास हो, प्रत्येक कार्य की समाप्ति मधुर हो । यही जोवन को सार्थकता और सफलता का रहस्य है। एक राजा की राजसभा में विद्वान आया। राजा ने देखा पर आदर सत्कार कुछ भी नहीं किया। बैठने को आसन तक भी नहीं दिया गया। आगन्तुक विद्वान की वेशभूषा सामान्य थी, आकृति भी सुन्दर और प्रभावक नहीं थी। राजा ने रूक्ष स्वर में पूछा-"कौन हैं, आप ? कहाँ से आए हैं ?" विद्वान् ने अपना एक लघु परिचय दिया और विद्वानों की विचार चर्चा में जुट गया । विवार चर्चा जैसे लम्बी होती गई, तैसे-तैसे आगन्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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