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५४ अमर भारती वन-प्रान्त के एकान्त शान्त कोने में टिक कर जीवन-यापन करना नहीं है । उनकी वाणी में वैराग्य का अर्थ है-मन के दुर्वार विकारों से लड़ना, मानस-स्थित वासना से जूझना । संकटों के समय अडिग रहना और अनुकूलता की सरिता में बह न जाना । आचारांग सूत्र में साधकों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा है-"जाए सद्धाए निक्खंतेतमेव अणुपालेल्जा ।" साधकों ! त्याग-वैराग्य के इस महा-पथ पर तुम अपने मन में जिस श्रद्धा, जिस निष्ठा और जिस दृढ़ता को लेकर चल पड़े हो, जीवन के अस्ताचल पर पहुँचने तक उसका वफादारी से पालन करना।
___ मैं अभी आप लोगों से कह गया है कि महावीर का वैराग्य मनुष्य को अपने कर्तव्यों से विमुख हो भागने की प्रेरणा नहीं देता, वह प्रेरणा देता है-जीवन के क्षेत्र में डटकर अपने दायित्वों को पूरा करने की । जैन धर्म का वैराग्य एक वह वैराग्य है, जिसने फूलों की कोमल शय्या पर सोने वाले शालिभद्र को, सुनहरे महलों में रंगरेली करने वाले धन्ना को और अमित धन वैभव के सुरभित बसन्त में पगे-पोसे जम्बुकुमार को एक ही झकझोर में वैराग्य के हिमगिरि के चरम शिखर की अन्तिम चोटियों पर ला खड़ा किया। यह जागरूक जीवन का जीवट वैराग्य है। यह वैराग्य फूलों की सेजों से जागा, कांटों की राहों पर चला और मानव के अन्तस्तत्व की चरम सत्ता-महत्ता का संस्पर्श कर गया, आखिरी बुलंदी पर जा पहुँचा । जैनधर्म का मूल स्वर ज्ञान गर्भित वैराग्य में झंकृत होता है।
जैनधर्म जीवन के जीते-जागते वैराग्य की बात कहता है। वह उस मृत वैराग्य का संदेश नहीं देता, जिसमें परिवार की, समाज की और राष्ट्र की उपेक्षा भरी हो । घर में माता-पिता रोग की पोड़ा से कराह रहे हों, बाल-बच्चों का हाल-बेहाल हो और पत्नी अभावों की आग में झुलस रही हो, जीवन की इन विषम समस्याओं से आँख मूंद कर आप यदि यह कहें कि यह तो संसार खाता है । संसार अपने स्वार्थों को रोता आया है और रोता ही रहेगा । माता-पिता और भाई-बहिन स्वार्थ के साथी-संगी हैं। बाल-बच्चे अपना भाग्य अपने साथ लाये हैं और नारी तो नरक की खान है मैं इन उलझनों में उलझ कर अपना अमूल्य मानव जन्म क्यों हारूँ ? माता-पिता भाई-बहिन और पुत्र-कलत्र, अनन्त बार मिले हैं-पर, क्या जीबन की साध-सधी हैं ? यह सब प्रपंच हैं । जीवन की छलना है ।
मैं समझता हैं, कि इसी म्रियमाण वैराग्य से भारत की आत्मा का
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