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वर्षावास की विदा ८१ परन्तु आज आपके मनों में निराशा भर गई है । सन्तों का वियोग निराशा का कारण अवश्य है, पर इस निराशा में भी आशा की सुनहली प्रभा छुपी हुई रहती है । आज हम आपके नगर से विदा हो रहे हैं, तो निराशा लेकर नहीं, फिर लौटने की आशा लेकर जा रहे हैं। किसी भी क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जाने वाला सन्त पुनरपि क्षेत्र स्पर्शन की भावना लेकर विदा हो । हम सब सन्त जयपुर के श्रावकों की श्रद्धा व भक्ति लेकर जा रहे हैं । इसका अर्थ यह हआ कि हम फिर भी जयपूर क्षेत्र की स्पर्शना को भावना लेकर जा रहे हैं। यही तो आपको निराशा में भी आशा का दैदीप्यमान प्रदीप । ___अभी आपने भक्त कवि विनयचन्दजी का भक्ति-पूर्ण कविता का अन्तर्नाद श्रद्धेय स्थवर हजारीमलजी महाराज के श्रीमुख से सुना है । साधक के लिये आशा का कितना महान दिव्य सन्देश है इसमें । निराशा के घोर अन्धकार से घिरा हुआ मन भगवान् की दिव्य स्तुति को सुनते ही आध्यात्मिक दिव्य जीवन की आशा के महाप्रकाश में जगमगाने लगता है। वह भक्त कवि सन्त नहीं था, एक श्रद्धाशील श्रावक ही था, पर उसकी वाणी में कितना माधुर्य है ? कितना स्वारस्य है ? कितना आकर्षण है ? भौगोलिक क्षेत्र से भले वह राजस्थान का ही क्यों न हो? परन्तु भावना और विचार के क्षेत्र से उसकी वाणी के अन्तर्नाद का प्रसार गुजरात, मालवा, महाराष्ट्र और पंजाब की सुदूर सीमा में भी जा झंकृत हुआ है। और सर्वत्र भक्त से भगवान होने का शुभ संकेत साधक के लिए एक आशाप्रद दिव्य थाती है।
भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-"श्रमण हो, या श्रावक, जो अन्तर मन से धर्म की साधना करता है, वह वस्तुतः महान् है । संयम, सदाचार और अनुशासन की मंगलमयी भावना में प्रवाहित होने वाला साधक ऊंचा है । भगवान् के धर्म में जाति, कुल और सम्प्रदाय का कोई महत्व नहीं, वहाँ तो साधक की साधना का महत्व है। श्रमण परम्परा में जाति की पूजा नहीं, संयम और सदाचार की पूजा की जाती है। भगवान् महावीर से पूछा गया - भन्ते ! चार वर्ण कौन से हैं ? वहाँ उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये वर्ण नहीं बतलाए, बल्कि स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका-ये ही चारों वर्ण हैं । इनमें कहीं भी क्षुद्रता और महानता का भेद नहीं है । समत्व योग की साधना ही जैन सस्कृति का प्राण तत्व है। मनुष्य का कल्याण जाति, सम्प्रदाय और
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