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६० अमर भारती 'भी' को महत्व देता है, 'ही' को नहीं। क्योंकि 'ही' में संघर्ष है, वादविवाद है । 'भी' में समाधान है. सत्य का सन्धान है. सत्य की जिज्ञासा है।
__मैं आप से कहता था कि जैन दर्शन की संधारणा के अनुसार सत्य सबका एक है, यदि वह अपने आप में वस्तुतः सत्य हो, तो ? विश्व के समस्त दर्शन, समग्र विचार-पद्धतियाँ, जैन दर्शन के नयवाद में विलीन हो जाती हैं । ऋजु सूत्र नय में बौद्ध दर्शन, संग्रह नय में वेदान्त, नैगमनय में न्याय-वैशेषिक, शब्दनय में व्याकरण और व्यवहार नय में चार्वाक-दर्शन अन्तभुक्त हो जाता है। जिस प्रकार रंग-बिरंगे फूलों को एक सूत्र में गूंथने पर एक मनोहर माला तैयार हो जाती है, वैसे हो समस्त दर्शनों के सम्मिलन में से जैन दर्शन प्रकट हो जाता है। सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से विद्वेष नहीं करता। क्योंकि वह सम्पूर्ण नय रूप दर्शनों को वात्सल्य भरी दृष्टि से देखता है, जैसे एक पिता अपने समस्त पुत्रों को स्नेहमय दृष्टि से देखता है । इसी भावना को लेकर अध्यात्मवादी सन्त आनन्दघन जी ने कहा है
"षड् दरसण जिन अंग भणीजे,
न्याय षडंग जो साधे रे। 'नमि' जिनवरना चरण उपासक,
षड् दर्शन आराधे रे॥" अध्यात्म योगी सन्त आनन्द घन ने अपने युग के उन लोगों को करारी फटकार बताई है, जो गच्छवाद का पोषण करते थे, पन्थशाही को प्रेरणा देते थे और मतभेद के कटु बीज बोते थे। फिर भी जो अपने आपको सन्त और साधक कहने में अमित-गर्व का अनुभव करते थे। 'ही' के सिद्धान्त में विश्वास रखकर भी जो 'भी' के सिद्धान्त का सुन्दर उपदेश झाड़ते थे । आनन्दघन जी ने स्पष्ट भाषा में कहा
"गच्छना भेद बहु नयणे निहालतां,
तत्व नी बात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करतां थकां,
मोह नडीआ कलिकाल राजे ॥" मैं आप से कह रहा था, कि जब तक जीवन में अनेकान्त का बसन्त
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