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________________ अनेकान्त दृष्टि ६१ नहीं आता, तब तक जीवन हरा-भरा नहीं हो सकता। उसमें समता के पूष्प नहीं खिल सकते । समभाव, सर्वधर्म, समता, समन्वय, स्याद्वाद और अनेकान्त केवल वाणी में ही नहीं, बल्कि जीवन के उपवन में उतरना चाहिए । तभी धर्म की आराधना और सत्य की साधना को जा सकती है। अभी तक मैं समन्वयवाद की, स्याद्वाद की और अनेकान्त दृष्टि की शास्त्रीय व्याख्या कर रहा था । परन्तु अब अनेकान्त दृष्टि की व्यावहारिक व्याख्या भी करनी होगी। क्योंकि अनेकान्त या स्याद्वाद केवल सिद्धान्त ही नहीं, बल्कि जीवन के क्षेत्र में एक मधुर प्रयोग भी है । विचार और व्यवहार जीवन के दोनों क्षेत्रों में इस सिद्धान्त की समान रूप से प्रतिष्ठापना है। स्याद्वाद या अनेकान्त क्या है ? इस प्रश्न का व्यावहारिक समाधान भी करना ही होगा और आचार्यों ने वैसा प्रयत्न किया भी है। शिष्य ने आचार्य से पूछा-"भगवन्, जिन वाणी का सार भूत तत्व यह अनेकान्त और स्याद्वाद क्या है ? इसका मानव जीवन में क्या उपयोग है ? शिष्य की जिज्ञासा ने आचार्य के शान्त मानस में एक हल्का-सा कम्पन पैदा कर दिया। परन्तु कुछ क्षणों तक आचार्य इसलिए मौन बने रहे कि उस महासिद्धान्त को इस लघुमति शिष्य के मन में कैसे उतारू ? आखिर, आचार्यों ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से स्थूल जगत के माध्यम से स्याद्वाद की व्याख्या प्रारम्भ की । आचार्य ने अपना एक हाथ खड़ा किया और कनिष्ठा तथा अनामिका अंगुलियों को शिष्य के सम्मुख करते हुए आचार्य ने पूछाबोलो, दोनों में छोटी कौन और बड़ी कौन ? शिष्य ने तपाक से कहा अनामिका बड़ी है और कनिष्ठा छोटी । आचार्य ने अपनी कनिष्ठा अंगुली समेट ली और मध्यमा को प्रसारित करके शिष्य से पूछा-"बोलो, तो अब कौन छोटी और कौन बड़ी? शिष्य ने सहज भाव से कहा-अब अनामिका छोटी है और मध्यमा बड़ी । आचार्य ने मुस्कान के साथ कहावत्स, यही तो स्याद्वाद है । अपेक्षा भेद से जैसे एक ही अंगुली कभी बड़ी और कभी छोटी हो सकती है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक एक ही वस्तु में कभी किसी एक धर्म की मुख्यता रहती है, कभी उसकी गोणता हो जाती है । जैसे आत्मा को ही लो! यह नित्य भी है और अनित्य भी। द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । व्यवहार में यह जो अपेक्षावाद है, वही वस्तुतः स्याद्वाद और अनेकान्तवाद है। वस्तु तत्व को समझने का एक दृष्टिकोण विशेष है। विचार प्रकाशन की एक शैली है, विचार प्रकटीकरण की एक पद्धति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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