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________________ १२ अमर भारती समन्वयवाद, स्याद्वाद और अनेकान्त दृष्टि के मूल बीज आगमों में, वीतराग वाणी में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। परन्तु स्याद्वाद के विशद और व्यवस्थित व्याख्याकारों में सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक देव, यशोविजय और माणक्यनन्दि मुख्य है, जिन्होंने स्याद्वाद को विराट रूप दिया, महासिद्धान्त बना दिया। उसकी मूल भावना को अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। उसकी युग-स्पर्शी व्याख्या कर के उसे मानव जीवन का उपयोगी सिद्धान्त बना दिया । ___ स्याद्वाद के समर्थ व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष जब विरोध पक्ष की ओर से यह प्रश्न आया-"एक ही वस्तु में एक साथ, उत्पत्ति, क्षति और स्थिति. कैसे घटित हो सकती है ? तब समन्वयवादी आचार्यों ने एक स्वर में, एक भावना में यों कहा, यह समाधान किया तीन मित्र बाजार में गए। एक सोने का कलश लेने, दूसरा सोने का ताज लेने और तीसरा खालिस सोना लेने । देखा, उन तीनों साथियों ने एक सुनार अपनी दूकान पर बैठा सोने के कलश को तोड़ रहा है । पूछा-इसे क्यों तोड़ रहे हो? जबाब मिला-इसका ताज बनाना है। एक ही स्वर्ण वस्तु में कलशार्थी ने क्षति देखी, ताजार्थी ने उत्पत्ति देखी और शुद्ध स्वार्थी ने स्थिति देखी । प्रत्येक वस्तु में प्रतिपल उत्पत्ति, क्षति और स्थिति चलती रहती है। पर्याय की अपेक्षा से उत्पत्ति और क्षति तथा द्रव्य की अपेक्षा से स्थिति बनी रहती है । इस प्रकार एक ही वस्तु में तीनों धर्म रह सकते हैं, उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है । स्याद्वाद वस्तुगत अनेक धर्मों में समन्वय साधता है, संगति करता है। विरोधों का अपेक्षा भेद से समाधान करता है। स्याद्वादी आचार्यों का कथन है, कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है। एक वस्तु में अनेक धर्म हैं, अनन्त धर्म हैं। किसी भी वस्तु का परिबोध करने में नय और प्रमाण की अपेक्षा रहती है। वस्तुगत किसी एक धर्म का परिबोध नय से होता है और वस्तुगत अनेक धर्मों का एक साथ परिबोध करना हो, तो प्रमाण से होता है। किसी भी वस्तु का परिज्ञान नय और प्रमाण के बिना नहीं हो सकता । स्याद्वाद को समझने के लिए नय और प्रमाण के स्वरूप को समझना भी आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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